बददुआ
“परम! अभी कुछ हुआ या वैसे के वैसे ही हैं,” बेटे ने विदेश से फोन पर परम से अपने पिता के स्वास्थ्य की जानकारी ली तो परम ने बताया, “सर, अभी तो वैसी ही हालत है जैसी आप छोड़ कर गए थे, अभी तो किसी तरह का सुधार नजर नहीं आता।” पिता नरेश गाँव में अकेले थे।
एक बेटा शांतनु विदेश चला गया और दूसरे बेटे राजन को गाँव में अपने पास ही रख लिया। पढ़ने में राजन भी होशियार था लेकिन नरेश ने उसको ज्यादा पढ़ने नहीं दिया , यह सोच कर कि कहीं पढ़ लिख कर यह भी बाहर ना चला जाए।
नरेश बड़ा खुश था एवं सोचता था शायद वह संसार का सबसे सुखी आदमी है, हालांकि पत्नी बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी लेकिन राजन और उसकी पत्नी ने नरेश की सेवा में कोई भी कमी नहीं रहने दी।
शांतनु पढ़ लिख कर विदेश चला गया, शादी के बाद अपनी पत्नी को भी विदेश ले गया, कुछ सालों बाद दोनों पति पत्नी विदेश में ही बस गए, कभी कभी गाँव आते तो नरेश बहुत खुश होता।
शायद नियति को यह मंजूर नहीं था और देखते देखते नरेश का छोटा बेटा राजन सब को रोता बिलखता छोड़ कर वहाँ चला गया जहां से कभी कोई वापस नहीं आता।
असमय हुई इस दुखद दुर्घटना ने नरेश को तोड़ कर रख दिया, नब्बे साल की उम्र में इतना बड़ा सदमा नरेश सहन नहीं कर सका और उसका ब्रेन हेमरेज हो गया।
पिता की देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी अब शांतनु पर आ गयी, खबर सुनते ही शांतनु विदेश से अस्पताल पहुंचा जहां पर उसके पिता नरेश ICU में दाखिल थे।
कुछ दिन इलाज़ के बाद डॉक्टर ने नरेश को घर ले जाने की सलाह दी, कुछ दवाइयाँ दे दीं और बता दिया कि अगर आराम आएगा तो इन्ही दवाइयों से आएगा, नियमित इनको ये दवाइयाँ दी जानी चाहिए।
नरेश ना तो कुछ खा सकता था और न ही कुछ बोल सकता था, उठ भी नहीं सकता था, चलना फिरना तो बड़ी दूर की बात थी। शांतनु कुछ दिन साथ रहकर वापस चला गया, जाने से पहले परम एवं दो और लोगों को पिताजी की ठीक से देखभाल करने के लिए छोड़ गया।
शांतनु बीच बीच में परम से फोन पर जानकारी ले लिया करता था और सोचता था अब तो पिताजी का ठीक हो पाना मुश्किल ही है, शायद हमारे घर को रितेश की बददुआ लग गयी है।
रितेश रिश्ते में तो नरेश का भांजा ही लगता था लेकिन वह नरेश की सगी बहन कामिनी का बेटा नहीं था। रितेश तो नरेश के बहनोई धीरज व उसकी दूसरी पत्नी वृंदा का बेटा था। वास्तव में वृंदा धीरज के बड़े भाई की पत्नी थी, अपने बड़े भाई की असमय मृत्यु के कारण धीरज ने अपनी भाभी वृंदा को पूरे समाज के सामने पूरे रीति रिवाज से अपनी पत्नी स्वीकार कर लिया था जिसका धीरज की पत्नी और उसले साले नरेश ने भरपूर विरोध किया था।
हालांकि रितेश अपने सगे मामा से भी ज्यादा नरेश का प्यार और मान सम्मान करता था, बस उसका दोष यही था कि उसकी माँ वृंदा, नरेश की बहन कामिनी की सौतन थी, सौतन भी क्या, वृंदा के पति और धीरज के बड़े भाई की बीमारी से मृत्यु हो गयी परंतु धीरज ने कामिनी के होते हुए अपने बड़े भाई की पत्नी वृंदा से भी शादी इसलिए कर ली थी जिससे पूरी जायदाद उनके घर में ही रहे।
कामिनी अपने बड़े भाई नरेश से जितना प्यार करती थी, बृंदा उससे कहीं ज्यादा नरेश को अपने सगे भाई से भी ज्यादा चाहती थी। कामिनी के दो बेटे थे व वृंदा का एक ही बेटा रितेश था। वृंदा का जीवन वास्तव में वृंदा जैसा ही रहा, उसको कभी भी वह मान सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार थी जबकि आधी जायदाद उसके पति की ही थी।
वृंदा के गुजर जाने के बाद धीरज बीमार रहने लगा, रितेश ने उस समय अपने पिता की बहुत सेवा की, लेकिन नरेश ने बीमार धीरज पर ज़ोर डाल कर पूरी जायदाद की वसीयत अपनी बहन कामिनी के नाम करवा दी और धीरज की मृत्यु के बाद जायदाद कामिनी के नाम चढ़ गयी। नरेश ने तो यह काम अपनी सगी बहन को खुश करने के लिए किया लेकिन वह सोच भी ना सका कि उसने कितना बड़ा अन्याय कर दिया। कामिनी की मृत्यु के बाद पूरी जायदाद उसके दोनों बेटों को आधी आधी मिल गई और रितेश जायदाद से बेदखल हो गया।
रितेश को इस बात का पता चला तो उसे बड़ा दुख हुआ और उसके उस दुखी मन से उन सबके लिए जो बददुआ निकली उससे वे सब जो भी इस षड्यंत्र में शामिल थे एक एक करके बड़ी ही कष्टदाई मौत मरने लगे। शांतनु यह सब सोचता ही रहता था कि .......
एक दिन परम का फोन आ गया और कहने लगा, “भैया जी! आप तुरंत आ जाइए, सारे संस्कार तो आप ही को करने हैं।” चार लोग जिन्होने मिल कर रितेश के विरुद्ध षडयंत्र रचा और रितेश को जायदाद से बेदखल करवाया आज उनमे से तीसरे की भी मृत्यु हो गयी जबकि चौथा व्यक्ति भी एक भयंकर कार दुर्घटना में बाल बाल बचा और पता नहीं कब तक बचेगा। जब शांतनु ने इन सब बातों पर विचार किया तो उसका शक यकीन में बदल गया।
“मैंने कितना समझाया था पिताजी को, लेकिन न तो छोटे भाई ने मेरी बात सुनी और न ही पिताजी ने’’ रितेश को बेदखल करवाने के लिए जिसने गवाही दी थी उसकी अचानक ही मृत्यु हो गयी, सबने यही सोचा कि शायद हृदयघात से मृत्यु हो गयी होगी, उसके बाद राजन की भी बड़ी ही दर्दनाक मृत्यु हुई और अब पिताजी जो छह महीने से नर्क की यातनाएं झेल रहे थे, आज उनकी मृत्यु होने पर सबके मन मे एक ही विचार आया कि चलो नरेश को कष्टों से मुक्ति मिल गयी। परंतु शांतनु की सोच सबसे अलग थी, कि कष्टों से तो मुक्ति मिल गयी लेकिन उस पाप से मुक्ति मिलेगी या नहीं जो इनहोने रितेश के साथ अन्याय करके किया है।
शांतनु सोचने लगा, “मेरे पिता सदा मेरे आदर्श रहे, मुझे सदैव उनके फैसलों पर गर्व रहा लेकिन पता नहीं कब और कैसे पिताजी इतना बदल गए कि एक ऐसे व्यक्ति के साथ अन्याय कर बैठे जिसने सदा ही मेरे पिताजी को सम्मान व प्यार दिया।” मेरे पिताजी और बाकी सब के षडयंत्र का रितेश को जब पता चला तो रितेश को जायदाद से बेदखल होने का उतना दुख नहीं हुआ जितना दुख उसको उन सब के द्वारा रचे गए षडयंत्र और विश्वासघात का हुआ, दुखी मन से रितेश के मुंह से एक ही बात निकली, “हे भगवान! मैंने तो आज तक किसी का बुरा नहीं किया फिर भी इन लोगों ने मेरे अपने बन कर मेरे साथ धोखा किया, भगवान इनको इसकी सजा जरूर देना।” उसकी वही बददुआ उन सब के समक्ष साक्षात आकर खड़ी हो गयी और एक एक करके उनको उनके पापों का दंड देने लगी।
सभी क्रिया कर्म विधि विधान से पूरे हुए, मंत्र जाप, यज्ञ हवन और प्रार्थना सभी करवाई, रस्म पगड़ी पर सभी एकत्रित लोगों ने दो मिनट का मौन उनकी आत्मा की शांति के लिए रखा लेकिन शांतनु जानता था कि जब तक रितेश मेरे पिता को क्षमा नहीं करेगा तब तक उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।
पिताजी की तेरहवीं के बाद शांतनु सीधा रितेश के घर गया, साथ में अपनी बुआ के दोनों बेटों को भी ले गया। शांतनु के समझाने पर उसकी बुआ कामिनी के दोनों बेटों ने रितेश को उसके हिस्से की पूरी जायदाद लौटा दी यानि कि जायदाद के दो के बजाय तीन हिस्से कर दिये और रितेश को उसका हिस्सा दे दिया।
शांतनु बोला, “रितेश भाई! मैं तुम्हारे उस दुख को तो कम नहीं कर सकता जो तुमने अब तक झेला है और न ही मैं उस बददुआ को मिटा सकता, लेकिन हाँ! तुमसे हाथ जोड़कर विनती जरूर कर सकता हूँ कि मेरे पिता व भाई को क्षमा कर दो जिससे उनकी आत्माओं को तो शांति मिल सके, उन दोनों ने अपने किए का फल भोग लिया अब तुम बस एक बार बोल दो कि तुमने उन दोनों को माफ किया।”
शांतनु के समझाने पर रितेश ने बस इतना ही कहा, “हे भगवान! मेरे मामा नरेश और मेरे भाई राजन को मैं माफ करता हूँ, उनकी आत्मा को शांति प्रदान करना।” शांतनु को लगा जैसे एक बहुत बड़ा बोझ उसके सिर से उतर गया और वह शांत मन से अपने पिता व भाई की आत्माओं की पूर्ण शांति का प्रयास करके वापस विदेश चला गया।