सरोज का बेटा
मंत्रालय में सहायक की नौकरी मिली तो राजेश गाँव छोड़ कर दिल्ली आ गया। कुछ दिन किराए के एक कमरे में रहने के बाद उसे काली बाड़ी में सरकारी क्वार्टर मिल गया। सरकारी घर मिलते ही राजेश गाँव से माँ को ले आया, कहा तो उसने पिताजी से भी था लेकिन पिताजी ने मना कर दिया, उन्हे तो गाँव का जीवन ही पसंद था और फिर घर परिवार को छोड़ कर अकेले सरकारी घर में रहना उनके बस की बात नहीं थी, और फिर गाँव में प्रतिदिन कोई न कोई राजेश के रिश्ते के लिए भी आ जाता था, उनसे बात करना, उनका आदर सत्कार करना भी तो जरूरी था अतः पिताजी ने गाँव में ही रहने का निर्णय लिया।
सरोज एक संस्कारी परिवार की संस्कारित, सुंदर, सुशील व स्नातक तक पढ़ी हुई लड़की थी, पिताजी को रिश्ता अच्छा लगा और उन्होने हाँ कर दी व राजेश को पत्र लिख दिया, “बेटा! तुम्हारा रिश्ता पक्का कर दिया है, लड़की वाले बसंत पंचमी वाले दिन अपनाने आ रहे हैं, तुम अपनी माँ को लेकर दो दिन पहले ही गाँव आ जाना।”
“माँ! पिताजी ने मुझसे पूछे बिना ही मेरा रिश्ता तय कर दिया, ना मैंने लड़की देखी और ना ही मैं उसके बारे में कुछ जानता हूँ, पक्का करने से पहले कम से कम एक बार मेरे से पूछ तो लिया होता।” राजेश ने शिकायत के लहजे में माँ से कहा तो माँ बोली, “बेटा, अगर तेरे पिताजी ने रिश्ता तय किया है तो सोच समझ कर ही किया होगा, सब कुछ ठीक ही होगा तू उन पर विश्वास रख और अब गाँव चलने की तैयारी कर ले, कल ही हम लोग गाँव के लिए निकल लेंगे।”
राजेश और सरोज कुछ दिन बाद विवाह बंधन में बंध गए, थोड़े दिन गाँव में रहकर राजेश सरोज को अपने साथ दिल्ली ले आया, इस बार माँ उनके साथ नहीं आई।
एक वर्ष बाद सरोज ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया जिसका नाम दोनों ने राजू रखा। इस बार तो पोते के होने की खुशी में पिताजी भी राजेश के सरकारी घर में आए, जच्चा-बच्चा की देखभाल करने के लिए माँ तो पहले ही दिल्ली आ गयी थी। पूरा परिवार राजेश के यहाँ लड़का होने की खुशी में बहुत खुश था, अतः कुआं पूजन का कार्यक्रम गाँव में ही रखा और सभी रिश्ते, नातेदारों को बुलावा भिजवा दिया।
कुआं पूजन के बाद राजेश सरोज और राजू को लेकर दिल्ली आ गया। सभी तरह की सुख सुविधाओं का प्रबंध करने के साथ साथ हर तरह के खेल खिलौनों से घर भर दिया। राजू का लालन पालन दोनों ही बड़े लाड़ प्यार में कर रहे थे लेकिन छोटा बच्चा यह सब क्या जाने।
राजू कुछ बड़ा हुआ तो स्कूल जाने लगा, सुबह राजेश राजू को स्कूल बस में चढ़ाकर आता और दोपहर में सरोज बस के समय से पहले ही जाकर खड़ी हो जाती और राजू को अपने साथ लेकर आती, उसके साथ ही खाना खाती, थोड़ी देर माँ बेटे बातें करते फिर सो जाते। शाम को राजू अपना होम वर्क पूरा करता फिर घर के सामने खाली पड़ी जगह में कॉलोनी के हमउम्र बच्चों के साथ कोई भी खेल खेलता जैसे कभी क्रिकेट, कभी बैड मिंटन, कबड्डी या पिट्ठू।
राजू पढ़ने में हमेशा प्रथम रहता था, हमेशा प्रथम स्थान पाकर ही स्नातक तक परीक्षा पास की। आगे राजू ने कानून की पढ़ाई की और वकील बन गया।
बेटे ने जो चाहा सरोज और राजेश ने वही सुविधा उसको दी और राजू को भी अपने माता पिता पर गर्व था। राजू नया वकील था इसलिए वह बड़े वकीलों के साथ रहकर ही सीखने की कोशिश कर रहा था, साथ ही वह गरीब व असहाय लोगों के लिए मुफ्त में वकालत करता था, धीरे धीरे राजू के पास गरीब व असहाय लोगों के सैंकड़ों मुकदमे आ गए। राजू का कोई भी दिन ऐसा नहीं होता जब वह न्यायालय में तीन चार मुकदमों की पैरवी करता हुआ ना गुजरता हो। राजू के इस काम में उसकी इज्जत भी बढ्ने लगी और प्रचार भी हो रहा था लेकिन इतने मुकदमे लड़ने के बाद भी उसकी जेब खाली ही रहती थी बल्कि अपनी जेब से भी पैसा लगा देता था।
अपने जेब खर्च के लिए भी हमेशा माँ से पैसा मांगता, सरोज भी क्या करती, बेटे के प्यार में मना नहीं कर पाती।
मकान मालिक के सताये किराएदार, रेहड़ी, पटरी वाले या कोई भी फैक्टरी मालिक का शिकार मजदूर हो या किसान, सभी गरीबों का केस मुफ्त में लड़ता और प्रत्येक केस जीतता। उसकी बढ़ती लोकप्रियता से सभी बड़े बड़े वकील घबराने लगे। एक गैर सरकारी संस्था ने उसको अपनी संस्था की तरफ से वही सब करने का सुझाव दिया और राजू मान भी गया, एक बड़ा सा कार्यालय बना जिस पर उसके नाम की पट्टिका लगी, "राजेश्वर प्रसाद सरोज"
पूरे नगर में राजू भैया के नाम से प्रसिद्ध राजेश्वर प्रसाद सरोज का एक दिन एक न्यूज़ चैनल ने साक्षात्कार लिया तो पहला सवाल इतने बड़े नाम को लेकर पूछा जिसका राजू ने कुछ इस तरह जवाब दिया, "राजेश मेरे पिताजी, प्रसाद मेरे दादाजी और सरोज मेरी माँ है।" मैं सरोज का बेटा हूँ और इन सब का भैया राजू भैया।
सभी गरीब लोग राजू को अपने छोटे बड़े सभी कार्यक्रमों में शामिल करने लगे, राजू सभी के यहाँ सहर्ष जाता था। एक शादी समारोह में राजू नरेला गया, लड़की वाला गरीब आदमी, जनता फ्लॅट में रहता था, परंतु लड़के वाले उससे होंडा सिटी कार की मांग कर रहे थे और इस पर ही बात बिगड़ गयी, लड़की का बाप काफी गिड्गिड़ाया, अपनी पगड़ी लड़के के बाप के पैरों में रख दी लेकिन वह पगड़ी को पैर मार कर बारात वापस ले गया।
राजू ने लड़की के पिता को उठाया और शांत रहने को कहा, लेकिन लड़की का पिता कहने लगा, “मैंने अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर यह प्रबंध किया लेकिन बेटी फिर भी घर पर ही रह गयी, मकान भी गिरवी रख दिया था, अब न तो मकान रहेगा और न ही हम, मैं तो बर्बाद हो गया, अब कौन करेगा मेरी बेटी से शादी?”
उस भावुकता के क्षण में राजू बह गया और उसने उस गरीब की बेटी सरिता से उसी क्षण शादी कर ली, बहू को लेकर वह घर आया तो माँ बाप हतप्रभ रह गए, लेकिन बात पूरे शहर में जंगल की आग की तरह फैल गयी, सभी न्यूज़ चैनल्स का राजू के घर पर जमावड़ा हो गया। राजू रातों रात पूरे मीडिया पर छा गया, पूरा दिन प्रत्येक चैनल पर राजेश्वर प्रसाद सरोज की कहानी दिखाई जाती रही।
राजू की लोकप्रियता को देखते हुए एक राष्ट्रीय पार्टी ने उसको चुनाव लड़ने का आग्रह किया, राजू ने बाहरी दिल्ली से चुनाव लड़ा और सबकी जमानत जब्त करते हुए जीत हासिल की। पार्टी की सरकार बनी और उस सरकार का कानून मंत्री बना ‘राजेश्वर प्रसाद सरोज।’
न्यूज़ चैनल ने माँ से जब प्रश्न किया कि आपकी कैसा लग रहा है तो वह बोली, “यह तो होना ही था क्योंकि यह सरोज का बेटा है।”