Supari Denevala Sahityakar Girish Pankaj द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Supari Denevala Sahityakar

'सुपारी' देनेवाले साहित्यकार

दो शब्द

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मुझे बेहद खुशी हो रही है कि मेरी चुनिंदा व्यंग्य रचनाएँ अब ई -बुक के माध्यम से पाठको तक पहुंचेंगी।

यह ज़रूरी भी था. आज जब दुनिया धीरे-धीरे नेट फ्रेंडली हो रही है, तब नेट की दुनिया से जुड़े लोगो तक भी रचनाएँ पहुंचने चाहिए। इस दिशा में यह जो पहल अहमदाबाद की कंपनी ने शुरू की है, उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए, कम है. मेरे अनुज, सक्रिय पत्रकार-लेखक श्री अनमीशरण बबल के माध्यम से मैं इस नयी परियोजना का हिस्सा बन रहा हूँ। ये मेरे लिए गर्व की बात है.

मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरी व्यंग्य रचनाएँ लोग पसंद करेंगे। तभी मेरा लिखना भी सार्थक होगा।

व्यंग्य समकालीन समाज में एक महत्वपूर्ण विधा है. जिन विसंगतियों की तरफ कोई इशारा नहीं करता, उनकी तरफ व्यंग्य उठाता है. वह भी इसलिए कि यह दुनिया बेहतर बन सके. व्यंग्य का अर्थ गरियाना या निंदा करना नहीं है.

ये रचनाएँ आप तक पहुंचेंगी और और आपकी प्रतिक्रियाएं भी मिलेंगी,

इसी विशवास के साथ

गिरीश पंकज

कृष्ण कुटीर, सेक्टर-३,

एचआईजी-२, मकान नंबर-२,

दीनदयाल उपाध्याय नगर,

रायपुर-492010

गिरीश पंकज हिंदी के उन श्रेष्ठ व्यंग्यकारों में एक हैं जिन्होंने अपनी रचनात्मकता से हिंदी साहित्य में अपनी खास पहचान बनाई है. हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जैसे महान व्यंग्यकारों की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले व्यंग्यकारों में प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुर्वेदी, सुभाषचंदर आदि नामों के साथ गिरीश पंकज भी एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आते हैं. उन्होंने अपने व्यंग्य-शिल्प की मौलिकता का पूरा ध्यान रखा है.उन पर किसी की छाप नहीं है, यह उल्लेखनीय है. वार्ना इन दिनों अनेक व्यंग्यकारों में परसाई या जोशी की नकल साफ नज़र आती है.. गिरीश पंकज व्यंग्य की परम्परा को अपने तेवर के साथ आगे ले जाने का काम कर रहे हैं. उनकी रचनाओ को पढ़ते हुए हम समय के मिज़ाज़ को समझ सकते हैं, व्यंग्य साहित्य लोकमंगल के लिए रचा जाता है. गिरीश पंकज अपने व्यंग्यो के माध्यम से बेहतर दुनिया की तलाश करते हैं। व्यंग्य का गुणधर्म भी यही है. व्यंग्य-साहित्य की तीसरी पीढ़ी में सर्वाधिक सक्रिय गिरीश पंकज के सात उपन्यास और चौदह व्यंग्य संग्रह इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने अपनी रचनाओ के माध्यम से निरंतर वैचारिक लड़ाई लड़ी. उन्होंने सामाजिक विसंगतियों को बारीकी से देखा-परखा और चुटीली भाषा में लिख कर प्रतिवाद किया । व्यंग्य का अपना एक मानक है.इस पर पंकज जी की रचनाएँ सटीक बैठती है. वे किसी की निंदा नहीं करते, वरन मानवीय-प्रवृत्ति पर ही प्रहार करते हैं। उनकी यह ई पुस्तक ''पंगा मत ले'' उनकी पंद्रह व्यंग्य रचनाओं की एक बानगी है, जिसे देख कर पाठक उनके समग्र लेखन की ओर आकर्षित होंगे. इनकी इस पुस्तक का भी खुले दिल से स्वागत होगा, और व्यंग्य साहित्य में रूचि रखने वाले साथियों को नए आस्वादन की अनुभूति भी होगी, ऐसा विश्वास है.

अनामी शरण बबल

'सुपारी' देनेवाले साहित्यकार

हमारे शहर में ऐसे-ऐसे साहित्यकार पाये जाते हैं, जो बेचारे आज तक यह बताने के लिए अभिशप्त हैं कि ''हमहूँ साहित्यकार हैं मगर कौनो ससुरा हमारी तरफ ध्यान ही नहीं देता. का करें पांड़े। हम सबको निबटा देंगे एक दिन.''.

उस दिन एक चौराहे पर खड़ा साहित्यकार बड़बड़ा रहा था, तो मैं सोच रहा था, सचमुच ही तुम महान हो. महान ही नहीं ''बड़े महान'' हो. आपके श्याम-चरण किधर हैं प्रभो? वंदन कर लूँ उनका। लेकिन ऐसे लोगो को सीधे-सीधे कुछ कहना मतलब 'आ बैल मुझे मार' वाली बात हो जाती है इसलिए दुसरे तरीके से लपेटना पड़ता है. सो, मैंने कहा -

''आप बड़े महान हैं, मगर चौराहे पर खड़े होकर क्यों चीख रहे हैं ? घर बैठें और साहित्य साधना करे. महान लोग ऐसा नहीं करते. ये काम तो छिछोरों का है.''

साहित्यकारजी इधर-उधर देख कर हँसे और बोले- ''हम साधना -फादना नहीं करते भाई? यह काम साधु-संतो का है. हम तो मौज-मस्ती के लिए लेखन करते है, दुनिया के सकल-करम करते है . मनुष्य है न हम, लेकिन लिखते तो है, मगर ससुरी ये दुनिया हमें साहित्यकार ही नहीं मानती? देखो न, शहर में बड़का-बड़का साहित्यिक आयोजन होता रहता है, मगर आयोजक हमें सूचित ही नहीं करते. ई का बात हुयी? इनकी तो...ईंट से ईंट बजा दूँगा।''

मैंने हँसते हुए कहा- ''अभी तो आपकी बजी हुयी है. यहां खड़े हो कर चीख रहे हैं कि मैं साहित्यकार हूँ.... साहित्यकार हूँ. सच्चा साहित्यकार इस बात की परवाह नहीं करता कि कोई उसे बुलाता है या नही. यह काम जोड़-तोड़ में लगे 'महाप्रभु'… बोले, तो चिरकुट किस्म के लोग करते हैं . साहित्यकार केवल लिखता है. फल की चिंता नहीं करता. इतना तो आप जानते ही हैं. ''

''लेकिन हमारा फंडा कुछ अलग है भाई. हम तो पहले फल की चिंता करते है. लिखें चाहे न लिखें, उसका फल पहले मिल जाए. आपको पता होना चाहिए कि हम लिखते बाद में हैं, सम्मान पहले झोंक लेते हैं। हा हा हा।'' साहित्यकार ने गर्व से यह बात कही और अपनीने मोबाइल मोबाइल को देखने लगे. देखने क्या लगे, दिखने लगे कि ''देखो, तीस हजार का है. अब बताओ, इतने महंगे साहित्यकार को लोग भाव नहीं देते.''

''इतना महंगा मोबाइल? आप तो काफी पैसे वाले लगते हैं?''

मेरी बात सुनकर चिरकुटजी हँस पड़े और बोले, ''अरे ऐसा कुछ नहीं,. वो का हुआ कि हमारी एक पुस्तक के लिए सरकार से हमने एक अनुदान झटक लिया था. भैयाजी से सेटिंग है पुरानी, पचास हजार मिल गए थे. बीस हजार में किताब छपवा ली, बचे तीस हजार तो लिया. हा हा हा, सरकार को चूना लगा के. और मज़े की बात, बाद में सरकारी खरीद में भी किताब सप्लाई करवा के एक लाख कमाने का इरादा है. बताओ, इतने ज्ञानी और चालाक साहित्यकार को लोग भाव नहीं देते। ई साहित्य का कुछ नहीं हो सकता पार्टनर.''

मैंने कहा- ''साहित्य को छोड़िए, आपका भला हो रहा है न, यही महत्वपूर्ण है.लोग अपनी-अपनी खिचड़ी पकाते रहते हैं. ''

मैंने उन्हें समझाया, ''साहित्य की दुनिया में गुटबाज़ी बहुत है. ये बताओ, आपका कोई गुट है?''

वे चहक कर बोले, ''गुट तो नहीं जानता, मैं अखंड गोटीबाज़ हूँ, इतना जानता हूँ।''

मैंने कहा, ''जो गुट चलाते हैं, वे गोटीबाज़ी भी करते हैं। आपका कोई संगठन होगा? जैसे प्रलेस, जलेस?''

वे खुश हो कर बताने लगे, ''मेरा एक संगठन है, 'गलेस'. बहुत पहले बनाया था. लेकिन सब साले छोड़ कर भाग गए. अब केवल अकेला मैं ही बचा हूँ। मैं ही अध्यक्ष हूँ, मैं ही सचिव और मै ही सदस्य।''

मैंने पूछा, ''ये 'गलेस' क्या बला है?''

वे बोले, ''बला नही, तबला है. प्रगतिशील लेखक संघ का संक्षिप्त रूप है 'प्रलेस', जनवादी लेखक संघ है 'जलेस' और हमारा संगठन है,'गलित लेखक संघ' यानी 'गलेस'.

''गलित लेखक संघ? ये कैसा संगठन?'' मैंने पूछा.

मेरे प्रश्न पर साहित्यकार हंसने लगे, जेब से गुटखा निकाल कर उसे शान से मुखस्थ किया और बोले , ''गलित मतलब सारे घटिया कार्य करने वाला आदमी. लड़कीबाज़ी वो

करे, शराब वो पीये, रिश्वतखोरी वो करे, दूसरे की टांग वो खींचे, मौका पड़े तो किसी की सुपारी भी दे दे. मतलब बड़ा माफिया-अपराधी। इसे ही तो कहते हैं गलित. नया शब्द है, हमने गढ़ा है समझ लो. इतना सब कुछ होने के बावजूद अगर कोई लेखन करता है तो हमारी संस्था में उसका स्वागत है. वैसे हम सीधे-सीधे नहीं कहते कि हम गलित हैं इसलिए हमने संस्था का प्यारा-सा नाम रख लिया है, 'माँ वीणापाणी साहित्य समिति' . हम देख लेते है कि सामने वाला हमारी बिरादरी में शामिल होने योग्य है या नहीं? मतबल हमारी तरह की खतरनाक योग्यता उसके पास है या नही. अगर है तो स्वागत है उसका, मगर आजकल ऐसी प्रतिभाओं की कमी है लोग हैं, मगर सामने नहीं आते. इसलिए मैं अकेले ही 'गलेस' को चला रहा हूँ और लोग हैं कि मुझे बुलाते नहीं? हमें बुझवे नहीं करते ''

मैंने मन-ही-मन कहा- ''तुम्हारे जैसे लोगो को बुला कर कोई अपना सत्यानाश करायेगा क्या ?''

प्रकट में मैंने कहा-'आप जैसे लोग तो दुर्लभ जीव है. लगे रहिये, साहित्य सेवा मे. एक दिन लोग नोटिस लेंगे और बुलाएँगे आपको'' '

वे बोले- ''बुलाना ही पड़ेगा, उनको नहीं तो उनके बाप को. देखा, कैसी कविता बनी,'आपको'... फिर 'बाप को'. वाह.''

मैंने कहा, ''इसके आगे लिखा जा सकता है, बंद करो इस पाप को.''

वे बोले-''लगता है तुम भी कवि हो?''

मैंने कहा-''कोशिश कर रहा हूँ, आपके जैसा महान कवि नहीं बन सका हूँ।''

साहित्यकार जी बोले- '' कोई बात नहीं बन जाओगे. लो, मेरी कविता सुनो।

'कविता मेरे लिए खाने का सामान है।

जब चाहे कविता बना लेता हूँ।

माँ कसम.

आई लव यूं कविता।''

कविता सुना कर वे गर्व से मेरी तरफ देखने लगे, और पूछा- ''कैसी लगी कविता?''

मुझे अभी सही-सलामत रहना था इसलिए कहा- ''दुनिया की महान कविता है ये। ''

मेरी बात सुन कर वे गदगद भए और कहने लगे-'' इतने अच्छे कवि को लोग घास नहीं डालते। शहर में साहित्य महोत्सव हो रहा है और में मुझे नहीं बुलाया जा रहा है. मुझे? मुझे?? मैं सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखूंगा। मैं एक ठो किताब भी लिख चुका हूँ. मेरे पड़ोस में एक लेखक रहता है, उसकी अनेक किताबे प्रकाशित हो चुकी है, मगर वो ससुरा, पागल कहता है कि 'मैंने अभी कुछ लिखा ही नहीं'। उसे भी कभी-कभी नहीं बुलायाजाता,इस पर वह फ़रमाता है, 'नहीं बुलाया,तो नहीं बुलाया। मैं क्यों जाऊं किसी की खुशामद करने? मेरे आदर्श कबीर हैं, तुलसी हैं, निराला हैं. वे किसी दरबार में नहीं गए, मैं क्यों जाऊं?''

उनकी मैंने साफ़-साफ़ कहा- 'तो पड़े-पड़े सड़ जाओ'. इस पर उसने कहा,' सड़ जाऊंगा, मगर बिना बुलाये कहीं जाऊंगा ही नहीं ,न आमंत्रण के पीछे, न सम्मान के पीछे'। बताओ ऐसे-ऐसे 'हलकट' लेखक भरे पड़े हैं. क्या होगा साहित्य का?.''

मैंने कहा- ''वो सच्चा लेखक है. मैं उसके चरण छूना चाहता हूँ।''

मेरी बात सुन कर चिरकुट साहित्यकार का चेहरा लटक गया.वह कुछ देर खामोश रहा और बोला- ''तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रही. मैं तो जा रहा हूँ, शहर में साहित्य महोत्सव होने जा रहा है, उस में अपना नाम जुड़वाना है । मेरे साथ और भी कुछ लोग है. हम इतने सालों से लिख रहे और हमें नहीं बुलाया? देख लूँगा एक-एक को. मंत्री से मिल कर अपना नाम जुड़वा लूँगा, मेरी पहुँच ऊपर तक है, हाँ. मैं कोई चिरकुट साहित्यकार नहीं हूँ. और ज़्यादा कुछ हुआ तो मैं इनको निबटा भी सकता हूँ. ''

''अरे, किसी को भी सुपारी दे कर रस्ते से हटा दूँगा। हम तो ऐसा करते ही रहते हैं. ''

उसकी बात सुन कर लगा ये तो बड़ा ही खतरनाक आइटम है. ज्यादा देर बात की और कुछ अंट -शंट निकल गया, तो हमी को निबटा देगा इसलिए मैंने प्रस्थान करने की भूमिका बनाई -

''अरे, एक ज़रूरी काम याद आ गया, चलता हूँ। फिर मिलेंगे।''

''ओक्के, निकल लीजिए। मैं साहित्य उत्सव करने वाले आयोजक को निबटाने जा रहा हूँ। ''

इतना बोल कर वे मुस्कराए और आगे बढ़ गए। इस 'महान' साहित्यकार जी की बातों से मेरा भरपूर मनोरंजन हुआ.

मैंने उनको नमन किया और गुमनाम साहित्यकार से भेंट करने चल पड़ा.