अँगरेज़ी स्कूल और पिताश्री Girish Pankaj द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अँगरेज़ी स्कूल और पिताश्री

अँगरेज़ी स्कूल और पिताश्री


बच्चा अंगरेज़ी स्कूल में पढ़ता है। उस अँगरेज़ी स्कूल में, जहाँ के आधे से अधिक (फ)टीचरों की अँगरेज़ी खराब है। नौकरी बरकरार है क्योंकि बच्चों को सिखाने लायक एबीसीडी तो आती ही है। तो बच्चा अँगरेज़ी स्कूल में पढ़ रहा है। माता-पिता यह सोच-सोच कर गर्व महसूस करते हैं कि बच्चा धीरे-धीरे घर को 'ममी' और 'डैड' में तब्दील किए दे रहा है। बच्चे के कपड़े-लत्ते चकचक हैं। बस्ता न केवल सुंदर है अपितु कीमती भी है। उसके टिफिन बॉक्स में रोज कोई न कोई टीवी छाप खाद्य सामग्री जरूर रहती है। बच्चा सरकारी स्कूल के नाम पर नाक-भौं सिकोडऩे लगता है। गोया किसी गंदी चीज का नाम ले लिया गया हो। '
अंकल, सरकारी स्कूल में तो गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं न ?' वह पूछता है। '
ऐसा कुछ नहीं है' बोलने पर भी बच्चा नहीं मानता। कहता है, 'उसके अँगरेज़ी स्कूल के दोस्त भी तो यही बोलते हैं। उसके स्कूल में कोई गरीब नहीं।' वह भी अपने आप को गरीब नहीं समझता। पिताश्री गरीब है तो क्या।
पिताश्री की जेब कमजोर है लेकिन करे भी तो क्या करे। समाज में रहना है। अच्छे-अच्छे (?) लोगों के साथ उठना-बैठना है। सरकारी स्कूल में बच्चे को भर्ती करा कर नाक कटानी है क्या ? मुँह दिखाने लायक रहना है। औकात नहीं थी फिर भी बच्चे को अँगरेज़ी स्कूल में ही दाखिल करवा दिया। स्कूल के हाइस्कूल फेल संचालक ने बाप का इंटरव्यू लिया। यह जानने के लिए कि बाप की जेब में कुछ खर्च करने की ताकत भी है कि नहीं। सौ ठो प्रश्न। भ्रम हुआ कि स्कूल में प्रवेश किसका होगा ? बाप का या बेटे का? खैर, इंटरन्यू हुआ, 'डोनेशन' दिया गया। फीस पटाई गई, कीमती बस्ता खरीदा गया आदि-आदि। बच्चे के कारण आर्थिक संतुलन डगमगाया। बाप ने कटौती शुरू कर दी। पुराने कपड़े में थिगड़ा लगाने लगा। खाने पीने में कटौती की। कुछ दिन तक आदर्शवादी मन जिंदा रहा, फिर उसके भीतर के बेईमान बाप ने जन्म लेना शुरू कर दिया। उसने घूसखोरी शुरू कर दी। कमाई होने लगी। बच्चा तेजी के साथ अँगरेज़ी सीखने लगा। बात-बात में 'थैंक यू ममी, थैंक यू डैड' बोल कर माँ-बाप को गद्गद करने लगा। अँगरेज़ी की गालियाँ भी सीख लीं उसने। बाप की छाती और अधिक चौड़ी होने लगी। वह घर आने वाले मेहमानों के सामने अपने बच्चे को मदारी द्वारा सिखाए गए बंदर की तरह पेश करने लगा। '
हाँ बेटा, ये सुनाओ... अब वो सुनाओ ट्विंकल-ट्विंकल...।'
अच्छा बेटे, तुम नौकर को कैसे गाली देते हो, जरा बताओ तो।'
रास्कल, बास्टर्ड, इडियट।'
बच्चा तोते की तरह बोलता है। बाप हँसता है। माँ बत्तीसी दिखाती है। पूरा घर खिलखिलाता है। मेहमान तो हँसेगा ही, यह उसकी सामाजिक मजबूरी है। न हँसो तो अशिष्टï कहलाओ।
बच्चा बड़ा हो रहा है। पहले पहल वह सायकल में जाता था। जब दूसरे बच्चे बाइक में आते हैं तो उसे भी बाइक चाहिए। अब तो मोपेड से भी बात नहीं बनती। जितनी महँगी बाइक हो उतनी अच्छी। दूसरे फ्रेंड्स के डैडियों के पास कारें हैं, उसके डैडी के पास भी कार होनी चाहिए। बाप सेकेंड हैंड कार का जुगाड़ करता है लेकिन कुछ ही दिनों में कार का भार उठाने के बाद हाथ खींचने की नौबत आ जाती है। वह नौकरीपेशा है। नकली इज्ज़त का बोझा लादे जी रहा है। खून के घूँट पी रहा है। बच्चा काफी महंगा साबित हो रहा है। बच्चे में अलगावादी संस्कार बढ़ रहे हैं। वह उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर झुक रहा है। उसे टीवी पर दिखाई जाने वाली सारी चीज चाहिए। शुरू-शुरू में तो वह कंडोम और माला डी तक की माँग भी करने लगा था। पिता ने डाँटा, मारा तब कहीं जाकर उसकी समझ में ये बात आ गई कि ये चीज फिलहाल अपने काम की नहीं है। लेकिन बाप परेशान हो चुका था। उसने तय किया कि दूसरे बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाएगा और अपनी देखरेख में रखेगा।

बाप इन दिनों खुश है कि दूसरा बच्चा उसे पिताजी बोलता है, माँ को माँ कहता है, 'ममी' नहीं। वह बच्चा सबसे प्रेम से बात करता है। काले-गोरे का भेद नहीं करता, अँगरेज़ी भी वह सीख रहा लेकिन 'अंगरेजि़यत' से दूर होकर।