लौट चल
जनवरी का महीना था । सूर्य सिर के ऊपर चढ़ आया था । मैं आंगन में धूप में बैठकर चाय की चुस्की ले रही थी और मेरा मन-मयूर विदेश-यात्रा के उल्लास में नाच रहा था | तभी एक झपकी—सी आयी | एसा लगा, जैसेकि मैनें खुली आँखों से कोई सपना देखा है | चेतना लौटी, तो प्रतीत हुआ कि आज मन अनजाने ही उदास था | अपनी उदासी का विश्लेषण तथा निराकरण करने के लिए मैंनअविलन्ब उस सद्यः स्वप्न को स्मृति के यात्रा—पथ पर डाल दिया | स्वप्न चलचित्र की भाँति मेरी आँखों के समक्ष स्पष्टतः प्रदर्शित होने लगा और मैं शोधार्थी की भाँति स्वप्न के एक—एक दृश्य का अवलोकन करते हुए उसका विश्लेषण—संश्लेषण करने लगी | हृदय और मस्तिष्क भी अपनी—अपनी प्रकृति के अनुरूप स्वप्न का निष्कर्ष निकालने के लिए यथायोग्य व्यायाम करने लगे|
स्वप्न में मैं लम्बी दूरी की तीव्र गति से चलने वाली रेलगाड़ी में यात्रा कर रही थी | यात्रा करते—करते पर्याप्त समय बीत चुका था | मैं रेलगाड़ी में ऊब तथा घुटन का अनुभव करने लगी थी आैर गंतव्य स्थान अभी बहुत दूर था | अपनी ऊब तथा घुटन को कम करने के लिए मैं खुले आसमान के नीचे प्राकृतिक शान्त वातावरण में शान्ति के दो क्षण बिताना चाहती थी, इसलिए आने वाले स्टेशन की प्रतीक्षा करते हुए खिड़की से बाहर झाँकने लगी | शीघ्र ही एक स्टेशन आ गया, जो मेरे लिए सर्वथा अपरिचित था | फिर भी मैं यथाशीघ्र रेलगाड़ी से नीचे उतरी सन्तोष की एक लम्बी साँस ली और प्लेटफॉर्म पर टहलने लगी | रेलगाड़ी में बैठकर भागते—भागते मैं थकान का अनुभव कर रही थी, इसलिए प्लेटफॉर्म पर पैदल चलकर मुझे अकथनीय आनंद की अनुभूति हो रही थी | उस समय अपने आनंदोपभोग में तल्लीन मैं कुछ क्षणों के लिए यह भूल गयी कि रेलगाड़ी कुछ ही समय के लिए उस स्टेशन पर रुकी है |
टहलते—टहलते मैं स्टेशन परिसर में ही बहुत दूर निकल आयी | इतनी दूर कि गाड़ी चलने का हॉर्न बजने के पश्चात वहाँ तक पहुँचने में मुझे जितना समय लगा, उतने समय में गाड़ी गति पकड़ चुकी थी | यह जानते हुए भी कि अब गाड़ी हाथ नहीं आयेगी, शायद किसी चमत्कार की धुंधली—सी आशा के साथ कुछ भी सोचे—समझे बिना मैं गाड़ी के पीछे दौड़ने लगी | जब तक मेरे शरीर ने साथ दिया, मैं दौड़ती गयी | बहुत ही अल्प समय में गाड़ी मेरी आँखों से ओझल हो गयी, तब मैंने मेरे शरीर, मन और मस्तिष्क में विचित्र—सी अभूतपूर्व शिथिलता का अनुभव किया | तत्पश्चात मैंने अनुभव किया कि जीवन—समुद्र में तरंगित परिस्थितियों की लहरों ने मुझे नितान्त अज्ञात स्थान पर लाकर अकेला पटक दिया है, जहाँ मैं सबकेे लिए और हर कोई मेरे लिए अपरिचित है | फिर धीरे—धीरे मैंने अनुभव किया, मैं ही नहीं, मनुष्यों की इस भीड़ में सभी मनुष्य अपने—अपने स्वार्थों में तल्लीन हैं और हर एक स्वयं को नितान्त अकेला अनुभव कर रहा है |
जीवन की भागदौड़ में मुझे कभी इतना अवकाश नहीं मिला था कि मैं आध्यात्मिक शान्ति के दो क्षण जी सकूँ और इस भौतिक संसार से इतर किसी विषय पर चिन्तन कर सकूँ | आज मेरे पास अवकाश ही अवकाश था | अवकाश के इन क्षणों में मुझे प्रतीत हुआ, तीव्र गति से सरपट दौड़ती हुई समय की रेलगाडी में बैठकर मैं उसकी गति से चली जा रही हूँ | मेरा गंतव्य स्थान मृत्यु है | मेरे अपने, जो मेरे सहचर भी थे, गंतव्य स्टेशन तक की मेरी यात्रा को सुगम बनाने के लिए प्रत्येक क्षण जो मेरे अपने, मेरा सहयोग करने की आकांक्षा रखते थे, भौतिक उपलब्धियों की होड़ मे मैं उनके साथ अपने आत्मिक सम्बन्धों की उपेक्षा करते हुए इस नश्वर के साथ आगे और आगे बढ़ती चली गयी| मेरे सहचर पीछे छूट गये | मैंने एक बार भी कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि संभवतः मेरे सहचरों को मेरे किसी प्रकार के सहयोग की आवश्यकता हो सकती है !
मेरे एक स्वप्न ने आज मेरे मनःमस्तिष्क में हलचल उत्पन्न कर दी थी | मेरे विचार और भावनाएँ उद्वेलित होकर मुझे बेचैन करने लगे | मुझे गाँव का वह अपना बचपन याद आने लगा, जब मेरे लिए मेरे परिवार के सदस्य ही नहीं, मोहल्ले—पड़ोस का प्रत्येक व्यक्ति चिन्तित रहता था और उनकी पीड़ा देखकर मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगती थी | उस समय मेरी भावुकता और आत्मीयता देखकर उन सभी को असीम आनंदानुभूति होती थी, तब वे मुझे अपने सीने से लगाकर सारी दुनिया का स्नेह मुझ पर उड़ेल देने के लिए आतुर दिखायी देते थे | इस आनन्द के लिए अनेक बार वे कृत्रिम पीड़ा का प्रदर्शन करने से भी नहीं चूकते थे | उनके मिथ्या आचरण पर मुझे क्रोध होता था, तब मैं अपने आस—पास की वस्तुएँ उठा—उठाकर उनके ऊपर फेंकने लगता था |
मेरे बचपन तथा किशोरवय में मेरे अपनों के साथ मेरी या कहूँ कि हमारी परस्पर आत्मीयता संप्रेषित अनुभूतियों की स्मृति से मेरा हृदय़ तड़पने लगा | अब मेरे हृदय से एक ही आवाज आ रही थी — " लौट चल उन्हीं लोगों के बीच ; उन्हीं आत्मीय सम्बंधों में ; आत्मीयता से प्रेरित अनौपचारिक व्यवहारों में ! " हृदय की पुकार मूक थी, परन्तु मैं अनुभव कर रही थी कि मेरे चारों ओर सम्पूर्ण वतावरण में व्याप्त होकर यही स्वर गूँज रहा है ! भौतिक उपलब्धियों के भार से दबा हुआ, जीवन की अन्तहीन भागमभाग से थका हुआ, मेरा मस्तिष्क तनावग्रस्त एवं शरीर शिथिल हो रहा है और मेरे कानों में बस एक ही स्वर बिना रुके, बिना किसी अवरोध के बार—बार गूँज रहा है — " लौट चल, लौट चल !"
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