Manvata ke jharokhe books and stories free download online pdf in Hindi

मानवता के झरोखे

करी के कारनामे

विवाह के वर्षों पश्चात् एक दिन अचानक वंशिका को अपने बचपन की सखी नरगिस का स्मरण हो आया । लड़कपन में नरगिस के साथ की गई नटखट चेष्टाओं की मधुर स्मृतियाँ बारिश की नन्ही-नन्ही शोख फुहारों के सामान उसके चित्त मंतर स्पर्श कर उसके हृदय को आह्लादित करने लगी । सुकोमल हृदय के चंचल भाव अभिव्यक्त करते हुए बड़ी ही सहज शैली में उसने अपने पति साहिल से निवेदन किया कि रविवार को अवकाश का आनंद-लाभ लेते हुए नरगिस से भेंट करने के लिए चलें ! पति महाशय ने पिताजी की बीमारी का बहाना करके पर्याप्त विनम्रता के साथ श्रीमती जी के निवेदन को टालने का प्रयास किया, किंतु पत्नी की तिरया हट के समक्ष उनका प्रयास विफल रहा । अपने प्रयास के फलस्वरूप उन्हें इतनी सफलता अवश्य मिल गई कि श्रीमती जी ने नरगिस से भेंट करने की अपनी योजना को ससुर जी के स्वस्थ होने तक के लिए स्थगित कर दिया । चूँकि उसके पति को अपने पिता के स्वास्थ्य की बहुत अधिक चिंता रहती थी, इसलिए वंशिका भली-भाँति जानती थी कि जब तक उसके ससुर जी पूर्णरुपेण स्वस्थ नहीं होंगे, तब तक वह नरगिस से भेंट नहीं कर सकती । वह चाहती, तो पति की अवहेलना करके नरगिस से भेंट कर सकती थी, किंतु अपने बचपन की सखी से भेंट करने के लिए विवाहिता होने के बावजूद अकेले जाना उसे अपनी प्रतिष्ठा के लिए उचित नहीं लगता था । अब एक ही उपाय था, शीघ्रातिशीघ्र ससुर के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा की जाए । उसके पश्चात् पति को साथ लेकर पूरी शान से नरगिस से भेंट करे । ससुर के शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ के लिए वंशिका ने उनकी सेवा सुश्रुषा आरंभ कर दी । सेवा-सुश्रूषा से अभिभूत ससुर जी एक ओर बहू को आशीष देते नहीं थकते थे, तो दूसरी ओर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था कि जो बहू उन्हें एक कप चाय देने के लिए सो बार सोचती थी, आज अचानक उसमें इतना परिवर्तन कैसे आ गया ? साहिल भी आश्चर्यचकित था । अपने निर्णय का सकारात्मक परिणाम देखकर वह मन ही मन बहुत प्रसन्न था । पिता के पूछने पर साहिल ने प्रसन्नतापूर्वक बताया -

"बचपन की सखी से भेंट करने के लिए जाने की प्रसन्नता में आपकी सेवा हो रही है ।"

"बेटा हर महीना दो महीना में बहू को उसकी सखी से मिला लाया कर ! बहू भी प्रसन्न रहेगी, हमारी सेवा भी होती रहेगी !" साहिल के पिता ने नया सुझाव प्रस्तुत किया। एक महीना पश्चात् जब ससुर जी पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये, तब साहिल ने वंशिका का नरगिस से भेंट करने का निवेदन स्वीकार कर लिया ।

वंशिका-साहिल का दो वर्ष का एक बेटा था । नरगिस के घर में कई पालतू कुत्ते थे, जिनके गले में सुंदर कीमती पट्टे पड़े हुए थे । जब वे नरगिस के घर पर पहुँचे, वंशिका का बेटा अतिशीघ्र उसकी गोद से उतरा और झपटकर कुत्तों के साथ खेलने लगा। कुत्तों ने पहले उससे कुछ दूरी बनायी, किंतु शीघ्र ही उनमें से एक कुत्ता बच्चे की मित्रता के प्रस्ताव को स्वीकार करके उसे चाटने लगा । वंशिका ने यह सब देखा, तो दौड़कर बच्चे को गोद में उठा लिया । बच्चे के जिस-जिस अंग को कुत्ते ने अपनी जिह्वा से स्पर्श किया था, वंशिका ने पानी से धोकर पोंछ दिया । उस समय वंशिका को नरगिस पर अत्यधिक क्रोध आ रहा था ; उसके मन में आया, अभी नरगिस से कह दे कि "कुत्ते पालने का शौक ही है, तो उन्हें बांध कर रखा करे, खुला हुआ क्यों छोड़ती है ?" लेकिन उसके ये भाव शब्द बन कर होंठों पर नहीं आए । वह जानती थी, इस समय संयम अति आवश्यक है । वर्षों पश्चात् अपनी सखी से सप्रेम भेंट करने के लिए आई है, झगड़ने के लिए नहीं ।

नरगिस ने वंशिका-साहिल का खूब जोरदार स्वागत सत्कार किया । वह घंटों तक हास-परिहास और विनोद की बातें हुई । बातों ही बातों में वंशिका को ज्ञात हुआ कि पालतू कुत्ते उसके अपने नहीं हैं । कुछ अन्य लोग,जो सपरिवार शहर से बाहर गए हैं, लेकिन अपने पालतू कुत्तों को साथ नहीं ले जा सकते थे, उनके कुत्ते उसके पास कुछ दिन के लिए देखभाल करने के लिए आए हैं और इसके बदले में उसको पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता है । नरगिस ने वंशिका को बताया कि उसका चार वर्षीय बेटा उन कुत्तों के साथ दिन-भर इतना प्रसन्न रहता है कि घर में दूसरे बच्चे की आवश्यकता का एहसास ही नहीं होता है । जबकि उसके पड़ोस में जिनके घर में घर में इकलौता बच्चा है और कोई पालतू जानवर नहीं है, उस घर में बच्चे अकेलेपन से जूझते- जूझते चिड़चिड़े होते जा रहे हैं । नरगिस की बातों से वंशिका निरंतर प्रभावित हो रही थी । अब उसको जानवरों में सर्वश्रेष्ठ जानवर कुत्ते को घर में पालतू रखने के लाभ समझ में आ रहे थे । धीरे-धीरे वंशिका को घर में पालतू कुत्ता रखना उतना ही आवश्यक प्रतीत होने लगा, जितना की आंगन में किलकारी मारता अपना बच्चा । अपने स्वभाव को उसने थोड़े-से संकोच के साथ साहिल के सामने व्यक्त कर ही दिया --

"हमारे गुड्डू के लिए भी एक कुत्ता पालने में कोई बुराई तो नहीं है !"

".....!" साहिल चुप रहा ।

"देखो, हमारा गुड्डू इनके साथ खेलकर कितना प्रसन्न है । है ना !" अपने मत-अनुमोदन की आकांक्षी वंशिका ने साहिल से कहा । इस बार साहिल ने सिर हिलाकर इस मुद्रा से अपनी सहमति दे दी कि नरगिस पर उसकी चुप्पी का कोई प्रतिकूल प्रभाव ना पड़े । अगले क्षण वंशिका ने नरगिस से कहा --

"मैं भी अपने गुड्डू के लिए एक कुत्ता रखना चाहती हूँ ! जरा बताओ तो, कौन-सी नस्ल का लूँ !"

"मेरे पास एक बहुत अच्छी नस्ल का पप्पी है । कुछ ही दिन पहले मैंने विदेश से मँगाया है । बहुत महँगा है, तू लेना चाहे, तो मैं उस उस पप्पी को तुझे दे दूँगी !"

"कितना महँगा है ?"

"अरे यार, मैं तुमसे कोई पैसा नहीं लूँगी ! पहली बार तुम मेरे घर आए हो, मैं अपना पप्पी तुम्हें गिफ्ट नहीं कर सकती क्या ?" वंशिका का असमंजस अनुभव करके नरगिस ने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा । नरगिस का प्रस्ताव सुनकर वंशिका का चेहरा खिल उठा । किसी छोटे बच्चे की भाँति चहकते हुए उसने नरगिस से कहा --

"सच ? तू मुझे पप्पी उपहार में देगी, जो तूने खास अपने लिए विदेश से मँगाया है !"

" हाँ-हाँ, बिल्कुल सच कह रही हूँ !" नरगिस की हाँ सुनते ही वंशिका की बाँछें खिल गयी । उसने उसी समय उस पप्पी के को अपने पास मँगा लिया और गुड्डू को गोद से उतारकर पप्पी को अपनी गोद में उठा लिया --

"वाऊ... ! कितना क्यूट है !" साहिल की ओर देखते हुए वंशिका ने समर्थन की अपील की । "हूँ..ऊँ ।" साहिल ने अपना पीछा छुड़ाने की मुद्रा में कहा ।

"क्या नाम है इसका ?" वंशिका ने नरगिस से पूछा ।

"करी !"

"वाऊ... ! नाम भी कितना क्यूट है !"

अगले दिन जब वंशिका और साहिल घर लौटे, तब गुड्डू साहिल की गोद में था और पप्पी वंशिका की गोद में । उसी दिन वंशिका ने साहिल को कठोर शब्दों में निर्देश दिया -- "बच्चे की देखभाल करने के लिए घर में आया रखना आवश्यक है !" सुनते ही साहिल का पारा चढ़ गया -- "झाड़ू-पोछा-बर्तन और कपड़े धोने के लिए पहले से ही नौकरानी आती है, अब बच्चे को संभालने के लिए भी आया रखोगी, तो तुम क्या करोगी ? वैसे भी हम मध्यवर्गीय लोगों की आय इतनी नहीं होती है कि ...!" साहिल ने वंशिका को समझाते हुए कहा । उसने वंशिका को समझाने के लिए नई-नई युक्तियों का सहारा लिया, किंतु बच्चों को संभालने के लिए घर में आया की आवश्यकता थी, तो बस थी । उसका कोई दूसरा विकल्प वंशिका को स्वीकार नहीं था ।

अंततः साहिल को वंशिका का प्रस्ताव स्वीकार करके घर में आया रखने की अनुमति देनी पड़ी । संयोगवश उसी समय उनके एक पड़ोसी मित्र का स्थानांतरण आदेश आया था, इसलिए उस मित्र को परिवार सहित दिल्ली छोड़कर जाना था । मित्र की पत्नी कामकाजी महिला थी और बच्चे को संभालने के लिए उन्होंने अपने घर में एक परिचित स्त्री रज्जो को आया के रूप में रखा हुआ था । अवसर का लाभ उठाते हुए साहिल ने तत्काल उस आया को अपने बच्चे की देखभाल के लिए रख लिया और उसके निवास के लिए घर के ग्राउंड फ्लोर पर एक कोठरी निश्चित कर दी ।

प्रतिदिन प्रातः सायं वंशिका पार्क में टहलने के लिए जाती थी । अपनी गोद में करी को लेकर जब वह घर से निकलती थी और उसके साथ-साथ उसके बच्चे को ट्रॉली में बिठा कर उसकी आया रज्जो चलती थी, तब उसे अकथनीय गर्व की अनुभूति होती थी । इस दृश्य को देखकर ससुर जी को अत्यधिक चिढ़ होती थी, जो नित्यप्रति कभी मधुर तो कभी कटु शब्दों में अभिव्यक्त होती रहती थी । पहले तो वह समझाने की शैली में कहते थे -

"बहू, कुत्ते को उतार कर अपने बच्चे को गोद में उठा लो ! माँ के सीने से लगकर बच्चा माँ का स्पर्श पहचानता है ; उसकी संवेदना विकसित होती है !"

"पापा जी, करी आपके लिए कुत्ता हो सकता है, मेरे लिए तो जैसे गुड्डू, वैसे ही करी !" वंशिका कटु शैली में ससुर जी के सुझाव को ठुकरा देती । इतना ही नहीं वह प्रतिक्रियास्वरूप करी को और अधिक स्नेह के साथ सीने से लगाती और ससुर जी की उपेक्षा करने की मुद्रा में घर से निकल जाती । बहू के जाने के पश्चात् ससुर जी स्वगत संभाषण करते -

"अपना-अपना भाग्य है ! बेचारे गुड्डू को माँ होते हुए भी माँ की गोद नसीब नहीं है और इस कुत्ते को मालकिन के रूप में ऐसी माँ मिली है, जो अपने बच्चे को छोड़कर दिन-भर इसे गोद में उठाये रहती है । वंशिका की देखभाल तथा पोष्टिक आहार से एक वर्ष में करी डेढ़ से दो फुट ऊँचा हो गया था । वह शरारती भी था और स्वामी भक्त भी । गुड्डू को अपने साथ खेलने के लिए करी के रूप में एक जीता-जागता खिलौना और आज्ञापालक मित्र मिल गया था । करी के साथ खेलते हुए गुड्डू को प्रसन्न देखकर हर माँ की भाँति वंशिका भी प्रसन्न होती । किंतु अपने मन में वह जितनी प्रसन्न होती, अपनी प्रसन्नता का वह उससे अधिक प्रदर्शन करती और करी को घर में लाने के अपने निर्णय की अपने ससुर तथा पति के समक्ष स्वयं ही सराहना करती हुई नहीं थकती । ज्यों-ज्यों करी बड़ा होता जा रहा था, त्यों-त्यों उसकी शरारतें भी बढ़ती जा रही थी । क्रीड़ा-किलोल करते समय जब कभी वह उछल-कूद करते हुए दादाजी के बिस्तर पर चढ़ता था, गुड्डू प्रसन्न होता था कि करी दादा जी के साथ खेलना चाहता है, किंतु उसके दादाजी करी को डाँटते हुए गुड्डू से कहते - " दूर लेकर जा इसे मेरे बिस्तर से !"

"चूँकि दादाजी का बिस्तर प्रथम तल के उस कमरे में था, जिसका दरवाजा एक बड़ी बालकनी में खुलता था । इसलिए गुड्डू और करी प्रायः वहीं पर खेलते थे । दादाजी साहित्य लिखने पढ़ने में विशेष रुचि रखते थे । जिस समय वह अपने कमरे में एकांत चाहते थे, उस समय गुड्डू और करी के वहाँ खेलने से उन्हें असुविधा होती थी । वे अपनी बहू वंशिका से विशेष आग्रह के साथ निवेदन करते थे कि गुड्डू और करी को वहाँ से ले जाए ! वंशिका को अपने ससुर का निवेदन दुराग्रह प्रतीत होता था । वह उन पर आरोप लगाती थी कि जब से करी को इस घर में लाई है, तभी से वह उनकी आँखों किरकिरी बना हुआ है । इसलिए असुविधा का बहाना करके वे उसे घर से निकालना चाहते हैं । शीघ्र ही बात साहिल तक पहुँच गई । साहिल ने वंशिका को समझाया -

"पापा ने जो कुछ कहा है, वह केवल करी के कारण होने वाली अपनी असुविधा को लेकर कहा है । करी के प्रति उनके हृदय में किसी प्रकार की कोई दुर्भावना नहीं है !"

"कैसे नहीं है, जी ! जब से करी आया है, उनके हृदय में काँटा बनकर चुभता रहता है । करी के लिए उनके मुख से कहा गया एक-एक कटु शब्द करी के प्रति उनके हृदय की दुर्भावना का प्रमाण है ।" वंशिका ने रोते हुए कहा ।

साहिल अपनी पत्नी के आँसू और पिता की असुविधा के बीच फँस गया था । वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि इस भँवर से कैसे निकले ? वंशिका ने उपाय सुझाया -

"क्यों ना पापा जी को ग्राउंड फ्लोर पर शिफ्ट कर दिया जाए ? ऐसा करके पापा जी को भी एकांत मिल जाएगा और गुड्डू को भी करी के साथ खेलने के लिए खुला वातावरण मिल जाएगा !"

साहिल को वंशिका का सुझाव उपयुक्त लगा,परन्तु पापा जी वंशिका के सुझाव से सहमत नहीं थे । उनका कहना था - "मैं बस पढ़ने-लिखने के समय एकांत चाहता हूँ,पूरे समय नहीं । ग्राउंड फ्लोर पर शिफ्ट होने से मेरा जीवन नितांत एकाकी और नीरस हो जाएगा ! इसलिए मैं जहाँ रह रहा हूँ, वहीं रहूँगा !"

वंशिका-साहिल के आगे पापाजी की एक न चली । उनकी असहमति के बावजूद उन्हें ग्राउंड फ्लोर पर शिफ्ट कर दिया गया । अब उनके पास भरपूर एकान्त था । अब न तो उनके निकट पढ़ने-लिखने में व्यवधान डालने वाला करी आता था, न ही फुर्सत के क्षणों में उनका मन बहलाने वाला गुड्डू, क्योंकि गुड्डू के पास अब समय बिताने का साधनस्वरूप करी था। घर में आने वाला कोई अतिथि भी उनसे भेंट करने के लिए नहीं आता था । घर में आने वाले सभी अतिथियों को वंशिका द्वारा पहले ही सूचना दे दी जाती थी कि पापा जी सन्यास आश्रम ग्रहण कर चुके हैं, इसलिए आजकल वे किसी से मिलना नहीं चाहते हैं । साहिल को अपने काम से कभी इतना अवकाश नहीं मिल पाता था कि वह कभी एक दो घंटा अपने पिता के साथ बैठकर बिता सके ; बतिया सके । सारांशतः करी के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने के परिणामस्वरुप घर के एकमात्र बुजुर्ग नितांत अकेलेपन के साथ जीवन यापन करने के लिए विवश थे । इस अकेलेपन का उन्हें एक लाभ निसंदेह प्राप्त हुआ था, अब उन्हें अपने लिखने-पढ़ने की सामग्री को व्यवस्थित-सुरक्षित रखने की आवश्यकता नहीं थी । प्रथम तल पर बेटे के साथ रहते हुए प्रायः पढ़ने-लिखने का सामान फैला रहने पर गुड्डू द्वारा उसके खोने-बिगाड़ने का और वंशिका की नाराजगी का भय निरन्तर बना रहता था ।

कुछ समय पश्चात् एक दिन साहिल के पूरे परिवार को एक निकट संबंधी के विवाह-समारोह में जाना पड़ा । तीन दिन चलने वाले विवाह समारोह में एकत्र होने वाले आगंतुक मित्रों-नातेदारों की भीड़ में करी के सहज नहीं रहने की आशंका से एक समस्या उत्पन्न हो गयी - "घर की रखवाली कैसे होगी ? तीन दिन तक के लिए करी को कहाँ छोड़ा जाए ?"

शीघ्र ही सर्वसम्मति से समस्या का समाधान हो गया कि घर की साफ-सफाई और रखवाली के साथ करी की समुचित देखभाल का दायित्व रज्जो को सौंपा जाएगा । रज्जो ने भी तीन दिन तक घर और करी की देखभाल का दायित्व-भार उठाना सहज ही स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् पिता सहित साहिल ने पूरे परिवार के साथ विवाह-समारोह में सम्मिलित होने के लिए प्रस्थान किया । था करी के प्रति क्रोध के भाव उमड़कर उसके चेहरे पर दिखाई दे पड़ने लगे ।

कुछ समय पश्चात् ही विवेकशीला रज्जो ने अपनी भावात्मक दुर्बलता पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया और करी को कमरे से बाहर निकाल कर घर के एक कोने में बांध दिया । कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर रज्जो यंत्रचालित-सी कमरे के टूटे-फूटे फैले सामान को व्यवस्थित करने का प्रयास करने लगी । लेकिन, करी द्वारा फाड़कर कचरा की गई पठन-लेखन-सामग्री का क्या करें ? सोचकर ही उसका सिर घूमने लगा । साहिल के पिता के प्रति उसे अब सहानुभूति होने लगी थी । अपनी असावधानी को लेकर उसे स्वयं पर क्रोध आने लगा था।

तीसरे दिन रात के दस बजे साहिल अपने परिवार के साथ घर वापिस लौटा । घर आते ही वंशिका और साहिल गुड्डू को लेकर अपने कमरे में जाकर सो गए । साहिल के पिता ने अपने कमरे में प्रवेश किया, तो कमरे का दृश्य देखकर उनका पारा चढ़ गया । अत्यंत शीघ्रतापूर्वक प्रथम तल पर आकर उन्होंने साहिल के कमरे का दरवाजा खटखटाया - "मेरे कमरे में चलकर देखो, तुम्हारे कुत्ते ने मेरी पुस्तक और पांडुलिपियों की क्या दशा बना दी है ! मैं भी जानता हूँ , कुत्ता वफादार जानवर होता है । लेकिन, आखिर होता तो है एक जानवर ही ना ? हजारों बार मैंने बार-बार कहा है, जानवर को जानवर की तरह रखो ।लेकिन, मेरी कौन सुनता है !" पिता की बात सुनने के लिए उठकर दरवाजा खोलने की बजाय साहिल ने बिस्तर पर लेटे-लेटे ही कहा -

"पापा, मुझे सिर में दर्द हो रहा है ! रात बहुत हो गई है ! आप भी सो जाइए, हमें भी सोने दीजिए !" अब तक पिता विनम्र शैली में संयमित भाषा का प्रयोग कर रहे थे । अपने बेटे से उन्होंने उपेक्षापूर्ण उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी । साहिल के उपेक्षापूर्ण उत्तर ने उनका क्रोध बढ़ा दिया । क्रोधावेश में वे इतने विचलित हो गए कि पड़ोसियों की नींद की चिंता किए बिना ही ऊँचे स्वर में चिल्लाने लगे । उन्हें अभी भी आशा थी कि साहिल अपने पिता की समस्या को सुनने के लिए बिस्तर से उठ कर अवश्य आएगा । साहिल को कमरे से बाहर आने में जितना विलंब हो रहा था, उतना ही उसके पिता का असंतोष बढ़ता जा रहा था ; उसी अनुपात में उनके चिल्लाने का स्वर ऊँचा होता जा रहा था । लगभग दस मिनट पश्चात् साहिल के कमरे का दरवाजा खुला, लेकिन साहिल के स्थान पर वंशिका दरवाजे से बाहर आई और ससुर जी की तुलना में दोगुने ऊँचे स्वर में गरजते हुए बोली -

"पापा जी, बहुत हो गया ! अब पानी सिर से ऊपर जा चुका है ! मैं भी आपसे हजार बार कह चुकी हूँ, करी आपके लिए कुत्ता हो सकता है ; जानवर हो सकता है, मेरे लिए नहीं । यदि आप करु के साथ एडजस्ट नहीं कर सकते हैं, तो अपने रहने का प्रबंध कहीं दूसरी जगह कर लीजिए, शहर में बहुत से 'ओल्ड एज होम' खुले हुए हैं !"

"बहू, यह क्या कह रही हो तुम ? आखिर एक जानवर के लिए अपने ससुर का कितना अपमान, कितना तिरस्कार करोगी तुम ? न तुम्हें अपने बच्चे से स्नेह रह गया है, न अपने घर के बुजुर्ग के प्रति श्रद्धा-सम्मान ! माँ के होते हुए तुम्हारे बच्चे का अधिकतर समय चाइल्ड केयर होम में बीतता है और अब मुझे वृद्धाश्रम में जाने के लिए ... !

"मैंने जो कहा है, सोच-समझकर कहा है । जिस करी को मैं अपने बच्चे की भांँति रखती हूँ,आप दिन-प्रतिदिन उसे जानवरों की तरह रखने की हिदायत देते हैं, तो एक बूढ़े आदमी को बूढ़ों की तरह रहने की हिदायत देने में क्या अनुचित है ? क्या वृद्धाश्रम आप जैसे लोगों के रहने के लिए और 'चाइल्ड केयर होम' गुड्डू जैसे बच्चों के लिए नहीं बने हैं ?" वंशिका ने अपने विचार को प्रबल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया । वंशिका के शब्दों को सुनकर उसके ससुर सिर पकड़ कर बैठ रहे

"बहू जानती हो, तुम क्या कह रही हो ? इस घर का स्वामी अभी भी मैं हूँ । मैंने अपनी मेहनत की कमाई से यह घर बनाया है । तुम चाहो, तो अलग मकान लेकर रह सकते हो !" अपने पिता और पत्नी के बीच बढ़ते वाद-प्रतिवाद को सुनकर अब तक साहिल भी कमरे से बाहर आ चुका था । वह जानता था कि पिता की उपेक्षा और अपमान करने का परिणाम उसके लिए भारी पड़ सकता है । उसी समय उनके कानों में साहिल का स्वर्ग गूँजा -

"सॉरी पापा ! हमें क्षमा कर दीजिए ! आँखें खोलकर देखा साहिल उदास दयनीय मुद्रा में उनके निकट बैठा हुआ क्षमा याचना कर रहा था ।

"क्षमा तो मिल जाएगी, पर मेरी भी एक शर्त है !"

"पापा जी...!" साहिल ने भय-मिश्रित शंकित दृष्टि से पिता की ओर देखते हुए कहा । वह सोच रहा था, क्रोधावेश में पापा जी कोई ऐसी शर्त न रख दें, जिसको मानना कठिन हो या संभव ही न हो ।

"इस घर में तुम तभी रह सकते हो, जब घर के एकमात्र बुजुर्ग को सम्मान औन बच्चे को उसके हिस्से का स्नेह देते हुए इनकी यथावश्यक देखभाल करोगे !"

"पापा जी, वचन देता हूँ, भविष्य में कभी आपकी और आपके पोते की उपेक्षा नहीं होगी ।" यह कहकर साहिल ने शरारती

भाव से वंशिका की ओर देखा - "क्या इरादा है ? घर में रहना है, तो पिछली-अगली पीढ़ियों के साथ सामंजस्य करना ही पड़ेगा। मेरी बात से सहमत हो, तो पापा का ... !" साहिल का निर्णय सुनकर वंशिका मौन रही, परन्तु उसकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि अपने द्वारा बोले गये कटु शब्दों और अभद्र व्यवहार के लिए अब वह स्वयं पछता रही है ।

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