1. दादी का सन्यास आश्रम
घर में प्रायः दादी के 'शांतिः शांतिः शांतिः' मंत्रोच्चारण के साथ 'भज मन गोपाला' का स्वर गूँजता रहता है | लगभग पिचासी वर्षीया दादी कृष्ण भगवान की अनन्य भक्त हैं | परिवार के प्रत्येक सदस्य का प्रयास रहता है कि दादी के भजन-पूजन में किसी प्रकार का व्यवधान न पड़े | बाहर कॉलोनी में बने मंदिर तक जाने में दादी को असुविधा होती है, इसलिए उनके बेटे ने वर्षों पहले घर में ही एक छोटा-सा मंदिर बनवाकर उसमें सभी प्रमुख देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित करा दी थी | मंदिर की तथा उसमें रखी हुई मूर्तियों की प्रातः-सायं सफाई करना दादी का नित्य कर्म है |
वर्ष के बारहों मास दादी की नींद प्रातः तीन बजे खुल जाती है | उनके जागने के पश्चात् मजाल है घर में कोई सो सके | ऐसा नहीं है कि दादी किसी को कच्ची नींद से जगाती हैं, वह तो बस अपने नित्यकर्मों में व्यस्त हो जाती हैं | वस्तुतः दादी की भजन वंदना और क्रियाशीलता से ही सभी की नींद टूट जाती है और फिर सभी उनकी वृद्धावस्था से अपने युवावस्था की तुलना करते हुए लज्जा से परिपूरित होकर बिस्तर छोड़ने के लिए विवश हो जाते हैं | नींद खुलने के पश्चात् सबसे पहले उनके मधुर कंठ से तीन बार भगवान कृष्ण का नाम निसृत होता है | तत्पश्चात् 'ओम' की ध्वनि के साथ शान्तिः का उच्चारण वे पूरी तन्मयता के साथ करती हैं - "जय कान्हा ! जय कान्हा ! जय कान्हा ! ओम ...! शांतिः ! शांतिः ! शांतिः !"
शांति का मंत्र जाप करके दादी चारपाई पर बैठे-बैठे नीचे झुक कर धरती माँ की वंदना करती हैं | हाथ से धरती का स्पर्श करके, उस हाथ को माथे से छुआ कर ही दादी धरती पर चरण रखती हैं | ऐसा करके मानो उन्हें धरती माँ की अनुमति मिल जाती है कि अब वे उसकी छाती पर खड़ी हो सकती हैं |
कृष्ण भगवान की भक्त के रूप में गाय की सेवा करके पुण्य कमाना दादी के जीवन का प्रथम लक्ष्य है | अपने नित्यकर्म से निवृत्त होकर दादी गौ माता की सेवा में लग जाती हैं और अपनी ऊँची आवाज में 'भज मन गोपाला' गीत गाने लगती है | तब तो पड़ोसियों का भी सोना कठिन हो जाता है | पड़ोसी भी जानते हैं , बुढ़ापे में शांति की बड़ी आवश्यकता होती है, जो भगवान की भक्ति और अध्यात्म से ही संभव है | इसलिए पड़ोसी अपनी नींद खराब होने पर भी दादी के भक्ति-भजन में कभी बाधा नहीं बनते हैं |
गौ माता की सेवा करने के पश्चात् दादी मंदिर में बैठकर भजन पूजन करती हैं | वे कान्हा जी को भोग लगाकर ही अन्न-जल ग्रहण करती हैं | दादी का कमरा भी किसी ऋषि-आश्रम से कम नहीं है | उनके कमरे में छोटे बच्चों का प्रवेश वर्जित है | बेटा-बहू, पोता-पतोहू को कमरे में जाने की अनुमति है , पर दादी के बिस्तर पर बैठने या दादी के वस्त्रों को छूना उनके लिए भी वर्जित है | दादी अपने वस्त्र स्वयं धोती हैं , कहती हैं, जबतक स्त्री रजस्वला होती है, यह अपवित्र रहती है | जब तक बेटे पोते का व्यवहार बहू और पतोहू के साथ है, तब तक उनकी सभी चीजें भगवान और उसके भक्त के लिए अस्पृश्य हैं | वे उनके लिए स्वीकार्य नहीं हो सकती हैं !
कहने को तो दादी घर-गृहस्थी तथा माया-मोह से मुक्त होकर अपना शेष जीवन वर्षों पूर्व कान्हा जी की सेवा में समर्पित करने का संकल्प ले चुकी हैं | अपने संकल्प की दिशा में वे क्रियाशील भी दिखती हैं | यथा - दिन-भर हाथ में रूद्राक्ष की माला लेकर उसके मनके फेरती हैं ; सुबह से रात तक कृष्ण भगवान का नाम जपती रहती हैं | लेकिन प्रभु में उनका चित्त कभी रमा हो, यह कहना कठिन हैं | या कहें कि ऐसा सोचना भी प्रभु के प्रति कपट ही होगा | माला के मनके फेरते हुए जब वे प्रभु के नाम उच्चारण करती प्रतीत होती हैं या किसी सरल से मंत्र का उच्चारण करती प्रतीत होती हैं, तब भी उनका चित्त घर में हो रहे किसी कार्य-व्यवहार से हट नहीं पाता है | यथा - बहू कहाँ है ? पतोहू क्या कर रही है ; क्या खा रही है ? घर में कौन आया है ? आगंतुक यदि पड़ोसी है , तो वह क्यों आया है ? कुछ माँगने के लिए आया है अथवा प्रेम-भेंट करने के लिए ? कुछ माँगने के लिए आया है, तो क्या माँगने के लिए आया है ? बहू ने उसे दे तो नहीं दिया है ? दिया है , तो कितना दिया है ? पिछली बार लिया सामान पड़ोसी ने अभी तक वापस लौटाया है या नहीं ? आदि एक-एक क्रियाकलाप पर दादी की सूक्ष्म दृष्टि बनी रहती हैं | जब भी कोई कार्य उनकी इच्छा या विचारों के विरुद्ध होता है, तब दादी अचानक गरज उठती हैं और अगले ही क्षण अपनी माला के मनके फेरते हुए प्रभु का जाप करने लगती हैं |
उस दिन सुबह के नौ-दस बजे होंगे, दादी पूजा-गृह में कान्हा जी की सेवा में रत थी | दादी की बहू घर में नहीं थी | चंचल रसोईघर के काम में व्यस्त थी , तभी उनकी पडोसिन गुसाइन काकी ने दरवाजे पर दस्तक दी | उसकी पुकार सुनकर दादी ने पतोहू को आदेश दिया - "चंचल ! अरी ओ चंचल ! जरा दरवाजा खोल दे ! देख जरा बंगला किस लिए आई है ?" आदेश देकर दादी पुनः 'भज मन गोपाला' गाने लगी | बीच-बीच में जाप करने लग जाती थी | चंचल ने दरवाजा खोला, पता चला गुसाइन काकी की रसोई में घुसकर बिल्ली दूध पी गई और बच्चा भूख से रो रहा है ! चंचल ने मंदिर में जा कर देखा , दादी माला फेरते हुए प्रभु का नाम जपने में व्यस्त थी । समय और परिस्थिति की माँग को देखते हुए चंचल ने गुसाइन काकी को एक गिलास भरकर दूध दे दिया । काकी के जाने के बाद पुनः घर के कार्यों में व्यस्त हो गई । लगभग एक घंटे पश्चात् दादी की बहू (चंचल की सास) शशि घर लौटी । बहू के घर लौटते ही दादी का क्रोध ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ा -- "शशि , तूने अपनी बहू को बहुत सिर पर चढ़ा रखा है !"
"क्या हुआ, माँ जी ?" शशि ने नम्रतापूर्वक पूछा ।
"घर में किसी बड़े-छोटे का मान-सम्मान करने के संस्कार तो तेरी बहू में पहले ही नहीं थे, अब तो वह इतनी बड़ी हो गयी है , घर में किसी बड़े का मान रखने की उसे जरूरत ही नहीं रह गयी है !"
"माँ जी , हुआ क्या है ?"
"तेरे पीछे विमला गुसाइन आई थी, दूध मांगने ! तेरी बहू ने मुझसे पूछे बिना बड़ा गिलास गाय का दूध भरकर उसको पकड़ा दिया ।"
दादी की शिकायत सुनकर उनकी बहू शशि मौन ही रही । कुछ क्षणोंपरांत उसने चंचल को समझाते हुए कहा - "चंचल , बाहर से कोई कुछ मांगने के लिए आए, तो अम्मा जी की अनुमति लेकर दिया करो ! बड़ों को मान-सम्मान के अलावा और कुछ नहीं चाहिए होता है !" मम्मी जी , काकी का बच्चा भूख से रो रहा था । दादी जी पूजा में व्यस्त थी, इसलिए ...!"
"तो छोटे गिलास में करके आधा गिलास दूध दे देती ! बहू , आठ माह का उसक पोता ढाई पाव का पूरा भरा हुआ गिलास दूध पिएगा ? पूछो जरा इससे !" दादी ने अपनी बहू शशि से कहा ।
"दादी , आप यह भी देख रही थी कि मैंने गिलास पूरा भरा था या आधा भरा था । आपका ध्यान अपने कान्हा की पूजा में था या दूध में ?" चंचल ने हँसते हुए एक व्यंग-बाण छोड़ा । इतने ही में उसे संतोष नहीं हुआ , उसने पुनः गंभीर मुद्रा में कहा -
"दादी, कहने को तो आप घर गृहस्थी के माया-मोह से मुक्त होकर सन्यास आश्रम ग्रहण कर चुकी हैं ; भजन-पूजन ध्यान और सत्संग में लीन रहती हैं, पर आप का चित्त हम से भी अधिक माया मोह में डूबा हुआ है !"
"मतलब क्या है तेरा ?" दादी ने क्रोध में काँपते हुए कहा।
"यही कि 'मनवा तो दस दिसी फिरे, यह तो सुमिरन नाही ।"
"चंचल , चुप रहो ! ... अपने कमरे में जाओ !" शशि ने अपनी बहू चंचल को डाँटा और दादी से विनम्र शैली में कहा -
"अम्मा जी , चंचल अभी नासमझ है । अभी उसे दुनियादारी का ज्ञान नहीं है । धीरे-धीरे सीख जाएगी । मैं उसको समझा दूँगी !" दादी को शांत करके शशि चंचल के कमरे में आई । बोली -
"चंचल, बेटा, दादी को कटु शब्द मत बोला कर ! दादी का चंचल मनवा भक्ति में एकाग्र नहीं हो पाता ; परिवार की बढ़ती हुई वंश बल्लरी की माधवी गंध में खो जाता है, इस में दादी का क्या दोष है !"
"तो , परिवार का आनंद ले ! भक्ति भजन का नाटक करने की क्या जरूरत है ?
"तुम समझने का प्रयास करो ! दादी नाटक नहीं करती हैं, चित्त को भगवान की भक्ति में एकाग्र करने का प्रयास करती हैं।"
"मम्मी जी, दादी भगवान की भक्ति में चित्त को एकाग्र करने का प्रयास करती, तो अवश्य होता । पर , पिचासी साल की उम्र में भी दादी का मन ईश्वर-भक्ति में कम और अधिकार-लिप्सा में अधिक रमता है ।"
"चंचल, यह तो आदमी का स्वभाव है ! आज जो माँ जी के लिए कह रही हो , वही कल मुझ पर लागू होंगी और परसों तुम पर ! यह तुम्हारी भी अधिकार-लिप्सा ही है, जिसने आज माँ जी के अधिकार-भाव को चुनौती दी है ! मैं समझती हूँ , इससे अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है !" सास द्वारा संयमित भाषा और कम शब्दों में दी गयी नसीहत की सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए चंचल ने कहा -
"जी, मम्मी जी ! आगे से ध्यान रखूंगी ।" चंचल ने अपने भाव से स्वीकृति की मुद्रा में गर्दन हिलाते हुए कहा ।