मानवता के झरोखे Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मानवता के झरोखे

मानवता का झरोखा

हर्ष ने मनु की इंटरमीडिएट की परीक्षा की तैयारी कराने के लिए अपने ऑफिस से अवकाश ले लिया था । सुपुत्र रूप में मनु भी अपने कर्तव्य का सम्यक निर्वाह कर रहा था । उसने प्रातः शीघ्र बिस्तर छोड़ा और नित्य-कर्म से निवृत होते ही अध्यन करने के लिए बैठ गया था । हर्ष अपने बेटे मनु को परीक्षा में अच्छे अंक-प्राप्ति के उद्देश्य से विज्ञान के सिद्धांत-सूत्र बार-बार कंठस्थ करा रहा था । ज्ञानार्जन की इस पद्धति के प्रति उपेक्षा-भाव का प्रदर्शन करते हुए मनु के दादा विक्रम ने उपहासात्मक मुद्रा में कहा -

"बेटा ! विज्ञान के जिन सिद्धांतो को तुम मनु को आज तोते की भाँति रटा रहे हो, क्या कभी उनका व्यवहारिक ज्ञान कराया है ? या कराने के विषय में कभी सोचा है ? नहीं न ! याद रखना, सिद्धांतो का व्यवहारिक प्रयोग न किया जाए, तो ज्ञान अधूरा रहता है ! और ... अधूरे ज्ञान से कभी किसी का भला नहीं होता है, इसके विपरीत अधकचरे ज्ञान से हानि की संभावनाएँ होती हैं !" पिता का संवाद सुनकर हर्ष हँसने लगा । वह तीन चार मिनट का हँसता रहा और पिता के कथन को निस्सार-पुस्तकीय शब्दाडंबर बताकर हँसते हुए कहा -

"पापा जी ! यह सब बातें केवल कहने-सुनने में अच्छी लगती हैं । यथार्थ का इन बातों से दूर-दूर तक संबंध नहीं है । आजकल नौकरी तथा विद्यालय-महाविद्यालय में प्रवेश के लिए छात्रों का व्यवहारिक ज्ञान नहीं, उनका अंक प्रतिशत देखा जाता है । कक्षा में अंक प्रतिशत कम रह गया, तो सारा व्यवहारिक ज्ञान धरा रह जाएगा ! न अगली कक्षा में प्रवेश मिलेगा, न कहीं नौकरी मिलेगी !" हर्ष शिक्षा-व्यवस्था के प्रति असन्तोष व्यक्त करते हुए भावपूर्ण मुद्रा में फिर हँसने लगा ।

दादा विक्रम सिंह प्रतिदिन प्रातः काल मनु को व्यायाम करने के लिए समीप के एक पार्क में लेकर जाया करते थे । किन्तु, बेटे के तनाव और मनु की परीक्षा को देखते हुए उस दिन उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया । सुबह के आठ बजे से दोपहर के बारह बज गये मनु के पापा उसके साथ बैठकर उसकी परीक्षा की तैयारी कराते रहे थे । अपने बेटे और मनु के पिता की तपस्या देखकर दादा विक्रम सिंह ने कहा-

"बेटा, परीक्षा तुम्हारी है या तुम्हारे बेटे की ? मैंने रात सोते समय देखा था, तब भी पुस्तक तुम्हारे हाथ में तथा चेहरे पर परीक्षा का तनाव था । सुबह उठकर देखा, तब भी यही स्थिति थी और अब भी ... !"

"पापा जी ! आपका पोता स्वयं अपनी परीक्षा का तनाव लेता, तो शायद मुझे तनाव लेने की जरूरत नहीं पड़ती ! आपने उसे ऐसा लापरवाह बना दिया है कि किसी बात की चिंता नहीं करता है,भले ही इसकी बोर्ड की परीक्षा का ही विषय क्यों ना हो !"

"मनु अपनी परीक्षा का तनाव नहीं लेता है, तो उसकी परीक्षा का तनाव तुम ले रहे हो ? वाह ! क्या बात है ! हा-हा-हा-हा-हा ! हर्ष के पिता विक्रम सिंह ठहाका लगाकर हँसने लगे । पिता को उपहास की मुद्रा में हँसते हुए देखकर हर्ष को अपने पिता और पुत्र दोनों पर क्रोध आ रहा था । बारी-बारी से वह दोनों को क्रोध भरी दृष्टि से घूर-घूरकर देखने लगा । बेटे के क्रोध को अनुभव करके विक्रम चुप हो गए ।

शाम के तीन बजे विक्रमसिंह ने एक बार पुनः हर्ष से कहा -

हर्ष बेटा ! यदि तुम मनु को कुछ समय के लिए आराम करने और खेलने-कूदने का अवकाश दे देते, तो वह थोड़ा-सा तरोताजा होकर विषयवस्तु को ज्यादा बेहतर ढंग से ग्रहण कर सकेगा !"

पापा जी ! मैंने इसको आज आराम करने और खेलने-कूदने का अवकाश दिया, तो इंटरमीडिएट में अच्छे नंबर नहीं आएँगे, तब इसको न ग्रेजुएशन में एडमिशन मिलेगा और न ही जॉब मिलेगी ! तब पूरी उम्र आराम ही करता रहेगा और खेलता-कूदता रहेगा !"

"बेटा, मनुष्य योनि का अमूल्य जीवन परीक्षा, डिग्री और जॉब का बोझ ढोने के लिए नहीं है ! इस जीवन को आनंद से जीना सीखो ! लाइफ को एंजॉय करो और इस बच्चे को भी करने दो !"

हर्ष ने पिता की बातों का उत्तर नहीं दिया । उनकी बातों को अनसुना करके वह मनु को पढ़ाता रहा । पिता के जाने के पश्चात् वह बड़बड़ाने की शैली में स्वगत संभाषण करने लगा -

"जब देखो, उपदेश देने लगते हैं ! आधुनिक युग में जीवन की यथार्थ समस्याओं से तो मानों पापाजी का परिचय ही नहीं ही नहीं हैं । उनकी बातों से कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारे पापा जी इस दुनिया के हैं ही नहीं, किसी दूसरी दुनिया से आज ही आए हैं !"

दोपहर पश्चात् लगभग चार बजे वहाँ से उठते हुए हर्ष ने मनु को कुछ पाठ्य सामग्री टेकर निर्देश दिया कि उसके लौटने तक वह उसका सम्यक अध्यन करे । मनु ने पिता का निर्देश शिरोधार्य करके सहमति में गर्दन हिला दी । हर्ष के वहाँ से प्रस्थान करते ही मनु के कानों में उसके दादा विक्रम का स्वर सुनाई पड़ा -

"अरे मनु ! उठो, शीघ्रता करो ! क्षणभर तक मनु असमंजस में किंकर्तव्यविमूढ़-सा दादा जी को देखता रहा । मनु को मौन देखकर दादा जी ने पुनः कहा - "चलना नहीं है क्या ?"

"कहाँ ?"

"खेलने के लिए !"

"सच ? पर, पापा जी ने कहा है ...!" मनु ने पिता की आज्ञा को खेल में अवरोधक अनुभव करके समस्या के निदान हेतु आशामयी दृष्टि से दादाजी की ओर प्रश्नात्मक मुद्रा में देखा ।

"मैं तेरे पापा का पापा हूँ ! समझ में आया ?" दादाजी ने मनु की समस्या का निराकरण करते हुए कहा ।

"समझ गया !" कहते हुए मनु अपनी सामग्री को एक ओर रखकर तुरंत खड़ा हो गया और दादा जी के साथ खेलने के लिए घर से बाहर चला गया ।

शाम के छह बजे हर्ष घर वापस लौटा । मनु को अध्ययन करते हुए न पाकर वह क्रोध में उबलने लगा । क्रोध के वशीभूत हर्ष ने पत्नी नीलिमा पर निशाना साधा कि उसे अपने बच्चे की पढ़ाई-लिखाई की कदापि चिंता नहीं रहती है । अपने ऊपर लगे आरोप से मुक्त होने के लिए नीलिमा ने कहा -

" घर से आपके निकलते ही पापा जी ने उसको खेलने के लिए चलने का ऑफर दिया था । वह तो जाना भी नहीं चाहता था, लेकिन उन्होंने कहा कि वह उसके पापा के पापा हैं, इसलिए उनकी आज्ञा सर्वोपरि है ! आप ही बताइए, मैं उस स्थिति में क्या कर सकते थी ? पापा जी की आज्ञा का उल्लंघन करती, तो आप भी मुझे ...!" नीलिमा के उत्तर ने हर्ष की क्रोधाग्नि में घी का काम किया । किंतु, अब उसका लक्ष्य नीलिमा के स्थान पर विक्रम और मनु थे ।

"ठीक है !" कहकर उसने नीलिमा को आश्वस्त कर दिया कि उसके क्रोध की लपटें अब नीलिमा को नहीं झुलसायेंगी । हर्ष ने नीलिमा से तो कह दिया था, "ठीक है" किंतु क्रोध से उसका विवेक नष्ट हो चुका था और अब उसको कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था । लगभग साढ़े छह बजे जब उसके पिता अपने पोते मनु के साथ घर लौटे, हर्ष ने क्रोधावेश में मनु को दो थप्पड़ जड़ दिये । उस समय यदि विक्रम सिंह बीच में नहीं आ जाते, तो संभवतः मनु को दो-चार थप्पड़ और भी पड़ जाते । पिता बीच में आने से हर्ष का क्रोध और अधिक बढ़ गया था । आवेश में उसने अपने पिता को भी खूब खरी-खोटी सुनायी और पुनः मनु को अपने साथ बिठाकर परीक्षा की तैयारी कराने लगा ।

अगले दिन प्रातः दस बजे से दोपहर एक बजे तक परीक्षा का समय था । परीक्षा केंद्र पर यथोचित समय पर पहुँचने के लिए मनु ने प्रातः नौ बजे घर से प्रस्थान किया था । उस समय वह प्रसन्नचित था । परीक्षा के प्रति बेटे की लगन और तत्परता को देखकर हर्ष बहुत उत्साहित था । पिता-पुत्र को प्रसन्न देखकर दादा विक्रमसिंह भी प्रसन्न थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे की मनु की परीक्षा अच्छी प्रकार से संपन्न हो जाए ताकि परीक्षा में उसके प्राप्तांकों का अच्छा प्रतिशत देखकर हर्ष अपने बेटे से निराश ना हो ।

मनु की परीक्षा संपन्न होने के निर्धारित समय, एक बजते ही परिवार के सभी सदस्य उसकी प्रतीक्षा करने लगे उन्हें बेटे द्वारा परीक्षा में अच्छा करने का शुभ समाचार मिल सके । प्रतीक्षा करते-करते दो बज गये, किन्तु मनु घर नहीं पहुँचा । हर्ष भी फोन करके कई बार इस विषय में पूछ चुके थे । अभी तक मनु की माँ और उसके दादा सोच रहे थे कि मनु अपने मित्रों के साथ मस्ती कर रहा होगा । किंतु, दो बजते ही मनु के दादा जी विक्रम सिंह को अपने पोते की चिंता सताने लगी थी । मनु की माँ नीलिमा को शीघ्र लौटने का आश्वासन देकर वे मनु के परीक्षा केंद्र की ओर चल पड़े । वहाँ पहुँचकर विक्रम ने मनु के विषय में आसपास के लोगों से तथा उसके मित्रो से पूछताछ की, परंतु मनु के विषय में कुछ ज्ञात नहीं हो सका । जहाँ-जहाँ उसके जाने की संभावना थी, वहाँ-वहाँ उन्होंने स्वयं जाकर उसको ढूँढने का प्रयास किया । उसके मित्रों की पूरी शृंखला की जानकारी लेकर उनमें से एक-एक के साथ संपर्क करते रहे, परंतु मनु के विषय में कहीं से कोई जानकारी नहीं मिल सकी थी । अभी तक उन्होंने मनु की माँ को भी यही बताया था कि मनु अपने मित्रों के साथ अगली परीक्षा की तैयारी कर रहा है । किंतु, मनु की कुशलक्षेम से सम्बन्धित विश्वसनीय सूचना के अभाव में स्वयं उनकी चिंता बढ़तीजा रही थी ।

शाम के पाँच बजे हर्ष ऑफिस से लौटे । ऑफिस से आते ही हर्ष ने मनु और उसकी परीक्षा के विषय में प्रश्नों की झड़ी लगा दी -

"कहाँ है मनु ? खेलने के लिए निकल गया होगा ! उसका प्रश्न-पत्र कैसा आया था ? दिखाओ तो जरा ! कितने प्रश्न हल किए ? छोड़ा तो नहीं है ना कोई प्रश्न ? सभी प्रश्न हल कर दिए हैं ना ?" हर्ष को अपने किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिला । नीलिमा ने अपने ससुर की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा, जिनकी आँखों के सागर में पहले से ही चिंता का ज्वार चढ़ा हुआ था । उसी समय दरवाजे की घंटी बजी । नीलिमा ने पुत्र-आगमन की आशा से दौड़कर दरवाजा खोला । दरवाजे पर मनु को खड़ा पाकर माँ की आँखों में चमक आ गयी । मनु को देखते ही हर्ष के हृदय में उसके उत्कृष्ट भविष्य की आशा का भाव तथा होंठों पर क्रोध उभर आया -

"कहाँ से आ रहे हैं शहजादे ? अगली परीक्षा की तो कोई चिंता ही नहीं है ! ... तो आज की परीक्षा में क्या करके आए हो ? प्रश्न-पत्र लाकर दिखाओ ?"

"व..व..वो ..पा..पा...!" स्पष्ट उत्तर दिए बिना ही हकलाते हुए मनु दादा के पीछे जाकर खड़ा हो गया । उस समय संकोच और भय मिश्रित भाव मनु के चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे । दृष्टि में सामने साक्षी और दादा हे फरोख्त हैं अगर था कि उसे पिता के ऑफिस बचा ले ! मनु के मनोभाव को समझकर दादा विक्रम सिंह ने उसके कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त करते हुए कहा -

"इस समय तक कहाँ थे तुम ? तुम्हें कम से कम एक फोन तो कर देना चाहिए था ? तुम्हारी चिंता में हमारा कितना बुरा हाल था, तुम अनुमान भी नहीं कर सकते !"

"सॉरी दादा जी !"

"चलो पापा को अपना प्रश्न-पत्र दिखाओ ! जो वह पूछ रहे हैं, उन्हें बताओ !" विक्रम सिंह ने मनु को भावात्मक संबल प्रदान करते हुए आदेश देकर दादा होने का कर्तव्य निर्वाह किया ।

"वो-वो क्या कर रहा है, जो पूछा जा रहा है, उसका से उत्तर नहीं दे सकते क्या ?" हर्ष ने डाँटते हुए मनु से कहा ।

"पापा, परीक्षा तो नहीं दे सका ! सॉरी ! पापा !"

"परीक्षा नहीं दे सका ? क्यों ? क्यों नहीं दे सके परीक्षा ? मैंने अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर तुम्हारी परीक्षा की तैयारी करायी थी, और तुम कहते हो परीक्षा नहीं दे सके !" यह कहते हुए हर्ष का गला रुंध गया और आँखों से अश्रूधारा बहने लगी । उसके बाद हर्ष के मुख से एक भी शब्द नहीं निकला । का मन उत्तर सुनकर विक्रम भी चकित थे, परंतु उसके साथ कठोर व्यवहार करने के पक्ष में नहीं थे । उन्हें विश्वास था, मनु की परीक्षा छूटने के पीछे अवश्य ही कोई गंभीर कारण रहा होगा ! इसलिए हर्ष को समझाते हुए कहा -

"बेटा, पहले उसकी सुन तो ले, उसने परीक्षा क्यों नहीं दी !" तत्पश्चात् मनु से मुखातिब होकर बोले -

"क्यों नहीं दे सके तुम परीक्षा ?" दादा द्वारा सहज शैली में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए मनु ने कहा -

"दादा जी, मैं सुबह परीक्षा के निर्धारित समय से पहले ही से निकल गया था, लेकिन ऑटो-रिक्शा से आधा रास्ता ही तय कर पाया । आगे सड़क पर इतना जाम लगा हुआ था कि ऑटो-रिक्शा जाने के लिए रास्ता नहीं था ।"

"तो पैदल चला जाता ! स्कूल दस-बीस किलोमीटर दूर तो नहीं है !" हर्ष ने कठोर शैली में कहा ।

"पापा जी, मैं ऑटो-रिक्शा से उतरकर पैदल चल पड़ा था । थोड़ा-सा आगे चला, तो सड़क पर लोगों की भीड़ जमा थी । पूछने पर पता चला बस की टक्कर से एक किशोरवयः लड़का गंभीर रुप से घायल हो गया है । मैंने आगे बढ़ कर देखा, मेरा सहपाठी राहुल सड़क पर रक्तरंजित अवस्था में पड़ा हुआ तड़प रहा था । वहाँ पर कुछ लोग खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और पुलिस के आने प्रतीक्षा कर रहे थे ; कुछ लोग उसको देखते हुए यथास्थिति उसकी हालत पर छोड़कर आगे बढ़े जा रहे थे । पापा, मैं तो ऐसा नहीं कर सकता था !"

"क्यों, तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे ? तुम उसके अभिभावकों को सूचना देकर अपनी परीक्षा क्यों नहीं दे सकते थे ?" हर्ष ने नाराजगी व्यक्त करते हुए उपेक्षा की शैली में कहा ।

"पापा जी, उसके मम्मी-पापा नहीं है ! उसकी दादी ने उसका पालन-पोषण किया है, इसलिए मैं कुछ लोगों की सहायता से उसे अस्पताल में ले गया । उसकी दशा बहुत गंभीर थी । उस स्थिति में मुझे उसके पास अस्पताल में रुकना चाहिए, यह सोचकर मैं वहीं रुक गया । तब से अब तक मैं ... ! दवाइयाँ लाने के लिए रुपयों की आवश्यकता थी, सोचा आप से कुछ सहायता मिल जाएगी ।" यह कहकर मनु बारी-बारी से अपने पिता तथा दादा की ओर देखते हुए उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा । कमरे में कुछ क्षणों तक निस्तब्धता बनी रहने के पश्चात् दो विरोधाभासी स्वर एक साथ उभरे-

"शाबाश बेटा ! शाबाश ! मुझे गर्व है मेरे पोते पर ! आज मैं सारी दुनिया के सामने सीना ठोककर कह सकता हूँ, मैं मनु का दादा हूँ !" विक्रम ने भावविह्वल होकर कहा ।

दूसरा स्वर हर्ष का था -

"अभी भी उसकी दवाइयों के लिए रुपये लेने के लिए आया है ! रुपयों की जरुरत नहीं होती, तो नहीं आता ! उसके साथ अस्पताल में ही रहता ! आज की परीक्षा छोड़ दी ! दो दिन बाद गणित की परीक्षा है, उसकी तैयारी की भी कोई चिंता नहीं है, साहबजादे को !"

पिता और दादा की प्रतिक्रिया में विरोधाभास पाकर मनु किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था । अपने सत्रह वर्ष के जीवनकाल में ऐसा विरोधाभास उसने आज पहली बार नहीं देखा था, बल्कि किसी-न-किसी विषय पर हर दिन एक-दो बार ऐसा विरोधाभास उसके पारिवारिक परिवेश का अभिन्न अंग बन चुका था । अतः यह विरोधाभास वहन करना अब तक उसके सामान्य स्वभाव में शामिल हो चुका था । अन्त में शिष्टाचारवश हर्ष चुप हो जाते थे । दूसरे शब्दों में कहें तो, प्रत्यक्षतः परोक्षतः हर्ष पराजय स्वीकार कर लेते थे और विक्रम विजयी हो जाते थे । इस आधार पर मनु का मानना था, आज भी विजय-पताका उसके दादा के हाथ में ही होगी । अर्थात अंतिम निर्णय उसीके पक्ष में आएगा ! मनु का अनुमान तब अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ, जब विक्रम सिंह ने निर्णायक मुद्रा धारण करते हुए कहा -

"बेटा ! एक बार मानवता के झरोंखे से झाँकर देख, जीवन मनमोहक दिखाई देने लगेगा !" हर्ष भाव शून्य दृष्टि से पिता को घूरता रहा । उसके ललाट पर चिन्ता तथा तनाव की रेखाएँ उभर आयी थी । उसने मन ही मन कहा, आपके बताए हुए मानवता के झरोखे से झाँकने के कारण ही आज मनु की परीक्षा छूट गयी है, फिर भी ... !" उसकी मुखमुद्रा देखकर विक्रम सिंह ने पुनः कहा -

"जीवन की वास्तविक परीक्षा किसी निश्चित और सीमित विषय में पूर्वनिर्धारित समय पर नहीं होती, बल्कि जीवन-जगत से जुड़े प्रश्नों के रूप में यह परीक्षा प्रतिक्षण होती रहती है और उन प्रश्नों-समस्याओं की प्रतिक्रिया स्वरुप आपके व्यवहार के रूप में आपकी योग्यता का आंकलन होता है । जीवन की इस वास्तविक परीक्षा में हमारा मनु प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ है । कल तुम्हें मेरे इस कथन की सत्यता का आभास हो जाएगा ।" यह कहकर विक्रम सिंह मन-ही-मन मुस्कुराने लगे और अगले ही क्षण यह कहते हुए कमरे से बाहर निकल गये कि "लौटने में थोड़ी देर हो सकती है !"

"हँ-अ ! (उपेक्षा-भाव से भोंहें सिकोड़कर) कल क्या कर लेंगे ? क्या आज की छूटी हुई परीक्षा कल करा देंगे ? जीवन-भर उदारता, प्रेम, दया, क्षमा, सहिष्णुता के खोखले सिद्धांतों के पीछे दौड़ते रहे हैं ; मानवतावादी लंबे-लंबे भाषणों को अपने जीवन के कैनवास उतारते रहे हैं, पर इन्हें आज तक मिला क्या है ? आज तक कुछ नहीं मिला, कल क्या मिल जाएगा ? यही हाल रहा, तो मनु का ग्रेजुएशन में भी प्रवेश नहीं हो पाएगा ! पिता के कथन के प्रति असन्तोषजन्य उपेक्षापूर्ण शैली में बड़बड़ाते हुए हर्ष ने स्वगत संभाषण किया ।

अगले दिन शहर के सभी प्रमुख समाचार-पत्रों में मनु की मानवता की चर्चा उसके रंगीन चित्र के साथ प्रकाशित हुई थी । कई गणमान्य व्यक्तियों ने मनु को मानवीयता और मित्रता का स्तंभ बताते हुए अपने वक्तव्य दिये थे और उसके निर्णय की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी । सुबह से ही बधाई देने के लिए हर्ष और विक्रम के परिचितों के फोन आने लगे थे । बधाई देने वालों के मुख से सद्मार्ग पर चलते हुए बेटे के स्वर्णिम भविष्य की मंगलकामनाएँ सुनकर हर्ष की आँखों में प्रसन्नता के भावातिरेक से आँसू झरने लगे । हर्ष को प्रसन्न देखकर विक्रम ने अपनी विजय पताका लहराते हुए कहा -

"देखा, हर्ष बेटा ! असली परीक्षा यह थी, जो तेरे मनु ने कल दी थी और आज उसका परिणाम जन-जन की जुबान पर तू देख रहा है ! इस परीक्षा और परिणाम में न तनाव होता है ना चिंता होती है ! बस जीवन का आनंद होता है, जो साँसो को सार्थक कर देता है !"

"जी पापा जी ! मैं समझ गया ! लेकिन, इस बात को न कोई एजुकेशनल इंस्टीट्यूट समझता है और न ही एंप्लॉयर कंपनीज समझती हैं ! न तो उच्च श्रेणी के मानवतावादी आचरण को आधार मानकर किसी अच्छे शिक्षा-संस्थान में प्रवेश मिलता है, न अच्छी नौकरी मिल पाती है ! सभी अच्छे शिक्षा संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए अच्छा अंक-प्रतिशत रखना और किसी अच्छी कंपनी में अच्छी नौकरी पाने के लिए अच्छे शिक्षा संस्थान में शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है ! पापा जी, मैं आपके विचारों का समर्थन करता हूँ, पर बेटे के भविष्य की चिंता ... मुझ-जैसे सामान्य लोगों को आदर्श के ऊँचे आकाश से यथार्थ की कठोर भूमि पर पटक ही देती है !" यह कहते हुए हर्ष पिता के सीने से लग गए । कुछ क्षणोपरांत पिता के सीने से हटकर हर्ष ने पुनः कहा -

"पापा जी, मनु की छूटी हुई परीक्षा ... ?"

"शिक्षा बोर्ड के ऊँचे-ऊँचे पदों पर बैठे हुए महानुभावों के पास हृदय और मस्तिष्क दोनों होते हैं । हमारे मनु की परीक्षा मानवता की रक्षा के लिए छूटी है, हम उन्हें यह प्रमाण सहित बताएँगे, तो परीक्षाएँ संपन्न होने की निर्धारित तिथि के पश्चात् वे मनु की परीक्षा दिलाने में हमारी सहायता अवश्य करेंगे ! मुझे अपने देश की व्यवस्था और विधाता की व्यवस्था पर पूर्णविश्वास है !"

"जी दादा जी ! मैं आपसे अक्षरशः सहमत हूँ !"

"तू तो सहमत होगा ही, दादा जी के चमचे !" हर्ष ने परिहास आत्मक मुद्रा में कहा और तीनों ठहाका मारकर हँसने लगे ।