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बस्ती में संस्कार समारोह

बस्ती में संस्कार समारोह

'आँख का अंधा नाम नैनसुख' उक्ति को चरितार्थ करती हुई नीलमणि कॉलोनी, गाजियाबाद में लगभग छः सौ परिवार निवास करते हैं । हलकी सी बरसात होते ही कॉलोनी में पानी भर जाता है, जिसमें कीड़े तथा मच्छर पनपते रहते हैं और इतनी दुर्गंध हो जाती है कि साँस लेना दूभर हो जाता है । यह कॉलोनी समग्र जनता के प्रति शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता और जवाबदेही की यथार्थ स्थिति की ओर इंगित करती है । यहाँ की बाईस परिवारों की झुग्गी बस्ती गैर-सरकारी संगठनों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है । बस्तीवासियों के उद्धार के लिए यहाँ एकाधिक गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा शिक्षा तथा स्वावलंबन से संबंधित कई सेवा-प्रकल्प की चलाए जाते हैं और उन संस्थाओं के अधिकारियों का भ्रमण भी प्राय होता रहता है । किंतु, वर्षों बीत गए, बस्ती का उद्धार तो नहीं हो सका, बस्तीवासियों के साथ फोटो खिंचवाकर उनके उद्धार हेतु छोटी-बड़ी धनराशि के लंबे-चौड़े बिल बना कर उन संस्थाओं का उद्धार भले ही हो गया है । झुग्गी बस्तीवासी प्राइवेट स्कूल की फीस चुकाने में सक्षम नहीं होने और बस्ती के निकट कोई सरकारी विद्यालय नहीं होने से बस्ती के बच्चे विद्यालय नहीं जा पाते हैं । गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा यहाँ कुछ संस्कारशालाएँ चलाई जाती हैं, जिनमें अक्षर-ज्ञान के साथ-साथ जीने के लिए आधारभूत बातें सिखाई जाती हैं जैसे - प्रातः सूर्योदय से पहले उठना चाहिए ; भोजन से पहले सदैव हाथों को भाँति धोना चाहिए आदि । संस्थाओं की ओर से कभी-कभी खाने की वस्तुएँ, पुराने वस्त्र आदि भी बाँटे जाते हैं, इसलिए मन बहलाने के उद्देश्य से बस्ती के बच्चे इन संस्कारशालाओं में आ जाते हैं । सफाई संबंधी शिक्षाओं पर अमल करना इन बच्चों की पारिवारिक जीवन शैली से मेल नहीं खाता है, सो नहाना-धोना नित्यप्रति नहीं हो पाता है । फिर भी, पुष्पा, मीनाक्षी, सुनीता आदि कई स्थानीय शिक्षिकाएँ एकाधिक सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़कर समाज-सेवा का पुण्य-लाभ अर्जित करने के साथ-साथ न्यूनाधिक आर्थिक सामाजिक लाभ कमाते हुए झुग्गी-बस्ती के बच्चों तथा उनके परिवारों के साथ नित्यप्रति संपर्क रखती हैं ।

मई माह में एक एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा बस्ती में संस्कार समारोह का आयोजन किया गया, ताकि उस संस्था के सहयोग से संचालित संस्कारशालाओं में संस्कारित बच्चों को कुछ सहायता-सामग्री वितरित की जा सके और संस्था के अधिकारी-गण फोटो खिंचवाकर अपनी उपलब्धियों की सूची पट्टिका को लंबी कर सकें । संस्कारशाला की शिक्षिकाओं को समारोह की निर्धारित तिथि पन्द्रह मई की सूचना लगभग एक माह पूर्व ही संप्रेषित कर दी गई थी । सूचना पाने के अगले दिन से ही शिक्षिकाओं द्वारा अपनी अपनी-अपनी संस्कारशाला के बच्चों को समारोह में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए नृत्य, गायन, नाट्य-मंचन आदि का अभ्यास कराया जाने लगा । शिक्षिकाओं के प्रोत्साहन से बच्चे भी मनोरंजक और रुचिकर क्रियाकलापों के अभ्यास में उत्साहपूर्वक भाग लेने लगे । अभ्यास के दौरान झुग्गी बस्ती के दस वर्षीय छिद्धा की कला-प्रतिभा को देखकर शिक्षिकाएँ भी हैरान रह गई । प्रधान अध्यापिका सुनीता ने तो उसके नृत्य एवं अभिनय को देखकर उसका नाम टाइगर रख दिया था । इतना ही नहीं, उन्होंने टाइगर तथा उसके अन्य प्रतिभाशाली कलाकार मित्रों को संस्कार-समारोह में पुरस्कृत करने एवं संस्था के सहयोग से किसी अच्छे शिक्षा-संस्थान में प्रवेश दिलाने का भरोसा भी दिया था । शिक्षिकाओं के प्रोत्साहन से कार्यक्रमों में भाग लेने वाले बच्चों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गई और अपनी कला प्रदर्शन के फलस्वरूप पुरस्कार पाने की लालसा उनकी कलाकार प्रतिभा का परिष्कार करती रही । संस्था के पदाधिकारियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए समारोह के आयोजन हेतु नीलमणि बस्ती से जुड़ी बी.इ.एल. कॉलोनी में एक खाली प्लॉट किराए पर लिया गया । योजना के अनुसार समारोह प्रातः आठ बजे से आरंभ होकर नौ बजे संपन्न होना था । अतः शिक्षिकाओं के निर्देशानुसार पन्द्रह मई को सभी बच्चे प्रातः सात बजे ही समारोह स्थल पर उपस्थित हो गए ताकि अपनी प्रस्तुति का अभ्यास किया जा सके । सभी शिक्षिकाएँ भी समारोह संबंधी व्यवस्था करने तथा अपने-अपने बच्चों को उनकी प्रस्तुति का अभ्यास कराने के लिए यथोचित समय से समारोह स्थल पर पहुँच गई थी । शिक्षिकाओं के पहुँचते ही छिद्दा ने एक बच्चे की बाँह पकड़कर कहा था --

"मैडम जी, यह मेरा फुफेरा भाई बब्बन है ! आप मुझे डांस और नाटक का अलग-अलग इनाम देंगी, तो एक बब्बन भैया को दूंगा ।"

"ठीक है, टाइगर जी ! आपको दो इनाम मिलेंगे ! अब अभ्यास आरंभ करो !" मैडम ने स्नेहपूर्वक कहा । अभ्यास करते-करते नौ बज गये । अब तक बच्चे पूरी तरह थककर भूख से बेचैन होने लगे थे, किंतु समारोह का आयोजन कराने वाली संस्था का कोई अधिकारी अभी तक वहाँ पर नहीं पहुँचा था । समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था । धीरे-धीरे नौ से दस - ग्यारह और फिर बारह बज गए । सभी बच्चे अब भूख से अत्यधिक व्याकुल हो रहे थे । छिद्दा ने भूख जनित पीड़ा को छिपाते हुए प्रधान शिक्षिका से कहा -- "मैडम जी, बहुत तेज भूख लगी है ।"

"मैडम जी, मुझे भी भूख लगी है । देखो मेरे पेट में तो चूहे उछल-कूद कर रहे हैं ।" दूसरे बच्चे ने शरारती भाव से अपने पेट को अंदर-बाहर पिचकाते-फुलाते हुए कहा ।

"ठीक है, अभी बड़ी मैडम आएँगी ! कार्यक्रम में आप सब की कला-प्रतिभा देखकर वे आपको खाना भी देंगी और पुरस्कार भी देंगी । तब तक सभी बच्चे पंक्ति में शांत खड़े हो जाओ !" प्रधान अध्यापिका सुनीता ने बच्चों को आदेश दिया ।

"मैडम जी, यहाँ बहुत धूप है । नीचे से गरम धरती पैरों को जलाती है, ऊपर से धूप सिर को जला रही है ।"छिद्दा ने पुनः कहा ।

"बड़ी मैडम तुम सबको लाइन में नहीं देखेंगी, तो नाराज हो जाएँगी । पुरस्कार लेना है, तो पंक्तिबद्ध खड़े हो जाओ !" मैडम ने पुनः बच्चों को घुड़कते हुए कहा । अध्यापिका का आदेश सुनकर सभी बच्चे पंक्तिबद्ध खड़े हो गए । दस मिनट पश्चात् एक के बाद एक-एक करके बच्चे भूख और धूप के संयुक्त प्रहार से अचेत होकर गिरने लगे । प्रधानाध्यापिका सुनीता ने अचेत बच्चों को छाया में लिटा कर उनकी चेतना लौटाने के लिए प्राथमिक उपचार किया । शेष बच्चों को पंक्ति तोड़कर छाया में आने का आदेश दिया ।

बारह बजे दो कार बस्ती में समारोह स्थल पर आकर रुकी । संस्था की ओर से दो पुरुष तथा चार महिला पदाधिकारियों का शुभागमन देखकर बच्चों तथा शिक्षिकाओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । चारों पदाधिकारियों ने समारोह का श्रीगणेश करने के लिए शिक्षिकाओं से बच्चों को व्यवस्थित करने के लिए कहा । शिक्षिकाओं ने बच्चों को उन्हें पंक्तिबद्ध खड़ा करने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें आंशिक सफलता ही मिल सकी । बच्चों को अव्यवस्थित खड़े देखकर पदाधिकारियों की झुंझलाहट बढ़ने लगी । किंतु सब व्यर्थ था । वे बच्चों को डाँटते रहे और बच्चे आपस में झगड़ते-चिल्लाते रहे । बच्चों की नितांत सामान्य चेष्टाओं पर भी एक-एक अधिकारी को क्रोध आ रहा था । क्रोधावेश में वे शिक्षिकाओं द्वारा दिये गये बच्चों के संस्कारों पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगे -- " कैसे संस्कार दिए हैं, आपने इन बच्चों को ? आज तक आपने इन्हें इतना भी नहीं सिखाया, अतिथियों के सामने कैसा आचरण करते हैं ?"

"सॉरी सर ! सिखाया तो सब कुछ है । आज बच्चे धूप में थोड़े से...!" शिक्षिकाओं ने सॉरी बोलकर अधिकारियों को संतुष्ट करने का प्रयास किया । अपने प्रयास में उन्हें इतनी सफलता अवश्य मिली कि आगन्तुक अधिकारियों ने डाँटना बंद करके शिक्षिकाओं को आदेश दिया कि वे बच्चों के लिए टिफिन बॉक्स लेकर आए हैं, उन्हें वितरित कर दिया जाए । उसी समय एक बच्चे ने आकर पूछा -

"मैडम जी, हम डांस कब करेंगे ?" बच्चे का प्रश्न सुनकर शिक्षिका ने आगंतुक पदाधिकारियों की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा । उधर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली, तो प्रधानाध्यापिका सुनीता ने कहा -- "मैडम, ये बच्चे बहुत अच्छा डांस करते हैं, एकदम अद्भुत ! जब से इन्हें समारोह के विषय में पता चला है, तब से दिन में कई-कई घंटे अभ्यास करते रहे हैं । आप एक बार इनका ड्रांस देखेंगे, तो दाँतों तले उँगली दबा लेंगे !

"नहीं-नहीं ! अब इतना समय नहीं है !"

"प्लीज ! मैडम ! बच्चों ने बहुत परिश्रम और लगन से अभ्यास किया है । इनकी कला प्रतिभा को देखने के लिए आप अपना थोड़ा-सा समय खर्च कर देंगी, तो इनको बहुत अच्छा लगेगा ! इनमें से किसी बच्चे में गाने की, किसी में डांस करने की, तो किसी में अभिनय करने की अद्भुत प्रतिभा है !" प्रधान शिक्षिका ने विनम्र आग्रह किया ।

"नहीं ! हमारे पास इतना समय नहीं है !"

"प्लीज ! मैडम ! एक बार, बस एक बार इन बच्चों का प्रदर्शन देख लीजिए ! आज के प्रदर्शन के लिए हमने बहुत लगन से तैयारी कराई है, इन बच्चों की ! शिक्षिका के बार-बार नम्र निवेदन करने के बावजूद अधिकारी बच्चों का प्रदर्शन देखने के लिए तैयार नहीं हुए और यथाशीघ्र टिफिन बॉक्स वितरित करने के लिए आदेश दिया । आदेश का पालन करते हुए शिक्षिकाओं ने बच्चों को पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया । अधिकारीगण बच्चों को टिफिन बॉक्स वितरित करने के लिए खड़े हो गए ।आगंतुक छह अधिकारियों में से पाँच अधिकारियों ने शिष्टाचार का निर्वाह करते हुए सबसे वरिष्ठ महिला अधिकारी के हाथ से एक बच्चे को टिफिन बॉक्स देने का आग्रह किया । फोटोग्राफर फोटो खींचने के लिए तैयार खड़ा था । जैसे ही वरिष्ठ महिला अधिकारी ने अपने सुकोमल सुडोल हाथों से बच्चों को टिफिन बॉक्स प्रदान किया, उनकी तस्वीर फोटोग्राफर के कैमरे में कैद हो गई । तत्पश्चात् सभी अधिकारियों ने भी एक-एक बच्चे को टिफिन बॉक्स देते हुए फोटो खिंचवाय । शेष बच्चों को टिफिन बाँटने का दायित्व-भार स्थानीय शिक्षिकाओं को सौपकर सभी अधिकारी अपनी नाक को रुमाल या दुपट्टे से ढककर अलग हटते हुए बोले -- "कितनी दुर्गंध आ रही है, इन बच्चों में से !"

एक महिला अधिकारी ने कहा -- "मेरा तो सिर फटा जा रहा है इस दुर्गंध से !"

"और कुछ देर यहाँ पर रुके, तो, मैं तो बीमार पड़ जाऊँगी !" दूसरी महिला अधिकारी ने कहा ।

"जल्दी-जल्दी वितरण कार्य संपन्न करके निकलो यहाँ से !" इस बार पुरुष अधिकारी ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए दुर्गंध की समस्या से मुक्ति का उपाय सुझाया ।

"कितनी भी जल्दी कर लें, कम से कम दस-पन्द्रह मिनट तो लग ही जायेंगे !" तीसरी महिला अधिकारी ने अपना मत प्रकट किया । अधिकारियों के निकट ही उनकी दृष्टि से ओझल प्रधान शिक्षिका सुनीता खड़ी थी । उनका एक-एक शब्द बाण की भाँति शिक्षिका के मर्म को आहत कर रहा था । आज तक संस्था के जिन वरिष्ठ अधिकारियों को वह विशाल हृदय का स्वामी समझती रही थी, आज उसके समक्ष उन्हीं के हृदय की संकीर्णता की पोल खुल चुकी थी । उन अधिकारियों के प्रति उसकी श्रद्धा आज घृणा में परिवर्तित होने लगी थी और उसके व्यवहार में उपेक्षा-भाव अपनी जगह बना रहा था । कुछ ही क्षणों में उसके हृदय में घृणा और उपेक्षा भाव इतना अधिक बढ़ गया कि छलककर होंठों पर आ गया --

"इन बच्चों के साथ फोटो खिंचवाने में आपको दुर्गंध नहीं आई थी ? क्यों ? क्योंकि उनके साथ फोटो खिंचवा कर आप सारी दुनिया को और सरकार को दिखाना चाहते हैं कि आप गरीबों के उद्धार के लिए बहुत काम करते हो ! अपने झूठे व्यवहारों से आप इंसानों को धोखा दे सकते हो, पर ऊपर वाला जानता है, आपके दिल में गरीबों के लिए कितनी हमदर्दी है ! याद रखना, जब उसकी लाठी पड़ती है, तो आवाज नहीं करती !"

"सुनीता जी, आखिर हुआ क्या है ? आप इतना क्रोध क्यों कर रही हैं ?" वरिष्ठ महिला अधिकारी ने अनजान बनते हुए कहा ।

"मैं आपकी एक-एक बात सुन चुकी हूँ ! मैं आपके विचारों को समझ चुकी हूँ ! मैं आपकी झूठी संवेदना के आड़म्बर को देख चुकी हूँ ! आपके खाने के दाँत अलग है और दिखाने के दाँत अलग हैं, यह भी मैं समझ चुकी हूँ ।"

"आपको अवश्य ही कुछ भ्रम हुआ है, सुनीता जी ! हमारे बीच ऐसी कोई बात नहीं हो रही थी ।" पुरुष अधिकारी ने इस सफाई देते हुए कहा । लेकिन सब व्यर्थ था । प्रधान अध्यापिका सुनीता का क्रोध सातवें आसमान पर था ।

"आज के बाद इस बस्ती में एक भी संस्कारशाला आप के बैनर तले नहीं चलेगी, यह मेरा निर्णय है !" अचानक ऊँचे स्वर में सुनीता के अप्रत्याशित वार्तालाप को सुनकर अब तक अन्य तीनों शिक्षिकाएँ तथा उनकी संस्कारशालाओं के सारे बच्चे भी आकर सुनीता के निकट खड़े हो गए थे । यह देखकर वरिष्ठ महिला अधिकारी ने लापरवाही की मुद्रा में कहा -

"सुनीता जी, आप बात को बढ़ाइए मत ! छोटी-सी बात को तिल का ताड़ मत बनाइए !" सुनीता को आशा थी अधिकारी उसके शब्दों पर गंभीर प्रतिक्रिया देंगे, किंतु ऐसा नहीं हुआ था । अपनी आशानुरूप प्रतिक्रिया नहीं मिलने से सुनीता व्याकुल होकर बोली -- "सर जी ! मैडम जी ! जिन परिवारों के बच्चे हमारी संस्कारशालाओं में आते हैं, उनमें से कुछ परिवार सड़क पर कूड़ा बीनकर अपनी जीविका चलाते हैं ; कुछ परिवार प्राइवेट फैक्ट्रियों में बारह-बारह घंटे मजदूरी करते हैं । उनके पास जीवन के लिए पर्याप्त सुख सुविधाओं का और शिक्षा का अभाव नहीं होता, तो मात्र एक टिफिन के लिए ये बच्चे सुबह सात बजे से अब दोपहर दो बजे तक भूखे-प्यासे धूप में नहीं खड़े रहते ।"

"इन लोगों में शिक्षा-जागरूकता का अभाव है, इसीलिए तो हमारी संस्था आपको एक हजार रुपये देकर इस बस्ती में संस्कारशालाएं चलाती है । आपका कहना है, बच्चे टिफिन बॉक्स लेने के लिए सुबह से यहाँ खड़े हैं, हमने बच्चों को मिठाई सहित टिफिन बॉक्स बाँटे हैं, फिर आप इतना क्यों बिगड़ रही हैं ? अब और क्या चाहते हैं आप ?" पुरुष अधिकारी ने तल्खी भरे लहजे में कहा ।

"सर जी, इन बच्चों को मिठाई के दो टुकड़े और टिफिन बॉक्स की अपेक्षा आपके स्नेह और सम्मान की अधिक आवश्यकता है । इन्हें आपके दिखावे की नहीं, ऐसे माहौल की आवश्यकता है, जिसमें इन्हे यह एहसास हो सके कि भले ही ये गरीब हैं, पर ये भी आपकी भाँति मनुष्य ही हैं ; इन्हे भी सम्मानपूर्वक जीने का उतना ही अधिकार है, जितना आपको है !"

अधिकारियों के समक्ष उन्ही की विकृत मानसिकता का अनावरण करते हुए, कटु किंतु सत्य टिप्पणी करने के पश्चात् सुनीता अन्य शिक्षिकाओं तथा संस्कारशालाओं के बच्चों की ओर मुड़कर गंभीर मुद्रा में बोली--

"हमारे अतिथि अधिकारियों को हमारे बच्चों से दुर्गंध आती है, इसलिए ये लोग हमारे बच्चों का कला-प्रदर्शन नहीं देख सकते, जिसके लिए हमने और हमारे बच्चों ने पिछले एक महीने से निरंतर अभ्यास किया है । न ही ये लोग अपने हाथों से बच्चों को पुरस्कार नहीं बाँट सकते हैं । हमारे अधिकारी हमारे साथ और हमारे बच्चों के साथ फोटो खिंचवा सकते हैं, ताकि अपने बड़प्पन का प्रचार करके गरीबों के साथ अपनी सहानुभूति को कैश कर सकें ।" यह कहकर सुनीता मौन हो गई । उसकी आँखों से पानी टपकने लगा । आँखो का पानी पोंछते हुए कुछ क्षणोपरांत उसने पुनः कहा --

"कहने को तो गैर-सरकारी संस्थाओं के अधिकारी इस गरीब बस्ती का और बस्तीवासियों का उद्धार करने के लिए आए हैं । पर इन्हें हमारे बच्चों के साथ दो मिनट खड़ा होना भी स्वीकार्य नहीं है । इनकी असलियत हमारे सामने आ गई है । अब आपको निर्णय लेना है, आपको मान-सम्मान चाहिए या मिठाई के दो टुकड़े और एक टिफिन बॉक्स ? यदि सम्मान चाहते हो, तो अपने स्वाभिमान की रक्षा करो ! टिफिन बॉक्स वापस लौटा दो !" सुनीता का आग्रह स्वीकार करते हुए स्थानीय शिक्षिकाओं ने बच्चों को टिफिन बॉक्स वापिस लौटाने का संकेत कर दिया । संकेत पाते ही सभी बच्चों ने तत्काल टिफिन बॉक्स वापिस कर दिये । शिक्षिकाओं के साथ बच्चों का प्रबल समर्थन पाकर सुनीता ने अधिकारियों से कहा --

"आज के बाद आपकी संस्था के बैनर तले इस बस्ती में एक भी संस्कारशाला नहीं चलेगी, यह हम सब का निर्णय है ! आज के बाद आप इस बस्ती में तभी आइएगा, जब आपकी मानसिकता पूर्ण पवित्र और निर्मल हो जाए ! प्रधानाध्यापिका का सुनीता जी का कठोर निर्णय सुनकर छिद्दा और उसके साथी एक साथ पूछने लगे --

"मैडम जी, अब हम कभी डांस नहीं करेंगे ? हम कभी नाटक नहीं खेलेंगे ? हमें कभी इनाम नहीं मिलेगा ?"

" हम जल्दी ही एक कार्यक्रम जरूर करेंगे । उसमें आप सब डांस भी करेंगे ; नाटक भी खेलेंगे ; गीत भी गाएँगे और आपको पुरस्कार भी मिलेगा !" शिक्षिकाओं ने बच्चों को उनकी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए कार्यक्रम कराने का आश्वासन दिया, तो बच्चे एक नई आशा लेकर धीरे-धीरे घर लौटने लगे ।

छिद्दा लौटकर घर आया, तो माँ के सीने से लिपटकर फफक-फफक कर खूब रोया। माँ के पूछने पर उसने बताया -- "बहुत दूर से आई बड़ी मैडम जी ने हमारा डांस और नाटक नहीं देखा । मुझे एक भी इनाम नहीं मिला । अब मैं बब्बन भैया को कुछ नहीं दे सकता !" माँ के बहुत अथिक समझाने के पश्चात् छिद्दा शांत होकर चारपाई पर लेट गया । माँ भी नींबू-मिर्च की लड़ियाँ बनाने के काम में व्यस्त हो गई । कुछ समय पश्चात माँ छिद्दा के पास आई । बच्चे को शांत देखकर बोली -- "मैडम के पिरोगराम में दावत नहीं खाई थी ? माँ, बड़ी मैडम ने और सर ने हमारा डांस भी नहीं देखा, नाटक भी नहीं देखा । बस, हमारे साथ फोटो खिंचवाए !"

"दावत क्यों नहीं खाई ?"

"माँ, मैडम ने हमारा डांस भी नहीं देखा, नाटक भी नहीं देखा, हमें इनाम भी नहीं दिया ।" हर प्रश्न के उत्तरस्वरूप छिद्दा बार-बार बस एक ही बात कह रहा था । अतः बच्चे को तनाव में देखकर माँ ने पुनः कुछ नहीं पूछा । घर में जो कुछ रूखा-सूखा उपलब्ध था, थाली में रखकर ले आई --

"भूख लगी होगी तुझे ! ले, थोड़ा-सा कुछ खाएगा, तो तसल्ली मिलेगी !" माँ के बार-बार आग्रह करने पर भी छिद्दा खाना खाने के लिए नहीं उठा । माँ ने देखा, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी । बेटे के आँसू देखकर माँ व्यथित हो गयी और वात्सल्यपूर्वक अपनी अंगुली के पोर से बेटे की आँखों से बह कर कनपटी पर आए पानी को पोंछने लगी । बेटे के चेहरे पर उंगली का स्पर्श करते ही मांँ जोर से चीख उठी--

"तुझे ताप चढ़ा है, मेरे बच्चे !" अपने बच्चे का बढ़ा तापमान देखकर किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका से रोते हुए मां कुछ बड़बड़ाती जा रही थी और छिद्दा के अंग प्रत्यंग का स्पर्श करती जा रही थी । छिद्दा की माँ के रोने का स्वर सुनकर अन्य पड़ोसी स्त्री-पुरुष भी झुग्गियों से निकल आए थे ।

छिद्दा की हालत गंभीर होती देखकर पड़ोसियों के सुझाव से माता-पिता उसको निकट के झोलाछाप चिकित्सक के पास ले गए। रात के नौ बजे उस चिकित्सक ने छिद्दा का उपचार करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए सुझाव दिया -- "बच्चे की हालत अत्यधिक गंभीर हो चुकी है, इसको यथाशीघ्र अस्पताल में भर्ती करा दीजिए , अन्यथा ...!"

तत्पश्चात कई घंटे तक इधर-उधर भटकने के बाद छिद्दा को राजकीय अस्पताल में ले जाया गया । वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि फिजिशन विभाग के तीनो वरिष्ठ चिकित्सक वी आइ पी ड्यूटी पर तैनात हैं । डॉक्टर्स की कमी के चलते छिद्दा को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए उसके माता-पिता को पर्याप्त संघर्ष करना पड़ा, जिसमें ढाई-तीन घंटे बर्बाद हो गए । अंत में अस्पताल में उपचार के दौरान ही प्रातः पाँच बजे छिद्दा ने निराशा में डूबे इन्हीं शब्दों के साथ दम तोड़ दिया -

"माँ, सर और मैडम ने हमारा डांस नहीं देखा, नाटक भी नहीं देखा, हमें इनाम भी नहीं दिया । बस, हमारे साथ फोटो खिंचवाए, और चले गए !"

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