अपना घर Dr kavita Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अपना घर

अपना घर

निधि ने जब से होश संभाला था, तभी से सुनती आ रही थी कि वह एक दिन इस घर को तथा घर वालों को छोड़कर अपने घर चली जाएगी । वहाँ इतना प्यार मिलेगा बिटिया को कि इस घर की याद तक नहीं आएगी। अपने परिवार में इस प्रकार की बातें सुन—सुनकर कई बार अबोध निधि के बाल—मस्तिष्क में बार—बार यही प्रश्न उठते थे — “मेरा घर यह नहीं है फिर कहाँ है मेरा घर है ? मैं यहाँ कैसे आयी ?” क्षुब्ध होकर जब वह अपने प्रश्नों को परिवार के समक्ष प्रस्तुत करती थी, तब उसे मुस्कुराते हुए होंठों से सदैव एक ही उत्तर मिलता था — “बेटी, जब तू थोड़ी—सी और बड़ी हो जायेगी, तब ढूँढेंगे तुम्हारा घर !” समय के साथ धीरे—धीरे ज्यों—ज्यों निधि बड़ी होती गयी, त्यों—त्यों वह सामाजिक संदर्भों में अपने घर का अर्थ समझने में निपुण होती गयी।

सारा घर दुल्हन की तरह सजाया गया था और मेहमानों की चहल—पहल से घर में प्रसन्नता का वातावरण बना हुआ था । निधि कमरे में अकेली बैठी हुई विदाई की चिन्ता में गोते लगा रही थी । तभी पास—वाले कमरे से उसे कुछ स्त्रियों का स्वर सुनाई पड़ा। उन सभी के स्वर में बेटी की अवश्यम्भावी विदाई से उद्भूत व्यथा का आभास हो रहा था। एक स्त्री मार्मिक स्वर में कह रही थी — “ दुनिया की रीति भी निराली है ; माँ—बाप को अपने जिगर का टुकड़ा पाल—पोस के भाई—बहन सबसे दूर अनजान लोगों के बीच भेजना पड़ता है...और वो भी बिल्कुल अकेले।’’ अन्य सभी स्त्रियों ने उसका समर्थन किया और फिर दूसरी स्त्री बोली — ‘‘जवान बेटी माँ—बाप के सिर का बोझ है ; जितनी जल्दी यह बोझ उतर जाए, उतना ही अच्छा है। जिसकी जवान बेटी घर में कुँवारी बैठी हो, उसे तो रात में नींद भी नहीं आती।” तीसरी स्त्री ने कहा — “ निधि की माँ ! कल निधि अपने घर चली जायेगी, तो तुम भी गंगाजी नहा जाओगी।’’

अगले दिन वह समय भी आ गया, जब निधि ने पिता के घर से विदा होकर पति के घर में प्रवेश किया ; जब वह उन लागों को पीछे छोड़ आयी थी, जिनके साथ उसका बचपन बीता था। ससुराल नामक अपने इस नये घर मे भव्य स्वागत के साथ निधि का प्रवेश हुआ। स्थानीय संस्कृति की कुछ रस्में सम्पन्न करके निधि को आराम करने के लिए एक कमरे में भेज दिया गया। दो रात की जागी हुई निधि को लेटते ही नींद आ गयी। उसकी नींद तब टूटी जब उसके पास दादी की कठोर वाणी का अलार्म बज रहा था — “अरी बहू, तू सो रही है ! दोनों टाइम मिले में सोना किसने बताया ! चल जल्दी उठ, खड़ी होकर संध्या पूजन के लिए तैयार होकर आ !” निधि उठकर जल्दी—जल्दी तैयार हुई और परिवार के सभी सदस्यों के साथ संध्या पूजन में सम्मिलित हो गयी।

थोड़ी देर पश्चात् भोजन का उपक्रम आरम्भ हुआ। वैसे तो गाँव की परम्परागत संस्कृति के अनुरूप परिवार में यह व्यवस्था थी कि पहले सभी पुरुष भोजन करेंगे, तत्पश्चात् स्त्रियाँ भोजन करेंगी। किन्तु, नई—नवेली बहू को ‘अतिथि देवो भवः’ के आधार पर स्वागत स्वरूप पहले भोजन कराने की योजना बनाई गई थी। विवाह में सम्मिलित होने के लिए आयी हुई — जेठानी, देवरानी, ननद आदि, जो निधि की हम उम्र थी, ने निधि के भोजन की व्यवस्था खाने की मेज पर न करके डबल बैड पर ही कर डाली। अब निधि के साथ मिलकर वे सभी भोजन का आनंद लेने लगी और बीच—बीच में कोई न कोई ऐसी बात कह देतीं कि हँसी का फव्वारा फूट पड़ता। इस समय कमरे का वातावरण ऐसा बन गया था कि निधि यह भूल—सी गयी कि वह ससुराल में है। यहाँ तक कि वह अपने आपको अपनी चिर—परिचित सखी—मंडली में अनुभव कर रही थी। पितृगृह से विदाई की पीड़ा,जो उसको वृक्ष से टूटी हुई शाखा—सी अनुभूति करा रहा थी, अब वह उसे धीरे—धीरे भूल रही थी। अब वह शाखा नई भूमि में जडें़ पकड़ रही थी और नई भूमि के अनुरूप ढलकर उसी से पोषण प्राप्त करती हुई अपने अस्तित्व को दृढ बना रही थी।

ससुराल के रीति—रिवाजों और प्रतिबन्धों से अनभिज्ञ निधि नवगठित सखी—मंडली में गपशप का आनन्द ले रही थी,....तभी उस कमरे में दादी का प्रवेश हुआ— “अरी बड़ी हँसी आ रही है! क्या बात है कि इतनी जोर—जोर से हँस रही हो; तुम्हारे हँसने की आवाज पड़ोसियों के घर तक जा रही है! औरत जात की ये आदतें ठीक नहीं होती। और बहू!...तू भी इनके साथ लगी है! तुझे तेरी माँ ने ये नहीं सिखाया—समझाया कि ससुराल में कैसे रहना चाहिए! तू इतनी बड़ी हो गयी, पढी—लिखी है, पर तुझे इतना भी षऊर नहीं है कि दुल्हन बिस्तर पर बैठकर खाना नहीं खाती !....मैने तुझे बिस्तर पे सोने की छूट दे दी तो तूने सारी हदें पार कर दी; खाना भी उसी पे बैठके खा रही है।....हमारे जमाने में तो दुल्हन बिस्तर पे सोती भी नहीं थी; धरती पे कपड़ा बिछाके सोना पड़ा था मुझे!’’ दादी की ड़ाँट सुनकर निधि बिस्तर से उतरकर नीचे खड़ी हो गयी।....तभी कमरे में नवल आ गया और दादी नवल को देखकर नरम—पड़ गयी।

अब निधि के समक्ष नये लोगों के बीच अपना स्थान बनाने की चुनौती थी। इसी क्रम में एक दिन एक घटना घटी। ससुराल के रीति—रिवाजों और प्रतिबन्धों से अनभिज्ञ निधि उस दिन दादी—सास के बाल सीधे करके चोटी गूँथ रही थी। दोनों हाथ चोटी गूँथने मे व्यस्त होने के कारण निधि के सिर से साड़ी का पल्ला खिसक गया । तभी एक बारह—तेरह वर्ष का लड़का नवल भैया...., नवल भैया..., पुकारते हुए दादी के पास आकर खड़ा हो गया और मुस्कराते हुए निधि की ओर देखने लगा। निधि का ध्यान तब तक भी साड़ी के पल्लू पर नहीं गया था, किन्तु दादी का आधा ध्यान उस लड़के की ओर तथा आधा निधि की ओर था। जब लड़का कुछ क्षणोपरान्त वापिस लौट गया, तब दादी ने कुपित दृष्टि से निधि को की ओर देखते हुए कहा — ‘‘बहू ! बरसों से चली आ रही रीति को निभाने में तू छोटी नहीं हो जायेगी ! घर—बिरादरी में तेरा नाम ही बढ़ेगा। ....मेरे अदब से रहने का आज भी गली-मौहल्ले में बड़ा नाम है। मैंने तो कभी घर में भी घूँघट नहीं खोला, मजाल है कोई धोखे से भी मेरा मुँह देख पाता। घर की बहू—बेटी घर की इज्जत होती है ; उसे ढक दबके रहना चाहिए।’’ निधि ने दादी की सहमति में गर्दन हिलाकर साड़ी सिर पर ओढ़ ली।

धीरे-धीरे दादी निधि के कार्य—व्यवहारों से संतुष्ट होकर उस पर थोडा़—थोडा़ विश्वास करने लगी थी। अपने कंधों से जिम्मेदारी का बोझ कुछ हल्का करने के लिए अब घर के अनेक कार्यों का दायित्व उन्होंने निधि को सौंप दिया था और कई—कई घंटे घर से बाहर रहने लगी। उस समय मुहल्ले की कोई स्त्री घर आती, तो दादी के न होने पर दरवाजे से ही उल्टे पाँव लौट जाती। कई बार निधि अन्दर आने के लिए उनसे अग्रह भी करती, किन्तु वे उसका आग्रह नम्रतापूर्वक टला जाती।

एक दिन निधि ने एक स्त्री को आग्रहपूर्वक अन्दर बुला ही लिया। वह दादी के न होने पर कई बार घर से वापिस लौट चुकी थी और दूर के रिश्ते में निधि के पति नवल की चाची लगती थी। अतः निधि ने व्यवहारिकता का निर्वाह करते हुए कहा —

‘‘चाचीजी, दादी घर में नहीं हैं, तो कुछ देर हमारे पास ही बैठ जाइये !....हम भी तो अब इसी घर की सदस्य हैं !”

“हाँ बिटिया, अब तो तू ही इस घर का उजाला है, तू ही इस घर की रौनक है, तेरे बिना तो यह घर भूतों का बसेरा लगेगा।” यह कहते हुए वह बैठ गयी, किन्तु कुछ ही क्षणोपरान्त उठ खड़ी हुई — “अच्छा बिटिया, बड़ी देर हो गयी है, अब मैं चलूँ ! बच्चे इन्तजार कर रहे होंगे।” यह कहकर चाची घर से निकल गयी। चाची घर से निकली ही थी कि निधि को दरवाजे से दादी के चिल्लाने का स्वर सुनाई पड़ा — “तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी गैरमौजूदगी में मेरे घर में घुसने की ? छिनाली ! मेरी पीठ पीछे मेरी बहू को बरगलाके मेरा घर बिगाड़ने आयी थी ! मेरे घर में आग लगाने से पहले अपना भला—बुरा अच्छी तरह सोच लेना‐‐‐‐! आज के बाद आस—पास भी फटकी, तो टुकड़े—टुकड़े कर दूँगी तेरे !” तत्पश्चात् दादी घर आयी और आवेशयुक्त स्वर में समझाते हुए बोली — “जब मैं घर में ना रहूँ, किसी को भी घर में बुलाके बैठाने की जरूरत नहीं है ! तुझे पता नहीं है अभी, ऐसी औरतें जिस थाली में खाती हैं, उसी में छेद करती हैं। ....नयी—नवेली बहुओं को उल्टी—सीधी पाटी पढ़ाके घर में फाँट डालने का चस्का लगा है इन्हें !’’

उस दिन निधि को पता चला कि दादी की अनुपस्थिति में पास—पड़ोस की कोई भी स्त्री घर क्यों नहीं आती थी ? क्यों निधि के साथ बोलने—बातें करने में झिझकती थीं ? उस दिन के पश्चात् दादी के निर्देशानुसार न निधि ने किसी को घर बुलाया और न स्वयं कोई आयी। बस, अब वह सारा दिन ’अपने घर’ में रहकर अकेलेपन से जूझती हुई टी0 वी0 आदि से मन बहलाने का असफल प्रयास करती रहती थी। निधि सोचने लगी— “परिवार और समाज द्वारा अपने जिस घर के विषय में मैं बचपन से सुनती रही आ हूँ, यही है वह ‘अपना घर’ !

समय धीरे—धीरे बीतता जा रहा था और निधि को नित्य नये अनुभव हो रहे थे। अब तक उसको ’अपने घर’ ससुराल में आये हुए मात्र एक महीना बीता था और इस अल्पावधि में निधि को इतने अनुभव हो चुके थे कि पिता के घर बीस वर्ष में भी नहीं हुए थे। दादी की व्यवस्था के चलते वह अपने पति नवल से भी केवल रात में ही बातें कर सकती थी। दिन में उसका पति से मिलना वर्जित था। रात में भी अक्सर दादी देर रात तक जागती रहती थीं और यदि उन्हें लगा कि उनके पोते नवल के साथ बहू देर रात तक बातें करती है, तो प्रातः उठते ही सर्वप्रथम निधि के ऊपर उनके शब्द—बाणों की वर्षा होती — “क्यों बहू ! रात—भर क्या सिखाती—पढ़ाती रहती है मेरे पोते को ! अरी, वह दिन—भर काम करता है, कम से कम रात में तो उसे सोने दिया कर ! आगे से ध्यान रहे मेरी बात का !”

अब तक दादी की मनोवृत्ति को भली—भाँति समझ चुकी थी। वह इस बात का हर सम्भव प्रयास करती कि दादी को नाराज होने का अवसर न दे, किन्तु बावजूद इसके कुछ न कुछ गलती हो ही जाती थी़। उस छोटी-सी गलती को दादी इतना तूल देती कि तिल का ताड़ बनाने से न चूकती थी । साथ ही वे यह हिदायत भी देती कि वह (निधि) उनके पोते नवल से निश्चित दूरी बनाये रखे, इसी में उसकी और पूरे परिवार की भलाई है।

उस दिन नवल अपनी बहिन नेहा की ससुराल जाने वाला था और वहाँ से दो दिन पश्चात् वापिस लौटने का कार्यक्रम था। वह चाहता था कि किसी बहाने से निधि के साथ उसकी मुलाकात हो जाए, ताकि वह आने वाले दो दिनों की निधि के साथ की कमी को पूरा कर सके । अतः वह तैयार होते हुए बार—बार बच्चों की—सी झुंझलाहट दिखाते हुए चिल्लाता रहा — ‘‘दादी मेरी शर्ट कहाँ है ? दादी मेरे जूते कहाँ रखे हैं ? दादी रुमाल भी नहीं मिल रहा है ? दादी मैं ऐसे ही चला जाऊँ क्या !”

नवल सीधे निधि को आवाज देकर बुलाने में सकुचाता था । वह आशा करता था कि दादी उसकी भावनाओं को समझकर निधि को उसके पास भेज देंगी। निधि भी दादी की आज्ञा के बिना नवल के पास आने से डरती थी कि कहीं दादी नाराज हो गयी, तो नवल को भी बुरा लगेगा। इसलिए वह कनखियों से नवल की ओर देखती हई दादी के आदेश की प्रतीक्षा करने लगी — न जाने ऊँट किस करवट बैठेगा ।

ऐसा भी नहीं था की दादी नवल के भावों को नहीं समझती थी या नवल को प्रसन्न नहीं देखना चाहती थी। दादी नवल को बहुत प्यार—दुलार करती थी, उसकी भावात्मक, नव—दाम्पत्य उद्भूत आवश्यकताओं को भी समझती थी और सदैव उसकी चिरायु एवं सुख—समृद्धि की कामना करती थीं। किन्तु दादी के मन में एक भय आरंभ से ही रहा था कि पराये घर की बेटी मेरे पालित—पोते की मालकिन बनकर मुझे दूध में से मक्खी की तरह निकालकर न फेंक दे ! इसी भय के वशीभूत दादी ने नवल को स्नेह मुद्रा में डाँटते हुए कहा — “अरे मेरे भोलू, अब तू बच्चा नहीं रह गया है, बड़ा हो गया है ! अब तू अपनी चीजें अपने आप ढूँढना सीख ; दादी कब तक ढूँढकर देती रहेगी !” दादी की बात सुनकर नवल अपने परोक्ष प्रयत्न में विफल होकर सिर पकड़कर बैठ गया।

तैयार होकर नवल जब बाहर जाने लगा, निधि पति—दर्शन की पिपासा लेकर दादी के कमरे में खड़ी हुई खिड़की से झाँक रही थी। नवल को देखकर वह जोर से हँस पड़ी। नवल ठिठक कर रुक गया। उसका अनुमान था कि निधि उसके प्रयत्न की विफलता पर हँस रही है। वह मुस्कराते हुए बोला — “क्या बात है ? बहुत प्रसन्न हो !”

“मेरे बुद्धु प्रियतम ! जाने से पहले एक बार अपना चेहरा दर्पण में देखिये, पता चल जायेगा, हम क्यों हँस रही हैं। एक दम लँगूर—सी शक्ल बनी है आपकी !” निधि ने शरारती दृष्टि डालते हुए कहा।

मेरे दर्पण पर तो दादी का कठोर नियंत्रण है। बहुत यत्न करके ही देख पाता हूँ। देखो न, अभी थोड़ी देर पहले ही कितना प्रयत्न किया था, किन्तु .... ! काश ! हमारे दर्पण पर हमारा ही अधिकार होता ! परन्तु, तब शायद दादी का दुर्लभ वात्सल्य हमारे भाग्य में नहीं होता ! नवल इतना ही कह पाया था, तभी उसको दादी उधर आती हुई दिखीं और वह चला गया। निकट आकर दादी ने कड़कड़ाती हुई आवाज में कहा — “बहू, क्यों हँस—हँसके मेरे भोले—भाले पोते पर जाल फेंक रही थी ! इसे समाज में रहने लायक नहीं छाड़ेगी क्या ? अपना गुलाम बनाके समाज में सिर उठाके ना चलने देगी ! दिन—रात अपने ही पल्लू से बाँधकर रखेगी !”

‘‘न... .हीं, दा...दी...! दादी,....मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है ! वो तो....इनकी नाक पर काजल लगा था, इसलिए मुझे हँसी आ रही थी। ये ऐसे बाहर जाते तो अच्छा नहीं लगता न !” निधि ने दयनीय मुद्रा बनाते हुए बड़ी विनम्रता से कहा। किन्तु दादी का आवेश बढ़ता ही जा रहा था । शायद नवल को छिन जाने का उनका भय विस्तार ले रहा था —

“मैं सब जानती हूँ बहू ! ये बाल मैंने धूप में सफेद नहीं किये हैं ! मैं जानती हूँ, तेरी ये सब करतूत मेरे पोते को वश में करने के गुर हैं। पर मेरे होते हुए तू ऐसा करने की गलती मत करियो ! मेरा पोता भोला जरूर है, पर मैंने उसे ऐसे संस्कार ना दिये हैं कि छिनाल बहू के लिए अपनी बूढ़ी दादी को दगा दे जायेगा !”

“..... तुझे पता है बहू ! नवल की माँ इस घर में क्यों नही रहती है ? मैं तुझे बताती हूँ —

मेरे सामने मेरे बेटे से वह घूँघट खोलके हँसती थी ; नैन मटका—मटका के और हाथ नचा—नचा के बातें करती थी। मैंने उसे बहुत बार समझाया — बहू, यह घूँघट कपड़े भर का घूँघट ना है ; यह लाज शर्म का घूँघट है, जो औरतों का गहना होवे है ! तू ऐसे रहेगी, तो घर में छोटे—बड़े का क्या मान—सम्मान रह जावेगा ? गाँव में इस घर—परिवार की क्या इज्जत रह जावेगी ?..... कहने लगी, मैं तो पढ़ी—लिखी हूँ। मैं इन बे सिर—पैर की बातों को ना मानूँगी ।..... निधि बहू, उसकी बात सुनके मुझे ताव आ गया । मैने अपने बेटे से कह दिया, इस घर में या तो मैं रहूँगी या यह बेलाज—बेहया औरत रहेगी। दस साल का था मेरा बेटा, जब उसका बाप सुरग सिधार गया था। मैने अपने जिगर के टुकड़े को बड़े कष्टों से पाला था। उसी का फल है कि मेरा बेटा सरवन है सरवन। आज भी उसके लिए मेरे बोल बेद—बाणी है। अपनी घर वाली की जुबान—जोरी सुनके तेरे ससुर ने कह दिया — इस घर में जैसा मेरी माँ कहेगी, तुझे वैसा ही करना पड़ेगा और ऐसा नहीं कर सकती तो .....! अब वो दिन था सो आज है ; मेरे बेटा और पोता उस बेगैरत को उसके पीहर में छोड़के मेरे साथ रह रहे हैं। बहू, मै कह रही हूँ, तेरी और इस घर की भलाई इसी में है, तू घर के बड़े—छोटे का मान रखे और गाँव—बिरादरी के बनाये हुए, पीढि़यों से चलते आ रहे रीति—रिवाजों का अच्छी—भली तरह से निबाह करे।”

दादी की बात सुनकर निधि असमंजस में पड़ गयी। उसके मनःमस्तिष्क में द्वन्द्व छिड़ गया कि अब वह क्या करे ? दादी और नवल दोनों को एक साथ प्रसन्न कैसे रखे ? वह स्वयं भी अधिकाधिक समय नवल के साथ रहना चाहती थी । किन्तु, दादी के प्रतिबन्ध......!

निधि समझती थी कि ससुराल में किसी भी लड़की का सर्वाधिक प्रगाढ़ सम्बन्ध पति के साथ होता है। प्रगाढ़ होते हुए भी यह सम्बन्ध कच्चे धागे—सा नाजुक होता है, इसलिए इस सम्बन्ध को माधुर्य एवं स्थायित्व प्रदान करने के लिए सदैव निष्कपट संवाद के साथ—साथ परस्पर समर्पण—भाव बना रहना चाहिये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए माता—पिता ने विवाह के सप्ताह भर पूर्व ही निधि को समझाना आरम्भ कर दिया था कि बेटी, ससुराल में कोई कितनी भी कटु बात क्यों न कहे, तुम्हें अपनी वाणी में और व्यवहार में शील और संयम सर्वथा बनाये रखना है, उसमें कमी मत आने देना ! इसके विपरीत आचरण किया, तो पति को अच्छा नहीं लगेगा और इसका दुष्प्रभाव दाम्पत्य जीवन पर पड़ेगा!

माता—पिता का मार्ग दर्शन तथा दादी की चेतावनी से आज निधि इस निष्कर्ष पर पहँची थी कि दोनों परिवारों तथा अपने दाम्पत्य जीवन को नकारात्मक प्रभाव से बचाने के लिए पति तथा पति के परिवार से यथासंभव सामंजस करना ही उचित है। वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती थी, जिससे उसके दाम्पत्य जीवन में कड़वाहट आए या उसके किसी कार्य—व्यवहार से उसके माता—पिता और ससुराल पक्ष को दुख पहँचे। किन्तु, एक प्रश्न उसको बार—बार विचलित कर रहा था — “इस सब में मैं कहाँ हूँ ? मेरे भावों—विचारों के लिए स्थान कहाँ है ? शायद कहीं नहीं !”

कुछ दिन पश्चात् दादी को अचानक पेट में तेज दर्द उठा। उन्हें तुरन्त हॉस्पिटल लेकर गये, तो डॉक्टर ने जाँच करके बताया कि दादी की बड़ी आँत में कैंसर की संभावना है, और तुरंत ही ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन के बाद डॉक्टर ने एक पीड़ादायक समाचार सुनाया कि इनका कैंसर अपनी अन्तिम अवस्था में है ! अब इनका अन्तिम समय समीप आ गया है, इसलिए अब इन्हें घर ले जाएँ और जब तक कि ये जियें, खाने—पीने—रहने आदि में इन्हें पूर्णतया सन्तुष्ट रखें, ताकि इनके प्राण शान्तिपूर्वक निकल सकें। चौथे दिन दादी को अस्पताल से घर लाया गया। दादी के आते ही घर में पुनः वही पुरानी व्यवस्था बन गयी, जो दादी की अनुपस्थिति में अराजकता में परिवर्तित हो गयी थी। परिवार के सभी लोग दादी को प्रसन्न रखने का हर संभव प्रयत्न करते हुए हर समय उनकी सेवा में तत्पर रहने लगे। श्रद्धा और सेवा—भाव के साथ सभी की आँखों में अब सदा के लिए दादी से बिछुड़ने का भय नाचता रहता था।

जून का महीना था। दिन भर गर्म हवाएं चलती थीं। गाँव में बिजली या तो आती ही न थी, आती भी थी तो बहुत कम। जब बिजली आती थी, तो पंखा गर्म हवा फेंकता था, जिससे दादी को और भी बेचैनी हो जाती थी। कम वोल्टेज होने के कारण कूलर चल नहीं पाता था और घर में ए0सी0 की व्यवस्था नहीं थी। इन सभी कारणों से दादी को दिन में कई बार स्नान कराना पड़ता था और हाथ के पंखे से हवा करते रहना आवश्यक हो गया था।

दोपहर के बारह बजे थे। दादी अपने कमरे में आराम से सो रही थी। नवल के पिता दयानन्द दादी के ऊपर हाथ का पंखा हिला रहे थे। नवल बाहर से आकर दादी के कमरे में गया तो दादी को सोते हुए देखकर निधि के कमरे में आ गया। उसने निधि के साथ खाना खाया और फिर कुछ देर निधि से बातें करता रहा। दोपहर के लगभग दो बजे उठकर नवल पुनः दादी के पास गया, किन्तु दादी को सोती हुई समझकर बिना कुछ भी बोले तुरन्त वापिस चला गया।

दादी को यह देखकर अत्यधिक विषाद हुआ कि उनका प्रिय पोता अपनी पत्नी के साथ बैठकर उसी के द्वारा परोसा हुआ भोजन करके, दादी से बात किये बिना ही बाहर चला गया है। दादी की व्यथा ज्ञात होते ही नवल ने घर आकर दादी से क्षमा याचना की, लेकिन व्यर्थ और परिणामशून्य। धीरे—धीरे शाम के चार बज गये और दादी का विषाद घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा था। इसी विषाद में दादी ने अपने छोटे बेटे कुणाल को शहर से बुला भेजा। धीरे—धीरे शाम के चार बज गये, किन्तु दादी का विषाद घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा था। इसी विषाद से ग्रस्त होकर दादी ने अपने छोटे बेटे कुणाल को शहर से बुला भेजा। शाम के सात बजे कुणाल आ पहुँचा। उसके आते ही दादी फूट—फूट कर रोयी। दादी ने आज से पहले कभी रोकर अपनी अशक्ति का परिचय नहीं दिया था, बल्कि वे दुख के समय हिम्मत से काम लेने को कहती थीं — “आँसू इन्सान को कमजोर बनावें हैं ! हमें रोते हुए नहीं, हँसते हुए दुख का सामना करना चहिये !” आज दादी की इस हालत को देखकर सभी सोच रहे थे कि शायद अन्तिम समय में अपनों से विदा होते समय दादी के हृदय में कुछ परिवर्तन हो रहा है या मोह बढ़ रहा है।

कुछ समय पश्चात् दादी सामान्य हो गयी। दादी की शाम की दवाई का समय हो चुका था। निधि दादी को दवाई देने लगी, तो दादी ने निधि की ओर से अपना मुँह फेर लिया। निधि कुछ नहीं समझ पा रही थी कि दादी ऐसा क्यों कर रही हैं ? निधि ने पुनः श्रद्धापूर्वक विनती करते हुए कहा — ‘‘दादी, दवाई लेने का समय हो चुका है । प्लीज, दवाई ले लीजिये !” दादी ने कोई उत्तर नहीं दिया, न ही वे दवाई लेने के लिये तैयार हुई। निधि भी वहीं बैठी रही और दादी से अनुनय विनय करते हुए उनके हाथ—पैर दबाती—सहलाती रही। लगभग दो घंटे बाद दादी का गुस्सा कुछ कम हुआ, तब उन्होने दवाई ले ली। दवाई देकर तथा दादी का आशीर्वाद लेकर निधि अपने कमरे में लौट आयी, किन्तु अगले दो दिन तक उसको नवल के दर्शन तक न हो सके। जब वह घर के काम में व्यस्त होती थी, तब नवल दादी के पास होता था। जब वह दादी के पास जाती, तब नवल अपने काम से बाहर चला जाता था। तीसरे दिन उसका नवल से सामना हुआ। नवल आँख बचाकर वहाँ से चले जाना चाहता था, परन्तु, निधि ने आगे बढ़कर नवल को रोकते हुए उसकी नाराजगी का कारण जानने का आग्रह किया। नवल ने धीमे स्वर में कहा —

“उस दोपहर मैं तुम्हारे पास बैठा रहा था और दादी को समय नहीं दे पाया था, इससे दादी बहुत विषादग्रस्त हो गयी थी। दादी का सन्तुलन बनाने के लिये यह आवश्यक है कि दादी के मन से उनका महत्व कम हाने का भय समाप्त करके यह विश्वास दिलाया जाए कि इस घर—परिवार में और हमारे जीवन में उनका महत्व अक्षुण्ण है। कोई भी इस घर में या हमारे जीवन में आकर उनका महत्व कम नहीं कर सकता और न ही उनका स्थान ले सकता है !” नवल कहता गया और निधि मौन होकर गम्भीर मुद्रा में नवल की बातों को सुनती रही । लेकिन उसकी भाव—भंगिमा कह रही थी — “आप मुझ पर परोक्षतः आरोप लगा रहे हैं कि मैं दादी का महत्व कम करके उनका स्थान लेना चाहती हूँ ?” निधि की दृष्टि प्रश्नात्मक थी। नवल भी उसकी ओर एकटक घूर—घूरकर देख देख रहा था। नवल की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देखकर निधि सोच में पड़ गयी कि नवल उस पर अविश्वास करके उसको अपराधी समझ रहा है या उस पर विश्वास कर रहा है ? नवल के चेहरे पर उभर आये भावों को समझने में वह इस समय स्वयं को सर्वथा अक्षम अनुभव कर रही थी और अपने हृदयस्थ भाव उसको समझाने में सफल हो पाती, इससे पहले ही नवल कुछ कहे बिना बाहर चला गया।

निधि ने अनुभव किया कि नवल के अन्तः में चल रहे द्वंद्व का निष्कर्ष सकारात्मक होना उसके वर्तमान और भविष्य के लिए अत्यावश्यक है। यद्यपि यह आसान नहीं है, किन्तु उसके वर्तमान के लिए चुनौती और भविष्य के लिए चेतावनी अवश्य है।

निधि नवल के भ्रम को दूर करके अपने हृदयस्थ भाव उसको समझाने में सफल हो पाती, इससे पहले ही घर में एक घटना घट गयी। नवल की चाची, जिसने पिछले पच्चीस वर्षों से एक बार भी दादी की सुधि नहीं ली थी, अचानक उनके हृदय में कर्तव्य का भाव जाग्रत हो गया। इस अचानक भाव—परिवर्तन की प्रेरणा उन्हें दादी के अधिकार में रखे हुए लाखों रुपयों के सोने—चाँदी के आभूषण थे, किन्तु दादी यह समझने के लिए तैयार नहीं थी। उस दिन दोपहर के ग्यारह बजे निधि रसोईघर में खाना बना रही थी और चाची निकट ही बैठकर उसके साथ बातें कर रही थी। उसी समय दादी ने निधि को पुकारा— ” निधि ! निधि ! कहाँ चली गयी ? अरी, मुझे पानी पिया दे !”

दादी का स्वर सुनते ही निधि शीघ्रतापूर्वक दादी के कमरे की ओर दौड़ी, परन्तु चाची ने उसको वहीं पर रोकते हुए कहा — “ निधि, मैं माँ जी को देखती हूँ ! तू जल्दी खाना बना दे, सब भूखे हैं !” निधि चाची की आज्ञा का प्रतिकार नहीं कर सकी और वहीं रुककर खाना बनाने लगी।

निधि ने पूरे तन—मन से परिश्रम करके भोजन बनाया, किन्तु किसी ने भी भोजन ग्रहण नहीं किया। क्यों ? बार—बार पूछने पर भी निधि को कुछ ज्ञात न हो सका। कुछ समय तक घर में स्तब्धता छायी रही, जैसे तूफान आने से पहले वातावरण शान्त हो जाता है। शाम के तीन बजे घर में जैसे ही नवल का प्रवेश हुआ, वैसे ही निधि के जीवन में तूफान का आरम्भ हो गया। घर में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की कुपित दृष्टि और कटु शब्द—बाण जब निधि को छलनी करने लगे, तब उसको ज्ञात हुआ कि चाची ने उसके विरुद्ध दादी के कान भरे हैं। निधि को ज्ञात हुआ कि दोपहर में उसको खाना बनाने का आदेश देकर चाची ने दादी से बताया की कि बहू उनकी सेवा का भार वहन नहीं करना चाहती ! यह सुनकर निधि को बड़ा झटका लगा । उस विषम परिस्थिति में भी निधि ने पर्याप्त संयम और सहिष्णुता का परिचय दिया, फिर भी स्थिति उसके नियन्त्रण से बाहर हो गयी। नियन्त्रणहीन स्थिति का स्वरूप यह था कि दादी अपना बोरिया—बिस्तर बांधकर अपने छोटे बेटा—बहू के साथ जाने के लिए तैयार हो गयी थी। नवल के पिता को अपनी माँ के इस निर्णय से कोई आपत्ति नहीं थी। उनके अनुसार, माँ का थोड़ा-सा जीवन शेष है, उन्हें जहाँ चैन—सुकून मिले, वहीं रहने देना चाहिए। नवल को यह स्वीकार नहीं था। । शायद स्वयं दादी भी उस घर को छोड़कर नहीं जाना चाहती थी, जिसमें वह ब्याहकर आयी थी ; जहाँ अपने जीवन के स्वर्णिम क्षण बिताये थे ! उनके मुख से निसृत वाणी में जितनी हठ थी, उतनी ही पीड़ा भी दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर उदासी और आँखों में आँसू थे। नवल की दृष्टि में दादी की इस दयनीय दशा के लिए निधि उत्तरदायी थी, जबकि निधि स्वयं अपने पति का सहयोग करते हुए दादी की सेवा सुश्रूषा करके उनका आशीर्वाद पाना चाहती थी।

परिवार के प्रति निष्ठावान और कर्तव्यपरायण—कर्मशील निधि घर के कार्य में व्यस्त थी, तभी वहाँ नवल आया और अनपेक्षित ढंग से क्रोध के आवेग में उसने निधि से कहा — “तुम्हारे कारण दादी को सदैव कुछ—न—कुछ कष्ट होता है ! कभी तुम उनकी अवज्ञा करती हो, कभी उनकी बनायी हुई मर्यादा का उल्लंघन करके उन्हें दुःख देती हो ! आज तो तुमने सारी सीमाएँ ही तोड़ दी, उनके एक गिलास पानी मांगने पर तुमने चाची से यह कहा कि दादी तुम्हें प्रताडि़त करती हैं !”

“ मैंने चाचीजी से कुछ नहीं कहा था ! उन्होंने मेरे विरुद्ध जो भी कहा है, सबकुछ झूठ कहा है ! मैं सच कह रही हूँ, मेरा विश्वास कीजिए !” निधि ने आत्मविश्वासयुक्त विनम्र शैली में कहा।

“बस ! मैं कुछ सुनना नहीं चाहता ! मैं मात्र इतना चाहता हूँ, तुम इस घर को छोड़कर आज ही अपने घर चली जाओ !”

“ अपने घर ?”

“ हाँ !”

“ अपने घर कहाँ ?”

“ मतलब अपने पिता के घर !”

“ कहना क्या चाहते हैं आप ? मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा है, दादी की आड़ लेकर आप इतना गैर—जिम्मेदाराना व्यवहार कैसे कर सकते हैं ?” निधि ने पति के प्रति विश्वास व्यक्त करते हुए आश्चर्य की मुद्रा में कहा।

“ मैंने दादी की प्रसन्नता के लिए तुम्हारे साथ विवाह किया था। अब, जबकि दादी ही तुमसे प्रसन्न नहीं हैं, तो तुम्हारा यहाँ रहने का कोई अर्थ नहीं है ? मैं क्यों व्यर्थ में ही तुम्हारा बोझ ढोऊँ ?” पति के उत्तर ने कुछ क्षणों के लिए निधि को हत्प्रभ कर दिया । वह सोचने लगी — “पितृ-समाज कहता है, पति का घर मेरा मेरा घर है। पति ने कह दिया कि दादी की प्रसन्नता के लिए उन्होंने मेरे साथ विवाह किया था और अब, जबकि दादी ही मुझसे प्रसन्न नहीं हैं, तो मेरा यहाँ रहने का कोई अर्थ ही नहीं है । इसलिए मैं अपने घर, मतलब अपने पिता के घर चली जाऊँ ! परन्तु,‐‐‐‐‐ मेरा घर कहाँ है ? पिता का घर या पति का घर या दोनों जगह या दोनों में से कहीं भी नहीं ? बस यही महत्त्व है मेरे त्याग-तपस्या और सहिष्णुता का ? बस यही औचित्य है मेरे अस्तित्व का ?” सोचते-सोचते उसका अहं जाग्रत हो उठा—

“ क्या आपकी दृष्टि में मैं मात्र एक खिलौना हूँ, जो दादी ने आपको खेलने के लिए दिया था और अब आपका उससे मन भर गया, तो आप उसे बोझ कहकर फेंक देंगे ? नवल जी ! मैं खिलौना नहीं, एक जीती-जागती स्त्री हूँ ! मैं शिक्षित और समर्थ हूँ ; शक्ति का पर्याय हूँ ! आपका सम्मान करती हूँ, इसका यह अर्थ मत समझिए कि मैं अबला हूँ ! समाज और कानून मुझे अधिकार देता है कि यह घर जितना आपका है, उतना ही मेरा भी है ! मेरा ‘अपना घर’ !” अपने अहंभाव से प्रेरित होकर निधि ने नवल को तो उत्तर दे दिया, किन्तु अभी भी उसके हृदय में एक असन्तोष था ; एक पीड़ा थी —

“ जिस घर में मेरे अस्तित्व की स्वीकृति नहीं, उस घर को अपना कैसे कहा जा सकता है ? जहाँ बेटी को जन्म देने वाले माता—पिता ही उसको अधिकारों से वंचित कर देते हैं, वहाँ पति से अधिकारों की लड़ाई कहाँ तक उचित है ? वाह रे पुरुष समाज ! स्त्री से जन्मा, पाल—पोसकर सबल बनाया, स्त्री ने ही तेरे जीवन को सरस—आनंदमय बनाया और तूने उसी के अस्तित्व को नगन्य कर दिया ! यह कैसी विड़म्बनायुक्त व्यवस्था है तेरी !” अनायास ही उसके हृदय की पीड़ा होंठों पर आ गयी।

***