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अपराधी

अपराधी

(गुनाह कबूल है)

उस दिन मैंने महशूस किया कि वाकई मैं अपराधी हूँ । क्योंकि मैंने जो गलती की उसका सुधार मुझे ही करना चाहिए था, लेकिन मैंने सुधार नही किया । अगर मुझे यह ज्ञात न होता कि मैंने गलती की तो शायद मेरा अपराध क्षम्य होता । शायद कोई न कोई मुझे उस गलती को सुधारने को कहता, अगर किसी ने देखा होता या शायद किसी अपराधी ने ही मुझे देखा हो । फिर वह क्यों कुछ कहता, वह तो अपने अपराध को ही छूपा रहा होगा या दादागिरी से खुलेआम अपराध कर रहा होगा । जब मैंने जान लिया था कि मुझसे अपराध हो गया गलती हो गई तो मेरा मन बहुत अशांत हो उठा, मैंने सोंचा क्या मैं इतना स्वार्थी हो सकता हूँ । फिर मैंने चारो तरफ नजर घुमाई और देखा कि अपराधी सिर्फ मैं ही नही हूँ, यहाँ तो अपराधियों की बहुत बड़ी जनसँख्या है । लेकिन कुछ मासूम आँखे थीं जिन्हें दिख रहा था कि कौन है जो गलत कर रहा है । लेकिन उनकी भुजाओं में इतना दम नही था कि किसी दोषी को सजा दे सकें ।

उसकी भुजायें भले ही कमजोर हो लेकिन सलाम करता हूँ उसके हौसले को जिसने मुझे बड़ी आसानी से यह समझा दिया कि मैं अपराधी हूँ । उसने कोई जोर जबरदस्ती नही की, न ही कुछ अपशब्द कहा फिर भी उसने मुझे मजबूर कर दिया अपना गुनाह कबूल करने पर । भले ही उसके कानों ने नही सुना हो मेरा बयान, भले ही उस दिन मैंने सरेआम अपना गुनाह कबूल नही किया था । लेकिन उस दिन ही मेरे जमीर ने मुझसे कह दिया था कि तुम गुनहगार हो । शायद मैं कभी भी अपने गुनाह को गुनाह न कहता अगर उस दिन उसने मासूम हाथों और अनकहे शब्दों से इशारा करके मेरा गुनाह न दिखाया होता ।

मैंने उस दिन ही उसको अपना गुरु मान लिया था । उस दिन मैंने एक प्रण किया था कि वह गलती फिर नही करूंगा कोशिस करूंगा कि उस मासूम शिक्षक की शिक्षा का प्रचार भी करूंगा शायद मेरी तरह किसी और अपराधी को उसका गुनाह दिख जाए । पहले जब मैं शिक्षण कार्य करता था तो अपने इस गुनाह और अपने शिक्षक की कहानी अपने छात्रों को जरूर सुनता था । लेकिन उससे कुछ खाश फायदा नही था क्योंकि कोई भी शिक्षा जब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक जुबानी तौर पर पहुंचती है तो वह अपनी सार्थकता खो देती है । तब मैंने निर्णय किया कि मैं अपना गुनाह लिखित रूप से कबूल करूंगा ।

यह उन दिनों की बात है जब मैंने स्नातक उपाधि हासिल करके प्राइवेट विद्यालय में शिक्षण करता था । परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक थी नही प्राइवेट शिक्षण से कुछ होने वाला नही था । फिर एक सज्जन की सलाह से डीप्लोमा इंजीनिरिंग का फॉर्म भरा और उत्तीर्ण भी हो गया । मुझे लखीमपुर खीरी जनपद के एक राजकीय पॉलीटेक्निक में प्रवेश के लिए बुलाया गया । उस समय पॉलिटेक्निक संस्थान में काउंसलिंग की व्यवस्था नही थी बोर्ड जिस संस्थान में भेजता था वहाँ जाना पड़ता था । अपने जनपद से बाहर जाकर पढ़ना मेरे लिए सम्भव नही था, क्योंकि घर पर पिता जी बुजुर्ग थे, किसी प्रकार की कमाई थी नही । मैं ही था जो एक आध ट्यूशन और स्कूल से कुछ खर्च चला रहा था । मेरी माँ ने खेती बाड़ी का काम सम्भाल रखा था वह भी अब कमजोर हो चुकीं थी ऐसे में बाहर जाकर रहना खाना, ये सारे खर्च मेरी सामर्थ्य से बाहर थे । किसी से कोई सहायता भी नही मिल रही थी कि कुछ महीने ही व्यवस्था कर सकूं । अपने ससुर जी के कहने पर मैंने प्रवेश तो ले लिया परन्तु, कुछ दिनों बाद मैं समझ गया वहां रहकर मैं डिप्लोमा नही कर पाऊंगा । अभी प्रवेश प्रकिर्या पूरी हुई नही थी इसलिए प्रवेश वापस लेना आसान था । मैंने प्रधानाचार्य से बात की, अपनी समस्या बताई । मेरी बात सुनकर प्रधानाचार्य ने मुझसे कहा, कि मै डिप्लोमा न छोडूं वे अंतिम वर्ष तक किसी न किसी कम्पनी में प्लेसमेंट जरूर करवा देंगे, बस मैं ठीक से पढता रहूँ । लेकिन समस्या तो तीन साल काटने की थी, इसलिए मैं नही माना और प्रवेश निरस्त करवा के वापस चल दिया । मैं नही जानता कि मेरा यह निर्णय सही था या गलत, परन्तु उस वक़्त मैं मजबूर था । जिस मजबूरी के चलते मैंने संस्थान छोड़ा पढाई रोकी वह मजबूरी किसी विद्द्यार्थी के सामने कभी न आये ऐसी कामना करता हूँ । मेरे उन प्रधानाचार्य जैसे लोग सबको मिलें और सही मार्ग चुनने का अवसर दें, क्योंकि उन्होंने मुझे यह कहकर छोड़ा था कि अब इससे छोटा मत सोचना कुछ बड़ा करके दिखाना । शायद अभी मैं उस लायक नही बना पाया हूँ लेकिन मेरा प्रयास सतत है ।

प्रवेश निरस्त कराके मैं वापस लौट रहा था । साम को चार बजे के लगभग एक ट्रेन गोला से आकर लखनऊ को जाती थी । मैं स्टेशन पर ढाई बजे ही पहुंच गया था समय अधिक था, समय बिताने के लिए क्या करता ? स्टेशन पर बैठ कर पढ़ाई भी तो नही कर सकता था अगर कोई कहानी या उपन्यास होता तो शायद पढ़ सकता । बैग में सिर्फ कुछ जीव विज्ञान और रसायनशास्त्र की किताबें थीं । जिन्हें तो एकांत में ही पढ़ कर समझा जा सकता है । मेरे पास एक बुरी लत थी, वह थी तम्बाकू खाना । मुझे पता है तम्बाकू से एक बहुत बड़ा वर्ग जुड़ा है । क्योंकि हमारे देश की 80% जनसंख्या आर्थिक तंगी का दंश झेल रही है । जिसके कारण उसे मानसिक तनाव बना रहता है । सभी के पास इतना धन नही है कि वे अपने तनाव के लिए कोई अन्य उपचार करें, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसे शौक में इस्तेमाल करते हैं । कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि रात में अधिक समय तक पढ़ने के लिए नींद भगाने का सबसे बढ़िया उपाय है तम्बाकू का सेवन । इसी तरह की मानसिकता का शिकार मैं भी था और धीरे- धीरे तम्बाकू मेरे जीवन का हिस्सा बन गई थी । उस दिन भी मेरे पास तम्बाकू की एक पुड़िया थी । मैं थोड़ी -थोड़ी देर पर तम्बाकू बनाकर खाता फिर थूक देता और फिर खाता । बार -बार तम्बाकू खाकर मैं बोर हो गया था, तो पान की दुकान से कुछ पुडिया गुटखा ले आया । एक पुड़िया फाड़ कर तुरन्त खाया और कुछ रख लिया । वैसे गुटखा की लत तो मुझे नही थी । लेकिन कभी कभार खा लिया करता था ।

ट्रेन के आने का समय हो चुका था सभी यात्रियों का ध्यान ट्रेन की स्थिति के अनाउंसमेंट पर था । फिर ट्रेन के आने की सूचना का अनाउंसमेंट हुआ । सभी यात्री अपना- अपना सामान लेकर तैयार हो गए । मेरे पास ज्यादा समान नही था बस एक पिट्ठू बैग था उसी में कुछ किताबें और कुछ कपड़े और कागजात थे । सामने ट्रेन दिख रही थी मैंने गुटखा की एक पुड़िया फाड़ी और झट से फांक गया, ट्रेन रुकी और मैं गुटखा चबाते हुए ट्रेन पर चढ़ गया, क्योंकि गुटखा खा रहा था इसलिए ऐसी जगह तलाश कर बैठा जहां भीड़ नही थी । ठीक खिड़की के पास जाकर मैं बैठ गया, ताकि वहाँ से गुटखे की पीच थूकने में आसानी होगी । इससे पहले मैंने कभी भी ट्रेन पर सफर करते हुए गुटखा नही खाया था और न ही किसी और वाहन पर सवारी करते समय । पहली बार मैंने सफर करते समय गुटखा खाया, इसलिए पीच थूकते वक़्त दिक्कत होती थी । मैं सोंच रहा था अब खा लिया हूँ तो कोई बात नही पूरा गुटखा थूकर फिर ट्रेन से उतरकर ही खाऊंगा । मैं गुटखा थूकने की सोंच ही रहा था कि अचानक थूकते समय गुटखे की पूरी पीच खिड़की के सरिया पर आ गयी । खिड़की गुटखे की पीच से सन गयी । मैं वहीं बैठा था मुझे भी यह देखने मे गन्दा लग रहा था । मैं इसे साफ कर देना चाहता था, लेकिन कैसे ? मैं सोचने लगा कि कोई पुराना कपड़ा मिल जाता तो साफ कर देता,फिर सोंचा कोई बात नही जब सूख जाएगा तब किसी कागज से रगड़ कर साफ कर दूँगा । मैं तो एक पढा लिखा सभ्य व्यक्ति था फिर यह गन्दगी मैं कैसे फैला सकता था ?

क्या वहाँ पर अकेला मैं ही पढा लिखा इन्शान था जिसने यह अपराध किया था ?

मैंने सब तरफ देखा, नही मैं अकेला अपराधी नही था, केवल मैं ही नही था जिसने यह अपराध किया था । ट्रेन में तो लगभग सभी अपराधी थे, इतने ढेर सारे अपराधियों के बीच भला मेरा अपराध कौन देखेगा, कौन है जो मुझे टोकेगा ? शायद किसी की हिम्मत ही न हो मुझसे कुछ कहने की । क्योंकि कुछ लोग सिगरेट और बीड़ी के धुंए से पूरे डिब्बे को प्रदूषित कर रहे थे, वे आपने साथ साथ अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे मासूम और बेगुनाह लोगों को भी तम्बाकू का गुलाम बना रहे थे । उनका गुनाह तो माफी के काबिल भी नही था, क्योंकि वे इस नशे को मन्द विष की तरह लोगों को दे रहे थे और इसे ग्रहण करने वालों को कुछ पता भी नही था । मैंने तो सिर्फ खिड़की ही गन्दी की थी फिर भी मुझे अफसोस तो था । इसलिए मैं डर नही रहा था क्योंकि जो किसी भी प्रकार का नशा नही भी करते थे उन्होंने भी हद पार कर रखी थी । जहाँ भी जो भी कुछ खाया जूठन और कूड़ा वहीं गिरा रखा था । इतने सारे अपराधियों के बीच मैं अपने को छूपा हुआ देख रहा था । लेकिन वहां भी सब अपराधी नही थे । कुछ मासूम थे, कमजोर थे, निर्दोष थे । उन्हें यह गन्दगी पसन्द नही थी लेकिन किसी को कुछ कहने की सामर्थ्य भी उनमें नही थी ।

मुझे याद है वह नन्ही बच्ची लगभग चार से पांच वर्ष की रही होगी । उसके नन्हे पावों की आवाज आज भी कानों में गूंजती । मैं उसे भूल भी कैसे सकता हूँ, आखिर वह गुरू है मेरी । वह मुझे नही जानती होगी मैं भी बस इतना ही जनता हूँ कि वह मेरी गुरु है । वह नन्हे नन्हे कदमों के साथ मेरी ओर बढ़ी आ रही थी, लेकिन मैं डर रहा था । उस बच्ची से नही, इस बात से की कहीं खिड़की पर लगी गन्दगी उसके कपड़ों में न लग जाये । वह खेल रही थी और बार -बार खिड़की की ओर बढ़ती मैं हर बार उसे उधर से हटाने की कोशिश करता । एक बार मैं थोड़ा ध्यान नही दे पाया और ! वह नही हुआ जो मैं सोंचता था । कुछ ऐसा हुआ जो मैंने सोंचा भी नही था ।

वह गुरू थी तो शिक्षा दिए बगैर कैसे जाती । उस दिन उसने गुलाबी रंग की फ्रॉक पहन रखी थी, वह उस लिवाज मे बहुत सुंदर लग रही थी । उसने अपने नन्हे हाथों से फ्रॉक पकड़कर खिड़की पर लगी गन्दगी को इस तरह साफ कर दिया जैसे कोई शिक्षक डस्टर से श्यामपट पर लिखा हुआ मिटाता है । मैं कुछ समय तक सोंचता रह गया अपने गुरु से नाम भी नही पूंछ पाया, उसके अनकहे शब्द मुझे पढ़ाते रहे, मैं उसकी खामोश जुबान से बहुत कुछ सीख गया था । मुझे समझ मे आ गया कि हम अपने आप को बहुत समझदार और पढा लिखा समझकर बहुत बड़े धोखे में हैं । हममें से बहुत से लोग तो ऐसे होंगें जो बाहर से इतनी सफाई रखते होंगें की अगर पास से कोई गरीब फ़टे पुराने कपड़े पहनकर निकल जाए तो नाक सिकोड़ लेंगें । उस शिक्षक ने मुझे शिखा दिया कि टाई लगारकर, शूट बूट पहनकर इत्र छिड़क लेने से या बड़ी बड़ी कारों, घरों में ऐसो -आराम से रह लेने से कोई व्यक्ति सभ्य नही हो जाता, न ही वह समझदार ही होता है । जो स्वयं तो गन्दगी में रहना नही चाहता लेकिन गन्दगी फैलाता है । वह तो अनपढ़ व्यक्ति से भी कहीं ज्यादा बद्दतर है । मैने उसी दिन निश्चय किया की अब से सफर के दौरान नशीले पदार्थों का सेवन नही करूंगा । मेरे इस प्रण में भी स्वार्थ की बू आ रही थी शायद इसीलिए मैं अभी तक अपने गुरु से किया वादा पूरी तरह से नही निभा पाया था । फिर भी मैंने यह सोच लिया था कि मैं तम्बाकू और अन्य नशीले पदार्थों की गुलामी से अपने आप को आज़ाद करके ही मानूँगा । जैसे हम डॉक्टर की सलाह पर किसी प्रिय भोजन को छोड़ देते हैं वैसे ही तम्बाकू को भी धीरे-धीरे करके छोड़ा जा सकता है । हर नशा छोड़ा जा सकता है । क्योंकि लत तो हमें हर उस पदार्थ की होती है जिसका सेवन हम दैनिक रूप से करते हैं । क्योंकि हमारा शरीर ग्रहण किया गए पदार्थ की पहचान के लिए विशेष प्रकार कारक बना लेता है और प्रतिदिन लिए जाने वाले पदार्थ की रुधिर में मात्रा की सूचना मस्तिष्क को पहुंचाता है । जिस कारण हम उसे ग्रहण करने के लिए परेशान हो जाते हैं । वह तब तक सूचना भेजता है जब तक हम उस पदार्थ की आवश्यक मात्रा ग्रहण नही कर लेते । यदि धीरे धीरे संयम से उसकी मात्रा कम करके दृढ़ निश्चय के साथ कोशिस की जाय तो इस नशे से मुक्ति जरूर मिल सकती है । मैने बहुत दिनों तक प्रयास किया और अंततः अपने आप को आज़ाद करा पाया नशे की कैद से ।

नशा त्यागकर व्यक्ति अपना ही नही पूरे समाज का हितकारी होगा । हमारे देश में फैली हुई गन्दगी का एक प्रमुख कारण है नशा । नशा चाहे वह तम्बाकू का हो, धन का हो, कुल का हो, जाति-धर्म का हो या फिर बल का हो सदैव हानिकारक होता है ।

मैंने तो कबूल किया कि मैं अपराधी हूँ ।

आप कब कबूल कर रहें हैं, सोंचियेगा क्या आप अपराधी हैं ? या नही ।

तथागत बुद्ध ने अंगुलिमाल डाकू से इतना ही कहा था “मैं तो ठहर गया, तू कब ठहरेगा”

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