हिंदुत्व Lakshmi Narayan Panna द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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हिंदुत्व

हिंदुत्व

(एक समानता)

समय समय पर हमारे देश के महान विचारकों और लेखकों न समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों पर अपने मत दिए हैं और देते रहेंगे । परन्तु परिवर्तन नाम मात्र भी न हुआ है । क्या कारण हो सकता है ? ये सोंचकर मैं हमेशा ही आश्चर्यचकित रहता था । जब स्कूल के दिनों में मुझे मुंशी प्रेमचंद जी की कहानियां पढ़ाई जाती थीं , और जिस भाव से मेरे गुरु जी पढ़ाते थे , तो ऐसा लगता था कि हाँ अगर सबको शिक्षित कर दिया जाये और सभी मुंशी प्रेमचंद जी को पढ़ें तो एक न एक दिन परिवर्तन जरूर आएगा । समय बीता मैं बड़ा हुआ तब जाना लोग पढ़ लिखकर भी वही लकीर पीट रहे हैं ।

कोई हिंदुत्व की बात करता है तो कोई इस्लाम की , सब अपने को बड़ा बनाने और साबित करने की जुगत में फिरते हैं ।

आज तक किसी मौलबी या पुजारी ने उन लोगों के प्रश्नों का जवाब नही दिया जो यह पूछते हैं कि एक ही धरती पर राम और अल्लाह दोनों का अधिकार कैसे हो सकता है ? वैसे पूरी धरती पर तो है नही धरती का कुछ हिस्सा ही दावेदारी में है ।

अब मेरा प्रश्न यह है कि जब दावेदारी केवल कुछ हिस्से पर है तो आखिर बाकी की धरती किसने बनाई है ?

एक प्रश्न यह भी उठता है कि अगर अल्लाह और राम की सामर्थ्य में सब कुछ है तो उन्होंने अपने अपने लोगों के लिए अलग-अलग धरती क्यों नही बनाई ?

क्या उनकी सामर्थ्य में कुछ नही ? अगर नही तो हम उन पर विश्वास करके क्यों आपस में लड़ते हैं ?

अगर सामर्थ्य है तो दोनों को चाहिये आएं और पुनः बंटवारा कर दें । क्यों बेकार का झगड़ा बनाये हुए हैं ?

आज भी हिन्दू शास्त्र ,पुराण ,रामायण लिए यह कहता फिरता है कि इसमें जो लिखा है वही धर्म है । मुसलमान क़ुरान लिए कहता फिरता है की इसमें जो लिखा है ओ धर्म है ।

मेरा एक प्रश्न और है कि अल्लाह और भगवान ने अपने लोगों की शारीरिक संरचना और रासायनिक संघटन में कोई अंतर क्यों नही किया ?

इस प्रश्न के कारण मेरे मन में एक शक पैदा होता है कि शायद पुराण शास्त्र और कुरान दोनों ही कभी अपने वर्चस्व को सावित करने के लिए तैयार की गई हैं । बहुत पहले ही महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी इस सम्बन्ध में स्पष्ट कर चुके हैं ।मैं तो बस पुनर्विचार करने का प्रयास कर रहा हूँ । मूझे उस महान शख्सियत पर कोई संदेह नही है । इस बात से यह भी सपष्ट होता है कि शास्त्र और कुरान किन्ही दो अलग अलग सोंच वाले लोगों के व्यक्तिगत विचारों का परिणाम है ।फिर भी हम उनको सर्वथा सत्य मानकर न जाने क्यों वही लड़ाई लड़े जा रहे हैं ।

क्या आपने कभी किसी दूसरी जाती या धर्म के किसी व्यक्ति में अपने से भिन्न रक्त समूह या कोई अन्य भिन्नता देखी है ? अगर नही तो फिर क्यों आप समानता को नही स्वीकारते ? शायद ऐसा करने से आपका वर्चस्व खतरे में आ जायेगा और इसीलिये आप अंजान लोगों को झूठे आडम्बरों में उलझाये रखना भी चाहते हैं ।

अब बड़े समय बाद फिर से लोगों में हिंदुत्व की भावना जागी है । इस भावना ने हिन्दुवों में समानता का कोई संकेत तो नही दिया है परंतु एक आग जरूर लगा दी है । ऐसी आग जिसमें न जाने क्या- क्या जलने की संभावना है ? हो सकता है यही हिंदुत्व की भावना जन्मजात जाति व्यवस्था को समाप्त कर दे या और बढ़ा दे । अगर जातिवाद बढ़ता है तो अवश्य ही उन जातियों को सबसे अधिक खतरा है जो समाज में नीच या हेय दृष्टि से देखी जाती हैं । इसप्रकार हिंदुत्व को बनाये रखने में हिंदुओं को बहुत ही कठिनाई होगी क्योंकि वह वक्त अब रहा नही जब लोग मार खा कर भी अपने को नीच मानकर चुप रहते थे । इसी जातिवाद ने हिदुत्व को पहले भी कमजोर किया था और आगे भी हिंदुत्व के लिए खतरा है ।

मुझे ऐसा नही लगता कि जातिवाद समाप्त हो पायेगा या लोग जो आज तक अपने को ऊंचा रखते आये हैं ओ बराबरी की जमीन पर आ पाएंगे । जो भी हो वक्त सब समझा देगा । अब बात करते हैं हिंदुत्व की ………

आखिर हिंदुत्व क्या है ?

एक समय जब औरंगजेब ने शासन की बागडोर सम्भाली तो उसने जबर्दस्ती इस्लाम कबूल करवाया था जिसने नही कबूल किया उसे मरवा दिया । क्या उसका अल्लाह इतना निर्दयी था ? क्या केवल कबूल करने मात्र से ही कोई मुसलमान हो सकता है ? कुछ नही केवल सत्ता का दुरूपयोग था और भारत देश के लोगों की आपसी फूट का परिणाम । कोई राजा अपनी बात मनवाने के लिए हम लोगों में से ही गुंडे खोजता है । हमारे बीच के लोग ही हमसे जबर्दस्ती करते हैं कोई सेना लेकर पैदा नही होता ।अगर उस वक्त लोगों ने औरंगजेब का साथ न दिया होता तो क्या जो उसने किया कर पाता ?

हिन्दू जिसे बरसों बाद अपने अस्तित्व की सुध आई है , जो हिंदुत्व की डींगें मार रहा है । क्या उसे पता है हिन्दू क्या है ? हिन्दू होने का पैमाना क्या है ?

अपने आप को हिन्दू कहने वाले तो बहुत मिल जाते हैं ।लेकिन जब कभी दो हिंदुओं को पास बिठाया जाता तो सबसे पहला प्रश्न होता है , जाती क्या है ? अगर रिस्ते की बात हो या साथ खाने की , एक व्यक्ति जो अपने को ऊंचा समझता है कि नीचे के साथ न तो खाना चाहता है न रिश्ता करना । सामान्यतः शहरों में लोग साथ खाने में तो कोई छूत विचार नही करते लेकिन रिस्तों के मामले में जाति ही मायने रखती है धर्म नही । ग्रामीण क्षेत्रों में तो कुछ ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि हिंदुत्व की धज्जियां उड़ जाती हैं । कभी कभी तो ऐसे लोग दिख जाते हैं जो पढ़े लिखे होकर भी अपनी लुटिया भी छूने नही देते ।अगर कोई दलित जाती (विशेषकर चमार ) का व्यक्ति उनके बर्तन भी छू ले तो उनका धर्म भृष्ट हो जाता है । मुझे समझ नही आता जब एक ही धर्म है तो भृष्ट कैसे हुआ ? वैसे भी धर्म कोई गुब्बारा तो है नही ।

आपको ऐसा न लगे की मैं सुनी सुनाई बातें बता रहा हूँ या जातिवाद का ढोंग कर रहा हूँ इसलिए अपने जीवन का ही उदाहरण आपको बताता हूँ ।

एक बार जब मैं पढाई पूरी करने के बाद अपने गांव में रहने लगा तो एक अहीर जाती का लड़का जो मुझे चाचा कहता था , मेरे पास आने लगा मुझसे कोई जानकारी लेनी होती तो पूँछ लिया करता था । धीरे धीरे हमारी अच्छी जान पहचान हो गई तो कभी कभार मेरे घर भी आ जाता था और मुझे भी अपने घर बुलाता था । वह जब मेरे घर आता तो पूछने पर कुछ खाता नही था कोई न कोई बहाना बना देता था । जब मै उसके घर जाता तो वह भी दूध लाता था मेरे लिए , दूध का गिलास अक्सर एक ही होता था । पहले तो मैं समझता था गरीब परिवार है ज्यादा बर्तन नही होंगे इसलिए वही हल्का टूटा हुआ और पुराना सा बर्तन लाता है । एक दिन जब मैं शाम को गया तो उसने अपनी बहन से कहा चाय ले आओ तो उसने कहा गिलास उतार दो । मुझे पहले ही शक हो चूका था इसलिए मैं देख रहा था उसने झोले से एक गिलास निकाला और कहा धोकर ले आओ । आज फिर वही गिलास मैं समझ गया कि मुझे रोज वही गिलास क्यों मिलता है ? तब से तो मैने वहाँ न तो कुछ खाया न पिया । और उसको कुछ समझना भी उचित नही समझा क्योंकि शिक्षा हासिल करने के बाद भी जो नही समझा उसको क्या कहना ऐसे लोगों से अपने को दूर कर लेना ही सही है । ऐसे लोग अपने धर्म के नही हो सकते ।

इसके अतिरिक्त एक उदाहरण और प्रस्तुत करता हूँ …

देश में तमाम महापुरुषों ( प्रमाणित और अप्रमाणित ) के नाम पर निर्माण हुए किसी को कोई आपत्ति नही हुई । तमाम छोटे बड़े मंदिर गली मोहल्लों और सड़क किनारे बने हुए हैं और बनते जा रहे हैं इससे भी किसी को कोई शिकायत नही परन्तु जब संविधान निर्माता डॉ. भीम राव आंबेडकर स्मारक बना तो लोगों की जुबान पर बस एक ही चर्चा होने लगी कि इसकी जगह कोई अस्पताल या कॉलेज बनाया गया होता तो अच्छा होता , यह अच्छा नही हुआ । इससे पहले भी स्मारक बने , पार्क बने और उसके बाद भी । फिर अन्य स्मारकों और पार्कों से किसी को परेशानी क्यों नही हुई ?

क्योंकि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर वह व्यक्तित्व हैं जिन्होंने समानता की बात कही और सम्बिधान में ऐसे प्राविधान किये जिससे चाह कर भी कोई खुलेआम जातिवाद न कर सके , और दूसरा कारण यह की वे महार जाति से थे । जब इतने महान व्यक्तित्व के साथ लोग ऐसा भेद-भाव रखते हैं तो दलित जाति के अन्य सदस्यों के साथ क्या होता होगा ? अनुमान लगाया जा सकता है ।

यह भी मैं सुनी सुनाई बातों के आधर पर नही कह रहा , मेरे साथ के तमाम पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों ने हमेशा मुझसे यही कहा कि बहुजन समाज पार्टी ने मूर्तियां लगवाकर और स्मारक बनवाकर बहुत गलत किया । मैं किसी विवाद में नही पड़ना चाहता था इसलिए चुप रहता था । आखिर किस सरकार ने पार्क और स्मारक नही बनवाये ? हाँ इतना जरूर है कि किसी ने अम्बेडकर स्मारक नही बनवाया , बहुजन समाज पार्टी ने इतनी गुस्ताखी जरूर की । मुझे किसी राजनितिक पार्टी से कोई सरोकार नही है । बस मैं इतना कहना चाहता हूँ समानता तभी हो सकती है जब मानवता की बात होगी , धर्म या जाती की नही ।

अब कुछ लोगों का मानना है कि आरक्षण जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उर्वरक का कार्य कर रहा है । उनको इतना ज्ञात होना चाहिए कि जाति व्यवस्था का निर्माण पहले हुआ और जिसका फायदा उठाकर छुआ छूत ( अस्पर्शयता ) को जन्म दिया गया , ताकि एक विशेष वर्ग ही अपना विकास कर पाए बाकी गुलामों की जिंदगी जीने को मजबूर रहें । आरक्षण वास्तव में अंगराज कर्ण के कवच के समान है जिसके रहते स्वार्थियों का स्वार्थ सिद्ध नही हो पाता । वरना कौन नही जानता कि सूर्य देव ने कर्ण को कवच कुंडल इसीलिये दिए थे की ये स्वार्थी लोग कर्ण को जीने नही देंगें । कर्ण के पास इतना साहस शौर्य और शास्त्र -शास्त्र का ज्ञान होते हुए भी उनके साथ भेद भाव किया गया । तो इतना जरूर है जब तक जाति व्यवस्था को ख़त्म नही कर दिया जाता तब तक आरक्षण खत्म करके वही किया जायेगा जो कर्ण के साथ हुआ ।

अगर किसी को ऐसा लगता है कि जातिवाद खत्म हो गया है तो फिर क्यों लोग अपने नाम के आगे सर नाम लगाते हैं ?

लोग सर नाम लगाना और पूछना बन्द करें । ऐसा करने वालों के लिए दण्ड का प्राविधान किया जाए फिर आरक्षण खत्म किया जाये तो शायद पिछड़ी जातियों के साथ भेद भाव को कम किया जा सके । अन्यथा देश में तो जुगाड़ सबसे आगे है ।

अब जब हिंदुत्व की बात तूल पकड़ने लगी तो एक प्रश्न फिर पैदा हुआ कि जो आज देश की जनता ने एक जुट होकर , एक साथ एकता का परिचय देकर , पूर्ण बहुमत से एक नई सरकार का चुनाव किया है । तो क्या यह सरकार हिंदुत्व में हिंदुत्व ( समानता ) को बनाये रख पाएगी ? या जातीय विषमता बढ़ेगी ?

मुझे नही पता की हिन्दू जो आज तक विषमता में जी रहा था किस प्रकार और किस उम्मीद से एक जुट हुआ ।

परन्तु इतना जरूर है जनता हूँ की उम्मीदें बहुत हैं । हिन्दू में जातीय विविधिता बहुत है तो उम्मीदों में भी विविधिता अवश्य ही होगी । अब बारी है सरकार की कि वह हिंदुत्व का कौन सा चेहरा अख्तियार करती है , मानवतावादी या जातिवादी हिन्दू ।

उम्मीद करता हूँ जो होगा अच्छा होगा देश प्रगति की ओर बढ़ रहा है ……

पाठकों को धन्यवाद ! अपनी प्रतिक्रिया जरूर लिखें ।