दास्तानें ज़िन्दगी
आज मैं आप लोगो को एक ऐसे इंसान कि कहानी बताने जा रही हूँ जिसे सुन कर मेरी आँखे भर आयी थी, लेकिन मुझे ख़ुशी भी है क्यूंकि उसने अपनी गरीबी पर विजय पा लिया है, मेरी ये कहानी एक ऐसे लड़के की है जिसने अपने परिवार की सहायता करने के लिए खुद के बचपन को कुर्बान कर दिया |और बहुत ही कम उम्र में एक सफल इंसान बन गया |
बात लगभग 1990 की है, मनोज नाम का एक लड़का जो लगभग पंद्रह साल का रहा होगा, वह अपने रिश्तेदार के साथ लुधियाना जाने के लिए तैयार हो रहा था (मनोज का जन्म बिहार के एक जिले जो सहरसा नाम से जाना जाता है में हुआ था, वहाँ उसके पुरखो की ज़मीन थी जिसपर उसके परिवार वाले रह रहे थे )
मनोज के घर में पांच बहने और दो छोटे-छोटे भाई थे, मनोज अपने भाई बहनो में तीसरे नंबर पर था, उसके माँ बाप अपनी बेटियों की शादी को लेकर बहुत चिंतित थे क्युकि उसके पापा की इतनी तन्खा नहीं थी की वह घर चलाने के अलावा कुछ पैसे बचा पाए अपने बेटियों की शादी के लिए, जब मनोज पंद्रह साल का हुआ तो उसके माँ बाप ने उसे कमाने के लिए शहर भेजने का निर्णय लिया|
उन्होंने इसके लिए अपने सभी रिश्तेदार से बात करनी शुरू कर दी, ये वो लोग थे जो शहरो में अपना व्यवसाय चला रहे थे, उनमे से एक रिश्तेदार मनोज को अपने साथ शहर ले जाने के लिए तैयार हो गया वह मनोज को अपने साथ लुधियाना ले कर जा रहा था |
मनोज की माँ उसके रास्ते में खाने के लिए कई तरह की चीज़े बना कर पैक कर देती है, मनोज और उसका रिश्तेदार सुबह की ट्रेन पकड़ कर लुधियाना के लिए रवाना हो गए, लगभग इक्कीस घंटे का सफर तय कर के वह दोनों लुधियाना पहुंचते है, मनोज का रिश्तेदार उसे लेकर अपने मालिक से मिलवाने चला जाता है | उसका मालिक मनोज को रखने से मना कर देता है क्यूंकि वह उस काम के लिए बहुत छोटा था | लेकिन जब उसका रिश्तेदार अपने मालिक के कानो में कुछ कहता है तब वह मान जाता है मनोज को रखने के लिए, मनोज को वह अपनी फैक्ट्री दिखाने ले जाते है जहा बड़ी-बड़ी मशीनों पर लोग गाड़ियों के पार्ट-पुर्जे बना रहे थे, मनोज ये पाता है कि वहाँ पर उसके उम्र का एक भी लड़का नहीं था, सिर्फ वही सबसे कम उम्र का था, मनोज को उसका मालिक एक कमरा देता है रहने के लिए, जहाँ पहले से ही पांच लोग रह रहे थे, वहाँ पर रह रहे लोगो के अपने-अपने घरो से खाना आता था इसलिए मनोज का मालिक उसे अपने साथ ले जाता था खाना खिलाने के लिए, उसी दिन रात को मनोज खाने के लिए अपने मालिक के घर गया, उसे खाने के लिए बची हुई दो रोटियां और थोड़ी सब्जी दिया गया, मनोज का दो रोटी में पेट नहीं भरता तो वह रोटी मांगने की सोचता है लेकिन डर के मारे नहीं मांगता कि कही उसका मालिक उसे काम से ना निकाल दे, खाना खाने के बाद उसका मालिक उसे उसका काम बताने लग जाता है, वह कहता है कि 'तुम्हे फैक्ट्री का काम सिखने में अभी बहुत समय लगेगा इसलिए तुम तब तक मेरे घर में काम कर लेना और उसके बाद मैं तुम्हे काम सिखाऊंगा |'
ऐसा लगभग कई महीनो तक चलता रहा, मनोज सिर्फ अपने मालिक के घर में ही काम कर पाता था, उसे कभी भी फैक्ट्री में लेकर नहीं जाते थे, उसे उसके मालिक ने कभी भी काम नहीं सिखाया और तो और वह जिस उम्मीद से अपने मालिक के घर के सारे काम कर रहा था उसे उसके पैसे भी नहीं मिलते थे, क्युकि उसके मेहनत का पैसा उसका रिश्तेदार ले लेता था | जब मनोज अपने मालिक से बोलने जाता कि वह अपने वादे के मुताबिक़ उसे काम सिखाये, तब उसका मालिक उसे डांट कर भगा देता था |
मनोज को वह लोग भर पेट खाना भी नहीं देते थे और घर के सारे काम भी करवाते थे | एक दिन मनोज अपने रिश्तेदार से बात करने गया, और बोला 'मुझे मालिक फैक्ट्री का काम नहीं सिखा रहे है बस अपने घर के काम करवाते रहते है, आप उनसे बोलो न कि वो मुझे काम सिखाये' मनोज का रिश्तेदार उसे झूट-मूट का दिलाशा देता है, और कहता है कि 'मैं जल्द ही मालिक से बात करूँगा तुम्हे काम सिखाने के लिए, तब तक तुम वही करो जो मालिक कहते है' मनोज फिर से थोड़ी उम्मीद लेकर काम करने लग गया | मनोज के माँ-बाप उससे हमेशा बाते करते रहते थे और कहते थे पैसे भेजने के लिए, लेकिन मनोज उन्हें सच्चाई नहीं बताता ताकि उसके माँ बाप परेशान ना हो जाये, वह उन्हें कह देता था कि अभी वह काम सीख़ रहा है |
एक दिन मनोज ने ठान लिया कि वह अपने मालिक से साफ़-साफ़ बात करेगा और उससे पूछेगा कि वह उसे काम सिखाएंगे या नहीं |
मनोज जब मालिक से बात करने जाता है तब उसका मालिक उसे डांटने और मारने लगता है, मनोज अपने कमरे में बैठ कर खूब रोता है | उस दिन मनोज को उसका मालिक खाने के लिए भी नहीं देता है| उस दिन मनोज ने ठान लिया कि वह यहाँ से भाग जायेगा और किसी दूसरे शहर में काम ढूंढेगा |
अगले दिन 15 अगस्त 1990 को वह उस जगह से भाग गया और जाकर एक बस में बैठ गया जो कि दिल्ली जाने वाली थी, कुछ मिनट बाद बस चलने लगी | लगभग एक घंटे बाद बस का कंडक्टर टिकट चेक करने आता है, वह मनोज को टिकट दिखाने को कहता है लेकिन उसके पास ना तो कोई टिकट थी और ना ही पैसे थे, फिर बस का कंडक्टर उसका कॉलर पकड़ कर उसे बस से उतारने लग जाता है तब एक दूसरा कंडक्टर कहता है कि, 'जाने दे आज के दिन तो हमारा देश आज़ाद हुआ था और आज के दिन तो कम से कम मारपीट नहीं करनी चाहिए, जाने दे बच्चा है ये, और ये अगली बार बिना पैसे के दिखे तब हम इसे नहीं छोड़ेंगे अभी रहने दे'|
लगभग दो घंटे में बस मनोज को दिल्ली के एक बस स्टैंड पर उतार देती है, इस प्रकार वह बिना पैसे के दिल्ली पहुंच गया |
मनोज के लिए दिल्ली के सड़के बिलकुल अनजान थी, उसे पता नहीं था कि वह किधर जाये ?, लेकिन फिर भी वह उन सड़को पर आगे बढे जा रहा था, उस समय दिल्ली कि जनसँख्या बहुत कम थी ज्यादातर जगहों पर जंगल देखने को मिलता था, मनोज दिल्ली के सुनसान गलियों में भूखे प्यासे चले जा रहा था, उसके पास ना तो पैसे थे और ना ही खाने के लिए कुछ भी चीज़ें, मनोज को प्यास के मारे चला नहीं जा रहा था, वह किसी से पानी भी नहीं मांग सकता था क्युकि रोड के किनारे एक भी घर नहीं था सिर्फ गाड़िया चल रही थी आगे बढ़ने पर मनोज को एक गड्ढे में पानी इकट्ठा दिखा वह दौड़ कर उसके पास गया और दोनों हाँथो को अर्ध गोल करके पानी पीने लगा, गड्ढे का पानी गन्दा था लेकिन प्यास बुझाने के लिए काफी था, मनोज पानी पीने के बाद फिर आगे बढ़ने लगा, कुछ जगह पर उसे घनी आबादी मिलती तो कुछ जगह बिलकुल सन्नाटा, एक जगह गुरुद्वारे के पास कुछ खाने कि चीज़े बट रहा था, मनोज वहाँ पर रुक कर देखने लगा वह यह देखता है कि कोई भी लोग वहाँ से खाने कि चीज़े लेकर जा सकते है, मनोज तो कल रात से ही भूखा था इसलिए उसने भी वहाँ से खाने कि चीज़े ले लिया, मनोज एक पेड़ के निचे बैठ कर खाने लगा और खाने के बाद वह दुबारा आगे बढ़ने लग गया, बिना किसी उम्मीद के वह चले जा रहा था, देखते ही देखते शाम हो गयी मनोज बहुत थक चूका था उसने कही पर रुकने का सोचा और आगे बढ़ने पर उसे एक पार्क दिखा, जहा पर कुछ लड़के और लड़किया घूम रहे थे, मनोज उसी पार्क में जाकर एक बेंच पर सो गया, मनोज पूरी रात उसी पार्क में सोता रहा, अगली सुबह कुछ बच्चे आकर उसे परेशान करने लगे तब उसकी आंखे खुली, पार्क में एक माली पानी डाल रहा था, मनोज उससे पानी मांग कर पिने लगा और फिर उस पार्क से निकल कर आगे चलने लगा, मनोज फिर से भूखा प्यासा उन गलियों में चले जा रहा था इस बार उसे कोई भंडारा नहीं दिखा जहाँ से वह कुछ खाने को ले सके, लगभग दोपहर हो चुका था, मनोज बहुत थक गया था उसके दिमाग में ख्याल आने लगा कि आखिर वह कब तक इधर उधर भटकता रहेगा ये सब सोचते सोचते वह एक पेड़ के निचे बैठ गया है, वहाँ कुछ दूर पर कई सारे लड़के खेल रहे थे वह उसे देख कर अपने बचपन के दिनों को याद करने लगा, अपने माँ बाप को याद करने लगा कि उन्होंने अभी तक ये उम्मीद लगा रखी होगी कि वह उन्हें पैसे भेजेगा, उतने में ही उसे एक आवाज़ सुनाई देती है जो उसका कभी बेस्ट फ्रेंड रहा करता था, लेकिन कुछ साल पहले उसका दोस्त पढाई करने के लिए अपने माता पिता के साथ दिल्ली आ गया था, वह उस आवाज़ को सुनते हुए उन लड़को के बीच में चला जाता है, और उसे फिर से एक उम्मीद कि एक किरण दिखाई देने लगती है, यह आवाज़ उसके दोस्त रोहन की थी, रोहन मनोज को देखकर बहुत खुश होता है और वह उसे अपने साथ घर ले जाता है |
रोहन की माँ उसे खाने के लिए देती है, उस दिन मनोज अपने गांव से आने के बाद भर पेट खाना खाया था, उसका दोस्त उसे अपने कपड़े पहनने के लिए देता है, और पूछने लगता है कि वह यहाँ तक कैसे पंहुचा, मनोज उसे अपनी सारी बाते बताता है|
मनोज को रोहन अपने बड़े भाई के पास ले जाता है जो एक बुटीक चलाता था, 'रोहन अपने भाई को कहता है कि वह मनोज को अपने बुटीक में रख ले और कुछ काम सिखा दे' पहले तो उसका भाई मना कर देता है कि उसे कोई लड़के कि ज़रूरत नहीं है लेकिन रोहन के ज़िद करने पर वह उसे एक ऐसे बुटीक में ले जाते है जहाँ पर उसने खुद काम सीखा था, मनोज को उस बुटीक का मालिक रख लेता है और ये वादा करता है कि वह उसे भी बुटीक का सारा काम सिखा देगा|
मनोज को उसका मालिक खाना खिलाने के बाद भी पांच सो रूपए का महीना देता था, मनोज लगभग पांच महीने में सारा काम सीख चुका था, काम सीख लेने के बाद उसकी तन्खा भी बढ़ गयी थी, अब वह अपने गांव भी कुछ पैसे भेज देता था, सत्रह साल कि उम्र में वह सिलाई का अच्छा कारीगर बन गया और उसे अच्छी तनख्वा भी मिलने लगी |
वह अपने पैसे जमा करने लग गया और अपने मालिक की मदद से खुद का बुटीक खोल लिया|वह अपने बुटीक में अपनी सारी मेहनत लगा देता है और फिर वह खूब पैसे कमाने लगता है, पांच साल के अंदर में वह वैसी तीन बुटीक का मालिक बन जाता है |
कहते है ना अगर खुद पर भरोसा हो तो इंसान कुछ भी कर सकता है मनोज अपनी कड़ी मेहनत और लगन से एक सफल व्यक्ति बन चुका था, मुझे मनोज जैसे लोगो पर गर्व है, अगर उसकी जगह पर कोई और होता तो ज़रूर अब तक भाग चुका होता |