झूठी औरत Qais Jaunpuri द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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झूठी औरत

झूठी औरत

क़ैस जौनपुरी

सने बैन्ड्रा से फ़र्स्ट क्लास, फ़ास्ट ट्रेन पकड़ी. उसे अँधेरी जाना था, इसलिये उसने सोचा कि, “अगले ही स्टेशन पे तो उतरना है, तो क्या बैठूँ! गेट पे खड़ा रहता हूँ. हवा से बाल उड़ेंगे तो अच्छा लगेगा.” इसलिये वो फ़र्स्ट क्लास की खुली-खुली सीट पर नहीं बैठा और जाके ट्रेन के गेट पर खड़ा हो गया. और हवा से उसके बाल उड़ने लगे, जैसे वो कोई बादशाह हो, और हवा को हुक्म मिला हो कि, ‘जाओ और उसके बाल उड़ाओ’.

तो वो ट्रेन के गेट पे खड़ा था और हवा से उसके बाल उड़ रहे थे. और जैसा कि उसका मक़सद था, उसे ये अच्छा लग रहा था.

तभी उसे किसी के गाने की आवाज़ सुनायी दी. आवाज़ किसी औरत की थी, लेकिन वो क्या गा रही थी, ये साफ़-साफ़ पता नहीं चल पा रहा था. उसने मुड़के, आवाज़ जिधर से आ रही थी, उधर देखा. ऐसा करने में उसके उड़ते हुए बाल, उसके चेहरे पे बहने लगे. उसने अपने बालों को अपने कान के पीछे किया, फिर उस आवाज़ को पहचानने की कोशिश करने लगा.

आवाज़ फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे से सटे हुए सेकेण्ड क्लास के डिब्बे से आ रही थी, जिसमें थोड़ी ज़्यादा भीड़ थी. इसलिये भीड़ में कौन गा रहा है, पता नहीं चल रहा था. लेकिन तभी उसने ग़ौर किया तो पता चला कि वो औरत गाने के साथ-साथ, दो छोटे-छोटे सफ़ेद पत्थर के टुकड़े अपनी उँगलियों में फँसा के बजा रही है. अब उसे समझ में आ गया कि वो क्या गा रही है. वो गा रही थी....

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

इतना कहके वो रुकी, साँस लिया, और फिर गाने लगी.

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

काँटों से हो जाए, पाँव ना घायल

काँटों पे नाचूँगी, बाँध के मैं पायल

इतना गाने के बाद वो औरत फिर रुकी और उसने लोगों के सामने हाथ फैला दिया. अब ये देखके उसे तो ऐसा लगा, जैसे वो वहाँ से उड़के चलती हुई ट्रेन के आगे खड़ा हो गया हो और कहने लगा हो, “नहीं, तुम यहाँ से आगे नहीं जा सकती.” और जैसे चलती हुई ट्रेन ने उसकी कोई परवाह न की हो और उसके सीने पे एक ज़ोर का मुक्का मारा हो, और उसे एक तरफ़ ढकेल के आगे निकल गयी हो. और फिर जैसे उसके सीने में तेज़ दर्द हो रहा हो और उसके मुँह से काला-काला ख़ून निकल रहा हो. और जैसे उस काले-काले ख़ून में उसे उस औरत का चेहरा दिख रहा हो, जो काले-काले ख़ून से सने हुए मुँह से गा रही हो...

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

काँटों से हो जाए, पाँव ना घायल

काँटों पे नाचूँगी, बाँध के मैं पायल

तब उसे पता चला कि वो औरत भीख माँग रही है. उसने उस औरत को ग़ौर से देखा. उसके हाथ में पत्थर के दो छोटे-छोटे टुकड़े थे, जिनसे वो म्युज़िक निकाल रही थी. और फिर उसने उस औरत के चेहरे को देखा. साँवला रंग, जो एक तरह से पसीने से भीग-भीग के और भूख से बिलख-बिलख के कहीं-कहीं से काला हो चुका था. वो हाथ फैलाये भीख माँग रही है. उसने देखा, उस औरत के दायें हाथ में पत्थर के दो छोटे-छोटे टुकड़े हैं, जिनसे वो म्युज़िक निकाल रही है, और उसने अपने बायें हाथ में कुछ पकड़ रखा है. शायद उसका छोटा सा बच्चा है, जिसका मुँह उसने अपने दुपट्टे से ढाँक रखा है. शायद उसका बच्चा सो रहा है.

उसे किसी ने एक रुपया भी नहीं दिया. और वो फिर से पत्थर के उन दो छोटे-छोटे टुकड़ों से म्युज़िक निकालने लगी और गाने लगी.

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव...

छाँव तक आते-आते उसे जम्हाई आ गयी और उसे अपना गाना बीच में रोकना पड़ा. थोड़ी देर के लिये म्युज़िक भी बन्द हो गया. उस औरत ने इतनी लम्बी जम्हाई ली, जैसी कई बरसों से सोई न हो, और इस इन्तिज़ार में हो कि, ‘आज बस कुछ मिल जाए, फिर उसके बाद जी भर के सोऊँगी.”

उसने देखा कि उस औरत का दुपट्टा उसके सिर पे कुछ इस तरह सलीक़े से पड़ा है, जैसे वो कोई मुस्लिम औरत हो. अब उसे उस बेचारी से हमदर्दी होने लगी. लेकिन वो चलती ट्रेन से कूद नहीं सकता था. आजकल फ़र्स्ट क्लास और सेकेण्ड क्लास के बीच में स्टेनलेस स्टील की जालीदार मगर मज़बूत दीवार होती है. कोई इधर से उधर नहीं जा सकता. कोई उधर से इधर नहीं आ सकता. हाँ, एक-दूसरे को आराम से देख सकते हैं. कुछ लेना-देना हो तो हाथ इधर-उधर करके लिया-दिया जा सकता है.

उस औरत ने जम्हाई ली और फिर से गाना शुरू किया.

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

काँटों से हो जाए, पाँव ना घायल

काँटों पे नाचूँगी, बाँध के मैं पायल

उसने उस औरत की हालत देखी और अब वो उसके गाने के बोल का मतलब निकालने लगा. अब औरत गाये जा रही है और वो उसके एक–एक लफ़्ज़ का मतलब निकाल रहा है. महलों की रानी... इसी पे वो बार-बार अटक जा रहा था. वो औरत कहीं से भी महलों की रानी नहीं लग रही थी. वो तो भीख माँग रही थी. दु:ख से बेगानी.... दु:ख? दु:ख से बेगानी? उसकी ज़िन्दगी में तो दु:ख ही दु:ख है. लग जाए ना धूप तुझे... धूप? 31 मई 2015 की चिलचिलाती गर्मी में धूप के अलावा और क्या लगेगा? धूप लगे है छाँव मुझे…. एकदम सरेआम झूठ बोल रही हो… धूप से तुम्हारा चेहरा काला पड़ गया है. और कहती हो धूप लगे है छाँव मुझे…? काँटों से हो जाए, पाँव ना घायल… सिर्फ़ पाँव? तुम्हारे तो हर पोर-पोर में काँटें ही काँटें चुभे हैं. काँटों पे नाचूँगी, बाँध के मैं पायल… तरस आता है मुझे तुम पर और तुम्हारी हालत पर. अपनी शकल देखो! भूख से इस तरह बिलबिला रही हो कि कोई एक नोट दे दे तो शायद नोट ही न खा जाओ. हँह्ह…!!! बड़ी आयी काँटों पे पायल बाँध के नाचने वाली…!!!

वो सोचने लगा, “तुमने गाना ग़लत चूज़ किया है. तुम्हें तो कोई ऐसा गाना गाना चाहिए जो तुम्हारी हालत से मेल खाता हो. जैसे, ‘ग़रीबों की सुनो. वो तुम्हारी सुनेगा. तुम एक पैसा दोगे. वो दस लाख देगा.’ दस लाख के लालच में शायद तुम्हें दस रुपये मिल भी जाएँ. लेकिन इस वक़्त तो तुमने एकदम ही ग़लत गाना सेलेक्ट किया है. महलों की रानी... दु:ख से बेगानी... ट्रेन में बैठे हुए लोग भी उस औरत को इस तरह देख रहे हैं, जैसे कह रहे हों, “तुम गाना ही ग़लत गा रही हो, नहीं तो हम तुम्हें एक रुपया ज़रूर देते.”

मगर लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं, इसकी परवाह किये बग़ैर वो औरत गाये जा रही है.

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

एक बार फिर वो औरत रुकी और, ‘इतनी मेहनत के बदले कुछ रुपये मिल जाएँ’ ये सोचके लोगों के सामने हाथ फैलाके घुमाने लगी. लेकिन किसी के कान में जूँ तक नहीं रेंग रही थी. वो ट्रेन के गेट पर खड़ा सब देख रहा था. उसका मन हुआ कि उस औरत को लेके कहीं भाग जाए, इस ट्रेन से दूर, आने वाले स्टेशन अँधेरी से दूर, इस बम्बई से ही दूर. लेकिन कहाँ?

तभी उस औरत ने अपने बायें हाथ में सो रहे बच्चे को जगा दिया. उसने अपना दुपट्टा हटा दिया था. उसने देखा, वहाँ कोई बच्चा नहीं था. वो अपने हाथ में एक बरतन जैसा कुछ अटकाये हुए थी. उसने देखा, उसे लगा जैसे कोई दूध का बरतन हो. तभी उस औरत ने उसकी हैरानी को मिटाते हुए उस बरतन को बाहर सबके सामने कर दिया. वो ना तो कोई बच्चा था, और ना ही कोई दूध का बरतन था. वो एक प्लेट थी, जिसमें कुछ गहरे लाल और ढेर सारे पीले फूल रखे थे.

अब उससे रहा नहीं गया और वो धीरे-धीरे आगे बढ़के देखने लगा कि उस बरतन में आख़िर है क्या? उसने देखा, वो औरत अब अपने हाथ की जगह उस बरतन को सबके सामने फैला रही थी.

और फिर उसने जो देखा तो फिर तो उसने अपना माथा पकड़ लिया. उसने देखा कि उस बरतन में लाल और पीले फूलों से ढँकी पीतल से बनी हुई दुर्गाजी की छोटी सी मूर्ति है. अब उसने सोचा, “अच्छा! तो हिन्दू है!” वो औरत दुर्गाजी की पीतल से बनी हुई और लाल और पीले फूलों से ढँकी हुई छोटी सी मूर्ति सबको दिखा रही थी.

अब ट्रेन में बैठे हुए लोगों की थोड़ी मजबूरी हो गयी. सामने दुर्गाजी भीख माँग रहीं थीं. अब उनमें से किसी-किसी ने तो चुपचाप अपना पर्स निकाला और एक सिक्का उस बरतन में रखा और हाथ जोड़कर नमस्कार कर लिया और धीरे से अपने मन में कहा, “जय माता दी! मेरा काम बना देना देवी माँ!”

कुछ लोग अभी भी सोच-विचार में पड़े थे कि, “दूँ कि न दूँ? दे दूँ तो क्या होगा? न दूँ तो क्या होगा?” दुर्गाजी की पीतल की बनी हुई मूर्ति सबको देख रही थी. सबको ऐसा लग रहा था कि दुर्गाजी अपना त्रिशूल दिखाकर कह रहीं हों, “एक रुपया जल्दी से दो, नहीं तो, यही त्रिशूल तुम्हारे पेट में घोंप दूँगी.”

कुछ ने तो इसी डर से एक रुपया निकाला और हाथ जोड़कर बरतन में रख दिया. और जैसे वो सफ़ाई दे रहें हों कि, “मैंने कुछ नहीं किया, देवी माँ. देखो! अब तो मैंने एक रुपया भी दे दिया. नाराज़ मत होना देवी माँ. हाँ, ठीक है ना? कल भी आऊँगा मैं. ये औरत तो रोज़ ही गाती रहती है. अब रोज़-रोज़ एक रुपया देना कितना भारी पड़ता है. तुम समझ रही हो ना देवी माँ?”

लेकिन कुछ ढीठ लोग अभी भी चुपचाप बस तमाशा देख रहे थे. जैसे ना तो उन्हें किसी दुर्गा माँ का डर था, और ना ही उनके त्रिशूल का.

वो ये सब देखता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था. उसका जी हुआ कि, ‘निकाले अपना पर्स और जितने भी नोट उसके पर्स में हैं, सब के सब उस बरतन में बिना देखे रख दे, जिसमें दुर्गाजी की पीतल की बनी हुई छोटी सी मूर्ति लाल और पीले फूलों के बीच रखी हुई है.

मगर इससे पहले कि वो अपना पर्स निकालता और उसमें जितने भी नोट होते, न देखता और सारे के सारे उस बरतन में रख देता, जिसमें दुर्गा जी की पीतल से बनी हुई मूर्ति लाल और पीले फूलों के बीच रखी हुई थी कि ट्रेन ने आवाज़ दी, “अगला स्टेशन अँधेरी.”

अँधेरी स्टेशन आ चुका था. अब उसे उतरना था. एक तरफ़, वो उस औरत को कुछ दे देना चाहता था. उसने इतना बढ़िया गाना जो गाया था. भले ही वो गाना उसकी हालत से मेल नहीं खाता था तो क्या हुआ? दूसरी तरफ़ बम्बई की ट्रेन किसी के बाप का भी इन्तिज़ार नहीं करती.

वो बड़ी दुविधा में फँसा हुआ था. मुश्किल ये थी कि वो औरत सेकेण्ड क्लास में थी, और उसके बरतन में कुछ रुपये, बिना देखे रखने के लिये, उसे स्टेनलेस स्टील की बनी हुई उस मज़बूत दीवार को तोड़ना होता. या तो वो उस औरत को आवाज़ देता कि, “सुनो!” लेकिन ऐसा वो कैसे कर सकता था? वो एक अनजान औरत थी. वो एक भिखारिन थी. और उसकी ट्रेन अँधेरी पहुँच चुकी थी. और उसे अब उतरना था.

वो थोड़ा सा उस औरत की ओर और बढ़ा तभी ट्रेन ने फिर से आवाज़ दी, “अँधेरी स्टेशन.” अब ट्रेन अँधेरी स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पे खड़ी थी. अब तो उसे उतरना ही था. उसने एक बार फिर उस औरत को देखा, फिर उसके बरतन में रखी पीतल की बनी हुई दुर्गाजी की मुर्ति को देखा, जो लाल और पीले फूलों से ढँकी हुईं थीं. और वो बिना कुछ दिये ही उतर गया.

अब ट्रेन अपने रस्ते चल दी, और वो अपने घर की ओर चल पड़ा. उसे उस औरत के गाने की आवाज़ धीरे-धीरे दूर होती हुई मगर अभी भी सुनाई दे रही थी.

महलों की रानी, दु:ख से बेगानी

लग जाए ना धूप तुझे

उड़ उड़ जाऊँ, सबको बताऊँ

धूप लगे है छाँव मुझे

काँटों से हो जाए, पाँव ना घायल

काँटों पे नाचूँगी, बाँध के मैं पायल

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