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नैन मटक्का

नैन-मटक्का

कहानी

क़ैस जौनपुरी

qaisjaunpuri@gmail.com

+91 9004781786 05 August 2014

कहानी क़ैस जौनपुरी

नैन-मटक्का

पहली बार उसे कैन्टीन में लंच करते हुए देखा था. किसी को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए कि एक ख़ूबसूरत लड़की उसे टकटकी लगाए देख रही हो. शायद ये मेरे कपड़ों का कमाल था. उस दिन मैंने रोज़ से हटके थोड़े अच्छे कपड़े पहने थे. मैं एक़दम प्रोफ़ेशनल लग रहा था. वो मुझे घूर रही थी. और ये सच में बहुत अच्छा लगता है, जब कोई ख़ूबसूरत लड़की आपको घूर रही हो. सच में.....

और फिर, मेरे अन्दर कुछ कुलबुलाहट सी होने लगी. लेकिन मैंने अपने आपको सँभाला और तभी मुझे अपना लड़की पटाने का पहला नियम याद आया कि, “उसकी तरफ़ मत देखो. उसे अपनी तरफ़ देखने दो.” अक्सर ऐसा होता है कि आदमी लड़कियों की तरफ़ गिद्ध की तरह देखता है. और ये हरकत लड़कियों को बिलकुल पसन्द नहीं है. और ठीक उसी तरह, जब लड़कियों को ये पता चलता है कि “कोई मेरी तरफ़ देख नहीं रहा”, उनसे ये बर्दाश्त नहीं होता है. और फिर वो ख़ुद आपकी तरफ़ देखना शुरू कर देती हैं. और आप जंग जीत जाते हैं. वो आपकी हो जाती हैं.

उस दिन उसने गुलाबी रंग का टॉप और नीले रंग की जींस पहनी हुई थी, और कुर्सी पे आराम से बैठी हुई थी, क्यूँकि ये लंच टाइम था, और कोई बॉस उसे कुछ कहने वाला नहीं था. उसके जिस्म के उतार-चढ़ाव बड़े मोहक हैं. मेरे दिमाग़ ने उसकी बनावट को पढ़ना शुरू कर दिया. ये मेरी बड़ी ख़राब आदत है. मेरी आँखों को जब भी कोई ख़ूबसूरत लड़की दिख जाती है तो मैं तुरन्त उसकी एक-एक बनावट को बड़े ग़ौर से देखने लग जाता हूँ.

वो अपने ऑफ़िस में ही काम करने वाले कुछ और लोगों के साथ बैठी हुई थी. एक लड़की और एक लड़का उसके साथ थे. मैंने देखा कि दूसरी लड़की भी मुझे देख रही है. मेरा तो मन खिल गया. उसे जलन हो रही थी कि मैं उसकी तरफ़ नहीं देख रहा था. ऐसा मैंने सोचा.

लेकिन मैं कर भी क्या सकता था? मेरी आँखे किसी और से मिल गई थीं, उससे नहीं. इसलिए मैं उसे ही देख रहा था, जो मेरी आँखों में डूब चुकी थी, या मैं जिसकी आँखों में डूब चुका था. मैं उसके गुलाबी टॉप में उसके सीने का उभार आसानी से देख सकता था. और ये उभार किस तरह उसके पेट की तरफ़ नीचे झुकता था, और फिर उसकी कमर, और फिर नीली जींस में कसी हुई उसकी जाँघें… उफ़्फ़्फ़्फ़…..किसने बनाया है ये जींस? ऊपर से लड़कियाँ पहन लें तो और भी आफ़त.…

थोड़ी देर ये सिलसिला चलता रहा. जब वो मुझे देखती, मैं अपनी नज़र हटा लेता था. उसे जी भर के देखने दे रहा था. आख़िर वो मुझे देखना चाह रही थी. उसे रोक कैसे सकता था. और ये अच्छा भी नहीं था कि उल्टा मैं उसे घूरने लगूँ. ताकि वो मेरी तरफ़ देखना ही छोड़ दे. लड़के अक्सर यही गलती करते हैं. उन्हें पता नहीं किस बात की जल्दी रहती है. अरे भाई!!! कभी-कभी लड़कियाँ भी देखना चाहती हैं. तो उन्हें भी मौक़ा मिलना चाहिए ना? है कि नहीं?

उसके चेहरे की बनावट भी बड़ी दिलकश है. बिलकुल उसके उभारों की तरह कि जी करता है बस देखता ही रहूँ. मगर जब मैं उसकी तरफ़ देखने की कोशिश करता था, तब पाता था कि वो अब भी मेरी ही तरफ़ देख रही है. फिर मैं अपनी नज़र हटा लेता था. और फिर वो लड़की अपनी साँसे रोके मुझे देखने लग रही थी.

मेरा इससे अच्छा लंच आज तक नहीं हुआ था. फिर जैसा कि मैं बाद में आया था. उसका खाना पहले हो गया था और अब उसके जाने का वक़्त था. जाते हुए वो बिलकुल मेरे पास से गुज़री और इस बार हम दोनों ने किसी की परवाह किए बग़ैर एक-दूसरे की आँखों में देखा. जी भर के. ऐसे, जैसे अब ये मौक़ा दुबारा नहीं मिलने वाला. वैसे भी वो जा ही रही थी. तो मैंने भी देखा और हमारी नज़रें मिलीं. पहली बार मैंने महसूस किया कि कोई लड़की इतनी भी बिन्दास हो सकती है. वो रत्‍ती भर भी कम नहीं हो रही थी. लेकिन उसके चेहरे में एक मासूमियत थी जो उसे बाक़ी लड़कियों से अलग करती थी. उसके जाते हुए चेहरे से ऐसा लगा जैसे उसने साँस लेना छोड़ दिया हो. और उसके चेहरे पे कोई शिकन नहीं थी. एक़दम शान्त चेहरे से बस वो मुझे देख रही थी और मैं अपने बॉस की नज़र बचाते हुए उसे देख रहा था. फिर वो चली गई.

अब उसकी कुर्सी ख़ाली थी. मगर मुझे वो अब भी वहीं बैठी हुई मालूम पड़ रही थी. उसके जिस्म की बनावट बिलकुल उसी तरह मेरी आँखों में उभर रही थी जैसे वो थोड़ी देर पहले उसी कुर्सी पे बैठी हुई थी और मैं उसके एक-एक हिस्से को बख़ूबी निहार रहा था. फिर मैंने अपने दिमाग़ को आराम दिया और कहा, “अब वो चली गई है.” तब जाके मेरा मन शान्त हुआ.

अगले दिन वो फिर दिखी. लेकिन आज मैंने महसूस किया कि आज मेरी नज़र, उसके जिस्म पे न जाके, उसके चेहरे पे बार-बार टिक रही थी. पता नहीं क्यूँ! शायद उसकी और मेरी आँखों के बीच एक समझौता हो चुका था कि हम एक-दूसरे को बिना झिझक देख सकते हैं. और फिर इसी तरह हम रोज़ एक-दूसरे को देखने लगे. लेकिन कुछ बोलने की हिम्मत हम दोनों में से किसी के पास नहीं थी. इसकी एक और वजह थी. वो ये कि वो अकेली नहीं आती थी. उसके साथ भी दो पहरेदार होते थे. और मेरे साथ भी.

लेकिन अब उससे कुछ कहने का मन हो रहा था. क्या...? ये पता नहीं. लेकिन कुछ कह दूँ, ऐसा जी चाह रहा था. लेकिन मौक़ा नहीं मिल रहा था. कैन्टीन में और भी बहुत से लोग रहते हैं. और फिर वहाँ रोज़ का आना-जाना है. बेकार में कुछ इधर-उधर हो गया तो बैठना मुश्किल हो जाएगा. वैसे भी उस लड़की का कोई भरोसा नहीं था. उसने अभी तक कुछ कहा नहीं था. वो मुकर भी सकती थी. एक बात मैंने महसूस की कि आदमी जब प्यार में पड़ता है तब उसकी सारी अक़ल घास चरने चली जाती है. और हड़बड़ी में वो कुछ न कुछ ऐसा कर बैठता है जिससे सबको पता चल जाता है कि कुछ खिचड़ी पक रही है. लेकिन मैं सावधान था कि जब तक सही मौक़ा नहीं मिलता, कोई बेवकूफी नहीं करनी है.

फिर एक दिन ऊपरवाले को शायद मुझपे या हम दोनों पे थोड़ा रहम आ गया. हमने एक-दूसरे को कैन्टीन से बाहर देखा. ऑफ़िस ख़त्म होने के बाद मैं ऑटो पकड़ने के लिए खड़ा था. तभी मैंने देखा, वही लड़की. हाँ, हाँ वही लड़की फ़ोन पे बात कर रही थी और मेरी तरफ़ देख रही थी. बिलकुल उसी तरह जैसे उसने पहली बार देखा था. बस फिर क्या था. मेरा भी ख़ून गरम हो गया. साँसे तेज़ हो गईं. मैं भी तैयार हो गया कि आज तो बात करके ही रहेंगे.

लेकिन इस तरह के मामले में एक बहुत बड़ी मुसीबत ये होती है कि शुरूआत कौन करे? मैं शुरूआत करने के लिए तैयार था मगर वो थोड़ी दूरी पे थी. लेकिन थोड़ी ही देर में उसने ये वजह भी ख़तम कर दी. वो फ़ोन पे बात करते हुए धीरे-धीरे सरकती हुई मेरे काफ़ी नज़दीक आ चुकी थी. पता नहीं वो फ़ोन पे सच में बात कर रही थी या सिर्फ़ बहाना कर रही थी. इन लड़कियों का कोई भरोसा नहीं होता. मन में कुछ और रहता है. और दिखाती कुछ और ही हैं. मैंने सोचा, “कोई नहीं, आने दो. अगर इसने कुछ कहना है तो ख़ुद ही कहेगी.” मुझे पूरा यक़ीन हो चुका था कि आज हमारी बात हो जाएगी.

इस भरोसे की वजह ये थी कि वो मुझे एकटक देखे जा रही थी. मैं भी अपने दोनों हाथ जेब में डाले, उसे यूँ देखने लगा जैसे हम दोनों रोज़ यही काम करते हैं. फिर मैंने उसे और ग़ौर से देखा. और मैंने देखा कि आज वो गहरे मेंहदी के रंग का हिन्दुस्तानी सलवार-कमीज़ पहने हुई थी. बाल उसके खुले थे. चेहरा खिला-खिला लग रहा था. मैं उसे सिर से पाँव तक अच्छी तरह परख रहा था जैसे कहीं कोई कमी तो नहीं! लेकिन उसमें कहीं कोई कमी नहीं दिखी. वो सिर से पाँव तक एक नायाब हुस्न लग रही थी. बस मेरे दिल को यही चाहिए होता है. एक अदद ख़ूबसूरत चेहरा. और इस वक़्त एक ख़ूबसूरत चेहरा मेरी आँखों के बिलकुल सामने था.

मैंने सोचा, “अब देर नहीं करनी चाहिए. अब अपने मन की बात कह ही देनी चाहिए.” आख़िर मन भी तो बेचैन था, कहने के लिए. इस मन की भी बड़ी ख़राब आदत है. जब तक अपनी बात कह न ले, चैन से नहीं बैठता. तो मैंने एक गहरी साँस ली. वो अब भी मेरी ही तरफ़ देख रही थी. मेरा हौसला पूरी तरह बढ़ चुका था. मुझे यक़ीन हो चुका था कि वो भी इन्तज़ार कर रही है कि मैं कुछ कहूँ. कुछ कह ही दूँ अब बस.…

तभी एक ऑटो आता हुआ दिखाई दिया. इससे पहले जो ऑटो आए वो मेरे लिए रुके नहीं. कारण ये भी था कि मेरा ध्यान पूरी तरह ऑटो पे नहीं था. आपको वही चीज़ मिलती है ना जिसपे आपका पूरा ध्यान हो! तो मेरा ध्यान तो उस ख़ूबसूरत लड़की के ख़ूबसूरत चेहरे पे था. जिसके माथे पे बाल कुछ इस तरह बनाए गए थे कि उसका चेहरा एक उठता हुआ पहाड़ दिखे. बस उसकी आँखें बोलती हैं. बाक़ी उसका पूरा चेहरा ख़ामोश था. और वो अपने ख़ामोश चेहरे और अपनी बोलती आँखों से मुझे देख रही थी और मेरा हौसला बढ़ता जा रहा था. इतना कि अब बस मैं बोलने ही वाला था.

अब जो ऑटो आ रहा था इसमें पहले से कोई लड़का बैठा था. तो ये तय हुआ कि ये लड़का उतरेगा और मैं इस लड़की को साथ चलने के लिए कहूँगा. मेरे इतना सोचते ही वो लड़की फ़ुटपाथ से नीचे उतर गई. हैंअ….! क्या वो मेरे इतना सोचने का ही इन्तज़ार कर रही थी कि मैं उसे साथ ले चलूँ और वो नीचे उतर आई? इसका मतलब ये तो साफ़ था कि उसे भी जाना था. अब तो और भी अच्छा था. मैंने सोचा, “आज हम ऑटो में एक साथ जाएँगे.”

और वो ऑटो रुका. वो भी आगे बढ़ी. मैं भी आगे बढ़ा. मैंने सोचा उससे पूछ लूँ, “स्टेशन?” तभी ऑटो में पहले से बैठा हुआ लड़का नीचे उतरा. मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला कि इससे अच्छा मौक़ा नहीं मिलेगा. अब मैं बिलकुल तैयार था, उससे पूछने के लिए, “स्टेशन?” तभी वो लड़की ऑटो में बैठ गई. अब मैंने उससे पूछने के लिए अपने क़दम आगे बढ़ाए और मैं बस पूछने ही वाला था, “स्टेशन?” तभी वो लड़का जो अभी ऑटो से उतरा था, वापस ऑटो में बैठ गया.

क्या??? मतलब वो लड़की उस लड़के के साथ थी? आअह्हह्हह्ह…….! मेरा तो दिमाग़ झन्ना गया. ये क्या? ये लड़की इतनी देर से नैन-मटक्का मेरे साथ कर रही थी और चली गई किसी और के साथ? अगर मैंने उससे कुछ कह दिया होता, तो क्या होता...!

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