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डील

डील

क़ैस जौनपुरी

"चलना है क्या...?" उस आदमी के कानों में, किसी औरत की, ये मीठी सी, लेकिन जल्दीबाज़ी में कही हुई, अचानक सी, बेस्वाद आवाज़ पड़ी. उसने देखा, एक औरत उसके बगल से, उसे घूरते हुए निकल गई. उसने देखा उस औरत को और समझ गया कि ये वो ‘औरत’ ही है जिसे वो ढूँढ़ रहा था. शकल से उसे कोई काम न था. लेकिन सबसे पहले तो शकल ही सामने आती है. फिर भी उसके मुँह से ‘हाँ’ नहीं निकला.

उस औरत ने उस आदमी की आँखों में ‘औरत’ की भूख देख ली थी. उसे मालूम था कि, “ये पहले बस थोड़ा सा ड्रामा करेगा, फिर कुत्‍ते की तरह दुम हिलाता हुआ मेरे पीछे ज़रूर आएगा.” उसको भरोसा था ख़ुद पे. या यूँ कहें कि औरत-ज़ात पे. और उसका भरोसा सही था. वो आदमी थोड़ा सा झिझका मगर सामने से हड्डी जाते हुए देख उससे रहा नहीं गया और वो आदमी सच में एक सधे हुए जानवर की तरह उस औरत के पीछे हो लिया.

दोनों में बात कुछ नहीं हो रही थी. लेकिन दोनों एक दूसरे से सवाल-जवाब किए जा रहे थे. ये बात अलग थी कि दोनों ख़ुद ही सवाल कर रहे थे और ख़ुद ही जवाब भी दे रहे थे. औरत उसको बिना कुछ कहे अपने पीछे ऐसे लिए जा रही थी जैसे वो कोई चरवाहा हो और वो आदमी कोई भेड़ या बकरी, जो चरवाहे के पीछे-पीछे चली जाती है.

लेकिन यहाँ हकीक़त कुछ और थी. ना तो वो औरत कोई चरवाहा थी. और ना तो वो आदमी कोई भेड़-बकरी. दोनों अपने-अपने मतलब से थे. उस आदमी को एक औरत का जिस्म चाहिए था, जिससे ख़ुद के जिस्म को रगड़ के वो अपने होने के अहसास को ज़िन्दा रख सके. और उस औरत को कुछ पैसे चाहिए थे जिससे वो अपना पेट पाल सके. ज़िन्दा रह सके. समाज-सेवा कर सके. लेकिन इस समाज-सेवा की एक क़ीमत थी. जो उस आदमी को नहीं पता थी. और जिसके लिए वो घबरा रहा था कि, “पता नहीं, कितने पैसे लेगी?”

दोनों थोड़ी दूरी बनाके चल रहे थे. उस औरत को यक़ीन था कि, “उसे ग्राहक मिल चुका है.” उसके जैसी औरतों को जब कोई सीधा-सादा आदमी मिल जाए तो उनका काम आसान हो जाता है. वो नखरे दिखा सकती हैं, डाँट-डपट सकती हैं. बाज़ारू औरतों को इन सब बातों की ट्रेनिंग दी जाती है.

“कितने पैसे लगेंगें?” उस आदमी से रहा न गया और उसने पूछ ही लिया.

"पन्द्रह सौ" उस औरत ने जल्दी से कहा.

वो आदमी चौंक गया. "पन्द्रह सौ? इतने पैसे थोड़ी लगते हैं." वो आदमी उसे थोड़ा कम करने को कह रहा था. रण्डियों के पास आदमी जाता तो बड़े अच्छे काम के लिए है लेकिन इनके बात करने का तरीक़ा बड़ा गन्दा होता है. इनको ज़रा भी तमीज़ नहीं होती है. ये कुछ भी बोलती हैं. अनाप-सनाप गालियाँ भी बकती हैं. इन औरतों के आगे अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है.

उस आदमी की भी हिम्मत छूट गई, उस औरत के बात करने के तरीक़े पे. वैसे तो वो एक औरत थी लेकिन उसकी कर्कश आवाज़ उस आदमी को परेशान कर रही थी. वो आदमी चाहता था कि, “इसे जो भी कहना है, धीरे से कहे. यहाँ कितने लोग हैं. सुन रहे हैं.” उस आदमी को फ़िक्र थी समन्दर किनारे टहल रहे बाक़ी लोगों की. कुछ लोग उस औरत को दूर से घूर रहे थे.

रात के अँधेरे में जुहू बीच पे लोगों का जमघट कुछ ज़्यादा ही रहता है. उस आदमी को इस बात का भी डर था कि, “अगर मैंने मना कर दिया तो इस औरत को तो कोई और ले जाएगा लेकिन मुझे फिर कोई दूसरी औरत मिलेगी या नहीं, इसका कुछ पता नहीं.”

वक़्त भी काफ़ी हो चुका था. रात के बारह बज रहे थे. जिन औरतों की उम्र कम थी, उन्हें पहले ही ग्राहक मिल चुके थे और वो सब पूरे मन से अपने काम में लगी थीं. लेकिन इस औरत की उम्र थोड़ी ज़्यादा थी, इसलिए उसे अभी तक कोई ग्राहक नहीं मिला था. उसके साथ अक्सर ऐसा होता था कि वो निकलती तो कई औरतों के साथ थी लेकिन वापस अकेले ही जाती थी. क्योंकि उसे जल्दी कोई ग्राहक नहीं मिलता था. जिसके लिए वो ऊपरवाले को हमेशा कोसती रहती थी. ऊपरवाला कोई जवाब तो देता नहीं था इसलिए वो थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई थी. उसे इसकी वजह से भी ग्राहक कम ही मिलते थे क्यूँकि वो ठीक से बात नहीं करती थी.

उसे अपने शरीर से घिन आती थी. रोज़-रोज़ उसे एक ही काम करना पड़ता था. पैसों की मजबूरी थी, नहीं तो वो ये ज़िल्लत से भरा काम कभी नहीं करती. उसने कोशिश भी की थी लेकिन आदमियों की नज़र उसे मुफ़्त में खाना चाहती थी.

वो ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं थी ताकि उसे कोई अच्छा सा काम मिल जाए. इसलिए उसने पुस्तैनी हुनर का इस्तेमाल करने की सोची और इस धन्धे में उतर गई.

पहले उसे ख़ूब ग्राहक मिलते थे. लेकिन जैसे-जैसे उसकी उम्र ढ़लने लगी, उसकी क़ीमत जिस्म के बाज़ार में कम हो गई थी. अब उसे लोग भाव नहीं देते थे. इस बात से उसे और चिढ़ होती थी. उसका कभी-कभी मन होता था, अपने जिस्म के उन हिस्सों को काट के फेंक दे, जिसके लिए वो औरत समझी जाती थी और जिन हिस्सों की लालच में मर्द उसके पास आते थे.

उसने ऐसा कर भी दिया होता मगर ऐन वक़्त पे किसी ने उसे सलाह दी कि, "औरत हो. अपना जिस्म बचाके रखो. काम आएगा." उसने सलाह मानी और उसका जिस्म कई सालों तक उसके काम भी आया, लेकिन अब वो थोड़ी मोटी हो गई थी. जिसकी वजह से उसे लोग कम पसन्द करते थे.

लोग भी अपनी जगह सही थे. पैसे ही देने हैं तो कोई अच्छा माल क्यूँ न ख़रीदें? बस ये ख़याल आते ही लोग उससे दूर हो जाते थे. जबकि उसे पता था कि सामान उसके पास भी वही है जो कम उम्र की रण्डियों के पास था. लेकिन एक फ़र्क़ आ गया था. कम उम्र की रण्डियों की दुकान सजी-सँवरी रहती थी. और उसकी दुकान अब फीकी पड़ गई थी. वो कितना भी साज-सिंगार कर ले, उम्र की हकीक़त छिपाए नहीं छिपती थी. अगर वो सजने की ज़्यादा कोशिश करती तो अच्छी लगने के बजाय भद्दी लगने लगती थी. इसलिए अब वो ज़्यादा बनाव-सिंगार भी नहीं करती थी. कम पैसों में मान भी जाती थी.

आज काफ़ी देर हो गई थी इसलिए वो चाह रही थी कि एक लम्बा हाथ मार ले. उसे ग्राहक मिल भी गया था. लेकिन वो पन्द्रह सौ रुपये माँग रही थी. जो उसकी उम्र और जिस्म के हिसाब से उस आदमी को ज़्यादा लग रहा था.

वो औरत रही होगी कोई पैंतीस-चालीस साल की. उसकी कमर, जो साड़ी के किनारे से थोड़ी खुली हुई थी, बता रही थी कि, “अब तुम्हें इस तरह नखरे नहीं करने चाहिए. तुम्हें तो जो मिले चुपचाप ले लेना चाहिए.” मगर वो आदमी हैरान था कि, “ये किस बात पे अकड़ रही है?” जबकि जिस काम के लिए वो उसे अपने साथ ले जाना या उसके साथ जाना चाह रहा था, उसमें उसे कुछ ख़ास मज़ा भी नहीं आने वाला था. अब उसकी उम्र वो नहीं रही थी. लेकिन वो औरत फिर भी किस बात पे भाव खा रही थी, पता नहीं!

उस औरत का थोड़ा सा पेट दिख रहा था. साड़ी एक ऐसा पहनावा है कि कुछ दिखता भी नहीं और कुछ छिपता भी नहीं. साड़ी पहनी हुई औरत पे आदमी की नज़र जब पड़ती है, तब नज़र अपने आप कमर पे चली जाती है क्यूँकि साड़ी के किनारे से औरत का पेट दिख जाता है. और नाभि भी. और औरत की नाभि से ज़्यादा दिलकश कुछ नहीं होता.

उस आदमी ने उस औरत का पेट, उसकी कमर, उसकी नाभि, उसके सीने का उभार सबकुछ एक नज़र में देख लिया था. वो औरत बस काम चलाने के लिए ठीक थी. और वैसे भी उसने कहाँ उसे अपने घर ले जाना था. वो तो थोड़ी देर का मन बहलाव थी. बस.

"सही पैसे बताओ." वो आदमी अब मोलभाव पे उतर आया था. इतनी देर में उसने उस औरत को अपने पैमाने पे आँक लिया था. वो औरत इस क़ाबिल नहीं थी कि उसे पन्द्रह सौ रुपये दिए जाएँ. हालाँकि उस आदमी को उस औरत का सही रेट मालूम नहीं था, फिर भी पता नहीं क्यूँ उसके बदन की चर्बी और गोलाई और मोटाई देखकर उसे लगा कि, “ये कुछ ज़्यादा ही माँग रही है.”

"तो थोड़े कम दे देना. क्या तू भी धन्धे के टाइम पे मोलभाव करने बैठ गया!" उस औरत ने इतनी बे-रुख़ी से जवाब दिया जैसे उसे कोई परवाह ही नहीं थी. अब उस आदमी के लिए बड़ा मुश्किल हो गया, ये तय कर पाना कि "कितना कम?"

उस आदमी को डर भी लग रहा था, “कहीं ये जाने से मना न कर दे.” ये वक़्त ऐसा था जैसे कोई उससे उसकी मर्ज़ी पूछ रहा हो और वो बस इस डर से कि देने वाला ज़्यादा माँगने पे मुकर न जाए. यहाँ मोलभाव करने की उसको आदत नहीं थी. लेकिन जब उसने देखा कि उस औरत ने सामने से पूछ ही लिया है तो कह देता हूँ. सो कह दिया, "पाँच सौ.".

"हजार देना हो तो चलती हूँ" उस औरत ने अपना आख़िरी भाव बता दिया. हालाँकि वो जानती थी कि ये उसका आख़िरी भाव नहीं है. वो और कम आ सकती थी. लेकिन मोलभाव के लिहाज़ से उसने इतना ही बोला.

उस आदमी ने एक बार फिर से उस औरत को ग़ौर से देखा. अब उसे उस औरत के हज़ार रुपए भी देने ज़्यादा लग रहे थे. अब वो चाहता था किसी तरह उससे पीछा छूट जाए. इसलिए उसने कहा, "कितनी देर रुकोगी?"

"हजार रुपये में आधा घण्टा रुकूँगी. और ज्यादा टाइम रुकना है तो और पैसे लगेंगे." उस औरत को लगा कि, “अब ये राजी हो जाएगा.”

"लेकिन हम चलेंगे कहाँ?" उस आदमी ने जगह के बारे में पूछा.

"यहीं पास में सांताक्रूज़ होटल है, वहीँ चलेंगे. और पहले से बता देती हूँ, होटल का और बख्शिश अलग से देनी होगी." उस औरत ने, “बाद में कोई झिकझिक न हो” इसके लिए पहले से ही साफ़ कह दिया.

"और होटल का कितना लगेगा?" उस आदमी को होटल के ख़र्चे का तो ध्यान ही नहीं था. उसे लगा था वो औरत उसे अपने घर ले जाएगी. अब उसे एक चिन्ता और हो गई कि, "इसे बख्शिश भी चाहिए. नखरे तो ऐसे कर रही है जैसे सोलह साल की कुँवारी हो."

"हजार-बारह सौ में कमरा मिल जाएगा. मेरी जान-पहचान है. तुम्हारे लिए थोड़ा कम करा दूँगी.” उस औरत ने तसल्ली देते हुए कहा.

उस आदमी ने उस औरत को एक बार फिर ग़ौर से देखा और फिर हिसाब लगाने लगा कि, “हजार इसके और बारह सौ होटल के, यानी बाईस सौ. और बख्शिश भी है. कुल मिला के लगभग ढाई हजार का खर्चा है.”

"थोड़ा और कम नहीं हो सकता? कुल ढाई हज़ार हो रहे हैं.?" उस आदमी ने विनती करते हुए कहा.

"अरे बाबा, बख्शिश मत देना, बस...! अब चलें? क्या यार! मूड की माँ-बहन कर रहा है तू? इस तरह धन्धा करने लगी तो हो चुका." उस औरत ने थोड़ा गुस्से में कहा.

उस आदमी को थोड़ा बुरा भी लगा, लेकिन दोनों कर कुछ नहीं सकते थे. दोनों को एक दूसरे की कमजोरी मालूम थी.

लेकिन उस आदमी को अब लगा कि, "जो औरत बात इस तरह करती है वो प्यार किस तरह करेगी?" ये बात उसके मन को खटकी. उसे लगा, “मैं कुछ गलत कर रहा हूँ.” वो प्यार की तलाश में भटक रहा था. पैसे इसलिए देने पड़ रहे थे कि देना पड़ता है. लेकिन बात तो ठीक से कर सकती है? उसके दिमाग़ में वो औरत बिस्तर पे नंगी दिखाई दी और उसने ख़ुद को भी उसके सामने नंगा देखा और वो औरत उसे गाली देते हुए सुनाई दी. उसे लगा, "यार, मज़ा नहीं आएगा."

उस औरत ने जब देखा कि, “ये कुछ ज़्यादा ही सोच रहा है.” तो उसने कह दिया, "तुमको जाना वाना कुछ नहीं है. खाली फ़ोकट में मेरा टाइम खराब कर रहे हो. लाओ सौ रुपये दो. हाथ से कर देती हूँ."

"हाथ से?" उस आदमी को बड़ी हैरानी हुई मगर थोड़ी ही देर में वो समझ गया कि वो औरत क्या कहना चाह रही थी. असल में वो औरत खाली हाथ नहीं जाना चाह रही थी. ऐसा ही कुछ हाल उस आदमी का भी था. दोनों खाली हाथ नहीं जाना चाह रहे थे. मगर दोनों को एक-दूसरे की शर्त मंज़ूर नहीं थी.

"हाथ से कहाँ करोगी?" उस आदमी ने टटोलना चाहा.

"चलो, उधर अँधेरे में." उस औरत ने समन्दर की तरफ़ इशारा किया.

अब उस आदमी को लगा कि चक्कर खा के गिर जाएगा. उसे लगा, "मैं क्या कर रहा हूँ? अब ऐसी नौबत आ गई है?"

उस आदमी ने अपने आप को बहुत धिक्कारा. और वो आदमी अब वहाँ से चलने के लिए मुड़ा ही था कि उस औरत ने उसे एक भद्दी सी गाली दी, "बहनचो......! कुछ करना नहीं था तो टाइम क्यूँ खराब किया मेरा? खड़ा-वड़ा होता नहीं, चले आते हैं अपनी माँ चो........"

उस आदमी का मन हुआ कि उस औरत का मुँह नोच ले. उसे जी भरके थप्पड़ मारे. मगर वो आदमी ऐसा कर न सका. और उस औरत का मन हुआ कि उस आदमी के बाल नोंच ले. उसके कपड़े फाड़ दे. उसे लातों-घूसों से मारे. मगर वो औरत भी ऐसा कर न सकी.

अब दोनों आगे बढ़े. आदमी एक तरफ़. औरत दूसरी तरफ़.

फिर दोनों को अचानक लगा कि, “क्या फिर से सब ठीक नहीं हो सकता?” अब वो औरत पैसे और कम करने को तैयार थी. यहाँ तक कि वो जो भी दे दे उसमें भी जा सकती थी. और अब वो आदमी उस औरत को उतने पैसे देने को तैयार था जितना वो कहे.

मगर न उस औरत से कुछ कहा गया और न उस आदमी से आगे बढ़ा गया.

मैं समन्दर की रेत पे बैठा देख रहा था कि दोनों की डील न हो सकी.

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