उस क्षण जो उद्विग्न मन से भरे थे उस में एक था अरबी समुद्र, दूसरा था पिछली रात्रि का चन्द्र और तीसरा था एक युवक। समुद्र इतना अशांत था कि वह अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहता हो ऐसे किनारे की तरफ भाग रहा था। वह चाहता था कि वह रिक्त हो जाय। अपने भीतर का सारा खारापन नष्ट कर दें। अत: समुद्र की तरंगें अविरत रूप से किनारे पर आती रहती थी। कुछ तरंगें किनारे को छूकर लौट जाती थी, कुछ तरंगें वहीं स्वयं को समर्पित कर देती थी। समुद्र अशांत था किन्तु उसकी ध्वनि से वह लयबध्ध मधुर संगीत उत्पन्न कर रहा था। पिछली रात्रि का चंद्रमा ! अपने भीतर कुछ लेकर चल रहा था। वह उतावला था, बावरा था। उसे शीघ्रता थी अस्त हो जाने की, गगन से पलायन हो जाने की। जाने उनके मन में क्या था? चन्द्र के मन को छोड़ो, मनुष्य स्वयं अपने मन को भी नहीं जान सका। अपने मन में कोई पीड़ा, कोई जिज्ञासा, कोई उत्कंठा लिए एक युवक अरबी समुद्र के सन्मुख बैठा था। उसे ज्ञात नहीं था कि वह यहाँ तक जिस कारण से आ चुका था उस कारण का कोई अर्थ भी था अथवा नहीं। श्वेत चाँदनी में समुद्र की तरंगे अधिक श्वेत लग रही थी। जैसे वह पानी चन्द्र के लिए कोई दर्पण हो और उस में चन्द्र अपना प्रतिबिंब देख रहा हो।

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द्वारावती - 1

उस क्षण जो उद्विग्न मन से भरे थे उस में एक था अरबी समुद्र, दूसरा था पिछली रात्रि का और तीसरा था एक युवक। समुद्र इतना अशांत था कि वह अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहता हो ऐसे किनारे की तरफ भाग रहा था। वह चाहता था कि वह रिक्त हो जाय। अपने भीतर का सारा खारापन नष्ट कर दें। अत: समुद्र की तरंगें अविरत रूप से किनारे पर आती रहती थी। कुछ तरंगें किनारे को छूकर लौट जाती थी, कुछ तरंगें वहीं स्वयं को समर्पित कर देती थी। समुद्र अशांत था किन्तु उसकी ध्वनि से वह ...और पढ़े

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द्वारावती - 2

समुद्र की शीतल वायु ने थके यात्रिक को गहन निंद्रा में डाल दिया, उत्सव सो गया। समय की कुछ तरंगे बही होगी तब दूर किसी मन्दिर से घन्टनाद हुआ। उत्सव उस नाद से जाग गया। सूरज अभी भी निकला नहीं था। अन्धकार अपने अस्तित्व के अन्त को देख रहा था किन्तु विवश था। प्रकाश के हाथों उसे परास्त होना था। घन्टनाद पुन: सुनाई दिया। धुंधले से प्रकाश मे उत्सव ने दूर समुद्र के भीतर किसी मन्दिर की आकृति का अनुभव किया। ‘मुझे किसी मन्दिर में नहीं जाना है। मुझे इन मंदिरों से अत्यंत दूर रहना होगा।’ वह मन्दिर से ...और पढ़े

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द्वारावती - 3

3 "7 सितंबर 1965 की रात्री। द्वारिका के मंदिर को देख रहे हो? वहाँ दूर जो मंदिर दिख रहा वही।” भीड़ के भीतर से यह ध्वनि आ रही थी। उत्सव ने उसे सुना। वह उस भीड़ की चेष्टा को देखने लगा, उस ध्वनि को सुनने लगा। भीड़ के बिखर जा“7ने की प्रतीक्षा करने लगा। भीड़ ने उस मंदिर की तरफ देखा। वह ध्वनि आगे कह रही थी - “हाँ, उसी मंदिर पर पाकिस्तान की सेना ने अविरत गोलाबारी की थी उस रात्री को। उसका आक्रमण अत्यंत भारी था। क्षण प्रतिक्षण गोलाबारी हो रही थी। उसका लक्ष्य था मंदिर को ...और पढ़े

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द्वारावती - 4

4उत्सव भागता रहा, भागता रहा। वह उसी दिशा में दौड़ रहा था जिस दिशा से वह आया था। वह रहा। सोचता रहा –‘क्यों भाग रहा हूँ मैं?’किन्तु उसे कोई उत्तर नहीं मिला। बस वह भागता रहा। वह उसी स्थान पर आ गया जहां उसे बाबा मिले थे। वह किनारे कि रेत पर बैठ गया। कुछ क्षण के पश्चात वह रेत पर ही सो गया। शीतल हवा ने उसे निंद्राधिन कर दिया। सूरज खूब चढ़ गया। उसकी तीव्र किरणों से उत्सव जाग गया। तीव्र धूप से बचने के लिए कोई स्थान ढूँढने लगा। उसने दूर किसी टूटे हुए मकान को ...और पढ़े

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द्वारावती - 5

5सूरज अभी मध्य आकाश से दूर था। सूरज की किरनें अधिक तीव्र हो चुकी थी। किन्तु समुद्र से आती की शीतल लहरें धूप को भी शीतल कर रही थी। उत्सव गुल के घर के सन्मुख आ गया। भीतर प्रवेश करने से पहले वह रुक गया। घर को देखने लगा। एक छोटा सा भवन, एक ही कक्ष का। सामने खुल्ला सा विशाल आँगन। समीप ही अरबी समुद्र। दो चार शिलाएँ जो समुद्र की तरफ मुख कर खड़ी थी। आँगन में कोई नहीं था। पहेली बार आया था तब तो भीड़ थी। अभी यहाँ कोई नहीं है। ‘पंडित गुल तो होगी ...और पढ़े

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द्वारावती - 6

6गुल ने उसे जाते देखा। वह सो गया था। शांत हो गया था। सोते हुए उत्सव के मुख पर भाव नहीं थे। कोई चिंता नहीं थी। पूर्ण रूप से सौम्यता थी। ‘कितना अशांत था, व्याकुल था यह युवक! और अब निंद्रा के अधीन कितना शांत!’‘क्या कारण होगा उसकी अशांति का? क्यों वह मुझसे मिलना चाहता था?’‘चाहता था? था नहीं, है। वह तुम्हें मिला ही कहाँ है? बस आया, भोजन किया और सो गया। वह अभी भी तुम्हें मिलना चाहता है, गुल।’ ‘संभव है कि पेट की भूख शांत होने के पश्चात वह तुम्हें मिले ही नहीं। तुम्हें ही भूल ...और पढ़े

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द्वारावती - 7

7गुल समुद्र को देख रह थी। समुद्र की ध्वनि के उपरांत समग्र तट की रात्री नीरव शांति से ग्रस्त किन्तु गुल का मन अशांत था। वह विचारों में मग्न थी।‘वह रात्री भोजन के लिए भी नहीं आया। समुद्र के तट पर सोते हुए महादेव के मंदिर तक गया, आरती के लिए घंट बजाया और चल दिया। मैंने उसे पुकारा भी था पर वह नहीं रुका। एक बार पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।’ ‘हो सकता है उसने तुम्हारे शब्द सुने ही ना हो।’ ‘तो क्या? यदि उसे मुझ से काम था, मेरा नाम लेकर आया था तो मुझ से मिलकर ...और पढ़े

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द्वारावती - 8

महादेव की आरती में घंटनाद करने के पश्चात उत्सव वहाँ से चला गया था। समुद्र के मार्ग पर चलते वह उसी स्थान पर आ गया जहां उसे बाबा मिले थे। वह एक स्थान पर बैठ गया। सामने असीम समुद्र तथा उनकी लहरें। एक लयबध्ध ध्वनि उत्सव को सुनाई दे रही थी।‘वह कहती थी कि इस ध्वनि में कृष्ण की बांसुरी की मधुर धुन है। किन्तु मुझे तो लहरों की ध्वनि ही सुनाई दे रही है। लगता है पंडित गुल असत्य कह रही हो अथवा भ्रमित कर रही हो।’ ‘इसी भ्रम के कारण ही तो तुम उसे छोड़ चले आए।’ ...और पढ़े

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द्वारावती - 9

9संध्या हो चुकी थी। महादेव जी की आरती करने के लिए गुल मंदिर जा चुकी थी। गुल ने घंटनाद पुजारी जी ने आरती की। महादेव जी को भोग लगाया । प्रसाद लेकर गुल मंदिर से बाहर निकली ही थी कि उसके सम्मुख प्रसाद के लिए बढ़ा हुआ एक हाथ आ गया। गुल ने उस हाथ में प्रसाद रख दिया, उस हाथ के मुख को देखा। वह उत्सव था। दोनों की द्रष्टि मिली। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। गुल चलने लगी, उत्सव उसके पीछे चलने लगा। दोनों गुल के घर आ गए। “खाना खाओगे?” गुल ने पूछा। “नहीं।”“क्यों?”“यदि ...और पढ़े

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द्वारावती - 10

10 अरबी समुद्र रात्री के आलिंगन में आ गया। द्वारका नगर की घड़ी ने आठबार शंखनाद किया। समुद्र तट शांति मेँ वह नाद स्पष्ट सुनाई दिया।उत्सव ने आज प्रथम बार उस शंखनाद को ध्यान से सुना। उसे उस नाद मेंकृष्ण के पांचजन्य का शंखनाद सुनाई दिया। उसे कुरुक्षेत्र याद आ गया।‘कैसा विराट स्वरूप होगा उस रणभूमि में कृष्ण का?’ उत्सव ने मन ही मनकृष्ण के विराट स्वरूप की कल्पना की, उसे प्रणाम किया।गुल ने उस ध्वनि को सुना। स्वयं को भूतकाल से वर्तमान में खींचा। उत्सवको देखा। वह हाथ जोड़े खड़ा था।“उत्सव, तुम किसे प्रणाम कर रहे हो? यहाँ ...और पढ़े

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द्वारावती - 11

11 व्यतीत होते समय के साथ घड़ी में शंखनाद होता रहा ….नौ, दस, ग्यारह, बारह….. एक, दो, तीन, चार….. शंखनाद की ध्वनि ने गुल को जागृत कर दिया। वह किसी समाधि सेजागी, उठी। उसकी दृष्टि उत्सव पर पड़ी। वह भी वहीं बैठा था, रात्रि भर, निश्चल, स्थिर। वह भी जैसे किसी समाधि में था।उत्सव की स्थिति में कोई भी व्यवधान डाले बिना ही गुल वहाँ से उठी, नित्य कर्म करने लगी, समुद्र में स्नान आदि कर्म कर लौट आइ।उत्सव अभी भी वहीं था, किंतु निंद्राधिन था। जब वह जागा तब सूरजअपनी यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुका था।“गुल, ...और पढ़े

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द्वारावती - 12

12प्रभात के प्रथम प्रहर का अवनी पर आगमन हो रहा था। रात्रि भर उत्सव समुद्र के तट पर ही उसे ज्ञात ही नहीं रहा कि वह रात्रि भर जागता रहा था। अनिमेष दृष्टि से वह समुद्र को देखता रहा था। समुद्र ने अपने रूप को बदल दिया था। समुद्र की तरंगें जो कहीं दूर थी वह अब उत्सव के समीप आ चुकी थी। तरंगों से उठता पानी उत्सव को स्पर्श करता था, किंतु उससे वह विचलित नहीं था। रात्रि भर द्वारका में प्रति घंटे हो रहे शंखनाद से भी वह विचलित नहीं था। वह बस स्थिर सा था। जैसे ...और पढ़े

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द्वारावती - 13

13गुल द्वारिकाधीश के मंदिर को देखकर मन ही मन ईश्वर से क्षमा माँगने लगी। अनेक मंत्रों का उच्चार करने समय व्यतीत होता गया। सूर्योदय होने लगा। “गुल, तुम कब से इस प्रकार खड़ी हो। क्या तुम्हें आपने नित्यक्रम को नहीं करना है? कुछ ही समय में प्रवासी आने लगेंगे। तुम्हें उसे भी तो...।” उत्सव के शब्दों ने गुल का ध्यान भंग कर दिया। वह उत्सव की तरफ़ मूडी। “गुल, यह सब क्या है? तुम किसी दुविधा में हो?” “उत्सव, आज प्रवासियों को तुम ….।”“मैं? मैं क्या बताऊँगा प्रवासियों को? मैं तो स्वयं ही एक प्रवासी ही हूँ।”“ठीक है, तुम ...और पढ़े

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द्वारावती - 14

14गुल भीतर से रिक्त हुई थी उस घटना को अनेक दिवस व्यतीत हो गए। प्रत्येक दिवस वह किसी ना पर ध्यान केंद्रित करती, उसे निहारती उससे आनंद प्राप्त करती। कुछ दिवस तो प्रसन्नता में व्यतीत हुए किंतु धीरे धीरे गुल उस प्रसन्नता को खोने लगी। जैसे वह कुछ समय का साथ देकर छूट जाने वाला छल हो। पुन: वह किसी भी बात पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करती, कुछ क्षणों के लिए उसे सफलता मिलती किंतु शीघ्र ही उसका मन भटक जाता। वह प्रसन्नता कोई ना कोई छलना करती हुई उसके हाथों से सरक जाती। वह खिन्नता ग्रस्त ...और पढ़े

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द्वारावती - 15

15रात्रि भर गुल निद्रा से दूर रही। वह चिंतन करती रही किंतु चिंता से मुक्त नहीं हो सकी। दूर बार शंखनाद हुआ। तारा स्नान का समय हो गया था। गुल उठी, कक्ष से बाहर आइ और स्नान के लिए समुद्र की तरफ़ जाने लगी। “उत्सव, तुम्हें निंद्रा नहीं आइ?”उत्सव ने गुल के मुख को देखा, थकी आँखों को देखा। “गुल, मुझे तो रात्रि भर जागने का अभ्यास है। किंतु तुम क्यूँ नहीं सो पाई? कोई चिंता से ग्रस्त हो क्या?”गुल ने मिथ्या स्मित करने का प्रयास किया, विफल रही। “मिथ्या प्रयासों से सत्य को छुपाना भी नहीं आता तुम्हें।”“मेरे ...और पढ़े

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द्वारावती - 16

16प्रतीक्षा के कुछ ही क्षण व्यतीत होने पर उत्सव विचारों से घिर गया। ‘मैं इस प्रकार रिक्त ही रहा मेरे लक्ष्य को में प्राप्त नहीं कर सकता। यदि पूर्ण रूप से रिक्त हो गया तो मैं निर्लेप हो जाऊँगा। मेरी जिज्ञासा समाप्त हो जाएगी। मेरे प्रश्न, मेरे संशय भी नहीं रहेंगे। यह स्थिति तो मोक्ष की है। क्या मुझे मोक्ष चाहिए?’‘नहीं। मोक्ष तेरा अंतिम लक्ष्य नहीं है। यदि मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता तो तुम्हें यहाँ तक प्रवास की आवश्यकता ही नहीं थी। यह तो व्यर्थ उद्यम होगा। मोक्ष तो तुम्हें गंगा के सान्निध्य में, हिमालय की किसी भी ...और पढ़े

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द्वारावती - 17

17 किसी ने एकांत में बैठे, समुद्र के ऊपर किसी बिंदु को स्थिर दृष्टि से निहारते उत्सव को कहा।“उत्सव, जिस शिला पर बैठे हो उसी शिला पर ही वह बैठा था। गुल को उसका नाम तब ज्ञात नहीं था। तब वह एक अबोध कन्या थी। आयु होगी आठ नौ वर्ष की। वह और उसके पिता इस कन्दरा के मार्ग से समुद्र के भीतर थे। उसके पिता मछलियाँ पकड़ रहे थे। गुल समुद्र को देख रही थी। समुद्र की ध्वनि के साथ साथ उसके कानों पर एक और ध्वनि भी पड रहा था। एक नाद था वह। उत्सव, तुम्हें इन ...और पढ़े

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द्वारावती - 18

18दूसरी प्रभात को गुल उस कन्दरा पर जाकर समय से पूर्व ही खडी हो गई। केशव की प्रतीक्षा करने उसके अब्बा मछलियाँ पकड़ने लगे। ओम् के नाद के साथ केशव आया। गुल वहीं प्रतीक्षा कर रही थी। नाद सुनते ही उसने आँखें बंध कर ली। उसके भीतर आनंद की तरंगें उठ रही थी। केशव शिला पर बैठ गया। सूर्य की तरफ़ मुख रखकर, आँखें बंध कर ओम् के जाप करने लगा। समय, हवा, समुद्र की तरंगें, कन्दरा, शिला, दिशाएँ सभी एक साथ एक ही बिंदु पर केंद्रित हो गए। गुल भी।ओम्, ओम्, ओम् , ओम्। “तुम यहाँ हो? क्या ...और पढ़े

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द्वारावती - 19

19“यह हमारे कुलपति हैं।” अब्बू ने दो हाथ जोड़ दिए। गुल कक्ष को देखने लगी। “केशव ने मुझे सारी बताई है। तुम मांसाहार का त्याग कर रहे हो, मछलियों का व्यापार भी छोड़ रहे हो। यह बात सुनकर प्रसन्नता हुई। किंतु अब काम क्या करोगे? परिवार का पालन कैसे होगा?” कुलपति के शब्दों से अब्बू आशंकित हो गए। “केशव ने कहा था कि आप मुझे…?” आगे शब्द नहीं सूझे उसे। “मैं क्या सहायता कर सकता हूँ?”“मुझे नहीं पता। मैं तो बस केशव के भरोसे आ गया।”“यदि मैं कोई सहायता ना करूँ तो?”“तो मुझे उस पर भरोसा है कि जिसने ...और पढ़े

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द्वारावती - 20

20मोहन भूमि को खोदने लगा। उसकी ध्वनि से आकर्षित कुछ बालक वहाँ आ गए, कौतुक द्रष्टि से देखने लगे। भी आ गया। “रुको, रुको मोहन काका।” मोहन रुक गया। “मित्रों, यह मोहन काका है। आज से वह इस भूमि पर खेती करेंगे। कुछ वृक्ष उगाएँगे। क्या हम सब उसका साथ देंगे?”“हां।” अनेक ध्वनि एक साथ गूँज उठी। “चलो हम भी मोहन काका की सहायता करते हैं।” सब दौड़े। “रुको। ऐसे नहीं। मोहन काका, सबसे पहले धरती को वंदन करते है। उसकी पूजा करते हैं। धरती से अनुमति माँगते है। उसकी प्रार्थना करते हैं। तत् पश्चात हम कार्य करेंगे।”“हां, शास्त्र ...और पढ़े

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द्वारावती - 21

21एक नूतन प्रभात ने जन्म ले लिया। केशव समुद्र की उसी कन्दरा पर स्थित वही शिला पर बैठा था। नाद कर रहा था। आज उसने आँखें बंद नहीं की थी। खुली आँखों से वह ओम् का जाप कर रहा था। आज वह सूर्य की दिशा में, सूर्य के सम्मुख नहीं बैठा था। वह उस दिशा में बैठा था जिस दिशा में कल गुल अपने घर की तरफ़ दौड़ गयी थी। खुली दृष्टि रेत के उस भाग पर स्थिर थी जहां कल गुल के पदचिन्ह थे। वह ओम् का जाप तो कर रहा था किंतु उसका मन, उसका ध्यान आज ...और पढ़े

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द्वारावती - 22

22‘कोई तो है जो मेरा पीछा कर रहा है। कौन होगा? क्यों करता होगा? क्या चाहिए उसे मुझसे ?’कुछ वह रुक गया। कन्दरा से कोई नहीं आया।‘भीतर जाकर देख लूँ कि कौन है?’ वह कन्दरा की तरफ़ चलते ही रुक गया। ‘कोई लुटेरा भी हो सकता है। मुझे नहीं जाना चाहिए।’ वह लौट गया। चलने लगा। उसके कानों ने कुछ ध्वनि को पकड़ा। वह शांत हो गया। ध्वनि को सुनने लगा। “ओम्, ओम्, ओम्, “‘यह तो ओम् का नाद है। कौन बोल रहा है? उसने ध्वनि पर ध्यान दिया।‘यह तो कन्दरा से आती ध्वनि है। कौन होगा? किसकी ध्वनि ...और पढ़े

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द्वारावती - 23

23एक नूतन प्रभात जन्म ले रहा था। केशव समुद्र की तरफ़ चलने लगा। उस कंदरा तक जा रहे चरणों एक उत्साह था तो मन में अनेक विचार जो चलते चरणों से भी अधिक तेज गति से चल रहे थे। चरणों से भी पहले केशव का मन, केशव के विचार उस कन्दरा तक पहुँच गए। ‘मैं उस कंदरा की शिला पर बैठ जाऊँगा, ओम् के नाम का जाप करूँगा, सूर्य को अर्घ्य अर्पित करूँगा। वह कंदरा के भीतर होगी, मेरे सारे मंत्रों को सुनेगी, उसे स्मरण करने का प्रयास करेगी, स्वयं उसका उच्चारण करेगी। मैं नीचे उतरकर कन्दरा के भीतर ...और पढ़े

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द्वारावती - 25

25नए प्रभात की सुगंध की अनुभूति करते हुए केशव गुरुकुल से समुद्र की तरफ़ जा रहा था। सूर्योदय के जो अनुभूति कल हुई थी उस रस का पान वह आज भी करना चाहता था। वह प्रसन्न था। सूर्योदय की अनेक आशाएँ, अपेक्षाएँ लिए वह कन्दरा के समीप आ गया। अंधकार अभी भी अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहा था। क्षण प्रति क्षण वह परास्त होता जा रहा था। किंतु अभी भी प्रकाश ने उस पर विजय प्राप्त नहीं की थी।वह अपने निश्चित स्थान पर, शिला पर आसन ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ा, किंतु ठहर गया। उस शिला पर ...और पढ़े

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द्वारावती - 29

29गुल ने पुजारी की आधी बात ही सुनी, वह समुद्र को निहारने लगी। समुद्र से उड़ता हुआ एक पंखी के समीप आ गया। उसकी चांच में कुछ था। गुल उसे ध्यान से देखने लगी। उसकी चांच में एक मछली थी जो जीवित तो थी किंतु मृत्यु से जीवन के लिए संघर्ष कर रही थी। उस पंखी ने उस मछली को नीचे रख दिया। मछली अभी भी संघर्ष कर रही थी। गुल पंखी की तरफ़ दौड़ी। गुल के पगरव से पंखी उड़ गया, मछली वहीं छोड़ गया। गुल ने कुछ क्षण मछली को देखा, उसे अपने हाथों से उठाया और ...और पढ़े

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द्वारावती - 24

24एक नूतन प्रभात क्षितिज के गर्भ में जन्म ले रहा था। केशव के मन में भी कुछ जन्म ले था। क्षितिज में जो जन्म ले रहा था वह शाश्वत था, केशव के मन में वह आज प्रथम बार जन्म ले रहा था। सम्भव है कि वह अंतिम बार भी हो, सम्भव है कि वह भी शाश्वत हो जाय। वह कन्दरा की शिला के समीप गया, रुक गया। उसने सभी दिशाओं में देखा। एक विहंगावलोकन किया। संतुष्ट नहीं हुआ। प्रत्येक दिशा को ध्यान से देखने लगा। कुछ समय पश्चात वह दूसरी कन्दरा के समीप जाकर खड़ा हो गया। स्थिर सा, ...और पढ़े

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द्वारावती - 27

27“गुल, आज मैं तुम्हें मंदिर ले चलता हूँ। तुम चलोगी मेरे साथ?”“क्या तुम मुझे उस मंदिर ले चलोगे?” गुल दूर कृष्ण के मंदिर की तरफ़ संकेत करते हुए पूछा। “मुझे उस मंदिर ले चलो। जब से उस मंदिर को देखा है तब से मेरा मन कर रहा है उसे देखने को। चलो चलें?”“गुल, चलते हैं। किंतु उस मंदिर नहीं, हम दूसरे मंदिर जा रहे हैं।”“दूसरा मंदिर? किस मंदिर की बात कर रहे हो।”“तुम चलो तो मेरे साथ। मैं तुम्हें एक ऐसे मंदिर में ले चलता हूँ जो समुद्र के भीतर है।”“किंतु मुझे तो कृष्ण का वही मंदिर देखना है।” ...और पढ़े

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द्वारावती - 28

28गुल की उस अवस्था में हस्तक्षेप करना केशव को अनुचित लगा। वह बस उसे निहारता रहा। वह समुद्र को रही। समय की रेत धीरे धीरे सरक रही थी। सूरज अब निकल चुका था। समुद्र से आता समीर अब मंद हो गया था, किंतु अभी भी शीतल था। उस शीतलता से भी गुल अनभिज्ञ थी। वह केवल समुद्र से जुड़ी थी। अन्य किसी बात, किसी वस्तु उसे प्रभावित नहीं कर रही थी। गुल तथा समुद्र के बीच जो एकरूपता थी, जो तादात्म्य था, सहसा वह खंडित हो गया। श्वेत पंखियों का एक विशाल वृंद उड़ता हुआ समुद्र की तरफ़ से ...और पढ़े

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द्वारावती - 26

26केशव जब शिला के समीप पहुँचा तब गुल उस शिला पर बैठी थी। आज केशव ने उसे आकृति नहीं तुम्हें आज भी इस शिला पर बैठने का अवसर नहीं मिलेगा।”“तो क्या?”“तुम नीचे कन्दरा में जाओ। मैंने तुम्हें कहा था ना कि कंदरा में रहकर तुम यदि उन मंत्रों को सुनोगे जो इस शिला पर बैठ कर कोई उच्चार करता है तो वह एक अद्भुत अनुभव होता है। मैंने उस अनुभव को प्राप्त किया है। मैंने तुम्हें वचन दिया था कि एक दिवस मैं यहाँ से मंत्रों का गान करूँगी और तुम इस कन्दरा में जाकर उसे सुनोगे। तुम्हें इस ...और पढ़े

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द्वारावती - 30

30एक नया प्रभात अपने सौंदर्य को लेकर आगमन करने की तैयारी कर रहा था। उस क्षण अनायास ही आकर्षित हुई गुल भड़केश्वर महादेव के मंदिर के प्रति चलने लगी। तट पर आकर रुक गई। ‘मुझे मंदिर तक जाना है किन्तु आज भी समुद्र का जल स्तर कल की भांति अधिक है। इसने मंदिर को अपने बाहुपाश में घेरे रखा है।’ वह इधर उधर देखने लगी। ‘क्या कोई मार्ग नहीं इस जल स्तर के उपरांत उस मंदिर तक जाने का? कोई तो अन्य मार्ग अवश्य होगा। मुझे खोजना होगा उस मार्ग को।’‘मैं जाना चाहती हूँ किन्तु कोई मार्ग नहीं दिख ...और पढ़े

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द्वारावती - 31

31 आनेवाले नए प्रभात की सुगंध वहां व्याप्त थी। गुल तथा केशव प्रतिदिन की भांति तट पर थे, समुद्र जलराशि को देख रहे थे। जल राशि के उस पार महादेव थे जो आमंत्रित कर रहे थे। दोनों ने उस मंदिर को देखा, एक दूसरे को देखा, आँखों ने संकेत दिये और दोनों कूद पड़े समुद्र की जल राशि में। कुछ ही क्षणों में दोनों महादेव की शरण में आ गए। मंदिर प्रवेश से पूर्व ही गुल रुक गई। केशव भी। गुल मुड़ी, समुद्र की उस लहरों को देखने लगी जिसे पार कर वह अभी अभी यहाँ आई थी। समुद्र ...और पढ़े

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द्वारावती - 32

32 “मंदिर में मेरे साथ उन पंखियों ने अनुचित व्यवहार किया था, केशव। उनकी क्या मनसा थी?” “विशेष कुछ केवल भोजन चाहते थे।” “किंतु मछलियाँ किसीका भोजन नहीं हो सकती। वह पंखी मांसाहार कर रहा था, मछली को मार रहा था। मैंने उस पंखी से उस मछली को मुक्त करवाया। मछली का जीवन बचाया। ठीक ही तो किया था मैंने। वह पंखी पापी था। पापी से मैंने किसी जीव की रक्षा की। यह तो करना ही था। वह पंखी को दंड मिलना चाहिए था।”“नहीं, उन पंखियों का भोजन मछली ही होता है। तुमने उसका भोजन छिन लिया तो क्रोध ...और पढ़े

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द्वारावती - 33

33केशव मंदिर की दिशा में चलने लगा, गुल भी। मंदिर तथा तट के मध्य जलराशि न्यूनतम थी। दोनों ने हुए उसे सरलता से पार कर लिया। गुल सीधे ही मंदिर के भीतर चली गई। भगवान के सन्मुख रखे चावल मुट्ठी में भरकर वह प्रांगण में चली आई। समुद्र में दूर कहीं पंखी उड़ रहे थे, गुल को उन पंखियों की प्रतीक्षा थी। गुल ने अपनी मुट्ठी खोल दी। सारे चावल बिखेर दिये। एक कोने में जाकर वह खड़ी हो गई। प्रतीक्षा करने लगी। ‘आज मुझे ईन पंखियों से कोई भीती नहीं है। मैं इन सभी से मित्रता करूंगी। वह ...और पढ़े

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द्वारावती - 34

34घर से जब गुल निकली तो रात्रि का अंतिम प्रहर अपने अंतकाल में था। “इतने अंधकार में कहाँ जा हो? प्रतिदिन जिस समय तुम समुद्र तट पर जाती हो वह समय आने में अभी समय है।” गुल के पिता ने गुल को रोका। “जी, लौटकर बताऊँगी।” गुल के चरण अधीर थे। वह दौड़ गई। समुद्र के तट पर आ गई। समुद्र को अंधकार में निहारती, नीरवता में समुद्र को सुनती वह भड़केश्वर मंदिर की तरफ गति करने लगी। समुद्र की ध्वनि में एक लयबध्ध संगीत था। उस लय में वह मग्न थी। कुछ क्षण पश्चात वह लय खंडित हो ...और पढ़े

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द्वारावती - 35

35गुल बलपूर्वक उठी। चारों दिशाओं में द्रष्टि डाली। कहीं कुछ भी नहीं बदला था। सभी दिशाओं में वही शून्यता थी। “यह कैसी शून्यता है? शिक्षक कहते थे कि शून्य का कोई मूल्य नहीं होता। शून्य स्वयं मे शून्य ही होता है। अनेक शून्य साथ मिलकर भी शून्य ही रहते हैं। तुम सत्य कह रहे थे, शिक्षक। तुम्हारी यह बातें उस समय मुझे समज नहीं आ रही थी, किन्तु अब सब समज आ रहा है। यह शून्यता भी मूल्यहिन है। यहाँ भी अनेक शून्य साथ मिले हुए हैं। सागर, लहरें, हवा, तट , धजा, मंदिर, पंखी, दिशा, तमस, एकांत, स्थिरता ...और पढ़े

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द्वारावती - 36

36एक अन्य दर्शक भी उस नृत्य को देख रहा था। प्रांगण के एक छौर पर मौन खड़ा था वह। के नृत्य से वह अभिभूत था। गुल के साथ नृत्य कर रहे पंखियों को देखकर वह साश्चर्य प्रसन्न था। गुल के नृत्य की एक एक भाव भंगिमाओं को वह रुचिपूर्वक देख रहा था। ‘कितना निर्बाध, कितना सहज, कितना उन्मुक्त, कितना उत्कट भाव से भरा नृत्य है यह!’ वह मन ही मन बोल उठा। वह उसे देखते ही जा रहा था। स्वगत बोले जा रहा था, ‘ऐसा नृत्य कभी किसी ने किया होगा क्या? किसने? कब? कहाँ? कैसे? किसने देखा होगा? ...और पढ़े

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द्वारावती - 38

38“केशव, कृष्ण का एक नाम केशव भी है ना?” गुल ने पूछा। केशव ने गुल को देखा। वह दूर मंदिर की धजा को देख रही थी। “गुल, आज ऐसा प्रश्न क्यूँ?”“प्रथम मेरे प्रश्न का उत्तर दो पश्चात तुम्हें जो प्रश्न करना हो , करना।”“कृष्ण, श्याम, मुरली मनोहर, वासुदेव, रणछोड़, पुरुषोत्तम, योगेश्वर, देवकी नन्दन, यदुनंदन, गोपाल, रासबिहारी, गोवर्धनधारी, व्रजेश, ब्रिजबिहारी, गोविंद, ... ।”केशव बोले जा रहा था, गुल उसे विस्मय से देख रही थी। “रुको, रुको। रुक जाओ केशव।” केशव रुक गया। “क्या हुआ गुल?”“यह क्या कहे जा रहे हो? मेरी समज में कुछ नहीं आ रहा।” मुख पर प्रश्नार्थ ...और पढ़े

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द्वारावती - 37

37“अंतत: तुमने उन पंखियों को मित्र भी बना लिया, शाकाहारी भी।” केशव ने मौन तोड़ा। “यह अर्ध सत्य है, गुल ने प्रतिभाव दिया। “तो कहो पूर्ण सत्य क्या है?”“पूर्ण सत्य यह है कि पंखी मेरे मित्र बन गए है किन्तु शाकाहारी बने कि नहीं यह निश्चित करना उचित नहीं होगा। मंदिर के प्रांगण में डाले दानों को उन्होने अवश्य खाये हैं किन्तु उससे उनकी क्षुधा तृप्त नहीं हो सकती। दिवस भर कभी भी वह समुद्र से मछलियां खाएँगे, खा सकते हैं। उनका पूर्ण रूप से शाकाहारी बनना मुझे संभव नहीं लगता।”“तुम प्रयास करती रहो, तुम अवश्य सफलता प्राप्त करोगी।”“मेरे ...और पढ़े

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द्वारावती - 39

39मंदिर से पूर्व ही एक श्रद्धालु ने केशव को रोक लिया। “बेटे, तुम ब्राह्मण हो?”“हाँ। किन्तु आपको संदेह क्यूँ कि यह पीताम्बर आदि परिधान मैंने अन्य व्यक्तियों में भी देखा है।”“आप तो व्यक्ति के वस्त्रों के आधार पर निश्चय कर लेते हो कि वह क्या है, कौन है?”“नहीं, मैं तो बस ... ।”“चलो छोड़िए। मुझे आप से तर्क वितर्क नहीं करना है।”केशव उसे वहीं छोडकर जाने लगा। “बेटे, रुको तो।”“जी, कहो जो कहना है।” केशव रुक गया। “क्या तुमने यज्ञोपवीत धारण की हुई है?”“क्या तात्पर्य है आपका ?”“मुझे किसी यज्ञोपवीत धारी ब्राह्मण बालक को यह दान करना है।” श्रद्धालु ...और पढ़े

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द्वारावती - 40

40“केशव, क्या तुम बता सकते हो कि इस बंद मुट्ठी में तुम्हारे लिए क्या है?” केशव की विचार यात्रा के शब्दों से भंग हो गई। “कहो गुल, कैसी हो?”“यह क्या बात हुई? यह प्रश्न कैसा?”“यह प्रश्न सहज है।” “सहज वह होता है जो प्रतिदिन होता हो। जो प्रश्न तुमने पूछा वह सहज कहाँ है?”“प्रश्न तुमने भी पूछा था। क्या वह सहज था?”“कोई असहज क्रिया किसी बात अथवा घटना की प्रतिक्रिया भी हो सकती है।”“इस तर्क का संदर्भ तुम्हारे प्रश्न से कहाँ है?”“तुम तो विद्वान हो केशव। थोड़े थोड़े ज्ञानी भी होते जा रहे हो। स्वयं उत्तर खोज लो, प्रश्न ...और पढ़े

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द्वारावती - 41

41“यह कोलाहल कब शांत होगा, गुल?”“किस कोलाहल की बात कर रहे हो तुम?”“इतने दिवस व्यतीत हो गए किन्तु मन भी उन प्रश्नों पर चिंता कर रहा है। यह चिंता कोलाहल का रूप ले चुकी है।”“तुम भविष्य की अनिश्चितता से चिंतित हो अथवा असुरक्षा से?”“चिंता के अनेक कारणों में यह कारण भी हो सकते हैं।”“मुझे अन्य कारण भी विदित है। मैं बताऊँ क्या?”“गुल।”“तुम कुछ खोने के भय से चिंतित हो केशव।”“ यह कुछ शब्द से क्या तात्पर्य है तुम्हारा?”“कुछ का अर्थ है यह स्थान, यह समय, कोई व्यक्ति। कुछ भी हो सकता है।”“चलो छोड़ो इसे। हम कुछ अन्य बात करते ...और पढ़े

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द्वारावती - 42

42“केशव, चलो इस समुद्र तट पर दूर तक जाते हैं। मार्ग में अनेक कंदरायेँ आएगी। प्रत्येक कन्दरा के भीतर उठा। गुल चलने लगी। केशव ने पुकारा, “गुल, रुको तो।”गुल रुक गई।“तुम्हें विदित है कि यह तट कितना लंबा है? हमें कहाँ तक जाना है? कौन से बिन्दु से लौट आना है? इस विषय में कोई विचार भी किया है अथवा बस ... ।”गुल रुक गई। कुछ क्षण विचार मग्न मौन के पश्चात बोली,“मुझे संज्ञान नहीं कि यह समुद्र तट कितना लंबा है। यह भी विचार नहीं किया कि कहाँ तक जाना है। किस बिन्दु से लौट आना है। अरे ...और पढ़े

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द्वारावती - 43

43“केशव तुम स्वयं को सिध्ध कर देना। मेरी शुभकामना।” मंत्रगान प्रतियोगिता से पूर्व गुल ने केशव का उत्साह वर्धन केवल स्मित देकर चला गया। स्पर्धकों की दीर्घा में अपने आसन पर जाकर बैठ गया। समग्र सभा मंडप का निरीक्षण करने लगा। साथी प्रतियोगियों पर द्रष्टि डाली।‘इतने सारे स्पर्धक? दो सौ से अधिक। ढाई दिवस तक चलेगा यह उपक्रम। तीसरे दिवस मध्याह्न के पश्चात विजेताओं के नाम घोषित किए जाएंगे। पुरस्कार दिये जाएंगे। किसी एक को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जाएगा। वह किसी मिथ्याभिमान में स्वयं को सबसे उच्च मानने लगेगा। उसकी ख्याति देस देसांतर में प्रसर जाएगी।इस प्रसंग के साक्षी ...और पढ़े

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द्वारावती - 44

44तभी मंच पर गुल आ गई। उसे देखकर मंच अधिक अनियंत्रित हो गया।गुल बोली, “नमो नम: सर्वेभ्यो।” गुल के से सभा शांत होने लगी।“यदि आप आज्ञा दें तो केशव के स्थान पर मैं श्लोकगान करूँ?” गुल निर्णायकों के प्रतिभाव की प्रतीक्षा करने लगी। उनके लिए यह स्थिति अपेक्षित नहीं थी। वह विचलित हो गए, सभा भी। सभा से अनेक ध्वनि आने लगे। कोई पक्ष में तो कोई विपक्ष में अपना अपना मत प्रकट करने लगे। सभा पुन: अनियंत्रित होने लगी। निर्णायक गण आपसी चर्चा के उपरांत भी कोई निर्णय नहीं कर सका। सभा अधिक अनियंत्रित हो गई।सहसा एक निर्णायक ...और पढ़े

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द्वारावती - 45

45सभा को छोडकर केशव समुद्र तट पर आ गया। समुद्र की अविरत जन्मती, प्रवाहित होकर तट तक जाती तथा पर ही मृत हो जाती लहरों को देखता रहा। उसके मन में कोई भी लहर इसी प्रकार गतिमान न थी। वह शांत था। स्थिर था। प्रसन्न था। पश्चिमाकाश की तरफ गति कर रहे सूर्य की किरणें उसके मुख की कान्ति में वृद्धि कर रही थीं। केशव ने आँखें बंद की, ध्यान मुद्रा में बैठ गया। ओम् का नाद करने लगा।एक अंतराल के पश्चात उसने ध्यान सम्पन्न किया, आँखें खोली। सन्मुख उसके वही रत्नाकर था जो अपने कार्य में व्यस्त था।“एक ...और पढ़े

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द्वारावती - 46

46केशव ने जब गुरुकुल में प्रवेश किया तो उसे द्वार पर दो छात्र मिले। केशव ने उनको देखा, उन्होंने केशव को देखा। केशव ने उन्हें स्मित प्रदान किया किन्तु उन दोनों ने उसका कोई प्रतिभाव नहीं दिया। केशव आगे बढ़ा। कई और छात्र मिले। उनका व्यवहार भी वही था जो उन दो छात्रों का था। वह क्षण भर रुका, चारों तरफ उसने देखा। सभी छात्र वहीं थे जो उन्हें देख रहे थे। सबके मुख पर जो भाव थे वह केशव को अज्ञात लगे।केशव सीधे अपने कक्ष में चला गया। द्वार भीतर से बंद कर बैठ गया। कुछ क्षण बिना ...और पढ़े

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द्वारावती - 47

47गुल जब घर लौटी तो उसने देखा कि उसके आँगन में अनेक लोगों की भीड़ जमी हुई थी। भीड़ मध्य में उसके पिता हाथ जोड़े मस्तक झुकाए खड़े थे। भीड़ में से कुछ लोग बुलंद स्वरों में कुछ बोल रहे थे। गुल की मां एक कोने में खड़ी खड़ी रो रही थी।गुल वहीं रुक गई। किसी का ध्यान उस पर पड़े उससे पूर्व वह छुप गई।कुछ समय पश्चात मां तथा पिता को डराकर भीड़ चली गई। गुल दौड़कर घर में चली गई। मां – पिता डरे हुए बैठे थे। गुल ने मां का हाथ पकड़ लिया। पिता ने गुल ...और पढ़े

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द्वारावती - 48

48पंद्रह दिन व्यतीत हो गए। घर से कोई बाहर नहीं गया। जब एक नए प्रभात ने अवनी पर प्रवेश तो गुल के पिता काम करने हेतु घर से जाने लगे। गुल की मां ने उसे रोका,“आप अभी भी कहीं नहीं जाएंगे।”“किन्तु इस तरह यदि मैं काम पर नहीं गया तो घर कैसे चलेगा?”“घर की चिंता न करो। अभी भी पंद्रह बीस दिनों तक चल सके इतना घर में सब कुछ है।”“पंद्रह बीस दिनों के पश्चात क्या होगा? तब तो घर से निकलना होगा ना?”“तब की बात तब सोचेंगे।”“मृत्यु का भय तब भी बना ही रहेगा।”“हमें आज की ही चिंता ...और पढ़े

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द्वारावती - 49

49“गुल। तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया। अब मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।”“अवश्य।”“एक, तुम इतने दिनों तक कहाँ इतने दिनों तक क्यों नहीं आइ?तीन, इतने दिनों पश्चात क्यूँ आइ? कैसे आइ?चार, तुम जिस मंत्र का जाप कर रही थी वह कौन सा मंत्र है? उसका प्रभाव क्या है?पाँच, उस मंत्र का जाप क्यूँ कर रही थी?छः, तुमने यह मंत्र कहाँ से सीखा? मुझे इन प्रश्नों के उत्तर दो, गुल।”“छः प्रश्न। सभी के उत्तर देने में समय लगेगा।तुम्हारे पास इतना धैर्य है?”“मेरे भीतर धैर्य का अभाव नहीं है। बस तुम कहती जाओ।”“ठीक है। आओ यहाँ बैठो।” गुल समुद्र की ...और पढ़े

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द्वारावती - 50

50सूर्यास्त का समय हो रहा था। समुद्र की तरंगें अपना कर्तव्य निभाती हुई तट पर जाकर विलीन हो रही वह अपना कर्तव्य शांत रूप से निभा रही थी। उनमें कोई उन्माद न था। समुद्र का यह रुप इतना शांत था जैसे कोई शांत नदी।इतनी शांति में पूर्णत: शांति से गुल की प्रतीक्षा कर रहा था केशव। एक असीम शांति व्याप्त थी वहाँ।सूर्य अपने लक्ष्य के प्रति गति कर रहा था। उसकी गति तीव्र होती जा रही थी। केशव उस गति को शांत चित्त से निहार रहा था। सूर्य क्षितिज पर आ गया। समुद्र के स्पर्श से अल्प अंतर पर ...और पढ़े

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द्वारावती - 51

51गुल की आँखें बंद थी। मंत्रोच्चार हो रहा था। केशव किसी समाधि में लीन हो गया था। उसे जो हो रहा था वह उसने इससे पूर्व कभी नहीं किया था। उस अकथ्य स्थिति में प्रसन्नता थी।गुल ने अंतिम मंत्र का गान किया-अहम निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभूत्वा च सर्वत्र स्सर्वेंद्रियाणम,न च संगतर्नेव मुक्ति: न मेय: चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।गुल शिवोहम शिवोहम का जाप किए जा रही थी। सभी दिशाओं से उस ध्वनि की प्रतिध्वनि होने लगी। तट, पानी, समुद्र, समीर सभी एक ही ध्वनि में गा रहे थे - ‘शिवोहम शिवोहम…’गुल ने मंत्र गान सम्पन्न किया। कुछ क्षण वह आँखें ...और पढ़े

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द्वारावती - 52

52समय अपनी गति से प्रवाहित होता रहा। केशव को मिठापुर गए अनेक सप्ताह हो गए। इन दिनों में केशव जीवन में क्या हुआ होगा उससे गुल अनभिज्ञ थी। वैसे तो गुल के जीवन में जो घटा उससे केशव भी अनभिज्ञ था। वास्तव में दोनों के जीवन में विशेष कुछ नहीं घटा था।प्रतिदिन प्रातः काल में गुल समुद्र तट पर आती, सूर्योदय को समुद्र की साक्षी में निहारती, कुछ मंत्रों का गान करती, भड़केश्वर महादेव के मंदिर जाती, आरती-पूजा-अर्चना-दर्शन करती घर लौट आती। प्रत्येक दिन उसे मन होता कि गुरुकुल जाकर केशव के विषय में किसी से बात करें, उसके ...और पढ़े

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द्वारावती - 53

53गुल के घर पर कुछ मज़हबी लोग आए हुए थे। सभी के मुख पर कड़ी रेखाएँ थी। मां, पिता गुल कक्ष के एक कोने में खड़े थे। मां के मुख पर भीती थी। पिता शांत थे, स्वस्थ थे। गुल सभी के मुख देखकर स्थिति को समझने का प्रयास कर रही थी।कुछ समय के मौन के पश्चात आगंतुकों में से एक ने कहा, “गुल को मदरसा से निकाल दिया गया है। अब वह मदरसा में पढ़ाई नहीं कर सकती।” उसने एक पत्र गुल के पिता को दिया। उसने उसे पढ़े बिना ही अपने पास रख लिया।“ऐसा क्यों किया?” भय के ...और पढ़े

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द्वारावती - 54

54गुल गुरुकुल में अध्ययन करने लगी। अनेक दिन व्यतीत हो गए। मुल्लाओं की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आइ। अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने लगी। किंतु उसकी अधिक रुचि श्रीमद् भगवद गीता में थी। समुद्र के तट पर बैठकर वह गुरुकुल में सीखे विषयों का पाठ करती, गीता के श्लोकों का पठन करती, उसके अर्थों को समझती। यह सब वह समुद्र को सुनाती।उसे सुनकर समुद्र तरंगित हो जाता तथा गुल के समीप गुल के मुख से श्लोकों को सुनने आ जाता, विशिष्ट गर्जना से संगीत का सर्जन करता। जैसे किसी गायक के गान के साथ कोई संगीतकार अनेक वाद्यों ...और पढ़े

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द्वारावती - 55

55दूसरे दिन गुल ने निश्चय कर लिया कि वह अब किसी भी स्वर पर, किसी भी सुर पर तथा भी ध्वनि पर विचलित नहीं होगी। वह अपना गीता गान पूर्ण करेगी। उससे पूर्व वह आँखें नहीं खोलेगी।उसने श्री कृष्ण का ध्यान धरा, गीता गान प्रारम्भ कर दिया। उसके मुख से श्लोकों का प्रवाह बहने लगा। उसे सुनने के लिए समुद्र अपनी तरंगों के माध्यम से गुल के सम्मुख आने लगा। समुद्र पुन: सुमधुर संगीत का सर्जन करने लगा। गुल बोल रही थी-सर्व धर्मान परित्यजय, मामेकम शरणम ब्रज।अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिश्यामि, मा शुच:।।शब्द एवं संगीत का अनुपम मिलन हो ...और पढ़े

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द्वारावती - 56

56अवनी पर प्रत्येक संध्या के पश्चात् तमस् उतर आता है। अनेक ऐसी संध्याओं के पश्चात एक संध्या आइ जो विशिष्ट थी। सूर्य अभी अभी अस्त हुआ था। समुद्र के ऊपर गगन को जाते हुए सूर्य ने अपनी लालिमा से भर दिया था। उसे देख गुल प्रसन्न हो रही थी। उसके दर्शन से उसे कैवल्य का स्मरण हो आया। वह लालिमा उसे अपने प्रति आकर्षित कर रही थी। उसे लगा जैसे वैकुंठ लोक से उसे कोई पुकार रहा है। उसके मन में विचारों का प्रवाह बहने लगा, ‘कैवल्य तो मोक्ष का नाम है।मोक्ष मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होती है। यह ...और पढ़े

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द्वारावती - 57

57द्वारावती 57 अपनी गति से व्यतीत हो गई। नूतन सूर्योदय हुआ। रात्रि भर गुल के पिता के मृत शरीर को अपने भीतर रखे हुए समुद्र ने प्रातः होते ही तट पर छोड़ दिया। समुद्र तट पर शव मिला है -यह सूचना समग्र द्वारका नगरी में प्रसर गई। आरक्षकों ने आकर उचित कार्यवाही कर मृत शरीर को गुरुकुल को सौंप दिया।गुल की कोई सूचना नहीं मिली। ना ही उसका शव मिला। उसके सम्भवित शव को खोजने का प्रशासन ने पूर्ण प्रयास किया किंतु ...और पढ़े

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द्वारावती - 58

58“सुनों मित्रों।” अभियान का नेतृत्व कर रहे युवक ने कहा, “समुद्र किसी भी मृत शरीर को अपने भीतर नहीं उसे किसी ना किसी तट पर छोड़ देता है। इस क्षेत्र के किसी भी तट पर गुल का शव नहीं मिला है।”“अर्थात् गुल की मृत्यु नहीं हुई है? वह कहीं ना कहीं जीवित ही है।”दूसरे युवक की इस बात ने बाक़ी युवकों के मन में आशा तथा चेतना का संचार कर दिया।“सत्य कह रहे हो मित्र, हमें इसी धारणा के साथ, इसी दृष्टिकोण से गुल को खोजना है। गुल समुद्र के पानी के भीतर नहीं किंतु कहीं बाहर है। और ...और पढ़े

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द्वारावती - 59

59“मेरे पिताजी कहाँ है?” गुल के इस प्रश्न का उत्तर गुरुकुल में किसी ने नहीं दिया।“मेरा घर? मेरी माँ?” उत्तर भी किसी ने नहीं दिया। सभी ने मौन धारण कर लिया।“मुझे मेरे घर ले चलो।” उत्तर में एक युवक शीतल जल ले आया।गुल ने थोड़ा पिया। दूसरा युवक फल ले आया। गुल ने उसे ग्रहण नहीं किया।प्राचार्य ने गुल के मस्तक पर हाथ रख दिया। गुल का उद्विग्न मन शांत होने लग, कुछ क्षणों में शांत हो गया। उसने फल खाया।“गुल, तुम अभी इस कक्ष में विश्राम करो।” प्राचार्य के साथ सभी ने कक्ष रिक्त कर दिया। गुल विवश ...और पढ़े

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द्वारावती - 60

60गुल ने जब आँखें खोली तब वह गुरुकुल के किसी कक्ष की शैया पर थी। कुछ कुमार उसकी सेवा वहीं थे। उसने उनमें किसी को खोजने का प्रयास किया किंतु वह वहाँ नहीं था।गुल के आँख खोलते ही एक कुमार प्राचार्य को इसकी सूचना दे आया। वह कक्ष में आए। गुल के माथे पर हाथ रखते हुए बोले, “हरे कृष्ण।”कृष्ण का नाम सुनते ही गुल में किसी चेतना का संचार होने लगा। वह बोली, “हरे कृष्ण।” सभी के मुख पर हर्ष छा गया, गुल के मुख पर सौम्य हसित।“केशव कहाँ है?”“उसे सूचित कर दिया है, शीघ्र ही वह आ ...और पढ़े

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द्वारावती - 61

61केशव के जाने की सज्जता में पूरा दिन व्यतीत हो गया। गुल इस प्रत्येक सज्जता में केशव के साथ प्रत्येक क्षण उसने केशव के साथ जिए। उन क्षणों में उसे किसी चिंता का अनुभव नहीं हुआ। पूरे उत्साह से वह सज्जता करती रही। रात्रि को सज्जता पूर्ण होने पर संतोष के साथ वह सो गई। केशव रात्रि भर गुल के समीप बैठा जागता रहा।ब्राह्म मुहूर्त में केशव कक्ष से बाहर आ गया, समुद्र में तारा स्नान किया और प्रातः कर्म से निवृत हो गया। गुल विलम्ब से जगी। तब तक गुरुकुल अपने नित्य कर्म से निवृत हो चुका था। ...और पढ़े

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द्वारावती - 62

62चार वर्ष का समय व्यतीत हो गया। प्रत्येक दिवस गुल ने इन चार वर्षों की अवधि की समाप्ति की में व्यतीत किए थे। इन चार वर्षों में द्वारका ने अनेक परिवर्तनों को देखा। गुरुकुल में भी परिवर्तन हो रहा था। गुल को गुरुकुल में एक कक्ष में निवास की सुविधा दी गई थी। गुरुकुल के पुस्तकालय के सभी पुस्तकों के अध्ययन की, आचार्यों से प्रश्न करने की तथा गुरुकुल परम्परा से ज्ञान प्राप्ति की उसे अनुमति दी गई थी।गुरुकुल के रसोईघर एवं वृक्षों के जतन में भी वह सहायता करती थी। इस अवधि में गुल ने अनेक शास्त्रों का ...और पढ़े

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द्वारावती - 63

63द्वारका में काशी से पंडित जगन्नाथ पधारे थे। भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन के उपरांत वह मंदिर में विहार करते ब्राह्मणों का निरीक्षण कर रहे थे। कुछ यजमानों के संकल्प अनुसार पूजा अर्चना करवा रहे थे। पंडितजी उनका अवलोकन करने लगे। ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित मंत्रों तथा श्लोकों को ध्यान से सुनने लगे। उन उच्चारण में उसने कुछ त्रुटि पाई। कुछ समय वह उसे सुनते रहे। त्रुटियों पर ध्यान देते रहे। उसने मन में निश्चय कर लिया। पूजा सम्पन्न होने तक प्रतीक्षा करते रहे।पूजा सम्पन्न हो गई। यजमान चले गए। ब्राह्मण पूजा स्थल को साफ़ कर रहे थे तभी पंडितजी उनके ...और पढ़े

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द्वारावती - 64

64 प्रातः काल का के मंदिर में उपस्थित अभूतपूर्व जनसागर। प्रभु की प्रतिमा के सम्मुख खड़े दो विद्वान- आचार्य जगन्नाथ एवं गुरुकुल के प्राचार्य। स्पर्धा की प्रतीक्षा में द्वारका नगरवासी कुछ नूतन देखने की उत्कंठा में, उत्सुकता में, चिंता में अधीर हो रहे थे।सबसे अधिक चिंता से ग्रस्त तो पंडित जगन्नाथ थे।रात्रि भर की अनिद्रा का प्रभाव उनकी आँखों में तथा मुख पर अनायास प्रकट हो रहे थे जिन्हें छिपाने का वह अपने कृत्रिम स्मित से प्रयास कर रहे थे। मन ही मन भगवान ...और पढ़े

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द्वारावती - 65

65 “ओह, यह है गुल से पंडित गुल बनने की?” गुल की कथा देख, स्तब्धता में उत्सव बोल पडा।“एक अबोध कन्या की जीवन यात्रा ! जिसने उसे पंडित गुल बना दिया। इस यात्रा को देखते देखते रात्रि व्यतीत हो गई। ब्राह्म मुहूर्त प्रारम्भ हो चुका है।मैं इस प्रवाह में इतना प्रवाहित था कि मुझे समय का संज्ञान ही नहीं रहा। समय जैसे एक नदी हो और मैं उसमें स्नान करता रहा। इसमें डुबकी लगाने पर मैं निर्मल हो गया हूँ। गुल, तुम्हारा यह ...और पढ़े

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द्वारावती - 66

66सूर्योदय हुआ। गुल अपने नित्य कर्म पूर्ण कर, भड़केश्वर महादेव की आरती-पूजा-अर्चना कर लौट आइ। उस समय उत्सव वहाँ था। किंतु गुल की प्रतीक्षा में कुछ यात्री थे। प्रवासियों का समूह कई दिनों के पश्चात गुल के आँगन में आया था।पिछले दिनों यात्रियों का प्रवाह कुछ मंद हो गया था। जो यात्री भगवान के दर्शन करते थे उनमें से एकाद अंश यात्री ही गुल के पास आते थे। गुल यात्रियों को समुद्र की ध्वनि में श्री कृष्ण की बांसुरी की अनुभूति कराती थी ऐसी बात प्रचलित थी।जिन यात्रियों को यह अनुभूति करनी होती थी वह गुल के पास समुद्र ...और पढ़े

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द्वारावती - 67 - 68

67महादेव की संध्या आरती से जब गुल लौटी तब उत्सव तट पर खड़ा था। उसने गुल को निहारा। गुल उन आँखों में कुछ देखा।“क्या इस समय तुम अपने प्रायोजन को व्यक्त करना चाहोगे?”“मेरे प्रश्न इस नगरी के राजा से सम्बंधित है। तुम जिस राजा की प्रजा हो उस राजा के विषय में मेरे प्रश्नों का उत्तर तुम दे सकोगी? तटस्थ भाव से?”गुल क्षण भर विचार के लिए रुकी। “मैं जानती हूँ कि तुम द्वारिकाधीश की बात कर रहे हो।”“मैं जानता हूँ कि अपने राजा के विषय में कोई भी प्रजाजन तटस्थ नहीं रह सकता। उसके प्रति पक्षपात सहज होता ...और पढ़े

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द्वारावती - 70

70लौटकर दोनों समुद्र तट पर आ गए। समुद्र का बर्ताव कुछ भिन्न दृष्टिगोचर हो रहा था। बालक की भाँति कुछ कहना चाहता था किंतु उसकी भाषा न तो गुल को, न ही उत्सव को समज आ रही थी।“उत्सव, तुम नगर भ्रमण अधूरा छोड़कर क्यों लौट आए?” गुल ने अपनी भाषा में मौन तौड़ा। उत्सव ने कोई उत्तर नहीं दिया। गुल ने पुन: पूछा तब उत्सव बोला,“मैं विचलित हो गया हूँ, गुल। जो देखा, जो सुना, जो अनुभव किया पश्चात उसके मन का विचलित होना सहज है ना?”“उत्सव, तुम तो धैर्य को धारण करके रखो। मानसिक स्थिरता तुम्हारा गुण रहा ...और पढ़े

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द्वारावती - 69

69 “भ्रमण से पूर्व भगवान के मंदिर में जाकर उसके दर्शन कर लें?” गुल ने प्रस्ताव रखा।उत्सव ने कुछ क्षण पश्चात कहा, “नहीं, नहीं।”“क्यों? द्वारका भ्रमण का उससे उत्तम प्रारम्भ क्या हो सकता है?”“उत्तम अवश्य हो सकता है किंतु मैं मंदिर दर्शन करके उस राजा के प्रभाव में आना नहीं चाहता। ईश्वर के दर्शन सबसे अंत में करूँगा।”“अंत में क्यों?”“अंत समय में दर्शन से मोक्ष मिलता है ऐसा सुना है।” उत्सव अपने शब्दों पर, तो गुल उत्सव के शब्द एवं हाव ...और पढ़े

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द्वारावती - 71

71संध्या आरती सम्पन्न कर जब गुल लौटी तो उत्सव आ चुका था। गुल की प्रतीक्षा कर रहा था।“गुल, मुझे कुछ बात कहनी है। कुछ समय बैठ सकती हो?”गुल घर के बाहर ही रुक गई, “प्रथम यह कहो कि कहाँ गए थे?”“वही तो बताना चाहता हूँ, सुनो। मैं रूपेण बंदर गया था। प्रेमभिक्षुजी से मिलने।”“तुम्हें मिले वह? मैं भी मिलना चाहती हूँ। तुम बता कर जाते तो मैं भी चलती। मुझे भी …।”“गुल, बाबा मुझे नहीं मिले। मैं ने लम्बी प्रतीक्षा की । मैं समुद्र के उस भाग के प्रत्येक स्थान पर गया । किंतु वह कहीं नहीं मिले।”“अर्थात् वह ...और पढ़े

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द्वारावती - 72

72दोनों ने अदृश्य ध्वनि की आज्ञा का पालन किया। जिस बिंदु पर दोनों ने दृष्टि रखी वहाँ दृश्य दिखाई लगा -एक विशाल सभागृह भारत भर के विश्व विद्यालयों के प्रतिनिधि छात्रों से पूर्ण भरा हुआ था। प्रत्येक छात्र के मन में चेतना की एक नूतन लहर उठ रही थी। प्रत्येक छात्र स्वयं को उस अभियान का हिस्सा मान रहे थे जो देश में एक क्रांति के लक्ष्य से प्रारम्भ किया गया था। यौवन अपने परम उत्साह पर था। देश विदेश के संचार माध्यमों के प्रतिनिधि भी वहाँ उपस्थित थे। भारत ही नहीं, अन्य कई देशों की दृष्टि इस महा ...और पढ़े

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द्वारावती - 73

73नदी के प्रवाह में बहता हुआ उत्सव किसी अज्ञात स्थल पर पहुँच गया। चारों दिशाओं में घना जंगल था। दिन तक उस जंगल में वह भटकता रहा। उसे कोई दिशा नहीं सुझ रही थी। वह जंगल, जैसे अखंड जंगल हो। कहीं कोई छौर नहीं दिख रहा था।तीसरे दिन सांध्य समय जंगल के मार्ग से जाती हुई साधुओं की एक टोली उत्सव ने देखी। किसी मनुष्य को देखकर वह अल्प मात्रा में भय से मुक्त हुआ। वह उन साधुओं के पीछे पीछे चलता रहा। रात्रि होने पर साधुओं ने एक स्थान पर विश्राम किया। उत्सव उनके सामने प्रकट हो गया, ...और पढ़े

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द्वारावती - 74

74उत्सव काशी में बस गया था। काशी को अत्यंत निकट से उसने देखा - परखा। उसके भीतर एक सर्जक जन्म ले लिया। उसने काशी के जीवन पर पुस्तक लिखना प्रारम्भ किया। प्रतिदिन वह काशी के विविध मंदिरों में तथा विविध तट पर भ्रमण करता। वहाँ जी रहे, वहाँ प्रवासी के रूप में आए व्यक्तियों की चेष्टाओं को वह निहारता, निरीक्षण करता । उससे उसे उन लोगों की जीवन कथा का ज्ञान होता था। रात्रि भर वह उन व्यक्तियों की कथाओं को लिखता रहता।जैसे जैसे वह काशी के जीवन को लिखता गया वैसे वैसे उसे प्रतीत होने लगा कि‘यहाँ जीवन ...और पढ़े

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द्वारावती - 75

75 “मैं मेरी अभी प्रकाशित नहीं करवाना चाहता। मुझे वह लौटा दीजिए।”“क्यों? क्या हो गया?”“मुझे प्रतीत हुआ है कि कुछ लिखना छुट गया है। मैं उसे लिखना चाहता हूँ। जब तक मैं वह लिख ना लुं तब तक वह पुस्तकें अपूर्ण रहेगी। मैं उसे पूर्ण करना चाहता हूँ। कृपया मुझे वह सब लौटा दें।”“ठीक है, जैसी आपकी इच्छा। मेरी कामना है कि आप शीघ्र ही इन्हें पूर्ण कर हमें इन्हें प्रकाशित करने का अवसर प्रदान करेंगे।”प्रकाशक ने हस्तप्रतें लौटा दो।अपनी पुस्तकों की हस्तप्रतें ...और पढ़े

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