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इन चार वर्षों में उसने अठारह किलोमीटर का मार्ग पूर्ण कर लिया था। दण्डवत परिक्रमावासियों के साथ वह चलता रहा, उनकी सहायता करता रहा। उसे परिक्रमा पूर्ण करने की कोई शीघ्रता न थी। प्रत्येक परिक्रमा वासी उत्सव से अवश्य मिलता था, क्षण भर के लिए भी। वह सब से स्नेह से मिलता, कृष्ण नाम जपता और
परिक्रमावासियों का उत्साह वर्धन करता।
इस प्रकार के व्यवहार से परिक्रमावासियों के लिए उत्सव चर्चा का, आकर्षण का तथा सम्मान का केन्द्र बन गया। लोग तो यह भी कहने लगे कि इस मार्ग पर भविष्य में एक मंदिर बनेगा, उत्सव मंदिर। जो उत्सव के स्मरण में बनेगा। किंतु उत्सव को ऐसी बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता था। वह तो बस अपनी धुन में व्यस्त रहता था।
विगत चार वर्षों में उत्सव ने कृष्ण का परिचय प्राप्त कर लिया । कृष्ण से सम्बंधित प्रत्येक घटना का संज्ञान ले लिया। कृष्ण के व्यक्तित्व के सभी पक्षों को जान लिया। कृष्ण चरित्र की यह यात्रा उसे आनन्दमय लगी।
एक दिन उत्सव को सूचना मिली कि मार्ग सुने पड़े हैं, कोई परिक्रमा नहीं कर रहा। केवल दण्डवत परिक्रमावासी ही मार्ग पर थे। मार्ग पूर्णत: निर्जन था, शांत था। इस स्थिति में उसके पास करने को कुछ नहीं था तो विचार करने बैठ गया।
‘कितनी दृढ़ श्रद्धा है भक्तों के मन में कि मृत्यु भी यदि इस मार्ग पर मिल जाए तो भी सहर्ष मृत्यु का स्वीकार है। मृत्यु से ना तो भयभीत हैं, ना ही विचलित। और यदि मृत्यु नहीं भी आइ तो भी उसका तथा शेष जीवन का सहज स्वीकार है। मृत्यु से पूर्व कितनी श्रद्धा से, कितनी आस्था से, जीवन जी रहे हैं। मृत्यु की तरफ़ गति करते जीवन में कितनी ऊर्जा, कितनी चेतना, कितना उत्साह है। यहाँ मृत्यु भी उत्सव है, महोत्सव है।
मृत्यु की प्रतीक्षा तो मुमुक्षु काशी में भी कर रहे हैं। किंतु कितनी दयनीय अवस्था में? आस्था हीन, श्रद्धा हीन, उत्साह हीन, चेतना हीन। जैसे किसी परम्परा को निभा रहे हो, बिना किसी कारण।
मृत्यु की अभिलाषा दोनों स्थान पर है किंतु कितना अंतर है दोनों प्रतीक्षा में ! एक ही लक्ष्य किंतु मार्ग भिन्न, यात्री भिन्न।’
उत्सव ने आँखें बंद कर ली।
‘यह अंतर, यह भिन्नता क्यों है? दो भिन्न नदियों के कारण? जिस के तट पर दोनों नगरी बसी हैं। अथवा दो भिन्न विचारधाराओं के कारण? कदाचित यही कारण होंगे।
किंतु सबसे बड़ी भिन्नता दोनों स्थानों के आराध्य देवताओं में प्रतीत हो रही है। एक कृष्ण है तो दूसरे महादेव।
महादेव त्यागी, महादेव विरक्त , महादेव निलकंठ।
कृष्ण योगेश्वर, कृष्ण रास रासेश्वर, कृष्ण विषनाशक।
कृष्ण में आसक्ति है, अपने भक्तों को वह अपनी तरफ़ अनायास ही आकृष्ट करते हैं। कृष्ण का चरित्र अनेक आयामों से पूर्ण है। कृष्ण के चरित इतने वैविध्य पूर्ण हैं कि किसी एक चरित्र में उसे व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। व्यक्तित्व की यही भिन्नता, यही विविधता भक्तों को आकर्षित करती है।
किंतु कृष्ण चरित्र के साथ अनेक प्रश्न भी उठते हैं। मुझे उन प्रश्नों का उत्तर खोजना चाहिए।’
‘यदि उत्तर पाना है तो यहाँ बैठे बैठे कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे।’
‘तो कहाँ जाऊँ?’
‘घूमो। पूरे भारत वर्ष में जाओ। जहां भी कोई योग्य व्यक्ति मिले उसे पूछो। उससे उत्तर पाओ।’
‘क्या भारत भ्रमण से उत्तर मिल जाएँगे?’
‘यहाँ बैठे रहने से मिल जाएँगे?’
‘मैं नहीं जानता।’
‘तो निकल पड़ो।’ उत्सव ने विचार यात्रा को रोक दिया। भारत यात्रा का निश्चय कर लिया। उठा और निकल पड़ा अपनी वास्तविक यात्रा पर।