द्वारावती - 3 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 3

3
"7 सितंबर 1965 की रात्री। द्वारिका के मंदिर को देख रहे हो? वहाँ दूर जो मंदिर दिख रहा है वही।” भीड़ के भीतर से यह ध्वनि आ रही थी। उत्सव ने उसे सुना। वह उस भीड़ की चेष्टा को देखने लगा, उस ध्वनि को सुनने लगा। भीड़ के बिखर जा“7ने की प्रतीक्षा करने लगा। भीड़ ने उस मंदिर की तरफ देखा। वह ध्वनि आगे कह रही थी -
“हाँ, उसी मंदिर पर पाकिस्तान की सेना ने अविरत गोलाबारी की थी उस रात्री को। उसका आक्रमण अत्यंत भारी था। क्षण प्रतिक्षण गोलाबारी हो रही थी। उसका लक्ष्य था मंदिर को पूर्ण रूप से नष्ट करने का। द्वारिका नगरी जो अनेकों बार नष्ट हो चुकी है उसे पुन: एक बार नष्ट कर देने का।”
“तो क्या वह ऐसा कर सके?” भीड़ में से किसी ने पूछा।
“नहीं वह ऐसा करने में विफल रहे।”
“द्वारिका की नियति तो नष्ट होने की ही रही है। तो वह बच कैसे गई?” किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया।
“सीधी सी बात है। जब जब द्वारिका नगरी नष्ट हुई है तब तब उसे समुद्र ने ही नष्ट किया है। किसी मानवीय शक्ति उसे कभी नष्ट नहीं कर सकी। पाकिस्तान तथा उसकी सेना भी तो मानवीय ही है। उस में इतनी क्षमता कहाँ? जब जब समुद्र ने इसे नष्ट किया है तब तब स्वयं कृष्ण ने ही इसकी योजना बनाई है। कृष्ण की योजना से परे द्वारिका नगरी को कोई नष्ट नहीं कर सकता।”
“तो उस रात क्या हुआ?”
“मंदिर को लक्ष्य बना कर फेंके गए सभी गोले अपने लक्ष्य से भटक गए। एक भी गोला मंदिर पर नहीं लगा, ना ही नगर के किसी भवन पर गिरा। इसी अरबी समुद्र के भीतर जाकर शांत हो गए सभी गोले। यह अरबी समुद्र को देखो।”
भीड़ समुद्र की तरफ देखने लगी। भीड़ को समुद्र की ध्वनि सुनाई देने लगी।
“तूने सुनी, बांसुरी की मधुर ध्वनि?” भीड़ में से कोई बोला।
“जैसे श्री कृष्ण स्वयं बांसुरी बजा रहे हो ऐसा प्रतित होता है।”
“किन्तु कृष्ण है कहाँ? उसके सिवा ऐसी धुन कोई नहीं छेड़ सकता।”
“कृष्ण ने गोकुल छोडने के पश्चात फिर कभी बंसी नहीं बजाई।”
“कृष्ण बजाए ना बजाए, किन्तु जहां कृष्ण होते हैं वहाँ बांसुरी के सुर बहते रहते हैं।”
“किन्तु यह तो द्वारिका है। प्रेम की नहीं, राजनीति की नगरी है।”
“अदम्य इच्छा होते हुए भी कृष्ण कभी बांसुरी बजा नहीं पाये।”
“उसे अत्यंत मन होता होगा कि इन सब कूटनीतियों को छोड़ कर किसी अज्ञात स्थान पर जाकर बांसुरी बजाऊँ।”
“किन्तु जगत कभी किसी को इतना अवसर कहाँ देता है? स्वयं कृष्ण को भी नहीं।”
“तो यह सुनाई देता है वह स्वर कौन जगा रहा है?” भीड़ चर्चा मे लगी रही। कोई उत्तर नहीं मिला।
“हम इसे ही पूछते हैं कि यह मुरली की ध्वनि कौन सुना रहा है?”
“हाँ, हाँ, इसे तो ज्ञात ही होगा।” भीड़ ने उसे पुछ लिया।
“अरब सागर की लहरों से उठती ध्वनि ही है जो द्वारिका में बांसुरी की धुन बन जाती है। ध्यान से सुनते रहें। समुद्र के जीतने समीप जाओगे, ध्वनि के सुर उतने ही मधुर होते जाएंगे। जाओ समीप जाकर उसका आनंद उठाओ।
भीड़ समुद्र की तरफ बढ़ गई। भीड़ का आवरण हट गया। उत्सव के सम्मुख एक मानवीय आकृति आ गई। वह उसे देखता ही रहा।
उत्सव के सम्मुख एक युवती थी। उसने श्वेत कपड़े पहने हुए थे। उसके केश खुले हुए थे जों कन्धो पर बिखर कर पीठ पर स्थिर हो गए थे। कुछ लटें समुद्र की हवा से मंद मंद लहरा रही थी। उसके ललाट पर ऋषि मुनियों के भाल पर दिखने वाला त्रिपुंड था। आँखें करुणा से भरी। अधरों पर एक दिव्य स्मित था जो मोहक था।
‘ऐसा स्मित तो स्वयं कृष्ण के अधरों पर होता था। उसे सब भुवन मोहिनी स्मित कहते थे। यह युवती भी वही स्मित ओढ़े खड़ी है। क्या वह स्वयं कृष्ण है? अथवा कृष्ण इस युवती के माध्यम से मेरा स्वागत कर रहे हैं?’
उत्सव विचारों में खो गया। उस युवती को अनिमेष देखता रहा।
उस युवती ने भी उत्सव को देखा। उसके सामने एक युवक खड़ा था।
वह किसी प्रवासी जैसा नहीं लग रहा था। उसके मुख पर उगी असीमित दाढ़ी थी। आँखों में अनेक भाव थे जो प्रश्नों का रुप लिए खड़े थे।उसमें विस्मय भी था। वह उस युवती को देखे ही जा रहा था। उसकी द्रष्टि तो युवती पर ही थी किन्तु वह कहीं कोई गहन विचारों में था। वह वहाँ होते हुए भी वहाँ नहीं था। युवती को देखते हुए भी वह उसे देख नहीं रहा था।
युवती ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की कि युवक कुछ बोले। किन्तु समय व्यतीत होता रहा, वह युवक स्थिर सा खड़ा रहा।
“श्रीमान, यदि तुम किसी आभा के प्रभाव से मुक्त हो गए हो तो कुछ बोलो।” युवती ने अंतत: मौन तोड़ा।
उत्सव ने युवती के शब्द सुने। विचारों की यात्रा भंग हो गई। उसने स्मित किया, युवती ने प्रत्युत्तर में स्मित दिया।
“हे यात्रिक, तुम कौन हो?” युवती ने कहा।
उत्सव ने अनायास ही दोनों हाथ जोड़ दिये,“मेरा प्रणाम स्वीकार करें।”
“कल्याण हो। कहो, जो कहना हो उसे निश्चिंत होकर कहो।”
“मुझे पंडीत गुल से मिलना है। वह कहाँ मिलेंगे?”
“ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम लंबी यात्रा करते हुए यहाँ तक आए हो। तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है। थोड़ा विश्राम कर लो।”
“यह सत्य है कि मैं लंबी यात्रा से आया हूँ किन्तु मुझे विश्राम नहीं करना। यदि आप मेरी भेंट पंडित गुल से करवा दें तो ....।”
“क्या आप अपना धैर्य खो चुके हो ?”
“यह भी सत्य है।” उत्सव ने पुन: हाथ जोड़ दिये। उसके मुख पर विनंती के भाव थे।
“आओ, यहाँ बैठो।” उत्सव एक पत्थर पर बैठ गया। उसके सामने अरबी समुद्र लहरा रहा था। पीठ पीछे पूर्व से उगा सूरज अपनी किरणों से रात्रिभर से ठंडे पड़े समुद्र को उष्ण करने का प्रयास कर रहा था। समुद्र भी उत्साह से भरा था, तीव्र लहरों से सूर्य की किरणों का अभिवादन कर रहा था।
यह युवती भी समुद्र की भांति उत्साह से भरी है। इसके शब्दों में उष्णता थी, ऊर्जा थी।
“लो, यह जल ग्रहण करो।” युवती के शब्दों ने उत्सव का ध्यान समुद्र से हटा दिया। वह युवती एक पात्र हाथ में लिए सामने खड़ी थी। वही भुवन मोहिनी स्मित, वही त्रिपुंड से भरा ओजस्वी ललाट। केवल एक ही अंतर था, खुले केश अब बध्ध थे।
“क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ से आए हो?”
“मेरा नाम .... ?”
“हाँ, तुम्हारा नाम। कहो क्या है?”
“मुझे स्मरण नहीं रहा मेरा नाम।”
“जब तक तुम अपना नाम याद कर लो तब तक तुम्हें मैं प्रवासी कहूँ?”
“यह नाम सुंदर है।”
“हे प्रवासी, यह शीतल जल ग्रहण करो।” युवती ने जल से भरा पात्र उत्सव के तरफ बढ़ा दिया। उत्सव ने उसे लिया तथा एक ही घूंट में सारा जल पी गया। जैसे युग युग से तृषातुर हो।
“मैं अधिक जल ले आती हूँ।” वह चली गई। उत्सव उसे देखता रहा।
वह लौटी। उत्सव ने पुन: जल पिया। उसकी तृषा शांत हो गई। उसने युवती की तरफ देखा।
उसकी आँखों में प्रश्न था कि – कहाँ है पंडित गुल? मेरी उससे भेंट करवा दो?
उत्सव के सामने पड़ी दूसरी शीला पर युवती बैठ गई।
“जी, मैं ही हूँ पंडित गुल। कहो क्या कहना है?”
“आप? क्या आप ही पंडित गुल हैं?” आश्चर्य तथा अविश्वास से उत्सव खड़ा हो गया।
“मैं ही हूँ पंडित गुल। बैठ जाओ।”
“नहीं, नहीं। नहीं....।” उत्सव बोलता रहा और दौड़ता हुआ भाग गया।
उत्सव समुद्र के तट पर दौड़ रहा था। गुल उसे जाते हुए देखती रही। कुछ ही क्षणों में वह गुल की द्रष्टि से दूर चला गया।
गुल अभी भी उसी मार्ग पर द्रष्टि डाले खड़ी थी। विचारों में खो गई थी।
‘कौन था यह प्रवासी? क्यूँ आया था? मिलना तो उसे मुझे ही था तो मेरा नाम सुनकर वह भाग क्यों गया? किसने भेजा होगा उसे मेरे पास?’
‘छोड़ो उसे, गुल। कोई भटका हुआ प्रवासी था। चला गया।’
‘किंतु वह मेरा नाम लेकर आया था। मुझ से ही उसे मिलना था और मुझ से मिलते ही भाग गया। ऐसे भागा है जैसे किसी शत्रु को देख लिया हो। ऐसा उसने क्यों किया होगा?’
‘कहीं वह ‘वोह’ तो नहीं था?’
‘वोह?’
‘हाँ,‘वोह’। इस प्रवासी की आँखें भी उनकी आँखों जैसी ही थी। वही कद, वही यौवन। वही आयु होगी उसकी।’
‘किन्तु यह प्रवासी ‘वोह’ नहीं हो सकता।’
‘क्यों नहीं हो सकता?’
‘क्यों कि ‘वोह’ मुझे जानता है। मुझे देखकर वह इस प्रकार भाग नहीं जाता।’
‘तो क्या करता?’
‘कुछ प्रश्न करता, कुछ कहता, कुछ सुनता, रुकता।’
‘किन्तु सत्य तो यह है कि प्रवासी भाग चुका है।’
‘तो तुम अपने मन से उसके पीछे क्यों भागती हो। लौट आओ।’
गुल लौट आई।