द्वारावती - 49 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 49

49


“गुल। तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया। अब मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।”

“अवश्य।”

“एक, तुम इतने दिनों तक कहाँ थी? 

दो, इतने दिनों तक क्यों नहीं आइ?

तीन, इतने दिनों पश्चात क्यूँ आइ? कैसे आइ?

चार, तुम जिस मंत्र का जाप कर रही थी वह कौन सा मंत्र है? उसका प्रभाव क्या है?

पाँच, उस मंत्र का जाप क्यूँ कर रही थी?

छः, तुमने यह मंत्र कहाँ से सीखा? मुझे इन प्रश्नों के उत्तर दो, गुल।”

“छः प्रश्न। सभी के उत्तर देने में समय लगेगा।तुम्हारे पास इतना धैर्य है?”

“मेरे भीतर धैर्य का अभाव नहीं है। बस तुम कहती जाओ।”

“ठीक है। आओ यहाँ बैठो।” गुल समुद्र की रेत पर बैठ गई। 

केशव उसके सम्मुख बैठ गया। दोनों की एक तरफ़ समुद्र था तो दूसरी तरफ़ सूर्योदय।

“जिस दिन मैंने संस्कृत गान स्पर्धा में निर्वाण षट्कम का गान किया था उसी दिन यह समाचार हमारे मझहब के कुछ व्यक्तियों तक पहुँच गया। उस संध्या तुम से मिलकर जब मैं घर पहुँची तो वही लोग हमारे घर आकर बैठे थे। मेरे माता पिता को डरा रहे थे।”

“क्यों?”

“मेरे कारण। मैंने जो सनातन धर्म के मंत्रों का गान किया था।”

“तो क्या हो गया?”

“ऊनके मत अनुसार मेरा वह कृत्य इस्लाम के विरुद्ध है। उनकी दृष्टि में यह मेरा अपराध है।”

“और इस अपराध का क्या दंड दिया उन लोगों ने?”

“यही कि मैं, मेरी मां तथा मेरे पिता गुरुकुल से कोई सम्बंध ना रखें।”

“यदि ऐसा नहीं किया तो?”

“तो वे हमें मार डालेंगे।” 

“क्या? मार डालेंगे? इस प्रकार मार डालने वाले कौन होते हैं वह लोग? मुझे बताओ। मैं अभी उसे...।”

क्रोध में केशव अपने स्थान से उठ खड़ा हो गया। 

“केशव, इस प्रकार उत्तेजित ना हो। शांत हो जाओ। बैठ जाओ। यह समय क्रोधित होने का नहीं है।”

“किंतु कोई ऐसे कैसे कर सकता है?” केशव के क्रोध का अभी भी शमन नहीं हुआ था।

अधरों पर स्मित लाते हुए गुल बोली, “सर्व प्रथम पूर्ण बात सुन लो, समज लो। अभी शांत हो कर बैठ जाओ। केशव बैठ गया। गुल ने क्षण को मौन ही व्यतीत होने दिया। 

“आगे कहो, क्या हुआ?”

“इस घटना से मां अत्यंत भयभीत हो गई। पिताजी पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।”

“और तुम पर?”

“मुझे प्रथम तो कुछ समज ही नहीं आया कि मेरे द्वारा मंत्रों के गान पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैंने पिताजी से पूछा तो उसने कहा कि यह इस्लाम के धर्मांध लोग हैं जिनमें स्वयं इतनी क्षमता नहीं है कि वह अपने पंथ का रक्षण कर सके। एक बालिका के मंत्र गान से जो पंथ संकट में पड़ जाए वह पंथ ही कैसा? पिताजी ने उन लोगों की बातों को गम्भीरता से नहीं लिया। किंतु मां ने उसे गम्भीर मान लिया है।”

“वह कैसे?”

“दूसरे दिन प्रातः नित्य क्रमानुसार मैं महादेव के दर्शन के लिए घर से निकलने लगी तो मां ने मुझे रोक लिया। पिताजी ने कई तर्क रखे किंतु मां नहीं मानी। मुझे घर से जाने ही नहीं दिया। पिताजी को भी मां ने बाहर जाने से रोक लिया। आज एक मास से अधिक समय हो गया, कोई घर से बाहर नहीं गया।”

“पिताजी भी नहीं?” 

“ना। पिताजी भी नहीं। इतने दिनों से वह गुरुकुल भी नहीं आए। क्या तुम्हें इस बात का संज्ञान नहीं है?”

“क्या बात कर रही हो? वास्तव में मुझे इस बात का संज्ञान नहीं है।”

“क्यों? तुम गुरुकुल में नहीं रहते हो?”

“गुरुकुल में ही हूँ। किंतु मेरा ध्यान ही नहीं रहा इस विषय पर।”

“इन दिनों किस बात पर ध्यान है तुम्हारा?”

केशव कुछ समय विचार कर बोला, “किसी अन्य विषय में मैं व्यस्त था।”

“किस विषय में? मुझे नहीं बताओगे?”

“बताऊँगा।अभी नहीं। कभी अनंतर उस विषय में बात करेंगे। इस समय तुम्हारे विषय में ही बात करेंगे। तुम कहो।”

“उन व्यक्तियों की अधम चेष्टा के कारण तथा मां के मन के भय के कारण में घर में ही थी।” एक गहन नि:स्वास लेकर गुल मौन हो गई। केशव ने मौन रहते हुए कुछ क्षण प्रतीक्षा की किंतु गुल शांत बैठी रही। 

गुल समुद्र के पानी को देख रही थी। पवन की कुछ लहरें आइँ, गुल के केशों को उसके गालों पर छोड़कर चली गई। वह अनिमेष समुद्र को देख रही थी। केशव उसे देख रहा था। गुल के मुख पर अल्प विषाद था। केशव ने उसे पढ़ लिया।

‘मुझे विषाद के इन क्षणो से गुल को निकालना होगा।मुझे कुछ करना होगा अन्यथा यदि यह विषाद प्रलंब चला तो…।’ 

कुछ क्षण विचार के पश्चात केशव बोला,“गुल तुम्हारे गालों पर तुम्हारे केश ने आसन जमा दिया है। उसे वहाँ से दूर करो।”

“क्यों?” गुल ने प्रतिक्रिया में पूछा।

“क्यों की मेरे और तुम्हारी आँखों के मध्य वह बाधा बनकर बैठ गए हैं। उसे वहाँ से हटाओ।”

गुल केशव की तरफ़ मूडी, “क्यों हटाऊँ मैं? नहीं हटाती हूँ जाओ।”

गुल के केशव की तरफ़ मुड़ते ही गाल पर के केश स्वतः हट गए।उसे देख केशव बोला, “अब इसकी आवश्यकता नहीं है क्यों कि तुम्हारे केश मेरी बात समज गए और स्वतः हट गए हैं।”

गुल ने उन केशों को देखा। वह अब उसके कंधे पर थे।

“यह केश भी ना, अब मेरी नहीं, तुम्हारी बात मानने लगे हैं।” गुल ने मिथ्या क्रोध को केशों पर उतारते हुए उसे पीछे धकेल दिया। 

“तुम्हारे इस रोष में भी एक सौंदर्य है, गुल।”

गुल हंस पड़ी। 

“केशव, मैंने तुम्हारे दो प्रश्नों के उत्तर दे दिए।”

“चलो मान लिया। बाक़ी के उत्तर कब मिलेंगे?”

“आज, इसी क्षण। कल का कोई विश्वास नहीं।”

केशव ने गुल को प्रश्न दृष्टि से देखा। 

“इतने दिनों तक मृत्यु के ओथार तले समय व्यतीत होता रहा। कल रात्रि निंद्रा से पूर्व मेरे मन ने विद्रोह कर दिया। किसी भी भय से विचलित नहीं होने की मन आज्ञा करने लगा। उसी अवस्था में मैं सो गई। ब्राह्म मुहूर्त में जाग गई। तब भी मेरा मन मुझे निर्भीक होने का आदेश दे रहा था। उसे मानते हुए मैं घर से बाहर निकल आइ। मैंने देखा कि समुद्र उसी अवस्था में था जिसमें वह सदैव होता है। वही गर्जना, वही लहरों का उठना, तट पर जाना, और वहीं स्वयं को समर्पित कर देना। मैं अनेक क्षणों तक लहरों के उस क्रम को देखती रही। उस क्रम में वह मुझे कुछ संकेत दे रही थी।”

“कौन सा संकेत? कैसा संकेत?”

“उस समय मैं उस संकेत को पकड़ नहीं सकी, समज नहीं सकी। तथापि मैं उसे देखती ही रही। कुछ समय व्यतीत होने पर भी जब मैं उस संकेत को पकड़ नहीं पाई तो मैंने समुद्र पर से हटाकर तट पर दृष्टि डाली। तट की भीगी रेत पर एक श्वेत पुंज व्याप्त था। मैंने उसे देखा। पश्चात अनायास ही मेरी दृष्टि गगन की तरफ़ गई। कृष्ण पक्ष की पंचमी का शशांक वहाँ विराजमान था। वह अपनी चाँदनी का शीतल वस्त्र धरती को ओढ़ाए विहार कर रहा था। वह चंद्र मुझे लुभाने लगा। आज से पूर्व कभी मैंने ऐसे समय ऐसे चंद्र को नहीं देखा था। वह प्रभात का समय अत्यंत भिन्न था। चाँदनी वाला प्रभात ! जैसे चाँदनी भरी रात्रि होती है-मनोहर, आकर्षक, मनभावन। वैसा ही प्रभात था वह। चाँदनी प्रभात! कदाचित चाँदनी रात्रि से भी अधिक सुंदर था चाँदनी प्रभात। 

मैं घर से निकलकर रेत पर आ गई। चाँदनी में डूबे तट पर बैठ गई। चाँदनी में नहा रहे समुद्र को देखती रही। एक अद्भुत, अनन्य एवं अनुपम अनुभूति हो रही थी मुझे। केशव, तुम सुन रहे हो ना मुझे?”

गुल ने केशव को देखा। वह अनिमेष नयनों से गुल को देख रहा था।अनिमेष कर्णों से सुन रहा था। 

“हाँ, गुल। तुम मुझे चाँदनी प्रभात में पुन: ले चलो। मैं तुम्हारे माध्यम से उस क्षण का अनुभव कर रहा हूँ, उस क्षण में स्वयं को पा रहा हूँ।”

“वह क्षण मेरे जीवन के अद्भुत क्षण थे। उससे अधिक मेरे पास कोई शब्द नहीं है। शब्द सौंदर्य को खंडित कर देते हैं। अतः मैं तो यही कहूँगी कि तुम भी कल चाँदनी प्रभात का अनुभव स्वयं करना। मैंने तुम्हें परोक्ष अनुभव करवाया। जब तुम उसका प्रत्यक्ष अनुभव करोगे तो तुम भी उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाओगे।”

“कल चंद्र होगा? चाँदनी होगी?” 

“केशव, तुम कुछ स्वगत बोले। क्या बोले?”

“उसे छोड़ो। तुम आगे कहो।”

“चाँदनी प्रभात का अनुभव कराते कराते चंद्र कुछ समय पश्चात, सूर्योदय से पूर्व अस्त हो गया। वहाँ, उस स्थान पर।” गुल ने चंद्रास्त बिंदु की तरफ़ अंगुलि निर्देश किया। केशव उस बिंदु को देखने लगा। 

“उस बिंदु पर?” 

“हाँ केशव, उस बिंदु पर।”

“वह बिंदु तो शिव मंदिर के ठीक पीछे है।”

“यही तो। भड़केश्वर महादेव मंदिर के पीछे चंद्र अस्त हो गया। किंतु वह मेरे मन में एक बात का उदय कर गया। उसके वहाँ अस्त होने पर मेरा ध्यान शिव मंदिर पर केंद्रित हो गया। उसने मुझे महादेव का स्मरण करा दिया।”

“अर्थात् इतने दिनों तुम महादेव का विस्मरण कर चुकी थी?”

“हाँ केशव, माया। इसे ही माया कहते हैं न?”

“सम्मुख हो तथापि उसका विस्मरण हो जाय तो उसे माया ही कहेंगे।”

“सुना है कि संकट के समय ही हम ईश्वर का अधिक स्मरण करते हैं तथा सुख में विस्मरण। किंतु यहाँ तो क्रम ही उल्टा हो गया। हम संकट में हैं इन दिनों तथापि हमें महादेव का स्मरण नहीं हुआ।माया का यह कैसा आचरण है, केशव?” 

“अब तो माया का आवरण हट चुका है ना गुल?”

“हाँ। मुझे शिव का स्मरण हो गया। तत्क्षण मैंने मेरा संकट उसे समर्पित कर दिया। और प्रार्थना भी की।”

“शिवजी ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली?”

“वह तो सुनता ही है, हम उसे बताने में चूक जाते हैं। मेरी प्रार्थना भी उसने सुन ली।”

“वाह।”

“मैं शिवजी की पताका को देखने लगी। सहसा वह चलित हो गई, लहराने लगी। मैं प्रसन्न हो गई, शिवजी का ध्यान करने लगी। तभी मेरे अधरों पर स्वतः यह मंत्र आ गया 

- ओम त्र्यम्बकं यजा मही सुगंधीं पुष्टि वर्धनं।

 उर्वा रुकमीव बंधनात मृतयोर मुक्षी यमाम मृतात।।”

“गुल, पुन: एक बार इस मंत्र का उच्चारण करो।”

“ओम त्र्यम्बकं यजा मही सुगंधीं पुष्टि वर्धनं।

उर्वा रुकमीव बंधनात मृतयोर मुक्षी यमाम मृतात।ल

महा मृत्युंजय के इस मंत्र में इतनी शक्ति है कि वह हम जैसे मनुष्यों को मृत्यु के भय से मुक्त कर देता है। है ना केशव?”

“सत्य वचन, गुल। तुम अब मृत्यु के भय से मुक्त हो गई हो।”

“यही कारण है कि आज में यहाँ आ सकी हूँ। अब मुझे मृत्यु से कोई भय नहीं।”

“गुल, तुमने तो मेरे बाक़ी प्रश्नों के उत्तर भी दे दिए।”

“तो चलो। भड़केश्वर महादेव के दर्शन कर आते हैं। तुम चल रहे हो ना मेरे साथ?”

केशव ने कुछ क्षण तक कोई प्रतिभाव नहीं दिया। 

“ठीक है, तुम नहीं आना चाहते हो तो कोई बात नहीं। मैं अकेली ही चली जाती हूँ।”

“गुल, क्षमा करना। इसी समय मुझे गुरुकुल में कुछ आवश्यक, अति आवश्यक कार्य करना है अतः मैं इस समय तुम्हारे साथ नहीं चल सकता। किंतु आज संध्या हम पुन: मिलेंगे। तब मुझे तुमसे अनेक बातें करनी है। तुम आओगी ना संध्या समय?”

केशव पर मौन दृष्टि डालकर गुल महादेव की तरफ़ चली गई।

गुल की उस दृष्टि के संकेत में ‘हाँ’ थी की ‘ना’ वह केशव निश्चित नहीं कर सका।वह गुरुकुल लौट गया।