द्वारावती - 48 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 48

48

पंद्रह दिन व्यतीत हो गए। घर से कोई बाहर नहीं गया। जब एक नए प्रभात ने अवनी पर प्रवेश किया तो गुल के पिता काम करने हेतु घर से जाने लगे। गुल की मां ने उसे रोका,“आप अभी भी कहीं नहीं जाएंगे।”
“किन्तु इस तरह यदि मैं काम पर नहीं गया तो घर कैसे चलेगा?”
“घर की चिंता न करो। अभी भी पंद्रह बीस दिनों तक चल सके इतना घर में सब कुछ है।”
“पंद्रह बीस दिनों के पश्चात क्या होगा? तब तो घर से निकलना होगा ना?”
“तब की बात तब सोचेंगे।”
“मृत्यु का भय तब भी बना ही रहेगा।”
“हमें आज की ही चिंता करनी होगी।”
“अर्थात हम मृत्यु को कुछ दिनों के लिए टाल रहे हैं। है न मां?”
“जिसे जो समझना हो समझे। मैं आप दोनों को कहीं जाने नहीं दूँगी।”
गुल के पिता रुक गए। गुल के मन में ग्लानि भर आई। 

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गुल से मिले एक महीने से अधिक समय व्यतीत हो गया था। केशव प्रतिदिन उसकी प्रतीक्षा करता, वह नहीं आती, केशव लौट जाता। इन दिनों में केशव के जीवन में परिवर्तन की पदध्वनि सुनाई देने लगी थी। परिवर्तन का यह समाचार गुल को सुनाने को वह उत्सुक था किन्तु वह समुद्र तट पर नहीं आती थी।
एक और नूतन प्रभात जन्म ले रहा था। सूर्योदय दूर क्षितिज में अपने समय की प्रतीक्षा कर रहा था। केशव समुद्र तट पर बैठा था। समुद्र की तरंगों की ध्वनि ध्यान से सुन रहा था। उस ध्वनि में उसे कुछ नाविन्य का अनुभव हो रहा था। उसकी कर्णप्रियता से आकृष्ट होकर वह समुद्र के समीप गया। तरंगों की ध्वनि के साथ उसकी क्रीडा का आनंद भी लेने लगा। उन लहरों में व्यग्रता थी, उत्साह था, उन्माद था, आतुरता थी, किसी के आगमन की। अत: चंचलता भी थी। लहरों को देखकर केशव के मन में प्रश्नों की लहरें उत्पन्न होने लगी। 
‘आज इन लहरों को क्या हो गया है? क्यों इतनी अधीर है? क्यों इतनी शीघ्रता में हैं? समुद्र आज क्या करने वाला है? क्या संकेत दे रही है यह तरंगें?’ वह विचारों में मग्न था तभी तरंगों की ध्वनि के साथ साथ उसे मंद मंद स्वरों में मनुष्य की ध्वनि सुनाई देने लगी। वह ध्वनि अस्पष्ट थी। केशव ने आँखें बंद कर उस मनुष्य ध्वनि पर ध्यान केंद्रित किया। ध्वनि समीप आ रही थी। धीरे धीरे स्पष्ट हो रही थी। 
“ओम त्र्यम्बकं यजा महे सुगंधीं पुष्टि वर्धनं।
उर्वा रुकमीव बंधनात मृतयोर मुक्षीयमाम मृतात।।”
“ओह, यह तो महा मृत्युंजय मंत्र है। इस स्थान पर, इस समय यह मंत्र? क्या कोई विपत्ति में है? कौन है जो स्वयं मृत्युंजय महादेव का स्मरण कर रहा है?” केशव ने उस मंत्र पर ध्यान दिया। पुन: पुन: वह मंत्र सुनाई दे रहा था। वह ध्वनि अत्यंत समीप या गया। उसने आँखें खोल उस मंत्रों को बोल रही व्यक्ति को देखने की मनसा की किन्तु शीघ्र ही मन ने उसे रोका। 
‘आँखें बंद रखो और उस अलौकिक ध्वनि की अनुभूति करते रहो। कितना दिव्य स्वर है! आँखें खोल दोगे तो इस आनंद को खो सकते हो।’ केशव ने मन के आदेश को माना। 
उसे केवल महा मृत्युंजय मंत्र ही सुनाई दे रहा था, अन्य कुछ भी नहीं। समुद्र की तरंगों की ध्वनि भी मंत्र की ध्वनि में समाहित हो गई। 
समय के एक बिन्दु पर मंत्रो का उच्चार सम्पन्न हो गया। केवल समुद्र की ध्वनि ही शेष रह गई। केशव का ध्यान योग भी सम्पन्न हो गया। उसने आँखें खोली। सम्मुख उसके गुल खड़ी थी। कुछ क्षण तक केशव विस्मय में डूबा रहा। पश्चात जब उसने गुल को देखा तभी सूर्य की प्रथम रश्मि गुल के मुख पर पड़ी। उसके मुख पर एक दिव्य आभा उभर आई। केशव उस आभा के सम्मोहन में लिप्त हो गया। गुल को अनिमेष नयनों से देखता रहा। गुल ने केशव की उस मुख मुद्रा को क्षणभर देखकर मौन तोड़ा।     
“केशव, केशव।” किन्तु केशव निरुत्तर रहा, निश्चल रहा। गुल ने पुन: कहा, “केशव, मैं गुल। तुम कहाँ हो? किस विश्व में हो? मुझे देखो, मेरी बात सुनो, मुझसे बात करो।” केशव ने तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 
गुल के पीछे अरबी समुद्र था। उसकी लहरें जन्म लेती थी, समाप्त हो जाती थी। मधुर ध्वनि का सर्जन कर रही थी। किन्तु केशव का ध्यान उन सभी क्रियाओं में से किसी पर भी न था। वह केवल गुल को ही देख रहा था।  
“केशव, ईस प्रकार खड़े हो तो तुम किसी पत्थर की प्रतिमा लग रहे हो। तुम पत्थर नहीं हो। तुम्हारे भीतर चेतन है, ऊर्जा है। तुम उस का संचार करो। इस ध्यान योग का अंत करो।” 
गुल का धैर्य टूट गया। उसने केशव का हाथ पकड़ लिया और उसे आंदोलित करने लगी। केशव किसी गहन मोह से जागा। आँखों के सम्मुख प्रस्तुत द्रश्य को समजने के प्रयास में वह उस द्रश्य के भीतर उतर गया। 
“गुल।” केशव बस एक ही शब्द बोल पाया। गुल ने केशव को शीला पर बीठा दिया और स्वयं उसके समीप बैठ गई। 
“गुल इन मंत्रों का उच्चार तुम कर रही थी ना ?” 
“हाँ। कोई संदेह?”
“नहीं। तुम आज इन मंत्रों को क्यों पढ़ रही थी? इसे पढ़ने का कोई विशेष प्रयोजन? तुम जानती हो यह मंत्र कौन सा है? इसका प्रभाव क्या है? कहाँ से सिख लिया यह मंत्र? यह मंत्र .. ।”
“रुको केशव। इतने सारे प्रश्न एक साथ पूछोगे तो मैं उत्तर भूल जाऊँगी और तुम प्रश्न ही भूल जाओगे।”
“तो मैं एक एक कर प्रश्न पूछता हूँ। तुम एक एक कर उत्तर देना।”
“तुम मुझे प्रश्न पूछो उससे पूर्व मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ। क्या मैं पहले पुछ लूँ?”
“मैं पहले क्यों नहीं? तुम ही पहले क्यों?” 
“क्यों कि यदि मैं तुम्हारे प्रश्नों में उलझ गई तो मैं मेरे प्रश्न ही नहीं, मैं स्वयं को भी भूल जाऊँगी। आज मैं कुछ भूलना नहीं चाहती। तो प्रथम प्रश्न मेरा और उत्तर तुम्हारा। स्वीकार है?”
“मेरे पास कोई विकल्प तुमने छोडा ही नहीं। चलो, तुम ही पूछ लो।”
“तुम मुझे देखकर किस जगत में चले गए थे? क्यों? तुमने ऐसा तो पूर्व में कभी नहीं किया। न ही मैं तुम्हारे समक्ष प्रथम बार प्रस्तुत हुई हूँ। यह कौन सा रहस्य है?”
“गुल, यह रहस्य नहीं चमत्कार है।”
“वह कैसे?”
“तुम्हारा मंत्र पठन अद्भुत था। तुम्हारे स्वर में एक जादू था, एक लय थी जिसमें मैं बह गया। तुम इतने दिनों के अंतराल के पश्चात मुझे मिल रही हो। तुम्हें इन दिनों की गणना ज्ञात भी है क्या? और उस पर यह मंत्र, मंत्र का इस प्रकार पठन। उपरांत उसके तुम्हारे मुख पर पड़ी सूर्य की प्रथम किरण। कितनी प्रबल आभा तुम्हारे मुख पर छाई है उससे तुम अनभिज्ञ हो। तुम उसे देखोगी तो चकित हो जाओगी। कदाचित स्वयं को ही अज्ञात लगने लगोगी। इस प्रवाह में मेरा खो जाना तुम्हें सहज नहीं लगता क्या?”
“ओह, यह बात है? अब तो मुझे मेरा मुख देखना है, अभी। कैसे देखूँ? कहां देखूँ? कोई दर्पण भी नहीं मेरे पास।”
“है ना, दर्पण है मेरे पास।”
“तो शीघ्र ही निकलो और मुझे दो। मैं मेरे मुख की आभा को देखने के लिए लालायित हो रही हूँ।”
“आओ मेरे साथ।”
केशव समुद्र की तरफ़ चलने लगा।
“कहाँ जा रहे हो ?”
“दर्पण दिखाता हूँ। आओ, मेरे साथ चलो।”
केशव समुद्र के भीतर गया। गुल भी। 
“इस में देखो। स्वयं के मुख को, मुख की आभा को देखो। उससे उत्तम दर्पण और कौन सा होगा?”
गुल ने समुद्र के पानी में स्वयं को देखने की चेष्टा की। कुछ क्षण पश्चात बोली,“यह दर्पण उपयुक्त नहीं है। मुझे कोई अन्य दर्पण दिखाओ।”
“इस दर्पण से कोई समस्या है?”
“केशव, यदि हमें अपना प्रतिबिम्ब देखना हो तो ऐसा दर्पण चाहिए जो स्थिर हो, स्पष्ट हो। अस्थिर दर्पण कभी स्वच्छ या स्थिर प्रतिबिम्ब नहीं दिखा सकता।”
“अर्थात् ?”
“यह समुद्र के पानी को देखो। निरंतर बहता रहता है। अस्थिर एवं चंचल रहता है। इसमें मैं अपनी मुखाकृति को देख ही नहीं सकती। यह दर्पण मेरी मुखाकृति का प्रतिबिम्ब रॉक नहीं पा रहा है। ऐसे में मेरे प्रतिबिम्ब को कैसे देखूँ?”
“तो अब क्या करें?” केशव ने चिंता प्रकट की। 
गुल ने चारों तरफ़ देखा, कुछ सोचा।बोली, “आओ, मैं तुम्हें दर्पण दिखाती हूँ। वह स्थिर है, स्वच्छ है, स्पष्ट भी है।”
गुल निकट ही स्थित कन्दरा पर चड गई। 
“इस कन्दरा को देखो। यहाँ पानी भरा हुआ है जो समुद्र की वेला के समय आकर यहाँ ठहर गया है। इसे समुद्र की चंचल लहरें विचलित नहीं कर सकती।”
केशव ने उस पानी को देखा। स्वयं के प्रतिबिम्ब को देखा। स्थिर, स्वच्छ एवं स्पष्ट प्रतिबिम्ब। 
“अरे वाह। यह दर्पण अच्छा है।”
“यही तो केशव।”
“गुल, तुम भी आओ, देखो अपना प्रतिबिम्ब।”
गुल ने स्वयं के प्रतिबिम्ब को देखा।
”केशव, मेरे मुख पर कोई आभा नहीं दिख रही। सब कुछ सामान्य है, पूर्ववत है।”
केशव ने गुल के मुख को देखा।
“हाँ गुल। तुम सत्य कह रही हो।वह आभा जो अभी तक तो यहीं थी वह न जाने कहाँ लुप्त हो गई?”
“केशव, तुम मेरे साथ उपहास कर रहे हो ना?”
“नहीं गुल, मेरा ऐसा कोई तात्पर्य नहीं है।”
“तो मुझे वह आभा का दर्शन कराओ जिस आभा में तुम कहीं खो गए थे।”
“वह आभा तुम्हारे मुख पर पड़ रहे सूर्योदय के कोमल किरणों के कारण थी। अब यहाँ सूर्य किरणें नहीं है तो आभा भी नहीं है।”
“यह आभा भी ना…।”
“अत्यंत चंचल होती है।क्षणभर में वह कहीं चली जाती है और हम उसे जीवन भर खोजते रहते हैं।”
केशव की इस बात पर दोनों हंस पड़े। कन्दरा को त्याग पुन: तट पर आ गए।