द्वारावती - 25 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 25

25


नए प्रभात की सुगंध की अनुभूति करते हुए केशव गुरुकुल से समुद्र की तरफ़ जा रहा था। सूर्योदय के साथ जो अनुभूति कल हुई थी उस रस का पान वह आज भी करना चाहता था। वह प्रसन्न था। सूर्योदय की अनेक आशाएँ, अपेक्षाएँ लिए वह कन्दरा के समीप आ गया। अंधकार अभी भी अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहा था। क्षण प्रति क्षण वह परास्त होता जा रहा था। किंतु अभी भी प्रकाश ने उस पर विजय प्राप्त नहीं की थी।
वह अपने निश्चित स्थान पर, शिला पर आसन ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ा, किंतु ठहर गया। उस शिला पर कोई बैठा था। कोई मानव आकृति वहाँ पहले से ही स्थान ग्रहण कर चुकी थी। उसने स्वयं को रोका। प्रकाश इतना नहीं था कि वह आकृति को पहचान सके। उसने ऐसा प्रयास भी नहीं किया। उस आकृति की स्थिति में व्यवधान किए बिना ही वह दूर चला गया। किसी दूसरी कन्दरा पर जाकर सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा।
समय अपनी स्वाभाविक गति से चलता रहा। पूर्व में सूर्योदय हो गया। अपने साथ सूर्य अनेक विषय, अनेक आनंद, अनेक सम्भावनाओं, अनेक आशाओं, अनेक अपेक्षाओं तथा अनेक अनुभूति को लेकर आया।
केशव ने उस अनुभूति का आनंद लेने का प्रयास किया। कुछ सीमा तक उसे वह प्रसन्नता भी मिली। किंतु वह आज की अनुभूति से संतुष्ट नहीं था।
सूर्य जब पूर्ण रूप से उदय हो गया तो केशव ने उस कन्दरा की शिला पर बैठी आकृति की तरफ़ देखा। वह शिला रिक्त थी। उस आसन पर कोई नहीं था।
‘उस शिला पर कोई तो था। एक आकृति को मैंने अवश्य ही देखा था। तो कहाँ गई वह आकृति?’
‘केशव, वह तुम्हारा भ्रम भी हो सकता है। हो सकता है कि वहाँ कोई था ही नहीं। तुम्हारे मन में कोई आकृति थी और तुम अंधकार में उसी आकृति को उस शिला पर देखने लगे हो। हो सकता है इसी कारण तुम्हें भ्रम हो गया हो।’
‘नहीं। भ्रम का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता यहाँ। अंधकार कितना भी गहन हो मैं मेरी इस शिला को देखने में भूल नहीं कर सकता।’
‘तुम्हारी शिला?’
‘हां, मेरी शिला। वह शिला मेरी ही है। मैं कितने समय से उस पर बैठता हूँ। मेरे उपरांत वहाँ अन्य कोई नहीं बैठता इतने समय से। तो वह मेरी ही हुई ना?’
“केशव, यह मेरा है ऐसे भ्रम में हमें नहीं रहना चाहिए।”
गुल के शब्दों ने केशव को अचंभित कर दिया।
“गुल, तुम? और तुमने मेरे मन के भीतर चल रहे द्वन्द को कैसे सुन लिया?”
“हां, केशव मैं। तुम्हारे भीतर चल रहे संवाद को मैंने सुन लिया। क्यूँकि कभी कभी हमारे भीतर चलते संघर्ष की ध्वनि इतनी तीव्र होती है कि हमारे उपरांत अन्य कोई भी उसे सुन लेता है। इसमें आश्चर्य करने की कोई बात ही नहीं है, केशव।”
केशव गुल के मुख को देखता रहा। केशव के मुख पर अनेक विस्मय नृत्य कर रहे थे। वह दुविधा में था।
“केशव, क्या बात है? इतने सारे विषय को अपने मुख पर पहने हुए हो। किस दुविधा में हो?”
“कल जब तुम जा रही थी तब मेरे पास एक प्रश्न था।”
“तो पूछ डालो उसे। किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो?”
“किंतु अब मेरे पास कुछ अन्य प्रश्न भी है।”
“यदि मेरे वश में होगा तो मैं उसके उत्तर दूँगी”
“यदि नहीं होगा तो क्या करोगी?”
“तो मुझे मौन ही रहना होगा। यही उचित होगा ना, केशव?”
“कदाचित यही उत्तम मार्ग है।”
“तो पूछ लो, केशव।”
“कल ही मेरे मन में प्रश्न था कि कई दिवसों से मैं देख रहा हूँ, तुम्हारी भाषा, भाषा में प्रयोग होते शब्द कुछ भिन्न ही है। जब हम प्रथम बार मिले थे तब जो भाषा तुम बोल रही थी वह सामान्य व्यक्ति की भाषा थी। किंतु अब तुम जो भाषा बोल रही हो वह ....।”
“वह भाषा गुरुकुल की भाषा है, यही ना?”
“तुम तो गुरुकुल नहीं आती। तो यह भाषा?”
“केशव तुम भूल रहे हो। यह सत्य है कि मैं तो गुरुकुल नहीं आती। किंतु गुरुकुल स्वयं ही मेरे पास आता है।”
“वह कैसे?”
“कितना सरल है इसका उत्तर !”
“कभी कभी मैं सरल बातों से अनभिज्ञ हो जाता हूँ।”
“मैं तुम्हारा उससे परिचय करवा देती हूँ, केशव। विगत अनेक दिवसों से मेरे अब्बू, क्या कहते हो तुम्हारी गुरुकुल की भाषा में उसे? तात। हैं ना? आप उसे तात ही कहते हो ना?”
“हां, पिता को तात ही कहते हैं।”
“मेरे तात श्री गुरुकुल आते हैं। गुरुकुल में रहकर वह सबको सुनते हैं। तुम्हें तो ज्ञात है कि गुरुकुल में जिस स्थान पर मेरे तात श्री कार्य करते हैं वहाँ गुरु के शब्द, विद्यार्थी के शब्द अनायास ही कानों पर सुनाई देते हैं। वह उसे सुनते हैं, समजने का प्रयास करते हैं। उसे याद रखते हैं। जब घर आते हैं तब वह गुरुकुल की सभी बातें मुझे कहते हैं। मैं उसे ध्यान से सुनती हूँ। उनके शब्दों को सुनती हूँ, उसके अर्थों के विषय में तात से पूछती हूँ। वह मेरे प्रश्नों के उत्तर देते हैं।”
“यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।”
“सोचा तो तुमने यह भी नहीं है कि तुम जिसे प्रतिदिन मिलते हो वह तुमसे भी कुछ सिख सकती है।”
“तो क्या तुम मुझसे भी ...?”
“इसमें आश्चर्य क्यूँ हो रहा है?”
“तो क्या इस प्रकार कोई मनुष्य सिख सकता है?”
“क्यूँ नहीं? मनुष्य चाहे तो किसी से भी, कहीं भी, किसी भी रूप में सिख सकता है। सीखने के लिए सबसे उत्तम माध्यम श्रवण है। आप भी ऐसे ही सीखते हो ना, गुरुकुल में। तात तो कहते थे कि यह सुनते हुए सीखने की पद्धति तो युगों से चली आ रही है। वेद, शास्त्र, पुराण आदि इसी परम्परा से सिखाए जाते हैं।”
“यह तो आश्चर्य की बात है कि मुझसे भी कोई सिख लेता है। यह सत्य है की वेदों के ज्ञान की परम्परा श्रुति तथा स्मृति की ही रही है। तुम्हें तो इतना सारा ज्ञान है। मैं तो यही समझ रहा था कि...।”
“गुल नाम की एक कन्या केवल समुद्र के तट पर विचरने को ही आती है। उसे इस मंत्रों में, इस ज्ञान में कोई रुचि नहीं है। वह तो बस मदरसा जाती है, वहाँ जो कुछ सिखाया जाता है वह सीखती होगी। गुरुकुल का ज्ञान, शास्त्रों का ज्ञान उसके लिए नहीं है।”
“तुम्हारे भीतर ज्ञान की इतनी तीव्र तृषा होगी उसका मुझे कभी ज्ञान ही नहीं हुआ। मैं इसके लिए दोषी हूँ।”
“इसमें किसीका भी दोष नहीं है। मुझे भी यह ज्ञात नहीं रहा कि कब मुझे इन बातों में रुचि होने लगी, कब मेरी भाषा अनायास ही बदल गई। यह परिवर्तन स्वयं ही हो गया। यह तो संगति का प्रभाव है केशव।”
“तुम्हारे इस नए रूप का स्वागत करता हूँ।”
“धन्यवाद केशव। तुम्हें अभी एक अन्य रूप का भी स्वागत करना होगा।”
“अब कौन सा अन्य रूप है?”
“वही रूप जिसे तुम उस शिला पर ढूँढ रहे हो।”
“उस शिला पर? वहाँ एक आकृति थी जब मैं यहाँ आया था। उस शिला पर जो मेरा आसन रहा है सदा से, उस पर वह आकृति बैठी थी।”
“उस समय गहन अंधकार था। तो तुमने उसे वहीं बैठे रहने दिया। तुमने उसे वहाँ से उठाया नहीं।”
“ऐसा मैं कैसे कर सकता हूँ? वह शीला पर मैं सदैव बैठता अवश्य ही हूँ किंतु वह मेरी सम्पत्ति नहीं है। वह आकृति मेरे आने से पूर्व ही वहाँ स्थान ग्रहण कर चुकी थी। वह किसी अवस्था में स्थिर थी। मैं उसकी उस स्थिति में व्यवधान नहीं डालना चाहता था। तो मैं यहाँ इस शिला पर बैठ गया। किंतु वह आकृति अब वहाँ नहीं है। कहाँ गई वह आकृति?”
“वह तुम्हारे सम्मुख ही है केशव।”
“मेरे सम्मुख तो तुम हो। तो क्या...?”
“वह आकृति मैं ही थी।”
“तुम थी वहाँ? मैं तो समझा कि कोई अन्य व्यक्ति, कोई अज्ञात यात्रिक़ वहाँ है।”
“क्या तुम्हें यह ज्ञात होता कि वह व्यक्ति मैं हूँ, गुल है, तो भी तुम उस अवस्था में व्यवधान नहीं डालते?”
“कदाचित नहीं। कदाचित हां।”
“हां अथवा ना?”
“दोनों सत्य है अथवा दोनों मिथ्या है। अथवा एक सत्य है, एक मिथ्या है। यह सब छोडो, गुल। यह बताओ कि इतने सवेरे सवेरे तुम क्यूँ आयी थी? और यही शिला पर क्यूँ बैठ गई थी? तुम कहीं अन्य स्थान पर भी...।”
“अन्य स्थान पर भी बैठ सकती थी किंतु हो सकता है कि उस स्थान पर तुम्हारा ध्यान जाए ही नहीं।”
“किंतु आने का प्रयोजन तो कहो।”
“कल तुमने कहा था कि सूर्योदय के साथ आने वाला प्रभात अपने साथ कितनी सारी बातें लेकर आता है। और तुमने यह भी कहा था कि उसे शब्दों में वर्णित करने से अच्छा होगा कि स्वयं उसकी अनुभूति करें। बस यही अनुभूति के लिए मैं सूर्योदय से पूर्व चली आयी।”
“मेरे आने से ही पूर्व चली आइ। सूर्योदय की इस अनुभूति के लिए तुम्हारी इस उत्कंठा को मेरा वंदन।” केशव ने दो हाथ जोड़ गुल को वंदन किया।
“गुल, तुमने आज सूर्योदय देखा क्या? उसकी अनुभूति की?”
“हां केशव। मैंने सूर्य को उदय होते हुए देखा। आकाश के बदलते रंगों को देखा। अंधकार से प्रकाश होते हुए देखा। सूर्योदय की अनुभूति को देखा। उसे मेरे भीतर मैंने बंद कर लिया है।”
“तो इस अनुभूति से तुम प्रसन्न हो।”
“पूर्ण रूप से प्रसन्न हूँ।”
“किंतु आज की अनुभूति से मैं प्रसन्न नहीं हूँ।” केशव ने एक दीर्घ श्वास लिया।
“ऐसा क्यूँ हुआ? क्या तुम अपनी शिला पर किसी अन्य को देखकर उस विचार में खो तो नहीं गए थे? क्या तुम उस बात से विचलित थे?”
“नहीं गुल। ऐसी बातों से विचलित नहीं होता हूँ मैं। किंतु कल जो अनुभूति हुई थी ऐसी अनुभूति आज नहीं हो सकी।”
केशव मौन हो गया। गुल विचार में पड़ गई। एक प्रलंब विचार के पश्चात गुल बोली।
“कल जो अनुभूति हुई थी वह सहज थी, अनायास थी। आज तुमने उसे प्रयत्न पूर्वक प्राप्त करने की चेष्टा की है। तो आज की इस अनुभूति की कक्षा कल की उस अनुभूति की कक्षा से उच्च तो नहीं हो सकती। तुम अपेक्षाएँ लेकर चले थे। उस अपेक्षा से वास्तविकता की तुलना करने लगे। जब तुलना होती है तो निराशा ही होती है। तुम्हें यह तुलना के पाप से बचना था।
प्रत्येक प्रभात अपने साथ कुछ नूतन बात लेकर आता है। वही नाविन्य ही हमारे आकर्षण का कारण होता है। यदि यह नवीनता ही नहीं रही तो प्रकृति एकविधता में बंध जाएगी। एकविधता में कभी सौंदर्य नहीं होता। प्रकृति को किसी अपेक्षा विहीन ही देखो। किसी तुलना से परे रखो। एकविधता से मुक्त रखो। यही इसका वास्तविक सौंदर्य है।”
गुल के मुख पर स्मित था। वह सूर्य को देख रही थी। केशव उसे देख रहा था।
“केशव इस सूर्य को देखो। वह तो प्रति दिन ही अपनी झोली में कितना कुछ लेकर आता है? किंतु मनुष्य उस के प्रति ध्यान ही नहीं देता। वह तो बस उलझा रहता है अपनी ही समस्याओं में, अपने ही विचारों में, अपनी ही चिंताओं में।”
“तो क्या तुम उस अनुपम सौंदर्य का पान कर सकी?”
“हां, यही तो मेरा उद्देश्य था। मैंने उस रस का अमृत पान किया है आज।”
“तो वह कैसा था? वर्णन कर मुझे बताओ।”
“नहीं केशव। तुम्हारा कहना सत्य था कि ऐसे सौंदर्य का पान ही होता है, वर्णन नहीं होता। मैं इस सीमित से असीमित को व्यक्त नहीं कर सकती।” गुल के अधरों पर मोहक स्मित था।
उस स्मित को साथ लिए गुल घर चली गई, रेत पर अपने पदचिह्नों को अंकित करती हुई। देर तक केशव उन पदचिन्हों को देखता रहा। आज समुद्र की लहरों ने उसे मिटाने की चेष्टा नहीं की।