द्वारावती - 26 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 26





26

केशव जब शिला के समीप पहुँचा तब गुल उस शिला पर बैठी थी। आज केशव ने उसे आकृति नहीं माना।
“केशव, तुम्हें आज भी इस शिला पर बैठने का अवसर नहीं मिलेगा।”
“तो क्या?”
“तुम नीचे कन्दरा में जाओ। मैंने तुम्हें कहा था ना कि कंदरा में रहकर तुम यदि उन मंत्रों को सुनोगे जो इस शिला पर बैठ कर कोई उच्चार करता है तो वह एक अद्भुत अनुभव होता है। मैंने उस अनुभव को प्राप्त किया है। मैंने तुम्हें वचन दिया था कि एक दिवस मैं यहाँ से मंत्रों का गान करूँगी और तुम इस कन्दरा में जाकर उसे सुनोगे। तुम्हें इस बात का स्मरण है ना?”
“मुझे स्मरण है।”
“तो जाओ, कन्दरा में जाओ। मेरे मंत्रों के गान का आनंद लो।”
“किंतु, गुल तुम ....।”
“क्या ? किंतु क्या?”
“तुम्हें मंत्र आते हैं, किंतु उनके उच्चार का एक नियम होता है। क्या तुम इस नियम से परिचित हो? यदि हम मंत्रों के शुद्ध उच्चार नहीं करते तो मंत्रों के अर्थ बदल जाते हैं। और ऐसा करना मंत्रों का ...।” “मैंने जो कुछ भी सिखा है तुमसे ही सिखा है। तुम्हारी शिक्षा में जो होगा वही मैं प्रकट करूँगी।”
“किंतु तुम मुझे यह सुनाना क्यूँ चाहती हो?”
“इस के दो लाभ है। एक, तुम कन्दरा में उठते इस ध्वनि तथा प्रतिध्वनि से परिचित होंगे। दूसरा, तुम्हें भी यह समझने का अवसर मिलेगा कि तुम जो उच्चार कर रहे हो, मंत्र गान कर रहे हो वह कितना शुद्ध है। क्यूँ कि मेरा मंत्र गान तुम्हारे ही गान का प्रतिध्वनि होगा। इस प्रकार तुम अपनी ही शिक्षा की कसौटी भी कर सकोगे। यदि आवश्यक हुआ तो सुधार भी कर लोगे।”
“बात तो तुम ठीक कर रही हो। मैं अभी जाता हूँ कन्दरा के भीतर।” केशव चला गया।
गुल ने प्रथम ओम् के नाद का उच्चारण किया। वह अविरत ओम् का जाप करती रही। भीतर कन्दरा के, केशव उसे सुनता रहा। शिला से उठता ध्वनि कन्दरा के भीतर प्रवेश करते हुए प्रतिध्वनित होने लगा। एक एक नाद शुद्ध था, सुंदर था, मधुर था। सुनते सुनते केशव उसमें मग्न हो गया। उसने आँखें बंध कर ली। उस ध्वनि-प्रतिध्वनि से रचित मधुर सृष्टि में स्वयं को डुबो दिया। जैसे वह किसी समाधि में हो। उस नाद के गुंजन ने उसे अलौकिक आनंद प्रदान किया।
पश्चात कुछ समय के, गुल ने ओम् के नाद का जाप सम्पन्न किया। वह कन्दरा के भीतर गई। वहाँ अभी भी नाद का प्रतिध्वनि सुनाई दे रहा था। उसने देखा कि केशव नेत्र बंद किए बैठा है। वह उसे देखती रही। धीरे धीरे प्रतिध्वनि शांत हो गया। केशव ने आँखें खोली। सम्मुख गुल को पाया।
“तुम यहाँ?” केशव के मुख पर विस्मय था।
“हां मैं। तुम्हें कैसा लगा मेरा मंत्र नाद? कहीं कोई त्रुटि हो तो कहो।”
“त्रुटि तो कुछ नहीं है। किंतु यह कहो कि तुम यहाँ थी तो वह नाद कौन कर रहा था?”
“वह नाद मेरा ही था। तुम जो सुन रहे थे वह विज्ञान के कारण था। वेदों के उपरांत विज्ञान भी ज्ञान ही होता है।”
“विज्ञान मैंने भी सिखा है। बस आज परख भी हो गई। अब ओम् के नाद के अतिरिक्त कौन से मंत्र का जाप करोगी?”
“अब मैं जो मंत्र का जाप करूँगी उसे ध्यान से सुनना। सूर्य का उदय होने जा रहा है। तुम यहीं बैठ कर सुनो।” गुल शीघ्रता से कंदरा छोड़ कर शिला पर बैठ गई।
गुल ने अपने मधुर कंठ से मंत्रोच्चार प्रारम्भ किया –
ऊँ ऐही सूर्यदेव सहस्त्रांशो तेजो राशि जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहणार्ध्य दिवाकर:।।
ऊँ सूर्याय नम:,
ऊँ आदित्याय नम:,
ऊँ नमो भास्कराय नम:।
गुल ने पाँच बार इस मंत्र का जाप किया। ध्वनि से प्रतिध्वनि होते हुए वह केशव ने सुना। अनेक बार उसकी प्रतिध्वनि कन्दरा में केशव को सुनाई देती रही। धीरे धीरे उसका शमन हो गया। गुल कन्दरा के भीतर आ गई।
“मेरे इस मंत्र गान में कोई त्रुटि तो नहीं थी, गुरु जी।”
“नहीं, कोई त्रुटि नहीं थी। तुम तो पूर्ण शुद्ध रूप से मंत्र गान करती हो। इतना शुद्ध मत्रोच्चर तो हमारे कई सहपाठी भी नहीं कर सकते जो गुरुकुल में अध्ययन करते हैं, कुलपति जी के मुख से सुनते रहते हैं।”
“इसमें चकित होने की बात नहीं है, केशव। मैं तुमसे सुनकर सिख गई। तुम्हारे मंत्र यदि अशुद्ध होते तो मेरे मंत्र भी शुद्ध नहीं होते।”
“इस मंत्र के उपरांत अन्य कौन सा मंत्र सिखा है तुमने?”
“तुम ओम् जाप के पश्चात यही मंत्र बोलते हो, इस शिला पर बैठ कर। मुझे इसके उपरांत कुछ नहीं आता। इसके उपरांत कितने मंत्र होते हैं सिखने के लिए?”
“संस्कृत ग्रंथों में असंख्य मंत्र है।”
“तो तुम्हें वह सब मंत्र आते हैं? मुझे भी सिखाओ ना वह सब।”
“मुझे अनेक मंत्र आते हैं। किंतु वह केवल अगाध समुद्र की एक बुंद जितने ही हैं। गुरुजी कहते हैं कि यदि कोई मनुष्य जीवनभर इन मंत्रों को सिखने की चेष्टा करता रहे तो भी वह सभी मंत्र नहीं सिख सकता।”
“मुझे उस अगाध समुद्र के एक बिंदु से क्या क्या सिखा सकते हो?”
“तुम्हें इन मंत्रों में रुचि है, मुझे इस बात का कभी ध्यान ही नहीं रहा। तुम सदैव मंत्र को गीत कहा करती थी। यह मेरा दोष है कि मैं तुम्हारी इस पिपासा को समझ नहीं सका।”
“स्वयं को दोष ना दो, केशव। दोष तो मेरा भी है कि मैंने कभी मेरी इस इच्छा को प्रकट ही नहीं किया। मैं मंत्र तथा गीत का भेद नहीं समझ सकती थी। किंतु मेरे तात ने मुझे वह बताया तब से मेरी रुचि मंत्र सिखने में जाग गई। तभी से मैंने इस कन्दरा में रहकर तुमसे एक मंत्र सिख लिया। क्या तुम मुझे मंत्र सिखाओगे?”
“मैं गुरु तो नहीं ही किंतु मैं प्रयास करूँगा।”
“तुमने मुझे प्रसन्न कर दिया, केशव।” केशव ने गुल के मुख मण्डल पर उन रेखाओं को देखा। केशव ने स्मित दिया, गुल ने भी।
“केशव, मेरी इन बातों में मैं यह भूल ही गई कि तुम्हें कंदरा के भीतर प्रतिध्वनि सुनकर कैसी प्रसन्नता मिली?”
“प्रसन्नता? नहीं तो।”
“तो क्या मेरा मंत्र गान इतना कर्कश था?”
“मेरा तात्पर्य यह नहीं था।”
“तो तुम मेरे मंत्र को सुनकर प्रसन्न क्यूँ नहीं हुए?”
“मेरा पूरा ध्यान तुम्हारे मंत्रों की शुद्धि -अशुद्धि पर था। ऐसे में मैं मंत्रों की प्रतिध्वनि से रचित संगीत का आनंद लेना भूल गया।”
“तो मैं ऊपर जाती हूँ, पुन: मंत्रोच्चार करती हूँ।”
“नहीं, अभी नहीं। अभी तो इस कंदरा को देखो। ईसकी संरचना देखो। अपने आप स्वयं इसमें एक सौंदर्य का सर्जन हुआ है। यह एक तरह से तो पाषाण ही है। किंतु इस पाषाण में भी इतना सौंदर्य, इतना लावण्य है जो मुझे आकर्षित कर रहा है। मुझे इसे ध्यान से देखना है। मुझे इस पूरी कन्दरा को देखना है।”
केशव कन्दरा के भीतर जाने लगा।
“केशव, रुको।”
“तुम भी मेरे साथ चल रही हो, गुल? चलो आ जाओ।”
“नहीं, मैं नहीं आ रही हूँ। तुम्हें भी जाने से रोक रही हूँ।”
“क्यूँ?” प्रश्न को लेकर केशव गुल के सम्मुख खड़ा हो गया।
“केशव, तुम भी ना, इतने वर्षों से समुद्र के तट पर रहते हो किंतु समुद्र को ज्ञात नहीं कर सके। समुद्र के व्यक्तित्व को समझा नहीं है तुमने।”
“क्या तात्पर्य है तुम्हारा?”
“अभी समुद्र के पानी को देखो। धीरे धीरे वह बढ़ रहा है। समुद्रवेला का समय हो रहा है। समुद्रवेला के समय समुद्र का यह पानी इस कन्दरा को भर देता है। जब तक समुद्रवेला रहती है, तब तक ना तो कोई इस कन्दरा के भीतर जा सकता है ना ही कोई भीतर से बाहर आ सकता है। वह समुद्र जल कन्दरा के भीतर तक जाता है। तुम्हें ज्ञात है कि यह कन्दरा कितनी गहन है? सुना है यह अत्यंत गहन है। इसका अंत ही नहीं। कहीं हम इसके भीतर रहे तो भीतर ही रह जाएँगे। इस अंतहीन कन्दरा में अभी जाना उचित नहीं होगा। हमें लौट जाना होगा।”
“क्या वास्तव में यह कन्दरा अंतहीन है? तभी तो मुझे इसके अंत तक जाना ही होगा। मैं तो चला। तुम्हें आना हो तो आ सकती हो, जाना चाहो तो जा सकती हो।”
केशव कन्दरा के भीतर जाने लगा। गुल दौड़ती हुई केशव के मार्ग में जाकर खड़ी हो गई।
“मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी। मेरी बात मान लो।” गुल केशव के मार्ग को रोके खड़ी हो गई।
“तुम मेरा मार्ग क्यूँ रोक रही हो? मुझे तो जाने दो।”
“केशव, यह कन्दरा में आगे गहन अंधकार हो जाएगा। हो सकता है हवा भी ना मिले। ऊपर से, भीतर अनेक समुद्र जीव भी रहते होंगे। कोई जीव-जंतु तुम्हें दंश दे सकता है। तुम्हें कुछ भी हो सकता है। क्यूँ इन छोटी छोटी बातों को तुम समझ नहीं रहे हो? क्यूँ स्वयं को नष्ट करने की जिद लिए हो?”
केशव गुल की बातें सुनकर रुक गया। कुछ क्षण विचार कर बोला, “ठीक है। तुम कहती हो तो मैं रुक जाता हूँ। चलो, हम लौट जाते हैं।”
केशव लौटने लगा। गुल भी उसके पीछे लौट गई।