द्वारावती - 61 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 61


61

केशव के जाने की सज्जता में पूरा दिन व्यतीत हो गया। गुल इस प्रत्येक सज्जता में केशव के साथ रही। प्रत्येक क्षण उसने केशव के साथ जिए। उन क्षणों में उसे किसी चिंता का अनुभव नहीं हुआ। पूरे उत्साह से वह सज्जता करती रही। रात्रि को सज्जता पूर्ण होने पर संतोष के साथ वह सो गई। केशव रात्रि भर गुल के समीप बैठा जागता रहा।
ब्राह्म मुहूर्त में केशव कक्ष से बाहर आ गया, समुद्र में तारा स्नान किया और प्रातः कर्म से निवृत हो गया। गुल विलम्ब से जगी। तब तक गुरुकुल अपने नित्य कर्म से निवृत हो चुका था। केशव के साथ गुरुकुल भी विदाई के लिए सज्ज हो गया जिसमें अभी कुछ समय शेष था। 
“केशव इस शेष समय में हम महादेव के दर्शन कर आते हैं।”
दोनों ने महादेव भड़केश्वर के दर्शन किए, आशीर्वाद प्राप्त किए। लौटकर तट पर आते ही केशव ने समुद्र को वंदन किया।दोनों कुछ चरण साथ चले, मौन रेत पर।दोनों एक दूसरे के स्पंदनों को सुनते रहे।
वैसे तो उस समय वहाँ सुनने के लिए समुद्र की ध्वनि, बहते समीर की ध्वनि, महादेव की ध्वजा की ध्वनि, चंचल पंखियों की ध्वनि, चलते चरणों की ध्वनि, समुद्र में चल रही नौका की ध्वनि आदि थी किंतु दोनों ने उसमें से किसी की ध्वनि को नहीं सुना। सुना तो केवल स्पंदनों को।
“केशव,यह हमारा अंतिम मिलन है क्या?” 
शीतल पवन में चलते चलते एक गहन श्वास के साथ केशव ने कहा,”प्रत्येक मिलन सदैव अंतिम मिलन होता है।”
“प्रत्येक वियोग भी तो अंतिम वियोग ही होता है, केशव।”
“प्रत्येक मिलन अपने साथ वियोग को निश्चय ही लाता है। किंतु प्रत्येक वियोग के साथ मिलन का आना निश्चित नहीं होता है।”
“किंतु मिलन की आशा, अपेक्षा तो लाता ही है यह वियोग।”
“कदाचित। काल के गर्भ में क्या है उसे कोई नहीं जानता, मैं भी नहीं। मैं तो केवल इसी क्षण, जो मेरे सम्मुख है उसी पर विचार करता हूँ।मैं उसी में जीता हूँ।”
“मैं भविष्य के मिलन की क्षणों की प्रतीक्षा में जीती रहूँगी। मैं उन क्षणों की प्रतीक्षा करूँगी क्यों कि मैं प्रतीक्षा करना जानती हूँ। मुझे अनुभव है उसका।”
“तुम्हारा यह विश्वास प्रबल है। ईश्वर यह विश्वास को बनाए रखे। किंतु जाने से पूर्व मैं तुम्हें एक भेंट देना चाहता हूँ।”
“वियोग ही भेंट है। मुझे अन्य भेंट की क्या …?”
“गुल, मैं तुम्हारे कटाक्ष को समजता हूँ। किंतु यह समय कटाक्ष का नहीं है। मैं जो तुम्हें देनेवाला हूँ वह अमूल्य है। तुम आँखें बंद करो।”
गुल ने आँखें बंद कर ली।
“अब दोनों हथेलियों को सामने धरो।” गुल ने वैसा ही किया। 
केशव ने गुल की हथेलियों पर कुछ रख दिया।
“अब आँखें खोलो।”
गुल ने आँखें खोली। हथेलियों को देखते ही बोल पड़ी, “यह बांसुरी? मेरे लिए?”
“हाँ गुल।”
“किंतु मुझे तो इसे बजाना नहीं आता। तुमने कभी सिखाया ही नहीं। क्यों नहीं सिखाया, केशव?” 
“इस क्यों का कोई समाधान नहीं हैं मेरे पास। किंतु यह बांसुरी सदैव तुम्हें मेरी उपस्थिति का अनुभव कराती रहेगी।”
“धन्यवाद, केशव। अब तुम्हारे गमन का समय हो गया है। हमें लौटना होगा।”
दोनों लौट गए।
समय पर केशव जाने लगा। सभी ने उसे उचित विदाई दी। गुल ने संकेतों से, मुख की मुद्राओं से, मुख के भावों से तथा स्मित से विदाई दी। 
केशव के जाते ही गुरुकुल अपने कार्यों में व्यस्त हो गया। गुल कक्ष में गई, गवाक्ष से उस स्थान को देखती रही जहां से अभी अभी केशव ने विदाई ली थी। केशव के पदचिह्न उस रेत से चलते हुए मार्ग में विलीन हो गए। 
“यह पदचिह्न भी मिट जाएँगे? अथवा शाश्वत रहेंगे? क्या कभी मिलन सम्भव नहीं होगा?”
समुद्र की तरंगें केशव के कुछ पदचिह्नों को मिटा गई। तो कुछ को पवन ने मिटा दिया। अब वहाँ कोई पदचिह्न नहीं थे।
“इस प्रकार पदचिह्नों का मिट जाना संकेत दे रहा है कि तुम अवश्य लौटकर आओगे, केशव। जब जब तुम्हारे पदचिह्न मिट जाते हैं, तब तब तुम तट पर लौट आए हो। मुझे विश्वास है केशव, तुम एक दिन लौट आओगे। विलम्ब कितना भी क्यों ना हो, मैं प्रतीक्षा करूँगी।”