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चार वर्ष का समय व्यतीत हो गया। प्रत्येक दिवस गुल ने इन चार वर्षों की अवधि की समाप्ति की प्रतीक्षा में व्यतीत किए थे। इन चार वर्षों में द्वारका ने अनेक परिवर्तनों को देखा। गुरुकुल में भी परिवर्तन हो रहा था। गुल को गुरुकुल में एक कक्ष में निवास की सुविधा दी गई थी। गुरुकुल के पुस्तकालय के सभी पुस्तकों के अध्ययन की, आचार्यों से प्रश्न करने की तथा गुरुकुल परम्परा से ज्ञान प्राप्ति की उसे अनुमति दी गई थी।
गुरुकुल के रसोईघर एवं वृक्षों के जतन में भी वह सहायता करती थी। इस अवधि में गुल ने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया, वेदों को समझा। न्याय शास्त्र, व्याकरण, दर्शन शास्त्र, साहित्य आदि का गहन अध्ययन किया। महादेव भड़केश्वर की पूजा अर्चना करती रही। समुद्र से मित्रता करती रही। उसके तट पर विहार करती रही। सूर्योदय से पूर्व समुद्र को अपना ज्ञान सुनाती, सूर्यास्त के समय सूर्य को समुद्र में विलीन होते देखती रहती। प्रत्येक क्षण में, प्रत्येक कर्म में केशव का स्मरण करती रहती।उसका धन्यवाद करती कि उसने उसे गुरुकुल से, ज्ञान के समुद्र से परिचय कराया। यही सब करते करते वह केशव के लौटने की तीव्रता से प्रतीक्षा करती रही। अपनी इस उत्कट प्रतीक्षा को उसने अपने किसी भी व्यवहार में प्रकट नहीं होने दिया। उसके साथ रहनेवाले सभी ने मान लिया था कि गुल केशव का विस्मरण कर चुकी है। किंतु यथार्थ पूर्णत: भिन्न था। केशव का स्मरण एवं प्रतीक्षा प्रचंड थे।
समुद्र, समुद्र की तरंगें, तट, तट की रेत, तट से समुद्र पर तथा समुद्र से तट पर गति करता समीर, सूर्योदय की प्रथम किरण, सूर्यास्त का अंतिम रश्मि, चंद्र की ज्योत्सना। यह सब गुल की मनोस्थिति को जानते थे। उसे साक्षी भाव से निहारते थे।
वह दिन आ गया। चार वर्ष का समय पूर्ण हो गया। दिन के प्रथम प्रहर से पूर्व ही गुल जाग गई। सभी कर्म से
पूर्व महादेव के दर्शन कर आइ। तट पर जाकर प्रतीक्षा करने लगी। समय पर सूर्योदय हो गया। प्रतीक्षा का अंत निकट आने लगा। एक विद्यार्थी गुरुकुल से निकलकर अपनी तरफ़ आता देख गुल उत्साह से उसके प्रति दौड़ गई।
“केशव आ गया?”
“केशव? नहीं? क्या वह आज आनेवाला था?”
“केशव अभी तक नहीं आया?”
“आपको किसने कहा कि आज केशव आने वाला है?”
“आज चार वर्ष पूर्ण हो गए हैं ना?”
“क्या आपको विदित नहीं है कि केशव मुंबई से ही अमेरिका चला गया?”
“अमेरिका? क्यों?”
“उच्च शिक्षा हेतु।”
“यह उच्च शिक्षा कितनी होती है?”
“मैं नहीं जानता।” वह विद्यार्थी चला गया। गुल तट पर जहां खडी थी वहीं बैठ गई। उसके शरीर से समग्र ऊर्जा रेत में बह गई। वह शिथिल तन, शिथिल मन से समुद्र को देखती रही। मन शून्य हो गया। किसी भी बात पर विचार करने का उसके मन को मन नहीं हुआ। वह उसी स्थिति में बैठी रही। सूर्य गति करता रहा। तरंगों के द्वारा समुद्र तट पर आकर लौटता रहा। समीर बहता रहा। रेत तरंगों से मिलकर भिगती रही। सब काल गति से गतिमान होते रहे। केवल गुल स्थिर थी, निष्क्रिय थी।
समुद्र धीरे धीरे तट पर बढ़ता रहा। बढ़ते बढ़ते एक तरंग ने गुल को स्पर्श किया तभी गुल चलित हुई, तंद्रा से जागी। स्वयं को समेटा, ऊर्जा संचय की और खड़ी हो गई। तट पर चलने लगी। केशव के न आने पर विचार करती रही। तर्क करती रही।अंतत: उसने उस सत्य का स्वीकार कर लिया कि केशव नहीं आया है, ना ही वह आएगा, कभी नहीं आएगा। वह गुरुकुल लौट गई। स्वयं को उसने पुन: जीवन से जोड़ दिया।