63
द्वारका में काशी से पंडित जगन्नाथ पधारे थे। भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन के उपरांत वह मंदिर में विहार करते करते ब्राह्मणों का निरीक्षण कर रहे थे। कुछ यजमानों के संकल्प अनुसार पूजा अर्चना करवा रहे थे। पंडितजी उनका अवलोकन करने लगे। ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित मंत्रों तथा श्लोकों को ध्यान से सुनने लगे। उन उच्चारण में उसने कुछ त्रुटि पाई। कुछ समय वह उसे सुनते रहे। त्रुटियों पर ध्यान देते रहे। उसने मन में निश्चय कर लिया। पूजा सम्पन्न होने तक प्रतीक्षा करते रहे।
पूजा सम्पन्न हो गई। यजमान चले गए। ब्राह्मण पूजा स्थल को साफ़ कर रहे थे तभी पंडितजी उनके समक्ष आ गए।
“हे ब्राह्मण, आप जो मंत्रोच्चार कर रहे थे उसमें त्रुटि थी?”
इस प्रश्न से वह ब्राह्मण चकित हो गए। उन्हें कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा।
“आपके मंत्रों के उच्चारण में दोष था। क्या आप जानते हो?”
किसी ने उत्तर नहीं दिया। अपना कार्य पूर्ण कर सभी ब्राह्मण चले गए। पंडितजी को ऐसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं थी। मन में कुछ विचार के पश्चात वह पुजारी के पास गए। उसे सारी कथा सुनाई। अपना परिचय भी दिया।
“पुजारी जी, क्या आप मंत्रोच्चार में दोष करते हो?”
“पंडितजी, दोष होना सहज है। किंतु सभानता से ऐसा को नहीं करता, नहीं कर सकता।”
“जब हम भगवान की पूजा, प्रार्थना आदि करते हैं तब तो हमें अपने उच्चारणों को दोष मुक्त रखना चाहिए। इतनी सभानता तो होनी ही चाहिए।”
“मैं आपकी बात से सहमत हूँ।”
“क्या इस नगरी के सभी ब्राह्मण ऐसे ही हैं जो कुछ ना कुछ दोष कर देते हैं?”
“हो सकता है, नहीं भी हो सकता है।”
“इस नगरी मैं कोई एक ऐसा ब्राह्मण नहीं होगा जो मंत्रों का दोष रहित उच्चार कर सके?”
“मैं नहीं जानता।”
“तो सुनो पुजारी जी। द्वारका के ब्राह्मणों को यह मेरी ललकार है। आप सभी को सूचित कर दें कि कल प्रातः भगवान द्वारिकाधीश के समक्ष सभी उपस्थित हो तथा मेरी ललकार का स्वीकार करें। मंत्रों की शुद्धि की कसौटी दें। मुझ से स्पर्धा करें। मेरी इस ललकार को सार्वजनिक कर दो, पुजारी जी।”
पुजारी ने गुरुकुल के प्राचार्य को दर्शन दीर्घा में देखा। वह प्राचार्य के पास गए और उसे पूरी कथा कही। प्राचार्य पंडितजी के पास गए, अभिवादन किया और बोले, “हे महाज्ञानी पंडितजी, द्वारका नगरी में आपका स्वागत है। आपके ज्ञान का संज्ञान सारे भारतवर्ष को है। मैं द्वारका गुरुकुल का प्राचार्य आपको वंदन करता हूँ।”
“मेरा प्रणाम भी स्वीकार करें, प्राचार्य जी। आपने मेरी ललकार तो सुन ली ना?”
“जी। सभी ने सुनी। मैं आपकी इस ललकार को स्वीकार करता हूँ। कल क्यों? आप चाहें तो अभी, इसी स्थल पर आपकी मनसा को पूर्ण कर सकता हूँ।क्या आप की अनुमति है? क्या आप सज्ज हो?”
पंडित जी के लिए यह अनपेक्षित था। उसे तत्काल कोई उत्तर नहीं मिला। कुछ विचार कर बोले, “प्राचार्य जी। आप तो ज्ञानी हो। मेरी ललकार द्वारका के किसी ब्राह्मण से है, आपसे नहीं। आप तथा आप के छात्र अवश्य ही शुद्ध मंत्रोच्चार करते होंगें। गुरुकुल के छात्र तथा आचार्यों के उपरांत कोई मेरी ललकार को स्वीकार कर सके ऐसा कोई हो तो कहो।”
“ठीक है। यदि आप ऐसा चाहते हैं तो आपकी यह मनसा भी पूरी हो जाएगी। कल प्रातः मंगला आरती के पश्चात वह व्यक्ति आप से स्पर्धा करेगी। तब तक आप हमारी इस द्वारका नगरी के अतिथि हैं। आप हमारे आतिथ्य का आनंद लें। आप चाहें तो हमारे गुरुकुल में विश्राम कर सकते हैं।”
“उसकी कोई आवश्यकता नहीं है प्राचार्य। किंतु कौन है वह व्यक्ति जो मुझ से स्पर्धा करेगी?”
“कल के प्रभात की प्रतीक्षा करें, धन्यवाद।”
“स्मरण रहे प्राचार्य, वह व्यक्ति गुरुकुल का आचार्य ना हो, ना ही छात्र हो।”
“नमो नम:।” प्राचार्य चले गए।
प्राचार्य चले गए। पंडितजी वहीं खड़े रहे। अपने प्रचंड स्वर से सब का ध्यान अपनी तरफ़ आकृष्ट करते हुए उसने घोषणा की, “सुनो, सुनो द्वारका वासियों, सुनो। द्वारका के ब्राह्मणों, मंदिर के पुजारियों, ध्यान से सुनो। मैं आप सब को आमंत्रित कर रहा हूँ। मेरी ललकार पर कल प्रातः सात बजे की वेला पर यहाँ आपके नगर से कोई व्यक्ति भगवान द्वारिकाधीश के प्रत्यक्ष मंत्रों का उच्चारण करेगी। अपेक्षा है कि वह पूर्ण रूप से शुद्ध हो। उसमें कोई दोष ना हो। वह मेरे साथ स्पर्धा करेगी। आप सभी इस अवसर पर अवश्य पधारें। मेरी ललकार है कि इस द्वारका नगरी में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जो मुझे परास्त कर सके।”
पंडितजी की घोषणा सुनकर मंदिर के भीतर उपस्थित सभी जनों में कौतुक, उत्कंठा, चिंता, कुतूहल, प्रश्नार्थ आदि भाव उत्पन्न हो गए। पंडितजी की इस घोषणा को उपस्थित जनों के उपरांत स्वयं द्वारिकाधीश ने भी सुनी, उसकी मूर्ति ने एक स्मित किया। पुजारी जी ने उस स्मित को देख लिया। भुवन मोहिनी स्मित। पुजारी मन ही मन बोले, ‘बड़े नटखट हो।’
पंडितजी की घोषणा सारे नगर में प्रसर गई। नगरजनों में यही चर्चा का विषय बन गई।
“यह कैसी स्पर्धा है?”
“ऐसा तो पूर्व में कभी हुआ ही नहीं।”
“कैसी होगी यह स्पर्धा?”
“प्राचार्य किसे प्रस्तुत करेंगे?”
“क्या वह व्यक्ति पंडितजी को परास्त कर पाएगी?”
“यदि परास्त नहीं कर पाई तो द्वारका नगरी को कितना बड़ा अपमान सहना पड़ेगा।”
“यदि वह व्यक्ति जीत गई तो पंडित जी की अवस्था क्या हो जाएगी?”
“अब आए हैं यह ब्राह्मण संकट में।”
“जो भी हो, कल बड़ा मनोरंजन होने वाला है।”
यही सब शब्द द्वारका नगरी में सुनाई देने लगे। सभी के अधरों पर, मन पर, ह्रदय पर, नगर के प्रत्येक चौक पर, प्रत्येक वीथिका में बस यही बात चल रही थी। नगर का प्रत्येक जन नगर के सम्मान हेतु चिंतित था, किंतु सभी को प्राचार्य पर विश्वास भी था। अंत में सभी ने अपनी चिंता भगवान द्वारिकाधीश को अर्पण कर दी जिसके मुख पर भुवन मोहिनी स्मित रम रहा था। प्रातः काल की प्रतीक्षा करते करते पूरा नगर निद्राधीन हो गया।
नगर के सामान्य जन तो निद्राधीन हो गए किंतु सभी ब्राह्मण के नयनों में चिंता ने स्थान ग्रहण कर लिया था।
‘पंडितजी के आव्हान का स्वीकार कौन करेगा?’
यह प्रश्न विद्वान ब्राह्मण की सभा में किसी पर्वत की भाँति अटल खड़ा था, अपने स्थान पर अडिग था। अनेक विचार किए गए, अनेक विकल्पों पर चर्चा हुई। किंतु कोई निर्णय न हो सका। सभी ब्राह्मणों ने किसी न किसी कारण से स्वयं को स्पर्धा के लिए असमर्थ घोषित किया। अंतत: अनिर्णयाक स्थिति में सभी गुरुकुल आ गए। प्राचार्य ने उनकी बातों को ध्यान से सुना।
“आप सभी इस स्पर्धा को जितने की क्षमता रखते हो। आपके ज्ञान तथा सामर्थ्य पर मुझे को संशय नहीं है। आपको भी नहीं होना चाहिए। किंतु किसी कारणवश आपको अपने पर विश्वास नहीं है। यह होना स्वाभाविक है। किंतु हमें इस आह्वान का उत्तर तो देना ही होगा। हम बिना स्पर्धा के परास्त नहीं होंगे।”
सभी ब्राह्मण प्राचार्य की बात ध्यान से सुन रहे थे।
“आप निश्चिंत रहिए। कल स्पर्धा होगी। विजय भी द्वारका नगरी की होगी। आप में से कोई स्पर्धा में नहीं रहेगा।”
“तो क्या आप स्वयं…?”
“नहीं। मैं नहीं कर सकता। किंतु आप सब मेरा विश्वास कीजिए।”
“कौन होगा वह?”
“प्रातः काल के सूर्योदय की प्रतीक्षा करें। अब रात्रि अधिक हो चुकी है। आप सब विश्राम कर लीजिए।”
ब्राह्मण लौट आए।
पंडित जी भी चिंतित थे।
अब उसे लगने लगा कि ‘ऐसा आव्हान मुझे नहीं करना चाहिए था। किंतु अपने ज्ञान के अभिमानवश में ऐसा कर बैठा। अब मैं चाहता हूँ कि यह स्पर्धा ना हो। मैं इसे रोकना चाहता हूँ। किंतु कैसे रोकूँ? मुझे इस प्रकार सार्वजनिक रूप से यह नहीं करना चाहिए था। यह भगवान की राजधानी है। यहाँ अनेक रत्न होंगें। उनमें से कोई भी मुझे परास्त कर देगा। यदि ऐसा हुआ तो?’
‘तो तेरा, तेरे ज्ञान का, तेरे गुरुकुल का, तेरी नगरी का मान क्या रह जाएगा? तुम्हें ऐसी भूल नहीं करनी चाहिए थी।’
‘अब मैं क्या करूँ? कैसे इसे रोकूँ?’
‘तुमने यह घोषणा भगवान द्वारिकाधीश के प्रत्यक्ष की थी। तुम भूल रहे हो कि स्वयं भगवान ने भी तुम्हारी इस घोषणा को सुना होगा। यह वह कृष्ण है जो अपने भक्त के लिए उसके सारथी भी बन जाते हैं किंतु इसे पराजित नहीं होने देते।’
‘किंतु मैं तो दुर्योधन नहीं हूँ।’
‘किंतु तुम कृष्ण के शत्रु अवश्य बन गए हो।’
‘वह कैसे?’
‘जो कृष्ण के भक्तों का शत्रु होता है वह कृष्ण का शत्रु स्वतः हो जाता है, पंडित जगन्नाथ।’
पंडित जी भयभीत हो गए।
‘अब मेरा क्या होगा?’
‘एक ही उपाय है। तुम कृष्ण की शरण में चले जाओ। वह शरणागत वत्सल है।’
“हे कृष्ण, मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हारे शरण में हूँ।” पश्चाताप के अश्रु सहज ही बहने लगे। इस गंगा प्रवाह में बहते हुए पंडितजी का चित्त शुद्ध हो गया।