द्वारावती - 82 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 82

82

क्षितिज के बिंदु पर चल रही उत्सव की जीवन यात्रा को दर्शाता पटल सहसा अदृश्य हो गया। गुल ने प्रश्नार्थ दृष्टि से उत्सव को देखा। उस प्रश्न का उत्तर केवल उत्सव के पास था। 
“आगे क्या हुआ, उत्सव?” 
“पश्चात तीन वर्ष तक भारत भ्रमण करता रहा। अनेक विद्वानों से मिला, अनेक नगरों में गया। मेरे प्रश्न मैं रखता, सभी अपनी मति अनुसार मुझे समझाने का प्रयास करते रहे। इस प्रक्रिया में कभी कभी वह स्वयं जो समझते थे उसे भी भूलने लगे। मुझे उत्तर चाहिए थे और वह समझाने लगते। किसी के पास उत्तर नहीं थे। इसी कड़ी में मैं यहाँ आ गया, तुम्हारे पास, गुल।”
“उत्सव, तुम्हारी जीवन यात्रा के पड़ावों को देखा। क्रांति के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण को समझा। क्रांति के वास्तविक अर्थ को जाना। प्रथम तुम एक बात बता दो कि उस विध्यार्थी क्रांति का क्या हुआ? पश्चात कहो कि कौन से प्रश्न हैं तुम्हारे? कैसे उत्तर की अपेक्षा है तुम्हें?”
“क्रांति? वह क्रांति नहीं छलावा है, षड्यंत्र है, देस के विरुद्ध प्रपंच है। जो आज भी चल रहा है। चलता ही रहेगा।केवल छद्म युद्ध हो रहा है और जनता को भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है। किंतु अब जनता में भी जागृति दिख रही है। प्रपंच विफल होते जा रहे हैं किंतु नए नए रचे भी जा रहे हैं। ऐसी क्रांति से मेरा मोह भंग हो गया है।” उत्सव क्षणभर रुका। उसके शब्दों में जैसे एक भार था, एक पश्चाताप था। 
“उत्सव, देश के लिए कुछ ना कर पाने की ग्लानि तुम्हारे मुख पर स्पष्ट प्रकट हो आइ है। चलो, उस विषय को छोड़ो। रखो अपने प्रश्न।”
“प्रतीत होता है कि आज समय ने उस क्षण को जन्म दे ही दिया है कि मैं मेरे प्रश्नों को तुम्हारे समक्ष रखूँ।”
“और ऐसी क्षण तीव्र गति से आगे निकल जाए उससे पूर्व कह दो।”
“मेरे प्रश्न अनंत हैं किंतु मुख्य प्रश्न हैं -
कृष्ण कौन है?
उसका मूल चरित्र क्या है?
कभी महायोद्धा प्रतीत होता है तो कभी युद्ध क्षेत्र को छोड़कर भागता रणछोड़ ।
कभी युगपुरुष तो कभी अपने ही कुल का विनाश न रोक सकने वाला ।
कृष्ण सामान्य पुरूष है? महा मानव है? ईश्वर है?
महायोद्धा होने पर भी विश्व के सबसे भीषण युद्ध -महा भारत के युद्ध को ना लड़ना? तथापि केवल सारथी बनकर कुरुक्षेत्र में जाने वाला कृष्ण इसी युद्ध में क्षण क्षण में व्याप्त प्रतीत होता है। 
युद्ध प्रत्यक्ष ना लड़ने पर भी समग्र युद्ध पर केवल उसका ही नियंत्रण ?
युद्ध टालने के लिए स्वयं महाराज धृतराष्ट्र के समीप दूत बनकर जानेवाला कृष्ण, युद्ध में एक भी शत्रु पर वार नहीं करने वाला कृष्ण। और विडम्बना है कि सारे युद्ध का दायित्व, कारण केवल कृष्ण?
कृष्ण जैसे युगपुरुष की मृत्यु इतनी साधारण?
अपने द्वारा स्थापित द्वारिका नगरी को समुद्र में डूबने से क्यों नहीं बचा पाया कृष्ण?
राधा नाम सत्य है या कल्पना? कृष्ण चरित्र में कहीं भी राधा का उल्लेख नहीं है तो राधा के नाम पर इतना भ्रम क्यों? कृष्ण के चरित्र को क्यों राधा नाम की कल्पना से जोड़ा जाता है?
योगेश्वर होते हुए भी सोलह हज़ार एक सौ आठ रानियाँ? कृष्ण विषयों के, इंद्रियों के दास थे?
गोकुल त्याग के पश्चात कृष्ण ने कभी बंसी नहीं बजाई। तथापि वह मुरली मनोहर?
गोकुल त्याग के पश्चात कभी रासलीला नहीं रचाई तथापि रास रासेश्वर?
एक बार गोकुल त्यागने के पश्चात कभी गोकुल लौटा ही नहीं। क्यों?
जन्म विचित्र अवस्था में होता है। बाल्यकाल तथा तरुण अवस्था विवाद, विषाद तथा स्वयं की रक्षा में व्यतीत हो जाता है। क्षण क्षण षड्यंत्रों से बचता है। एक बालक पर यह कैसा अत्याचार?
कृष्ण कूटनीतिज्ञ था? कपटी था? मायावी था? भ्रमित करनेवाला था?
भीष्म,कर्ण, द्रोण, घटोत्कच, जयद्रथ आदि योद्धाओं का नष्ट करने का एक मात्र मार्ग युद्ध ही था?
कभी गोपियों का चीरहरण करनेवाला कृष्ण द्रौपदी के चीर पूरता है। कितना विरोधाभास है?
गोपियों की मटकी फोड़ता कृष्ण? माखन चुराता कृष्ण? कितना सत्य है इन बातों में? कृष्ण जैसा व्यक्तित्व चोर भी हो सकता है?
जिसे कभी देखा नहीं ऐसी यौवना रूक्षमणि के छोटे से पत्र को पाकर उसका अपहरण कर लेता है। स्वयं विवाह कर लेता है। अपने पौत्र अनिरुद्ध की रक्षा हेतु स्वयं शिव से युद्ध कर लेता कृष्ण।                                                                 
                                                                                                                                      कृष्ण के विषय में प्रश्न करते करते उत्सव थक गया। रेत पर ही बैठ गया। गुल कुछ कहे उससे पूर्व एक स्वर सुनाई दिया, “यह सभी प्रश्न मेरे भी है। मुझे भी इन सबका उत्तर चाहिए, समाधान चाहिए।”
उत्सव तथा गुल ने एक दूसरे को देखा। मुड़कर देखा तो एक आकृति दिखाई दी। गुल के सम्मुख आ गई।
“तू….म ।” गुल उसे देखकर आगे कुछ नहीं बोल पाई।
“हाँ गुल, मैं। प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे ना मुझे?”
आश्चर्य एवं प्रसन्नता के कारण गुल के मुख से एक भी शब्द नहीं निकल पाया। उत्सव स्थिति का आकलन करने की चेष्टा करता रहा, विफल हो गया।
“तुम मौन क्यों हो, गुल?” गुल ने अभी भी कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया।
“उत्सव, तुम ही इसे पूछो ना। मुझसे तो यह बात ही नहीं कर रही है।”
“मैं?” उत्सव अचरज में पड़ गया।
“हाँ उत्सव। तुम्हारी बात वह नहीं टालेगी।”
“किंतु, मैं …. तो ….।”
“उत्सव। मैं केशव।”
“केशव? तुम केशव हो? इतने वर्षों पश्चात? कहाँ थे? क्या करते थे? सहसा यहाँ कैसे? कितना चिर विरहकाल दिया है तुमने गुल को? इस बात का संज्ञान है तुम्हें?”
“तो तुम मेरे विषय में सब कुछ जानते हो?”
“हाँ, केशव।सब कुछ ।”
“किसने, गुल ने बताया यह सब?”
“नहीं, समय की किसी क्षण ने मुझे पूरी कथा बता दी है। अरे, यह सब छोडो। यह बताओ कि तुम कब आए?”
“मैं तो यहाँ तब से खड़ा हूँ जब से तुम्हारी कथा चल रही है। मैंने भी तुम्हारे जीवन की कथा को देखा है।”
“अर्थात् तुम भी मेरे जीवन के विषय में जान चुके हो।”
“हाँ, अवश्य।”
“वाह रे केशव। वाह रे उत्सव। अभी अभी तो मिलन हुआ है आप दोनों का। और आप दोनों इस प्रकार बातें कर रहे हो जैसे बाल्यकाल से सखा हो। और इन सब में आप दोनों मेरा ही विस्मरण कर बैठे। मैं भी यहाँ उपस्थित हूँ यह स्मरण रहे आप दोनों को।” केशव को देख जन्मे सुखद आघात से स्वस्थ होकर गुल ने कहा।
“तो तुम …।”
केशव आगे बोले उससे पूर्व ही गुल ने कहा, “समय अधिक हो गया है। मुझे हमारे लिए भोजन की व्यवस्था करनी है। मैं तो चली। आप दोनों बातें करो। मैं शीघ्रता से भोजन तैयार कर लाती हूँ।”
गुल चली गई। उत्सव तथा केशव तट पर बैठे बैठे समुद्र को देखते रहे, सुनते रहे।