द्वारावती - 58 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 58



58

“सुनों मित्रों।” अभियान का नेतृत्व कर रहे युवक ने कहा, “समुद्र किसी भी मृत शरीर को अपने भीतर नहीं रखता। उसे किसी ना किसी तट पर छोड़ देता है। इस क्षेत्र के किसी भी तट पर गुल का शव नहीं मिला है।”
“अर्थात् गुल की मृत्यु नहीं हुई है? वह कहीं ना कहीं जीवित ही है।”
दूसरे युवक की इस बात ने बाक़ी युवकों के मन में आशा तथा चेतना का संचार कर दिया। 
“सत्य कह रहे हो मित्र, हमें इसी धारणा के साथ, इसी दृष्टिकोण से गुल को खोजना है। गुल समुद्र के पानी के भीतर नहीं किंतु कहीं बाहर है। और हमें ऐसे स्थान पर उसे खोजना है जहां समुद्र तो है किंतु पानी नहीं है।”
“तुम किस स्थान का संकेत कर रहे हो?” 
“मित्रों, इस समुद्र के तट पर अनेक कन्दरायें हैं। उन कन्दराओं में अनेक गुफ़ाएँ हैं। वहाँ समुद्र का पानी अल्प मात्रा में होता है। गुल ऐसी ही किसी गुफा में होगी।”
“इन गुफाओं के विषय में तुम कुछ ज्ञान रखते हो? कुछ बता सकतेहो? कभी गए हो ऐसी किसी गुफाओं में?”
“मैं स्वयं तो कभी नहीं गया किंतु केशव से इस विषय में एकदा सुना था।”
“क्या कहा था केशव ने?”
“यही कि वह एक बार गुल के साथ किसी गुफा में गए थे।”
“उस गुफा कहाँ है?”
“वह तो उसने नहीं बताया था।”
“तो अब?”
“हम सभी दिशाओं में स्थित कन्दराओं में, उनकी गुफाओं में जाते हैं। हो सकता है कहीं वह मिल जाए।”
“हम दो दो की टुकड़ी में बंट जाते हैं जिससे सभी कन्दराओं तक पहुँच सकें।”
“हर हर महादेव।” इसी नाद के साथ दो दो की टुकड़ी में सभी निकल पड़े, समुद्र में कूद पड़े। 
“वहाँ सामने देखो। यह कन्दरा बड़ी है। गुफा भी बड़ी लग रही है।” एक टुकड़ी के एक युवक ने कहा।
“चलो, वहाँ देखते हैं।”
एक बड़ी गुफा के सम्मुख दोनों आ गए। दोनों ने एक दूसरे को देखा और गुफा में प्रवेश कर गए।
“एक विचित्र सुगंध है यहाँ।”
“इसे दुर्गंध कहते हैं, मित्र।”
“जो भी हो, किंतु इस स्थिति में किसी मनुष्य का यहाँ अल्प समय तक रुकना भी दुष्कर है। यहाँ गुल का होना सम्भव नहीं।”
“जिजीविषा असम्भव को भी सम्भव बना देती है। और अब यहाँ तक आ चुके हैं तो थोड़ा अंदर चलते हैं।”
“किंतु इस दुर्गंध?”
“कुछ समय इसे सह लो। इस दुर्गंध से किसी की मृत्यु होते हुए हमने नहीं जाना।”
“मृत्यु का भय होता तो मैं इस अभियान से जुड़ता ही नहीं।”
“तो कुछ भी वाद विवाद किए बिना अंदर चलो।”
दोनों गुफा के भीतर जाने लगे। मार्ग में अल्प मात्रा में पानी, कुछ समुद्री जीव जंतु तथा वनस्पतियों का अवरोध पार करते हुए दोनों भीतर गए। 
“यहाँ सूर्य का प्रकाश मंद होता जा रहा है। भीतर जाना उचित नहीं है।”
“मंद है किंतु प्रकाश है तो सही ना? जितना भी है उसमें हम जो कुछ देख पा रहे हैं उसे देखते चलो।”
दोनों और भीतर गए। प्रकाश और मंद हो गया। एक बिंदु पर दोनों रुक गए। आगे तमस् ही तमस् था। दोनों ने गुफा के द्वार की तरफ़ मुख कर लिया। एक दूसरे को देखा और संकेतों में ही निश्चय कर लिया कि अब यहाँ से लौट जाना है। 
वह लौटने लगे तभी गुफा के भीतर से एक ध्वनि उन्होंने सुनी। 
“तुमने सुना मित्र, यह ध्वनि?”
“किसी प्राणी के चलने की पदध्वनि है?” 
“कोई समुद्री प्राणी होगा भीतर। कोई मगर तो नहीं?” 
“वह हम पर आक्रमण करें उससे पूर्व चलो भाग चलते हैं।”
दोनों भागने लगे तभी गुफा के भीतर से मनुष्य की ध्वनि आइ, “रुको, रुको।”
दो बार बोले गए शब्दों का प्रतिघोष अनेक बार सुनाई दिया। दोनों रुक गए।
“यह तो किसी ….।”
दोनों ने मुड़कर देखा। समक्ष उसके गुल थी। उसके मुख पर अभी भी भय की छाया थी। वह दुर्बल प्रतीत हो रही थी। तीन रात्रि की अनिद्रा तथा भय से युक्त रहने के कारण वह म्लान भी थी। गुरुकुल के छात्रों को देखकर मन में उत्पन्न आशा के कारण उसके मुख पर आभा उभर आइ। आभा तथा दुःख के भावों से मिश्रित रेखाएँ उसके मुख को एक अवर्णनिय सौंदर्य प्रदान कर रही थी।
दोनों युवक गुल के निकट गए। स्मित किया और कुछ भी बोले बिना गुल के मस्तक पर हाथ रख दिए। गुल शांत हो गई। निर्भीक हो गई। उसे लेकर दोनों गुरुकुल आ गए। बाक़ी युवक भी आ गए।