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“मेरे पिताजी कहाँ है?” गुल के इस प्रश्न का उत्तर गुरुकुल में किसी ने नहीं दिया।
“मेरा घर? मेरी माँ?” इसका उत्तर भी किसी ने नहीं दिया। सभी ने मौन धारण कर लिया।
“मुझे मेरे घर ले चलो।” उत्तर में एक युवक शीतल जल ले आया।गुल ने थोड़ा पिया। दूसरा युवक फल ले आया। गुल ने उसे ग्रहण नहीं किया।
प्राचार्य ने गुल के मस्तक पर हाथ रख दिया। गुल का उद्विग्न मन शांत होने लग, कुछ क्षणों में शांत हो गया। उसने फल खाया।
“गुल, तुम अभी इस कक्ष में विश्राम करो।” प्राचार्य के साथ सभी ने कक्ष रिक्त कर दिया। गुल विवश होकर विश्राम करने लगी। मन अशांत था, तन थका हुआ था। अन्तत: मन पर तन प्रभावी हो गया।
गुल जब जागी तो उसने गवाक्ष से बाहर देखा। सूर्य अस्त हो चुका था। पश्चिम का सारा नभ लाल था। इस लालिमा को देखकर गुल को उस लालिमा का स्मरण हुआ जिसे देखने के पश्चात् उसे समुद्र में शरण लेनी पड़ी थी। उसके पिता की हत्या हुई थी। जिन प्रश्नों को छोड़कर वह निद्राधीन हुई थी वह प्रश्न पुन: उसके मन में प्रवेश कर गए। वह कक्ष से बाहर निकली, घर की तरफ़ दौड़ी। उसे जाते हुए कुछ युवकों ने देखा, उसे रोकने का प्रयास किया किंतु गुल वहाँ से निकल चुकी थी, घर की तरफ़ जाने लगी थी।
वह घर पहुँची। द्वार खुला था। सभी वस्तुएँ स्थिर थी।घर में किसी मनुष्य के होने के कोई संकेत नहीं थे। गुल ने पूरा घर खोज लिया किंतु वहाँ कोई नहीं मिला। वह कुछ निमिष घर की वस्तुओं को देखती रही। उसका मन ग्लानि से भर गया। वह बाहर चली गई। घर पर एक दृष्टि डाली, कुछ निश्चय किया और समुद्र की तरफ़ चलने लगी।
कुछ समय भीगी रेत पर चलते चलते गुल सहज ही समुद्र के भीतर प्रवेश कर गई।तरंगें गुल के पग को स्पर्श कर लौट जाने लगी। वह थोड़ा और भीतर गई।अब तरंगें गुल को पार करती हुई तट पर जाने लगी। गुल भीतर ही भीतर जाने लगी। घुटनों तक वह भीतर आ गई। वह आगे बढ़ती गई। पानी उसकी कटि तक आ गया। तथापि वह चलती रही। पानी छाती पर आ गया। वह चलती रही। पानी में कंधा डूबने लगा। वह शून्य मनस्क थी। उसे सुध नहीं थी कि वह कहाँ है? क्या कर रही है? उसके इस कार्य का परिणाम क्या है? वह बस चलती जा रही थी। वह अब कंठ तक समुद्र के भीतर थी। वह नहीं रुकी। पानी अधरों तक आ गया। वह चलती रही। पानी नासिका को स्पर्श करता हुआ नासिका के भीतर चला गया। श्वासों के आवागमन पर इसका प्रभाव पड़ने लगा। प्रत्येक श्वास के साथ पानी उसके शरीर के भीतर प्रवेश करने लगा।
गुल के तन को समुद्र की तरंगें अस्थिर कर रही थी। वह स्थिर रहने का निरंतर प्रयास करती रही। शरीर की शक्ति क्षीण हो गई।उसने संतुलन खोया, गिर पड़ी। तरंगें उसके शरीर को कभी भीतर खिंचती तो कभी तट की तरफ़ धकेलती। अपने शरीर पर गुल का कोई नियंत्रण नहीं रहा। मन पर का नियंत्रण तो वह कब की खो चुकी थी। तरंगों के साथ वह डूबती, तैरती, भीतर जाती, बाहर आती रही। यही क्रम चलता रहा।पश्चात् किसी ने गुल को बालों से पकड़ा, खिंचा तथा तट पर ले आया।
गुल थकी हुई थी, अचेत हो गई।उसके शरीर से पानी निकाला गया। उसे जीवन देने के सभी उपाय किए गए। समग्र प्रक्रिया से अनभिज्ञ थी वह। जैसे कोई जीवित शव।