द्वारावती - 29 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

द्वारावती - 29

29

गुल ने पुजारी की आधी बात ही सुनी, वह समुद्र को निहारने लगी।
समुद्र से उड़ता हुआ एक पंखी गुल के समीप आ गया। उसकी चांच में कुछ था। गुल उसे ध्यान से देखने लगी। उसकी चांच में एक मछली थी जो जीवित तो थी किंतु मृत्यु से जीवन के लिए संघर्ष कर रही थी। उस पंखी ने उस मछली को नीचे रख दिया। मछली अभी भी संघर्ष कर रही थी। गुल पंखी की तरफ़ दौड़ी। गुल के पगरव से पंखी उड़ गया, मछली वहीं छोड़ गया।
गुल ने कुछ क्षण मछली को देखा, उसे अपने हाथों से उठाया और समुद्र के भीतर फेंक दिया। वह समुद्र के भीतर गई, पानी से बाहर निकलकर गुल की तरफ़ देखा, जैसे वह अपने जीवन दान के लिए गुल का धन्यवाद कर रही हो। वह समुद्र में कहीं चली गई। गुल समुद्र के उस बिंदु को निहारती रही। वह पंखी कुछ विचित्र सी ध्वनि करता हुआ गुल के ऊपर उड़ता रहा। कुछ ही क्षण में अनेक पंखी आ गए, गुल के ऊपर उड़ने लगे।
गुल उसे देखकर भयभीत हो गई। वह दौड़ी, मंदिर के भीतर चली गई। केशव भी मंदिर के भीतर गया। पुजारी ने उड़ते हुए क्रोधित पंखी को दाने डाले, वह सब शांत हो गए, दाना खाने लगे।
“शांत हो जाओ बेटी, महादेव के शरण में हो तुम, सुरक्षित हो तुम।” पुजारी ने मंदिर के भीतर प्रवेश करते हुए कहा। पुजारी के शब्दों ने गुल को शांत कर दिया।
“यह पंखी क्या चाहते थे?” स्वस्थ होते हुए गुल ने पूछा।
“गुल, अभी हमें लौट जाना चाहिए। अधिक समय व्यतीत हो चुका है।”
“केशव, मेरे प्रश्न का उत्तर दो।”
“इस प्रश्न का उत्तर तो मैं तुम्हें कल भी दे दूँगा। किंतु …।” कहते हुए केशव बाहर आ गया। पुजारी तथा गुल भी बाहर आ गए। दोनों ने प्रश्न भरी दृष्टि से केशव को देखा।
“देखी, वहाँ तट पर देखो। जो भिड़ दिख रही है वह पर्यटकों की नहीं है।”
“कौन हैं वह सब?” गुल ने सहजता से पूछा।
“तुम्हारे समुदाय के लोग हैं। हमें, विशेष रूप से तुम्हें, खोजने के लिए आए हैं।”
“केशव का कहना उचित है। इतना अधिक समय हो गया है और तुम ना तो घर लौटी हो ना ही मदरसा गई हो। उन्हें आशंका हो सकती है कि कहीं तुम समुद्र के भीतर डूब तो नहीं गई।”
“किंतु मैं तो यहाँ हूँ।”
“यह तुम्हें, मुझे तथा पुजारी जी को ज्ञात है, उन्हें नहीं। हमें लौट जाना होगा।”
“तो चलो लौट जाते हैं, उन्हें बता देते हैं कि मैं यहाँ सुरक्षित हूँ। चलो।”
गुल चलने लगी। केशव हँसता रहा, वहीं ठहर गया।
“अब चलो भी। तुम हंस क्यूँ रहे हो?”
“बेटी, अभी लौटना सम्भव नहीं है।”
“क्यूँ?”
“समुद्र के पानी ने हमें घेर लिया है। हमें पानी के उतरने तक प्रतीक्षा करनी होगी।”
“हम इसी पानी से होकर आए थे। इसी पानी से चले जाते हैं। चलो, केशव।”
“नहीं गुल, हम जब आए थे तब पानी का स्तर थोड़ा ही था। अभी समुद्र अपनी पूर्ण वेला पर है। इस समय पानी का स्तर अत्यंत अधिक है। उसे पार करना असम्भव है। हमें प्रतीक्षा करनी होगी।”
“किंतु मेरे परिवार वाले मेरे लिए चिंतित हो रहे हैं। मुझे जाना है।” गुल ने ज़िद कर ली।
“प्रतीक्षा के उपरांत हमारे पास कोई विकल्प नहीं है बेटी।”
गुल रुक गई। एक शिला पर बैठ गई। चिंतित हो गई। प्रतीक्षा करने लगी।
समय मंद गति से व्यतीत हो रहा था अथवा समुद्र का पानी मंद गति से उतर रहा था। दोनों ही अवस्था गुल के लिए असहनीय थी।
प्रतीक्षा अपेक्षा से अधिक लंबी होती जा रही थी। इतनी प्रलंब प्रतीक्षा का यह प्रथम अवसर था गुल के लिए। वह अपना धैर्य खो रही थी। स्वयं पर क्रोधित हो रही थी। स्वयं के साथ साथ वह क्रोधित थी केशव पर, पुजारी पर, पंखियों पर, समुद्र पर तथा समय पर भी। किन्तु गुल के क्रोध से इनमें से कोई प्रभावित नहीं था। यह सब अपनी अपनी गति पर चल रहे थे, प्रतीक्षा भी कर रहे थे।
गुल की इस मनोस्थिति को पुजारीजी ने परख लिया। वह कोई उपाय सोचने लगे।
‘इस मंदिर से तट तक जाने का एक गुप्त मार्ग है। मुझे उसका संज्ञान है। उस मार्ग से मुझे गुल तथा केशव को तट तक ले जाना चाहिए.... ।’
‘हाँ, वह मार्ग तो है किन्तु... ।’
‘किन्तु क्या?’
‘उस मार्ग का प्रयोग इस समय करना उचित होगा क्या?’
‘कदाचित।’
‘कदाचित नहीं, स्पष्ट कहो।’
‘तो सुनो। उस मार्ग के उपयोग हेतु यह समय उचित नहीं है।’
‘क्यूँ?’
‘उस गुप्त मार्ग का, उस गुफा पथ का उपयोग सामान्य परिस्थिति में करना निषेध है। गुरुजी ने जो कहा था उसक स्मरण करो।’
‘क्या कहा था?’
‘जब जीवन मृत्यु का संकट आ पड़े तभी इस मार्ग का प्रयोग करना।’
‘तो?’
“तो क्या यह समय किसी के जीवन मृत्यु के संकट का है?’
‘नहीं।’
‘तो उस विचार को त्याग दो। प्रतीक्षा करो।’
पुजारी ने प्रतीक्षा करने का निश्चय कर लिया।
कुछ समय व्यतीत होने पर भी समुद्र का पानी नहीं उतरा तो गुल का क्रोध स्वत: उतर गया। धीरे धीरे मन शांत होने लगा। वह शांत हो गई। भीतर मौन ने जन्म ले लिया। जैसे जैसे भीतर मौन का प्रभाव बढ़ता गया, उसे उस परिवेश की ध्वनि सुनाई देने लगी।
वह ध्वनि थी समुद्र की लहरों की, बहती हवा की, गगन में उड़ रहे पंखियों के पंखो की, पंखियों के कलरव की, मंदिर की लहराती ध्वजा की। वह ध्वनि थी स्वयं के साँसों की, शिवजी की लिंग पर टपक रहे जल कणिकाओं की, हवा में उड़ रहे अपने केश की, स्वयं अपने ही ह्रदय के स्पंदनों की।
गुल उन ध्वनियों में खो गई। उन ध्वनियों के मिश्रण मे एक अनन्य नाद था। एक संगीत था। वह कर्ण प्रिय था। जैसे किसी वेणु का नाद हो।गुल उस नाद में खो गई।
“गुल, चलो चलें?” केशव के शब्दों ने गुल को जागृत कर दिया।
“कहाँ जाना है हमें?”
“अपने अपने घर।”
“कुछ समय पश्चात चलें?”
“गुल, तुम भी कभी कभी ऐसी बातें कर लेती हों कि...।”
“कैसी बातें?”
“ऐसी बातें जो समझ से परे हो।”
“मैंने ऐसा क्या कह दिया?”
“गुल, जब समुद्र का पानी अपने यौवन पर था तब तुम घर जाने के लिए उतावली थी। हम कहते थे कि प्रतीक्षा करो। तब तुम हम पर क्रोधित हो गई थी। अब जब पानी उतर रहा है और हम घर जाने के लिए कह रहे हैं तो तुम रुकने को कह रही हो। क्या यह बातें ...।”
“हाँ, यह बातें विचित्र है। चलो छोड़ो उसे। चलो घर चलें।”
गुल मंदिर से बाहर निकल समुद्र में उतर गई।
“गुल, रुको। पानी अभी भी पूरा उतरा नहीं है। हमें सतर्क रहना होगा।”
तीनों समुद्र पार करने पानी के भीतर उतर गए।
“बेटी, समुद्र का उतरता पानी अधिक भयप्रद होता है।”
“वह कैसे?”
“उतरता पानी तीव्र गति से समुद्र के भीतर जाता है तब वह अपने साथ सभी को ले जाता है। अपनी गहनता मेँ वह सब को डुबो देता है।”
“मनुष्यों को भी?”
“समुद्र की गहनता की तुलना मेँ मनुष्य अत्यंत तुच्छ है।”
गुल रुक गई।
“क्यूँ रुक गई?”
“मेरे भीतर किसी भय ने जन्म ले लीया है।”
“धैर्य तथा साहस रखो। चलते रहो। केशव का हाथ पकड़ लो।”
केशव रुक गया। गुल की आँखों मे देखा। उन नयनों मे अनिर्णयकता के भाव थे। केशव ने हाथ बढ़ाया, गुल ने पकड़ लिया। समुद्र पार हो गया।
तट पर अनेक व्यक्तियों की भीड़ थी। उनमें गुल के परिवार के तथा समाज के व्यक्ति थे तो कुछ अज्ञात व्यक्ति भी थे। गुल को, केशव को तथा पुजारी को देखते ही उन व्यक्तियों के मुख पर प्रसन्नता, क्रोध तथा अन्य भावों ने जन्म ले लिया।
“पुजारी, कहाँ ले गए थे गुल को? क्या किया तुमने गुल के साथ? यह लड़का वहाँ क्या कर रहा था?” भीड़ से प्रश्न उठने लगे।
“गुल, कहाँ थी तुम? यहाँ कैसे आ गई? इन दोनों ने तुम्हारे साथ क्या क्या किया?” भीड़ नए प्रश्नों के साथ उग्र हो गई।
इतने सारे प्रश्न से गुल स्तब्ध हो गई। उसे कोई उत्तर ना सुझा, वह मौन ही रही। उसके मौन से भीड़ अधिक उत्तेजित हो गई।
“पकड़ लो इन दोनों को। मारो इन दोनों को। हमारी बेटी के साथ अवश्य ही कोई दुष्कर्म किया होगा इन काफिरों ने। तभी तो गुल कुछ बोल नहीं पा रही।”
भीड़ मेँ से कुछ व्यक्ति केशव तथा पुजारी पर प्रहार करने हेतु आगे बढ़ गए। केशव इस स्थिति से स्तब्ध हो गया, पुजारी पूर्ण स्वस्थ थे, शांत थे। मुख पर धैर्य था।
एक व्यक्ति ने पुजारी पर प्रहार कर दिया। पुजारी ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी पकड़ इतनी सशक्त थी कि वह व्यक्ति के हाथ मेँ पीड़ा होने लगी। वह दुखी हो गया।
“जब तक सत्य का ज्ञान ना हो तब तक इस प्रकार दुसाहस कोई ना करें। अन्यथा विपरीत परिणाम भुगतने होंगें।” पुजारी ने उस व्यक्ति को अपनी पकड़ से मुक्त किया।
“प्रथम सत्य जान लो। तत पश्चात उचित लगे वह करना।”
पुजारी का यह स्वरूप देखकर भीड़ का उन्माद मंद हो गया।
“बेटी, तुम्हारे साथ जो हुआ वह इस भीड़ को कहो। निर्भय होकर कहो।”
गुल ने कुछ समय लिया। बोली, “मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो आप कल्पना कर रहे हो। इन दोनों ने मुझे कोई कष्ट नहीं दिया। मैं मेरी इच्छा से ही उस मंदिर मेँ गई थी। वहाँ मैंने भगवान शिव के दर्शन किए। मुझे प्रसन्नता मिली। यदि आप भी उस शिव का दर्शन करोगे तो आप को भी यही अनुभव होगा। एक बार अवश्य वहाँ जाना।” गुल के शब्दो ने एक उन्माद को शांत कर दिया, दूसरे नए उन्माद को जन्म दे दिया।
“तुम्हारी बेटी भी तुम्हारी भांति गुरुकुल के प्रभाव में आने लगी है। विधर्मियों के साथ रहते हुए तुम दोनों अपने मझहब से भटक रहे हो।” भीड़ ने जो कहना था, कह दिया।
गुल ने तथा उसके पिता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। भीड़ एक एक कर टूट गई।