द्वारावती - 21 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 21





21


एक नूतन प्रभात ने जन्म ले लिया। केशव समुद्र की उसी कन्दरा पर स्थित वही शिला पर बैठा था। प्रणव नाद कर रहा था। आज उसने आँखें बंद नहीं की थी। खुली आँखों से वह ओम् का जाप कर रहा था। आज वह सूर्य की दिशा में, सूर्य के सम्मुख नहीं बैठा था। वह उस दिशा में बैठा था जिस दिशा में कल गुल अपने घर की तरफ़ दौड़ गयी थी। खुली दृष्टि रेत के उस भाग पर स्थिर थी जहां कल गुल के पदचिन्ह थे। वह ओम् का जाप तो कर रहा था किंतु उसका मन, उसका ध्यान आज ईश्वर के प्रति नहीं था। कोई तन्मयता नहीं थी। जैसे वह यंत्रवत बोल रहा है, किंतु मन कहीं और है।
‘केशव, कहाँ हो तुम? क्या तुम इस प्रकार से प्रतिदिन ओम् जाप करते हो?’
‘नहीं। किंतु आज….।’
‘आज तुम गुल की प्रतीक्षा कर रहे हो।’
‘कदाचित।’
‘यहाँ किसी सम्भावना का अवकाश नहीं है, केशव। यह कदाचित नहीं है, सत्य है, केवल सत्य।’
केशव ने स्वयं को भीतर खिंचा, आँखें बंद की। ओम् स्मरण करने लगा। वह कोई भिन्न विश्व में चला गया। एक अंतराल के पश्चात वह जागा।
‘आज कुछ विशिष्ट अनुभूति हो रही है। आज से पहले यह अनुभव कभी नहीं हुआ। क्या था यह? जो भी था, अद्भुत था।’
उसने सूर्य को वंदन किया, जल से अर्घ्य दिया, गुरुकुल लौट गया।
अनेक दिवस तक केशव उस अनुभूति को प्राप्त करता रहा। सूर्योदय से पूर्व ही वह उस शिला पर बैठ जाता, आँखें बंद कर लेता, ओम् का जाप करता, सूर्य की प्रथम किरण उसके मुख पर पड़ती तो केशव के मुख की आभा अलौकिक हो जाती। वह आँखें खोलता, सूर्य को वंदन करता, समुद्री जल से अंजलि भरता, सूर्य को अर्घ्य देता।ओम् के नाद के साथ गुरुकुल लौट जाता।
ऐसी ही एक प्रभात को केशव ने नित्य कर्म किया। अर्घ्य के पश्चात वह समुद्र भीतर ही खड़ा रहकर समुद्र के तट को देखा। उसे कौतुक हुआ।
समुद्र की रेत पर तरंगें आती थी, समुद्र में समर्पित हो जाती थी। कुछ तरंगें छोटी थी जो तट तक नहीं जा पाती थी, कुछ बड़ी थी जो तट के भीतर घुस जाती थी, जैसे वह तट का अतिक्रमण कर रही हो। तरंगों का रंग कभी पिला तो कभी हरा प्रतीत होता था। तट की कुछ रेत भीगी थी, कुछ सुखी थी। कोई भी तरंग समान नहीं थी। वह तरंगों को देखने लगा। गिनती करने लगा।
एक, दो, तीन,....एक सौ दस, ग्यारह,....
‘केशव कब तक गिनते रहोगे। तुम्हारे पास जितने भी अंक है वह पूरे हो जाएँगे, समुद्र की तरंगें बंद नहीं होगी।’
अपने विचार पर वह हंस पड़ा।
‘अरे वाह, मैं हंस भी सकता हूँ।’
वह पुन: हंसा, खुलकर हंसा। अपने हास्य की ध्वनि की वह वृधि करता रहा।
‘आज इतना ज़ोर से हँसना है कि अविरत रूप से गर्जना कर रहे समुद्र की ध्वनि से भी ऊँची हो मेरे हास्य की ध्वनि।’
वह हँसता रहा, थक गया परंतु समुद्री की ध्वनि को परास्त नहीं कर सका।
वह तट के उस भाग पर गया जहां तरंगें रेत में समा जाती थी। वह तट पर चलता रहा। समुद्र की तरंगें उसे स्पर्श करती रही, भिगोती रही। उसका पीताम्बर पूर्ण रूप से भीग गया, कंचुक भी।
‘इतना समय हो गया समुद्र के तट पर रहते हुए। कभी इस प्रकार तट पर, तरंगों के साथ कभी नहीं चला। इतने समय में कभी यह इच्छा क्यूँ नहीं हुई? तरंगों का यह स्पर्श, यह आवागमन, यह क्रीड़ा! कितना अनुपम है यह सब।’
केशव समुद्र के थोड़ा भीतर गया। कटी प्रदेश से नीचे का भाग जल में था। कई क्षण वह ऐसे ही जल के भीतर खड़ा रहा। सहसा उसने ओम् का जाप किया और पानी के भीतर डुबकी लगा दी। कुछ क्षण के पश्चात पानी से बाहर आया। पुन: डुबकी लगाई। पुन: बाहर आया। अनेक बार उसने ऐसा किया। उसे आनंद मिला।
‘यदि मैं तैरना जानता तो समुद्र के अधिक भीतर जा सकता। यह कैसी विडम्बना है कि समुद्र के समीप रहते हुए इतना समय व्यतीत होने पर भी मुझे तैरना नहीं आता। मुझे तैरना सीखना होगा। मैं सीख लूँगा।’
उसने तैरने का प्रयास किया, विफल रहा। पुन: प्रयास किया, पुन: विफल हो गया। वह प्रयास करता रहा। विफल होता रहा। थक गया, समुद्र से बाहर निकल आया।
‘यह भीगा तन, भीगे वस्त्र। सूरज की धूप, समुद्री पवन। एक भीनी सुगंध। यह तरंगों से उठता मधुर संगीत। यह भीगी रेत। यह एकांत। समुद्र की, समुद्र के तट की यह विशालता। यह डुबकी, यह तैरना। यह विफल होना। मंत्रों, वेदों, उपनिषदों, यज्ञ आदि से भिन्न ध्वनि। यह दिशाओं का मौन। गतिशील विश्व से भिन्न यह स्थिरता। यह ठहराव। यह सब कहाँ था इतने अंतराल तक? क्या यह सब यहीं थे? यहीं थे तो कब से थे? क्वचित् आज ही यह सब यहाँ आए हो, क्वचित् युगों से यहीं हो।
युगों से? तो मैं उसे क्यों नहीं देख सका? क्यूँ उसका संज्ञान नहीं था मुझे? क्या मेरी आँखें इसे नहीं देख रही थी? अथवा मेरी आँखें ही बंद थी?’
‘तेरी आँखें तो खुल्ली थी किंतु दृष्टि बंद थी, केशव।’
समुद्र के भीतर से उड़कर कुछ पंखी तट पर आ गए। केशव ने उसे देखा। कुछ और पंखी भी समुद्र से तट पर आ गए।
‘यह पंखीतो समुद्र की दिशा से आए हैं। क्या वह समुद्र के भीतर थे?’
केशव ने समुद्र में देखा जहां से यह पंखी उड़कर आए थे। दूर अनेक श्वेत पंखी तैर रहे थे। उड़ रहे थे। पानी के भीतर चांच डालते थे, मछली पकड़ते थे। प्रसन्न होते थे। कुछ ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे। उस पानी में एक लय था, संगीत था। समुद्र की तरंगों के संगीत से पंखियों का संगीत मिल जाता था। जैसे दोनों की जुगलबंदी हो। पंखियों की उस क्रीड़ा को देखता रहा केशव।
‘यह पंखी समुद्र में थे। आज तक मैंने उसे भी नहीं देखा। ऐसा क्यूँ हो रहा है? क्या मेरी आँखें…?’
‘नहीं, नहीं। मेरी आँखें तो ठीक ही है। यह मेरी दृष्टि की ही भूल है जो इन सब बातों को देख नहीं रही थी।’
तट पर श्वेत पंखी उड़ रहे थे, दौड़ रहे थे, कुछ तो तरंगों में नहा रहे थे। केशव वहीं रेत पर बैठ गया। भीगे वस्त्र, भीगा तन अब सुख गया था। सूरज की धूप थोड़ी तीव्र हो गयी थी। पवन की गति नहीं बदली थी। वह शीतल था। समय स्थिर हो गया था। केशव ने आँखें बंद कर ली। उस क्षण की प्रसन्नता का आनंद लेने लगा।
एक अंतराल के पश्चात केशव का ध्यान भंग हुआ। उसे किसी के पदचाप सुनाई दिए।
‘क्या कोई है मेरे आस पास?’
उसने उन पदचापों पर ध्यान केंद्रित किया। निश्चय ही किसी की पदध्वनि है। मुझे देखना होगा।
केशव ने आँखें खोली। सम्मुख कोई नहीं था। बाएँ देखा, कोई नहीं था। दाएँ देखा, कोई नहीं था।
समुद्र को देखा। कोई आकृति शीघ्रता से कंदरा के भीतर चली गई। वह उस कन्दरा को देखता रहा। आकृति के बाहर आने की प्रतीक्षा करता रहा। समय व्यतीत होने पर भी कोई बाहर नहीं आया।
‘कौन होगा? कोई तो था। कोई मनुष्य था? कोई प्राणी भी हो सकता है। कौन होगा? मैं जाकर देखता हूँ।’
केशव उठा। कंदरा की तरफ़ जाने के लिए चला ही था कि उसने देखा की भीगी रेत पर किसी मनुष्य के पदचिह्न है जो उस कन्दरा तक जाते हैं।
‘अवश्य कोई मनुष्य ही होगा। छोडो उसे। आज अधिक समय व्यतीत हो गया है इस तट पर। अब मुझे गुरुकुल लौट जाना चाहिए।’
केशव चल पड़ा, गुरुकुल की तरफ़। वह चलता था। उसे लगा कि कोई है जो उसके पीछे पीछे आ रहा है। किसी की पदध्वनि उसे सुनाई देने लगी। वह रुका, धीरे से पीछे मुड़ा। कोई कंदरा में घुस गया।