द्वारावती - 69 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 69



69
                                         

“भ्रमण से पूर्व भगवान के मंदिर में जाकर उसके दर्शन कर लें?” गुल ने प्रस्ताव रखा।
उत्सव ने कुछ क्षण पश्चात कहा, “नहीं, नहीं।”
“क्यों? द्वारका भ्रमण का उससे उत्तम प्रारम्भ क्या हो सकता है?”
“उत्तम अवश्य हो सकता है किंतु मैं मंदिर दर्शन करके उस राजा के प्रभाव में आना नहीं चाहता। ईश्वर के दर्शन सबसे अंत में करूँगा।”
“अंत में क्यों?”
“अंत समय में दर्शन से मोक्ष मिलता है ऐसा सुना है।” उत्सव अपने शब्दों पर, तो गुल उत्सव के शब्द एवं हाव भाव पर हंस पड़ी।
दोनों ने मंदिर जाते मार्ग को छोड़ दिया। अन्य मार्ग से नगर प्रवेश कर लिया। नगर की वीथियों में जीवन प्रारम्भ हो रहा था, मंद गति से। मंगला आरती के दर्शन से स्वयं को धन्य मानते हुए कई प्रवासी तथा नगरजन मंदिर से लौट रहे थे। कोई अभी भी मंदिर की तरफ़ जा रहा था। कुछ बालक अध्ययन हेतु पाठशाला के मार्ग पर निकल पड़े थे। व्यापार अभी प्रारम्भ नहीं हुआ था। किसी गृह से भजन की मधुर ध्वनि आ रही थी। कहीं कोई पीताम्बर धारण कर मुख से मंत्रों का शुद्ध उच्चार कर रहे थे। अनन्य वातावरण था नगरी की वीथियों का। एक के पश्चात दूसरी वीथियों से भ्रमण करते हुए दोनों नगर का अवलोकन कर रहे थे। उत्सव उस को अपनी मति अनुसार समझने का यत्न कर रहा था। उसमें अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा था किंतु उसके मुख भाव से यही प्रतीत हो रहा था कि उसे अभी कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है। किंतु उसने आश नहीं खोई थी। 
चलते चलते उत्सव के कानों ने कोई भिन्न ध्वनि सुनी। उसने उसे ध्यान से सुना।
“श्री राम जय राम जय जय राम।”
उसने उसे पुन: सुना। पुन: पुन: सुना। 
“श्री राम जय राम जय जय राम।
श्री राम जय राम जय जय राम।
श्री राम जय राम जय जय राम। ………”
अनेकों बार पुनरावृत होता स्वर उसे अपनी तरफ़ आकृष्ट करने लगा। उत्सव के मन में कुतूहल हुआ,
’कृष्ण की नगरी में राम नाम?’ उसकी जिज्ञासा जागृत हो गई। उसके मन में उन ध्वनि के उद्गम स्थान तक जाने की उत्कंठा जगी। 
“गुल, यह ध्वनि तुमने सुना?”
“श्री राम जय राम जय जय राम?”
“हाँ, वही। कहाँ से आ रहे हैं यह स्वर? मुझे वहाँ ले चलो।”
गुल वहाँ जाने लगी। दोनों उस स्थान पर आ गए। अब ध्वनि पूर्णतः स्पष्ट था। ध्वनि के संग संगीत भी सुनाई देने लगा। 
“उत्सव, यह राम धुन मंदिर है। यह धुन अविरत दिवस रात्रि चलती रहती है।”
“दिन रात? अविरत? यह कैसे होता है? कब से होता है?”
“यह राम धुन का प्रारम्भ बारह दिसम्बर उन्नीस सौ सडसठ के दिन हुआ था। जो आज तक चल रहा है।”
“यह तो अविश्वसनीय है!”
“यहाँ से दूर एक जामनगर नाम का नगर है वहाँ तो उससे भी तीन वर्ष पूर्व राम धुन का प्रारम्भ हुआ था।” 
“इतने वर्षों से रामधुन कभी नहीं रुकी? इससे बड़ा आश्चर्य मैंने कभी नहीं देखा। तुम जो कह रही हो वह क्या सत्य है या कोई किंवदंती?”
“सत्य, शत प्रतिशत सत्य। आओ, मैं तुम्हें उस व्यक्ति से परिचय करवाती हूँ जो इस राम धुन के प्रथम दिवस से आज तक अविरत हो रही राम धुन के साक्षी रहे हैं। इस राम धुन का हिस्सा भी हैं।” 
गुल उत्सव से उनका परिचय करवाते हुए बोली, “यह अश्विनभाई है। इस राम धुन के विषय में तुम्हारी जो भी जिज्ञासा है उसको तुम यहाँ प्रकट कर सकते हो।”
“यह राम धुन अविरत चल रही है उस बात पर मुझे संदेह नहीं है।”
“तो अन्य क्या जिज्ञासा है आपकी?” अश्विनभाई ने पूछा।
“इसका प्रारम्भ किसने करवाया? किसके विचार बिज का यह वट वृक्ष है? मैं उसके विषय में जानना चाहता हूँ। मुझे उससे ….।”
“आओ मेरे साथ। मैं उस व्यक्ति के दर्शन करवाता हूँ।”
“क्या वह व्यक्ति साक्षात मुझे मिलेंगे?”
“यदि श्रद्धा हो तो स्वयं ईश्वर भी साक्षात मिलते हैं।”
‘ओह, यह श्रद्धा !’ उत्सव मन ही मन बोला।
अश्विनभाई उसे एक कक्ष में ले गए। उस व्यक्ति के मिलन हेतु उत्सुक उत्सव अधीर हो गया। 
“कहाँ है वह?” कक्ष में प्रवेश करते ही उत्सव पूछ बैठा।
“यहीं है, इसी कक्ष में।”
कक्ष के वातावरण ने उत्सव को प्रभावित कर दिया। ‘इस कक्ष की तरंगों में कुछ है, कुछ भिन्न है।’ स्वगत बोल पड़ा।
“इस कक्ष में क्या है यह? क्या उस व्यक्ति की आभा का यह प्रभाव है?”
“हाँ। उस व्यक्ति की उपस्थिति यहाँ सदैव रहती है। यह है वह व्यक्ति जिसने राम धुन का बीज बोया था।” अश्विनभाई ने काँच से मढ़ी एक छवि के प्रति संकेत किया। उत्सव उसे देखते ही विस्मित हो गया।
“यही है क्या?”
“हाँ। यही है। कोई संदेह?”
“वह कहाँ है? बुलाइए उन्हें। मुझे उनसे बात करनी है।”
“यह सम्भव नहीं है क्यों कि वह अपना पार्थिव शरीर त्याग चुके हैं।”
“क्या? कब? यह कैसे हो सकता है?”
“क्यों नहीं हो सकता? प्रत्येक व्यक्ति को अपना शरीर त्यागना पडता है, इनको भी। इसमें कोई अपवाद नहीं है। यह सत्य तो आप जैसे सन्यासी भली भाँति जानते हैं।”
“आपका तात्पर्य है कि यह व्यक्ति मृत है?”
“हाँ।”
“यह मिथ्या है, गुल।”
“क्यों मिथ्या है? इनकी मृत्यु को अनेक वर्ष हो गए हैं।”
“यह सम्भव नहीं है, गुल।यह असम्भव है, असम्भव।”
“क्या प्रमाण है तुम्हारे पास, उत्सव?” गुल ने पूछा।
“इनकी मृत्यु को मैंने अपनी आँखों से देखा है। उनके पार्थिव शरीर का समुद्र में, समुद्र के जल में विसर्जन मैंने स्वयं अपने हाथों से किया है। और आप कह रहे हो कि प्रेम भिक्षुजी महाराज की मृत्यु नहीं हुई है?”
“उत्सव, क्या बात है? तुम जो कह रहे हो उस बात में कुछ तो रहस्य है। मैं जानती हूँ कि तुम बिना किसी आधार के कोई तर्क नहीं रखते। किंतु प्रेमभिक्षु जी महाराज इस जगत का त्याग कर कब के चले गए हैं यह निर्विवाद सत्य है।”
“क्या कोई मृत व्यक्ति तुम्हें सदेह कभी मिल सकता है? एक बार नहीं, तीन तीन बार? क्या वह तुम्हें मर्गदर्शन दे सकता है?”
“नहीं। कोई मृत व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। यह प्रकृति का नियम है।” अश्विनभाई ने कहा।
“मैं प्रेमभिक्षु जी महाराज को मिल चुका हैं। गुल, तुम्हें स्मरण होगा कि जब मैं द्वारका में आया था तब किसी बाबा ने मुझे कहा था कि तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर इसी नगरी में मिलेंगे। उन्हीं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा था। उन्होंने ही कहा था कि पंडित गुल के पास मेरे प्रश्नों का समाधान है। स्मरण है तुम्हें, गुल?”
“भली भाँति स्मरण है मुझे।”
“वह बाबा और कोई नहीं थे, यही थे। प्रेमभिक्षु जी महाराज।”
“क्या बात कर रहे हो उत्सव? यह असम्भव है।” अश्विनभाई ने कहा।
“उत्सव, समुद्र के किस भाग पर वह तुम्हें मिले थे?” गुल ने पूछा।
“जहां अनेक मछुवारें रहते हैं।”
“रुपेण बंदर! उस भाग को रुपेण बंदर कहते हैं।” अश्विनभाई ने आगे कहा, “रुपेण बंदर वही स्थान है जहां प्रेमभिक्षु जी महाराज के पार्थिव शरीर का समुद्र के जल में विसर्जन किया गया था। उनकी इच्छा थी कि उनके शरीर को अग्निदाह ना दिया जाए किंतु समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाय जिससे समुद्र के जीव उस शरीर से अपना भोजन प्राप्त कर सके।”
“हे राम। यह कैसा संयोग है! मेरे पर प्रेमभिक्षु जी की कृपा बरस गई। मैं न तो कभी उनसे मिला हूँ, न ही कभी उनके विषय में मुझे कोई ज्ञान है। तथापि मुझ पर उनकी अनुकम्पा कैसे?”
“कारण तो मुझे ज्ञात नहीं है। संतों का चरित्र ही ऐसा होता है कि वह सदैव सुपात्र पर अपनी कृपा बरसाते रहते हैं- अपने जीवन काल में भी तथा जीवन के पश्चात भी। गुल, तुम तो इन बातों से परिचित हो।”
“हाँ, दादा। उत्सव इतना भाग्यवान है कि उसे तीन तीन बार स्वयं प्रेमभिक्षजी के दर्शन हुए, उनसे भेंट हुई, उनका मार्गदर्शन मिला। मैं तो जन्म से ही यहाँ हूँ किंतु मेरे पर उनकी ऐसी कृपा कभी नहीं हुई। मैंने तो उसे जीवित भी नहीं देखा, ना ही जीवन के उपरांत। क्या मैं ऐसी कृपा के योग्य नहीं हूँ?”
“बेटी, तुम पर स्वयं भगवान द्वारिकाधीश की कृपा है। अन्य किसी की कृपा गौण हो जाती है।”
अश्विनभाई के शब्दों से वह संतुष्ट हो गई। उत्सव आश्चर्य में डूबा ही रह गया। उसके सारे तर्क उसे इस स्थिति को समझा नहीं सके। 
“उत्सव, चलो अब कहीं अन्यत्र चलें?”
“नहीं गुल, अब मैं कहीं नहीं जाना चाहता। चलो लौट चलें।”