द्वारावती - 70 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 70

70

लौटकर दोनों समुद्र तट पर आ गए। समुद्र का बर्ताव कुछ भिन्न दृष्टिगोचर हो रहा था। बालक की भाँति वह कुछ कहना चाहता था किंतु उसकी भाषा न तो गुल को, न ही उत्सव को समज आ रही थी। 
“उत्सव, तुम नगर भ्रमण अधूरा छोड़कर क्यों लौट आए?” गुल ने अपनी भाषा में मौन तौड़ा। उत्सव ने कोई उत्तर नहीं दिया। गुल ने पुन: पूछा तब उत्सव बोला,“मैं विचलित हो गया हूँ, गुल। जो देखा, जो सुना, जो अनुभव किया पश्चात उसके मन का विचलित होना सहज है ना?”
“उत्सव, तुम तो धैर्य को धारण करके रखो। मानसिक स्थिरता तुम्हारा गुण रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी तुम स्थितप्रज्ञ रहते हो तो इस बात पर विचलित क्यों हो?” 
“मन जिस बात को स्वीकार कर रहा है, बुद्धि उसे अस्वीकार कर रही है। वास्तव में जो हुआ है वह सत्य है किंतु विज्ञान उसे मिथ्या कहता है।मन, बुद्धि, विज्ञान, सत्य, मिथ्या आदि के इस द्वंद्व से मैं ….।”
“तुम इस द्वंद्व में क्यों पड़ते हो?” 
“तो क्या करूँ?”
“बैठो यहाँ। शांत चित्त से बैठ जाओ।”
उत्सव शिला पर बैठ गया।
“अब इस समुद्र को देखो, उसे सुनो। कुछ कहना चाहता है वह ऐसा तुम्हें प्रतीत नहीं होता?” 
“मुझे ऐसा नहीं लगता।”
“उत्सव, भीतर के कोलाहल को शांत करोगे तो बाहर की ध्वनि सुनाई देगी। हो सकता है कि उस ध्वनि में कोई कर्णप्रिय संगीत हो।”
“हो तो यह भी सकता है कि वह भीतर के कोलाहल से भी अधिक कर्कश हो।”
“अवश्य हो सकता है। किंतु इस बात का ज्ञान कब होगा? जब तक तुम उस ध्वनि को सुनोगे नहीं, तुम नहीं जान पाओगे। यदि तुम्हें वह ध्वनि कर्कश लगे तो तुम अपने भीतर के कोलाहल के पास पुन: चले जाना। मैं नहीं रोकूँगी।”
“किंतु …।”
“कभी तो इस किंतु को छोड़कर शांत होने का प्रयास करो। मैं भी शांत हो जाती हूँ।”
गुल शांत हो गई, मौन हो गई। धीरे धीरे उत्सव ने भी अपने भीतर के कोलाहल को शांत कर दिया। उसे समुद्र की ध्वनि सुनाई देने लगी। उसने उस पर ध्यान दिया। उसे लगा जैसे बांसुरी बज रही हो। वह उस सुरों में आँखें बंद कर खो गया। 
एक अंतराल के पश्चात उत्सव ने आँखें खोली तब गुल वहीं थी, मौन। क्षितिज में कुछ देख रही थी, निश्चल प्रतिमा की भाँति। 
“गुल, भोजन कब मिलेगा?” उत्सव के शब्दों से गुल चकित हो गई।
“भोजन? उत्सव तुम भोजन करना चाहते हो?”
“हाँ, गुल।”
“एक योगी भी भूखा होता है! एक योगी को भी भोजन की इच्छा होती है!”
“नहीं गुल। आज मैं एक योगी की भाँति नहीं किंतु साधारण मनुष्य की भाँति जीना चाहता हूँ।भूख, क्षुधा, तृषा आदि का अनुभव करना चाहता हूँ। उसे तृप्त करने की मनसा रखता हूँ। क्या मुझे भोजन मिलेगा?”
“अवश्य।” गुल घर के भीतर गई, भोजन लेकर आइ। उत्सव ने भूख से ग्रस्त किसी साधारण मनुष्य की भाँति भोजन किया। मुख पर साधारण मनुष्य जैसे तृप्ति के भाव प्रकट हो गए।
“गुल, आज का भोजन अत्यंत स्वादिष्ट था।”
“एक योगी कभी स्वाद की प्रशंसा नहीं करता, उत्सव।”
“मैंने कहा ना कि इस समय मैं योगी नहीं साधारण मनुष्य हूँ। साधारण मनुष्य तो स्वाद की प्रशंसा कर कर सकता है ना?”
“जी, कर सकता है। किंतु आज तुम इस रूप में क्यों हो?”
“मैं जिस बात से विचलित था उस बात का समाधान योगी बनकर मैं खोजूँगा तो भटक जाऊँगा। किंतु साधारण मनुष्य बनकर मैं प्रयास करूँगा तो अवश्य मुझे प्राप्त होगा।”
“सामान्य मनुष्य और योगी में क्या अंतर है, गुल?”
“जहां कोई प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता वहाँ सामान्य मनुष्य ईश्वर पर श्रद्धा रखता है और उसे ईश्वर की लीला मानकर स्वीकार कर लेता है। यही कारण है कि कुछ बातों पर संसार के मनुष्य विचलित नहीं होते।”
“तुम्हारा इस प्रकार साधारण मनुष्य बनना मुझे पसंद आया।” गुल हंस पड़ी, उत्सव भी।
“चलो, साधारण मनुष्य वाला साधारण प्रश्न पुछती हूँ। क्या उसका उत्तर दोगे?”
“प्रयास करूँगा, पूछो।”
“जितना भी नगर भ्रमण किया है उस आधार पर हमारी यह द्वारका नगरी तुम्हें कैसी लगी?”
कुछ क्षण विचार के पश्चात उत्सव बोला, “मैं अनेक नगरियों में भ्रमण कर चुका हूँ। काशी जैसी मोक्ष नगरी में तो अनेक दिनों तक रहा हूँ। वही पंडित जगन्नाथ जी की काशी नगरी। किंतु द्वारका नगरी मुझे सबसे भिन्न लगी। कुछ साम्यता भी है, किंतु भिन्नता अधिक है।” 
“विस्तार से कहो, मैं उत्सुक हूँ।”
“इस नगरी में ना तो आसक्ति है ना ही विरक्ति। ना एक तरफ़ मृत्यु है ना दूसरी तरफ़ जीवन। ना कोई मृत्यु की प्रतीक्षा में है ना ही मृत्यु को देखकर पुन: जीवन जी लेने की तीव्र जिजीविषा है। यहाँ ना तो कोई बाल विधवा है ना कोई दुर्दशा से पीड़ित कोई व्यक्ति। नदी तट पर जप, तप, साधना, यज्ञ, समाधि, योग आदि करता कोई मुनि, योगी या योगिनी नहीं है। ना कोई इंद्रियों का दमन करता है न स्वयं को अकारण कष्ट देकर स्वयं पर अत्याचार करता है। तितिक्षा से ग्रस्त कोई व्यक्ति नहीं देखा। ना ही किसी को मोक्ष पाने की शिघ्रता है। ना कोई पाखंड है न कोई ज्ञानी होने का दम्भ करता है।”
“ऐसा किस नगरी में देखा है?”
“सभी अन्य नगरी में देखा है। किंतु बनारस जिसे हम काशी कहते हैं, जो मोक्ष की नगरी मानी जाती है उसमें कुछ विशेष है। मोक्ष की इस नगरी में मरने के लिए लोग दूर दुर से आते हैं। केवल मृत्यु पाने के लिए! ऐसे मनुष्यों से भरी है काशी। लोगों का विश्वास है कि काशी में मृत्यु होने से मोक्ष मिलता है। यही कारण है कि लोग यहाँ मरने की मनसा करते हैं। किंतु, मृत्यु भी कहाँ मिलती है? मिलती है केवल मृत्यु की प्रतीक्षा। इस प्रतीक्षा में उन लोगों ने काशी को मृत्यु की नगरी बना दी है। जो व्यक्ति जीना चाहता है वह भी उन्हें देखकर मृत्यु का विचार करने लगता है, मृत्यु की बातें करने लगता है। लोगों के मुख पर स्थित मृत्यु की प्रतीक्षा के भाव मृत्यु से साक्षात्कार से भी अधिक भीषण लगते हैं। जैसे काशी ने जीना छोड़ दिया हो।”
गुल धैर्य से उसे सुनती रही। अल्प विराम के पश्चात उत्सव बोला, “जो लोग काशी से दूर कहीं अन्यत्र मृत्यु को पाते हैं उसे भी अग्निदाह के लिए काशी लाया जाता है। मणिकर्णिका घाट पर दिन रात अविरत एक साथ अनेक चिताएँ जलती रहती है। चिता का वह अग्नि कभी शांत नहीं होता। अखंड स्मशान !”
“यह तो भयावह है, उत्सव।”
“उससे भी बढ़कर एक और बात है काशी की। सुनना चाहोगी, गुल?”
गुल की मौन सहमती जानकर उत्सव आगे कहने लगा। 
“एक विचित्र सी बात है। मृत्यु की इस नगरी पर न जाने कितने कवियों ने, लेखकों ने अनगिनत रचनाएँ रची है। प्रत्येक सर्जक काशी को विषय बनाकर सर्जन करता रहा है। तो नए नए सर्जक की मनसा भी काशी पर ही सर्जन करने की रहती है। कहानी, उपन्यास, कविताएँ, ज्ञान दर्शन के लेख, नाटक, संगीत, नृत्य, चित्र, चल चित्र आदि जो भी विधाएँ हैं सभी में बनारस पर रचनाएँ अवश्य प्राप्त हो जाएगी।”
“तो इसमें आपत्ति क्या है? विचित्रता कहां है?”
“विचित्रता इसमें नहीं है। क्या काशी में केवल मृत्यु ही है? जहां मनुष्य रहते हैं वहाँ मृत्यु के उपरांत, मृत्यु से 
पूर्व जीवन होता है। उस जीवन को सर्जक क्यों नहीं देख पाता? क्यों कोई सर्जक जीवन के विषय में नहीं सोचता? सर्जन करता? क्या काशी के उपरांत अन्य किसी नगरी में ऐसा कुछ भी नहीं कि जिसे विषय बनाकर सर्जन किया जाय?”
“संस्कृत साहित्य में उज्जयिनी नगरी से सम्बंधित अनेक रचना प्राप्त है। वर्तमान में मुंबई नगरी पर भी प्रचुर कला सर्जन उपलब्ध है।”
“यह सत्य है, गुल। किंतु मेरा बिंदु भिन्न है। द्वारका नगरी पर कौन सी कला का सर्जन तुमने देखा?”
“कदाचित एक भी नहीं।”
“ऐसा क्यूँ? क्या इस नगरी में इतना सामर्थ्य नहीं है कि उस पर सर्जन न हो सके? काशी में ऐसा क्या है जो प्रत्येक सर्जक उसके पीछे पड़ा है?”
“उत्सव, शांत हो जाओ।आज प्रथम बार तुम्हें किसी बात पर इतना उत्तेजित देख रही हूँ। इतनी स्पृहा क्यों?”
“आज मैं योगी उत्सव नहीं साधारण मनुष्य उत्सव हूँ।” 
“जिस प्रकार तुमने काशी का वर्णन किया है उस आधार पर मुझे प्रतीत होता है कि काशी में जीवन से अधिक मृत्यु की छाया विद्यमान है। मृत्यु तथा मोक्ष ही काशी की गतिविधि का केंद्र है। किंतु मेरा प्रश्न द्वारका नगरी पर था। उसका उत्तर दो।”
“द्वारका में जो भी है वह जीवन है, जीवन से जुड़ा है, मृत्यु से नहीं। यहाँ का प्रत्येक जन, जीवन से स्नेह करता है, मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं। मोक्ष कभी भी इस नगरी का लक्ष्य नहीं रहा। इस शब्द के मोह से भी यहाँ के जन मुक्त है। ऐसा क्यूँ है, गुल?”
“यह नगरी भगवान कृष्ण की नगरी है। एक राजा की राजधानी है। और राजा भी कैसा! परम ऐश्वर्यवान, परम शक्तिशाली। एक ऐसा राजा जिसने अपने जीवन की प्रत्येक क्षण को पूर्ण रूप से जिया हो, अपनी इच्छानुसार जिया हो। अपने राजा के इस जीवन का प्रभाव आज भी यहाँ है। इस प्रभाव में जीने वाले व्यक्ति मृत्यु एवं मोक्ष की चिंता से मुक्त है। जब तक राजा रहेगा, यह प्रभाव भी रहेगा। अतः यहाँ के कण कण में, व्यक्तियों में जो भी है वह जीवन है, केवल जीवन।”
उत्सव गहन श्वास के पश्चात बोला,“इस जीवन पर सर्जन क्यों नहीं होता? सभी कलाकार केवल मृत्यु को ही देख रहे हैं। मृत्यु के प्रति ही क्यों आकृष्ट है? इस जीवन के प्रति आसक्त क्यों नहीं है? जीवन के प्रति इतनी उपेक्षा क्यूँ?”
“जीवन पर सर्जन करने से पूर्व जीवन जीना पडता है। जीवन जीने का धैर्य, संयम, साहस, संघर्ष इन कलाकारों में कहाँ? वह तो क्षण प्रतिक्षण मर रहे हैं - सहज रूप से अथवा कृत्रिम रूप से। जीवन जीने का तथा जीवन पर सर्जन करने का उनमें सामर्थ्य ही कहाँ?”
“अब मैं कभी कोई पुस्तक लिखूँगा तो जीवन पर लिखूँगा। नृत्य करूँगा तो जीवन से सभर करूँगा। चित्र रचूँगा तो जीवन के रंगों से उसे छलका दूँगा। संगीत सर्जन करूँगा तो उसमें मृत्यु का एक भी करूण स्वर नहीं रखूँगा। कविता करूँगा तो जीवन की ऊर्जा से भरे भाव एवं शब्द होंगे उसमें।”
“ यह तो सुंदर विचार है। कब से प्रारम्भ कर रहे हो अपने सर्जन का?”
“अभी तो नहीं।”
“अभी क्या करना चाहते हो?”
“इस क्षण मैं कहीं जाना चाहता हूँ। मैं चलता हूँ। महादेव की संध्या आरती से पूर्व लौट आऊँगा।”
उत्सव समुद्र तट पर चलने लगा। कुछ ही क्षण में वह गुल की दृष्टि क्षेत्र से दूर निकल गया।