द्वारावती - 71 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

द्वारावती - 71



71

संध्या आरती सम्पन्न कर जब गुल लौटी तो उत्सव आ चुका था। गुल की प्रतीक्षा कर रहा था। 
“गुल, मुझे तुमसे कुछ बात कहनी है। कुछ समय बैठ सकती हो?”
गुल घर के बाहर ही रुक गई, “प्रथम यह कहो कि कहाँ गए थे?”
“वही तो बताना चाहता हूँ, सुनो। मैं रूपेण बंदर गया था। प्रेमभिक्षुजी से मिलने।”
“तुम्हें मिले वह? मैं भी मिलना चाहती हूँ। तुम बता कर जाते तो मैं भी चलती। मुझे भी …।”
“गुल, बाबा मुझे नहीं मिले। मैं ने लम्बी प्रतीक्षा की । मैं समुद्र के उस भाग के प्रत्येक स्थान पर गया । किंतु वह कहीं नहीं मिले।”
“अर्थात् वह वहाँ नहीं है। उन दिनों उनका तुमसे मिलना मिथ्या था, भ्रम ही था, उत्सव।”
“ना भ्रम था, ना मिथ्या था। ना ही कोई स्वप्न था। वह सत्य था, शुद्ध सत्य।”
“कैसा सत्य?”
“वहाँ मैं मछुआरों से मिला। प्रेमभिक्षुजी के विषय में पूछा। प्रथम तो सभी ने मुझे प्रवासी होने पर उत्तर देना टाल दिया। किंतु जब मैंने अपना अनुभव बताया तो एक एक कर सब अपने अनुभव कहने लगे। उनका कहना है कि प्रेमभिक्षुजी यहाँ के निवासी सभी व्यक्तियों से किसी ना किसी रूप में, कहीं ना कहीं, कभी ना कभी एक बार तो अवश्य ही मिले हैं। सभी ने बाबा के साक्षात्कार को स्वीकार किया है।”
“तुम्हारा अभिप्राय क्या है।”
“इसे मैंने संत कृपा तथा आशीर्वाद के रूप में स्वीकार कर लिया है।”
“चलो, यह बात यहीं पर पूर्ण हो गई।” 
“नहीं गुल। बात यहाँ पूर्ण नहीं हुई है, यहीं से प्रारम्भ हो रही है।”
“अब क्या है, उत्सव? क्या कोई नई बात है?”
“प्रेमभिक्षुजी ने कहा था कि मेरे प्रश्नों के उत्तर तुम्हें, अर्थात् पंडित गुल को देने हैं। तो अब मेरा विश्वास दृढ़ हो गया है कि तुम ही उत्तर दोगे। तुम्हारे अतिरिक्त कोई यह उत्तर नहीं दे पाएगा। और एक बात, मुझे मेरे उत्तर आज ही चाहिए। मैं अब अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता।”
“अर्थात् तुम वास्तव में एक साधारण मनुष्य का जीवन जी रहे हो। उसी प्रकार अधीर हो रहे हो। योगी उत्सव को त्याग दिया है तुमने, उत्सव।”
“धन्यवाद, गुल। अब मेरे उत्तर दो, जो तुम्हारे पास है। विलम्ब असह्य हो रहा है।”
“यदि यही नियति है तो यही सही। आज ही सही। किंतु तुम्हारे प्रश्नों से पूर्व मैं कहना चाहती हूँ कि
तुम यहाँ क्यों आए हो? यदि तुम जीवन, मृत्यु, ज्ञान, धर्म, कर्म, मोक्ष, वेद, वेदांत, दर्शन आदि के विषय में जिज्ञासा लेकर आए हो तो तुम्हारा यहाँ आना सार्थक नहीं है। इसके लिए तुम काशी जा सकते हो, हिमालय जाकर किसी समर्थ ऋषि से मिलो। मेरे पास यहाँ इस हेतु कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। मैं इन विषयों की अधिकारी नहीं हूँ।”
“नहीं, गुल। इन सभी में से किसी में मेरी रुचि नहीं है। मेरी जिज्ञासा भिन्न है। जिस समय तुम मेरी जिज्ञासा को जानने के लिए सज्ज हो जाओ उस समय की प्रतीक्षा में अत्यंत धैर्य से इतने दीनों से समय व्यतीत करता रहा हूँ। किंतु मैं आज मेरी जिज्ञासा तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत करूँगा। यदि तुम उसे संतुष्ट करने की इच्छा नहीं रखोगी तो मैं आज ही द्वारका का त्याग कर दूँगा।”
“प्रश्न मेरी इच्छा का नहीं है, उत्सव। प्रश्न उस उचित योग का है क्यों कि प्रत्येक वस्तु का, प्रत्येक बात का जन्म लेना निश्चित समय पर निर्धारित होता है। उस समय को योग कहते हैं। यदि वह योग, वह संयोग आज, इसी समय बन रहा है तो इसी समय तुम्हारी जिज्ञासा संतुष्ट हो जाएगी। और यदि इस हेतु नियति ने मुझे चुना है तो मेरे माध्यम से ही वह कार्य होगा। किंतु तुम कुछ भी कहो उससे पूर्व तुम्हें एक कार्य करना होगा।”
“गुल, मुझे टालने की कोई नहीं योजना तो नहीं?”
“नहीं, तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? “
“इतने दिनों से में यहाँ हूँ, इतनी बार मैं अपने प्रश्नों के उत्तर के विषय में तुम से बात कर चुका हूँ। किंतु तुमने अभी तक एक बार भी यह जानने की उत्सुकता प्रकट नहीं की कि मेरे प्रश्न क्या है? कल भी जब मैंने मेरे प्रश्न तुम्हारे समक्ष रखना चाहा तब भी तुमने मुझे द्वारका भ्रमण के नाम पर टाल दिया। अब कुछ और बहाना? वास्तव में तुम चाहती क्या हो? क्या प्रेमभिक्षुजी के वचनों को मिथ्या सिद्ध करना चाहती हो?”
“यह विचार किसी योगी के नहीं हो सकते, उत्सव। निश्चय ही यह जन साधारण उत्सव के विचार है, ना कि उस उत्सव के जो मुझे प्रथम मिलन में मिला था।”
“उससे क्या अंतर पड़ेगा, गुल?”
“इसी लिए तो कहती हूँ कि तुम्हें अपने प्रश्नों को प्रकट करने से पूर्व एक कार्य करना पड़ेगा।”
“कहो, कैसा कार्य?”
“तुम्हें अपने मूल रूप को प्रकट करना होगा।”
“अर्थात्?”
“अपने जीवन के विषय में मुझे बताना होगा। वास्तव में तुम कौन हो? क्या हो? तुम्हारी अवस्था क्या है? तुम्हारे प्रश्न कौन से उत्सव के हैं? यह सभी जानने के पश्चात ही मैं कुछ कर सकूँगी। क्या तुम अपने विषय में बताने को तत्पर हो?”
“यह बात है? मैं मेरे जीवन के विषय में सब कुछ बताने को सज्ज हूँ। क्या तुम सज्ज हो?”
“अवश्य, उत्सव।” गुल ने कहा।
“नहीं, उत्सव। अपने विषय में तुम कुछ नहीं बताओगे। जो भी बताना होगा, मैं बताऊँगा।”
गुल तथा उत्सव ने किसी अन्य व्यक्ति के शब्दों को सुना। दोनों ने दशों दिशाओं में देखा किंतु वहाँ उन दोनों के अतिरिक्त कोई नहीं था। 
“गुल, यह कौन बोला?”
“मुझे भी आश्चर्य हो रहा है, उत्सव। कौन हो सकता है?”
पुन: आकाशवाणी हुई, “मैं ही बताऊँगा। तुम चाहो अथवा नहीं किंतु मैं ही यह कार्य करूँगा। तुम्हें मेरे माध्यम से ही देखना होगा।”
“किंतु आप हैं कौन? कहाँ हैं आप? कृपया प्रकट हो जाओ।” दोनों ने हाथ जोड़ विनती की।
“मैं वही हूँ जिसने गुल का जीवन उत्सव के समक्ष रखा था। अब मैं उत्सव का जीवन तुम्हारे समक्ष रखूँगा। चलो, सज्ज हो जाओ। दूर समुद्र के ऊपर आकाश पर ध्यान केंद्रित करो।”