द्वारावती - 79 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 79


79
                             

रात्रि भर उत्सव यमुना तट पर बैठा रहा। ब्राह्म मुहूर्त में उसने यमुना में स्नान किया और चल पडा। भगवान द्वारिकाधीश जी के दर्शन किए। पश्चात कृष्ण जन्म स्थल के दर्शन किये। गोकुल गया।
प्रत्येक स्थल के तरंगों का उसने अनुभव किया। उसने उसे ऊर्जा, उत्साह तथा चेतना से भर दिया। इस अनुभव की प्रसन्नता के साथ वह वृंदावन आया। स्थानीय निवासियों से वृंदावन के विषय में अनेक जानकारी प्राप्त की। और चल पड़ा कृष्ण की रासलीला का जहां स्थान है। निधि वन !
निधि वन में प्रवेश करते ही उसने अनेक वृक्षों को देखा वह क्षणभर रुक गया। 
‘यहाँ के वृक्ष युग्म में हैं। प्रत्येक युग्म में एक श्याम है तो दूसरा गौर। यह कैसी रचना है प्रकृति की? क्या यह कोई चमत्कार है?’
उत्सव ने इस रहस्य के विषय में किसी से पूछा। उत्तर मिला, “यह वृक्ष स्वयं ही ऐसे उगे हैं। सभी वृक्ष पाँच हज़ार वर्ष से भी पुरातन हैं। श्याम वृक्ष कृष्ण का प्रतीक है तो गौर वृक्ष गोपियों का।”
उत्तर सुनकर उत्सव के मन की जिज्ञासा तीव्र हो गई। निधि वन की वायु में रहे अनोखे आकर्षण ने उसे अपनी तरफ़ खींचा। पूरे निधि वन का दर्शन करने पर उसने निश्चय कर लिया, ‘मैं यहीं रुकूँगा।’
एक वृक्ष की छाँव में वह बैठा। कृष्ण का स्मरण करते हुए आँखें बंद कर निधिवन का अनुभव किया। अंत में वह ध्यानवस्था में पहुँच गया। 
संध्या समय किसी ने उसे जगाया, “चलो। अब यहाँ से आपको जाना होगा।”
ध्यान भंग होते ही उत्सव ने कहा, “मैं कहीं नहीं जाना चाहता। मैं यहीं रुकना चाहता हूँ। यहाँ बैठकर …।”
“अब आप यहाँ नहीं रह सकते, महाराज। कोई भी यहाँ संध्या समय के पश्चात नहीं रह सकता। रात्रि में सारा निधिवन मनुष्यहीन होता है।”
“ऐसा क्यों?” 
“क्यों कि रात्रि में स्वयं कृष्ण यहाँ रासलीला करेंगे।”
“मैं उसे ही देखना चाहता हूँ।”
“यह सम्भव नहीं है क्यों कि यही यहाँ का नियम है। रातभर यहाँ रुकने की किसी को अनुमति नहीं है। मुझे भी नहीं।”
“किंतु ….।”
“महाराज, क्या आप भगवान की रासलीला में व्यवधान बनना चाहते हो?”
उसके इस प्रश्न ने उत्सव की सभी बातों का खण्डन कर दिया। विवश होकर वह उठा, निधिवन छोड़कर बाहर आ गया। रात्रि वहीं व्यतीत की।
रात्रिभर वह उस दिशा में देखता रहा जहां कृष्ण रासलीला करते हैं ऐसा उसे बताया गया। उसने उस दिशा में एक प्रकाश पुंज होने का अनुभव किया। उसने उसे देखा। उसमें किसी आकृति को देखा। शीघ्र ही प्रकाश ने विराट रूप धारण कर लिया। उस प्रकाश में उत्सव ने आँखें बंद कर ली। 
उत्सव ने जब आँखें खोली तब प्रभात का प्रथम प्रहर हो चुका था। 
“रात्रिभर जिस प्रतीक्षा में निधिवन के बाहर मैं रुका था वह घटना के समय में ही मैं गहन निद्राधीन हो गया। हे कृष्ण, यह तुम्हारी लीला ही थी न? तुम रासलीला के साथ ऐसी लीला भी करते रहते हो। ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा।” उत्सव वहाँ से चला गया।
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