बचपन Pawnesh Dixit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बचपन

बचपन

कहती कुछ नहीं थी बेचारी!! नन्ही सी जान

चल भाग यहाँ से चली आती है रोज मुहं उठा के अपने बाप से जाकर कह - लाकर दे एक खिलौना !!!!! तब जाकर मैडम के दिल को ठंडक पड़ी थी |

वह बेचारी आठ साल की बच्ची दांत पीसकर रह गयी थी, आँखें आंसुओं से भर गयी थी जो कह रही थीं हट जा!!! यहाँ से नहीं तो तेरे घर में आज का खाना भी ढंग से नहीं बन पायेगा | अथाह गरीबी जश्बातों को भी अक्सर छोटा कर देती है|

दौडती हुयी वह फ़ौरन अपनी झोपड़ी में आयी जहाँ सब पहले से बिखरा हुआ सामान पड़ा था और माँ एक कोने में बेसुध निढाल पड़ी हुयी थी जैसे अभी भी मयखाने की इबादत सर चढ़कर बोल रही हो |

यहाँ माँ शराबी थी , बाप एक अकेला कमाऊ | माँ की यह हालत कैसे हुयी कौन ज़िम्मेदार था ये तो किसी को नहीं पता सब यही कहते थे कि ये सोन चिरैया है | घर की सारे हीरे इसी में जड़े है पूरे मोहल्ले को बदनाम करने पर तुली है |

कुकर में दाल चढ़ाई ही थी कि उसकी सहेलियां आ गयी | अरे चुलबुली !!!! को देखो तो अभी से अम्मा बनी पड़ी हैं घर की चकिया यही चलाती हैं |

एक ने अन्दर धीरे से कदम रख दिया और कुहनी में चिकोटी काट ली , पर चुलबुली को आज उन सबकी शरारत असली मालूम पड़ रही थी | जब से उसने सुरेखा के गले में चमचमाती मोतियों की माला और टुनिया की बूटेदार फ्राक देखी थी |

कितनी बार उसने अम्मा से कहा था , बाबू जी से कहा था बस एक गुड़िया ही लाकर रख दें उसी से वह काम चला लेगी , उसी की माला से खेल लेगी , उसी की फ्राक को छूकर अपना मन भर लेगी और शून्य में कहीं देखती हुयी अपने ही विचारों में वह खो गयी थी |

बाबू जी का हाल उससे बिलकुल देखा न जाता था , रात को बाहर काम पर जाते थे - ट्रांसपोर्ट कम्पनी में ड्राईवर का काम करते थे | अक्सर रात में ही ड्यूटी पर जाना पड़ता था | दिन में आकर ही वह सोते थे | जब उठते थे -

सबसे पहला ख्याल यही आता था कि सुन्दर बीवी से अच्छी कोई बदसूरत ले आये होते जो घरेलु और कामकाजी होती तो बिटिया आरती के नन्हे हाथों को तो आराम मिलता जो बरबस ही बाबू जी के सुबह उठने से पहले तकिये के किनारे पहुँच उन्हें जगा देते थे|

एक दिन की बात है आरती सुबह उठी तो उसने देखा माँ और पिताजी दोनों किसी बात पर लड़ रहे थे लड़ाई की वजह तो उसकी बुद्धि न भांप सकी पर इतना जरुर समझ गयी कि इस दुनिया में पैसे की कीमत आदमी से ज्यादा होती है माँ ने पैसे तेज़ी से एक कोने में फेंक दिए थे | उसी को देख आरती ने अंदाज़ लगाया था कि अभी इन्ही पैसों को उसकी माँ उठायेगी जब दारु का नशा उसके ऊपर से उतर जाएगा |

अक्सर इसी तरह की घटनाएं उसकी आँखों के सामने नाचती थी पर वह अकेली जान करे भी तो क्या करे माँ और पिताजी के अलावा उसका था कौन !!

जिन्हें छोड़कर वह जाती | वह अपनी माँ बाप से बहुत प्यार करती थी और उसकी उम्र में हर बच्चा अपने माँ बाप को चाहता है वह भी उन्ही में से ही एक थी | कई बार उसने सोचा कि घर छोड़कर चली जाए और बच्चों की तरह खिलौनों से वह भी खेले , नए नए कपड़े पहने और सैर सपाटे के लिए टमटम पर बैठकर जाय | उसकी सहेलियां कभी तो उससे जलें कभी तो वह अपना गर्व से सीना चौड़ा करे |

और घर में भी किसके साथ खेले !! न कोई छोटा भाई जिसके साथ वह अपना कुछ अच्छा वक़्त गुजार सके | अकेले घर में वह भूतनी सी मारी मारी फिरती थी | अक्सर ही उसकी मनोदशा खराब ही रहती थी |बस खाना खाते वक़्त ही उसे ख़ुशी मिलती थी शायद इसलिए क्यूंकि वह खाना उसी के हाथ का बना हुआ होता था |

अपने हाथ का बना खाना किसे अच्छा नहीं लगता बस नमक की मात्रा संतुलित हो | यही सब चूल्हा , चौका करते - करते उसकी उम्र १३ साल हो चुके थे बचपन छूटता ही जा रहा था हांलाकि उसे आभास भी था बस वह अपने आप से ही बार बार हार जाती थी और कोई फैसला नहीं कर पाती थी कि कैसी ज़िंदगी उसे जीनी है !!

एक बार टी वी पर उसने न्यूज़ में देखा कि एक ९ साल की बच्ची अपना घर छोड़ कर भाग गयी कसूर इतना था उसका कि अच्छे नम्बर न आने की वजह से घरवाले उसके साथ बुरा बर्ताव कर रहे थे तभी से आरती ने भी ठान लिया था कि वह भी और जुल्म अपने बचपन पर नहीं ढायेगी और भरपूर अपना बचपन जियेगी चाहे इसके लिए उसे अपना घर ही क्यूँ न छोड़ना पड़े |

बस अब उसे मौके का ही इंतज़ार था कि कब वह बेड़ियों से मुक्त हो सके लेकिन उसकी चेतना इस काम में रोड़ा भी बन रही थी | माँ बाप से अलग वह कितने दिन बाहर रह पायेगी और सबसे अहम् बात कि उसे तो मालुम भी नहीं है कि कहाँ बाल संरक्षण गृह है जहाँ पर सबके साथ उसे अपने खुशियों का महल सजाना था|| दूजी बात यह कि कभी उसका मन किया वापस लौटने का तब क्या ऊसके माँ बाप उसे स्वीकारेंगे और अगर स्वीकार कर भी लिया तो क्या वही प्यार और मुरौवत से उससे बात करेंगे !!!

एक दिन वह आ ही गया जब उसका बाप काम पर गया था और माँ हमेशा की तरह बेसुध ज़मीन पर निढाल पड़ी थी और मोहल्ले में पत्ता भी नहीं खड़क रहा था रात का वक़्त था | दबे पाँव वह निकल पड़ी जैसी ही अपनी टूटी झोपड़ी से कदम सौ गज तक आगे बढ़े थे एक अजीब सी ख़ुशी उसकी आँखों में थी पर ध्यान से देखने पर लगता था कि आने वाला एक डर भी कहीं कोने में बैठा है जिसका सामना इस भेड़िया धसान दुनिया में उसे करना पड़ेगा |

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