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दर्द

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- -परिप्रेक्ष्य / स्वीकृति

‘प्रस्तुत कहानी में चित्रित किये गए सभी दृश्य , घटनाएं ,पात्र, kahaaniकहानी का शीर्षक,सभी काल्पनिक हैं इनका किसी क्षेत्र विशेष में घटी सजीव घटना से कोई सरोकार नहीं है यदि इन घटनाओं, पात्रों ,दृश्यों का किसी सजीव घटना से सम्बन्ध पाया जाता है तो ये महज संयोग मात्र होगा| इसमें लेखक का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा | कहानी की विषय वस्तु, संवाद ,आदि लेखक के स्वतंत्र विचार हैं | पाठकों से अनुरोध है लेखक का कहानी को मनोरंजन के साथ साथ उन्हें उद्देश्य से भी अवगत कराना है | ‘

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कमरे में अचानक चिल्लाने की आवाज़ आयी | श्यामू भी चौंक गया था , उसके हाँथ से कापी छूट गयी तभी सभी लोग कमरें में पहुँच चुके थे,रुनझुन अभी भी पिनपिनाये जा रही थी माँ ने फ़ौरन छाती से उसे लिपटा लिया,

इसी बीच श्यामू एक जोरदार तमाचा कन्हैया के लगा चुका था, जो घर के मंझले लड़के थे मॉस कम्युनिकेशन के चक्कर में मांस तक नुचवाने में परहेज़ नहीं करते थे, बकरी चाहे एक टांग पे खड़े खड़े खरगोश को चीर दे या खरगोश चूहे को भंभोड़ दे वो साहब सनकी खोजी और जाबाज़ पत्रकार की तरह कवरेज पहले पूरी करते थे बाद में बीच बचाव,

माँ ने किसी तरह झगड़ा शांत कराया, पर कन्हैया अभी भी भौएँ तान के खड़ा था, समझ नही पा रहे थे घर के लोग कि वो माँ की डांट पर गुस्सा है या अपने प्रोग्राम में व्यवधान पड़ने के कारण!!

माँ सभी का ख़याल रखती थीं,पर रुनझुन में उन्हें अपनी छवि दिखाई देती थी, वो उनकी आँखों का तारा थी | पढी-लिखी व बुद्धिमान होने के कारण सभी माँ से अपना झगड़ा निपटवाते थे,

घर में सबसे छोटी होने के कारण लाड़ प्यार के कारण रुनझुन का सभी बहुत ख्याल रखते थे | अभी उसकी उम्र ही क्या थी केवल ५ साल उसमें वो दिल दहला देने वाला दृश्य देख कर बड़े बड़ों की धक् हो जाती तो उसकी क्या मजाल थी !! माँ ने कन्हैया को कई बार मना किया था कि वो टीवी पर अपराधिक और हिंसात्मक सीरियल व घटनाएं न देखा करे पर उसको कुछ कहना समझाना वो भी प्रोफेशन को लेकर ऐसा था जैसे झबरे कुत्ते को गले में घंटी बाँध के चूहे को जिगरी यार बनाने को कहा जाए सुनना तो दूर एक झटके में वो सामने वाले की बात की बात में बात निकाल मारता था| आज भी अपने अड़ियल रवैये की वजह से “ इंसान बना जानवर “ का टेलीकास्ट प्रभु देख रहे थे वो भी पूरी फुल वॉल्यूम पर , रुनझुन की नींद टूटी और ये बवाल उसी का नतीजा था |

पिताजी श्यामू , कन्हैया और रुनझुन में वैसे तो कोई भेद नहीं समझते थे,पर वो अपने सभी बच्चों को अच्छी तरह से जानते थे| रेलवे में वे हेड क्लर्की करते करते अब घर में भी रिश्वत के समीकरण बिठाने में वे उस्ताद थे , जनाब के रिटायरमेंट में भी कुछ साल बचे थे तो हाँथ कागज़ी हरियाली से लिपटा के ही रखते थे और जैसे ही मौका मिलता जनाब दफ्तरों के मुसद्दी से समाज सेवा में भी अपना जलवा दिखा मारते थे | नाम था दीनानाथ मिश्रा पर लक्ष्मी लेने में नाम को अलग रखकर हुनर का जलवा जरूर दिखाते थे , ऑफिस में अपना अलग ही जलवा था उनका | भाई कोई कुछ भी कहे ! वो अपने को हर कला में पारंगत समझते थे चाहे भले उन्हें हिंदी वर्णमाला के सारे अक्षर गिनने में पूरे दस मिनट लग जाएँ || या मुट्ठी ढीले करवाने का फार्मूला में, जेब ढीले करवाने में जरा भी कसर नहीं छोड़ते थे

रुनझुन अपने सभी भाई बहनों में थोड़ा अलग थी , प्यार तो सभी करते थे लेकिन केवल माँ और श्यामू ही उसके दिल के करीब थे, दूसरे शब्दों में वो थोड़ी सवेदनशील लडकी थी | वह अपने चारों तरफ होने वाली घटनाओं से कुछ ज्यादा ही प्रभावित होती थी इसे लेकर श्यामू उसे अक्सर समझाता था की किस बात या घटना को उसे कैसे लेना है वह अपनी बहन से उम्र में काफी बड़ा था और समझदार था सभी में, दरअसल वह एक रिसर्च स्कॉलर था, जो समाज शास्त्र में मास्टर की डिग्री भी ले रहा था,उसी का प्रभाव था की घर में सभी चर्चा में तन्मयता के साथ भाग लेते और नोक –झोंक के साथ बातों का समंदर समाज के गालियारों से धमाकेदार तरीके से गुज़रता हुआ फटाक से घर के चौके की गर्मागर्म चाय पर ही जा के रुकता था और पकौड़ियों की प्लेटों के लिए लड़ाई बड़ा ही चंचल दृश्य बनता था ,अंत में सभी सभी श्यामू के शिगूफे की वाह- वाह करने लग जाते .

धीरे –धीरे रुनझुन बड़ी हो रही थी घर में सभी उसे अब तरह तरह के खिलौने लाकर देते थे , कोई उसे मिठाई देता था तो कोई टाफी , कोई पैसे , पैसे मिलने पर वो बहुत अजीब सा व्यवहार करती थी बचपन के समय हर बच्चे की तमन्नाओं में एक तमन्ना ये जरूर होती है की पैसे मिले जब भी तुरंत सटाक से कपडे पहन कर बाज़ार चल दे या पड़ोस की ही दुकान से चुटुर-पुटुर या अगड़म-बगड़म ले आये जिसे दिखा-दिखाकर मोहल्ले के बच्चे खूब इठलाते हैं |

पर उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था वह चुपचाप इन पैसों को गुल्लक में ले जाकर बंद कर देती थी | एक-एक पैसों का हिसाब लगाने में वो गज़ब की माहिर थी बस वो आस पास हत्याओं मार पिटाई लड़ाई से अक्सर गुमसुम हो जाती थी कुछ अजीब सा बर्ताव करती थी उम्र में छोटी होने के कारण घर के सदस्यों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया फिर भी उसे समझाते थे|

कुछ ही दिनों में जब सब घर वालों को ये पैसे जमा करने वाली आदत पता चली तो उन्होंने बहुत समझया बेटा ! पैसे खर्च भी किया करो खेलो खाओ और मौज करो हम सब ने भी की है और नहीं समझ आता तो श्यामू का उपदेश वाली बातें सुनो “ बेटी कितनी नादान है तू ,बचपन मिठाइयों का समय, जवानी बनाव और श्रिंगार का और बुढ़ापा लोभ का होता है “ ये सुनकर श्यामू भैया की तरफ वो टकटकी लगाकर देखने लगती थी मानो वो सब पहले से जानती हो या उसे ये बातें रात को टी.वी में आने वाले कन्हैया भैया के कार्यक्रम

“ जागते रहो अभी हटना मत “ के ठीक बाद वाले कार्यक्रम बाबा के रिकार्डेड प्रवचन की डुप्लीकेट कॉपी लगती हों |

कभी कदार जादा पूछने पर वो बताती थी “ कि पापा ही कहते हैं “बुरा वक़्त और भूचाल कभी पूछकर नहीं आते “ पैसे की कीमत वही जानता है जो कभी एक-एक पैसे के लिए तरसा हो “और फिर कन्हैया का उबाऊ कार्यक्रम “भिखारी हैं हम सब” वाली कहानी की दलील उसके मुहं से सुनते ही सब उसकी मासूमियत भूल कन्हैया को तलाश करने लग जाते या टीवी का केबल कनेक्शन ही काट देते वैसे

भी कन्हैया को बुलाने-रुलाने का एक ही तरीका था घरवालों के पास जो अनायास ही रुनझुन की वजह से अक्सर काम आ जाता था और घर के कुछ जरूरी काम साहब जादे कर देते थे |

खैर सभी ने कन्हैया को खूब समझाया था कि अब रुनझुन बड़ी हो रही है अपनी बेफकूफियत उस पर न दिखाओ | बहस शुरु हो जाती पत्रकार महोदय से और आदमी और जानवर की मिसाल उसके मुहं से सुनने से पहले ही लोग उन्हें उनकी असली आदमियत का अहसास उनके पिछले कारनामों से करा कर अपने अपने कामों में व्यस्त हो जाते थे |

रुनझुन का झुकाव धीरे-धीरे खेल-खिलौनों की बजाय किताबों में लगने लगा था | छुट्टी का सारा दिन वो कहानियों नाटकों कविताओं की किताबें पढ़ा करती थी यहाँ तक वो खाना- पीना भी भूल जाती थी , पढने में वो बहुत होशियार थी नाटक देखना और पढना उसे बहुत अच्छा लगता था और हो भी क्यूँ न वो घर भी एक नौटंकी दरबार से कम न था असली पात्र वही थी | जरूर बीज वहीं से आया होगा||

जब पापा अपने गुल्लक के एक एक पैसे का हिसाब किताब लगाते लगाते कल्कुलैटर ढूँढ़ते और वो बेचारा कन्हैया के निर्मम हांथों के बीच दबा हुआ छूटने की भीख मांग रहा होता चिल्ला चिल्ला कर कि टीवी में बैठा शैतानरूपी काल मरे या ये साहबजादे ,बिना कमीसन के उसके दूत, पागल हो जायें | और वो किसी के भी हाँथ में पहुँच जाए|

और मम्मी का भक्तिन बन के श्यामू को उपदेश देना जानते हुए कि वो अभी कहो एक ही सांस में पूरी रामायण गीता के दोहे सुना जाये और फिर थक कर उन्ही से लस्सी बनवाए और पैर दबवाए | फिर भी माँ की बात भी निराली ही थी, ये तो कुछ भी नहीं बिना टाइम के कब मछली मंडी लग जाए इसका पता न मछलीवालों बेचने वालों को होता न थोड़ी देर के लिए मंडी बने घर को!! बस मछली बनी रुनझुन ही आऊ-बाऊ के चैप्टर को कभी कदार रोक देती थी क्यूंकि अंडे बेचने की शुरुआत उसी के खाने- खेलने –पढ़ने को लेकर होती |

रुनझुन ने ठान रखा था कि अबकी स्कूल में होने वाले नाटक कम्पटीशन में वो मुख्य पात्र करेगी और पुरस्कार भी जीतकर लाएगी,सभी को उसने ये बात बताई थी ,लिहाजा श्यामू को उसका गाइड नियुक्त किया गया था नाटक की पटकथा पात्रों का भूमिका कथावस्तु ,संवाद

चित्रण ,सब के अनुरूप रुनझुन का पात्र न्याय नहीं करता प्रतीत हो रहा था उसे एक अभिमानी निरंकुश ,आततायी रानी का रोल निभाना था जो विस्तारवादी नीति के तहत अपने राज्य को इस कदर त्रस्त कर देती है कि भूख से लोग मरने लगते हैं, और और लोग अंततः पीड़ित मानसिकता से उबरकर एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं तभी उसका सेना नायक अपनी सूझबूझ से ” फ़ौज में औज “ वाली कहावत चरितार्थ करते हुए इस अकाल से प्रजा को उबार लेता है “ कुल मिलाकर नाटक में निर्दयता , क्रूरता , दबाव, खूंखारता के छौंके भी लगे थे रानी के चरित्र के हिसाब से ,

और रुनझुन का स्वभाव इसके कुछ नहीं बल्कि पूरा विपरीत था| बस उसकी लगन और डायलॉग बोलने की स्टाइल और संवाद याद करने की प्रतिभा ही घर के लोगों को

चौंकाती थी| उन्हें बस इसी बात का थोड़ा डर था कि कहीं रुनझुन रानी के पात्र से भावुक न हो जाए या सही निभा न पाए क्यूंकि उसे रोचक चंचल शांतप्रिय लोग ही मन को भाते थे उन्ही से दोस्ती , उनका साथ खेलना वगैरा भी हांलाकि वह समझदार थी जानती थी कि दुनिया कि सच्चाई क्या है ? और कैसे अपने मन मस्तिष्क को परिस्थियों के हिस्साब से समन्वित किया जाता है , पर अपने नाज़ुक दिल से हारी थी जो दूसरे के दर्द पीड़ा , दुःख को देखकर बिना सोचे विचारे अक्सर ही उसे रुला देता था|

चूँकि ये वार्षिक समारोह का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम था और राज्य स्तर तक के प्रतिभागी भी इसमें आ रहे थे, और ये पहला मौका था जब रुनझुन इसे बिलकुल भी नहीं छोड़ना चाहती थी|

सब लोगों ने एक छोटी सी प्लानिंग बनाई सोचा गया कि रुनझुन को ट्रेनिंग दे दी जाए थोड़ी ताकि नाटक में वो जोरदार अभिनय कर सके | मसला केवल इतना था कि रुनझुन को कुछ प्रेरणादायक बातें और हिम्मत बांधना सिखाया जाए दैनिक जीवन और आस-पास के क्रियाकलापों में |

जैसे तैसे घर का माहौल बदलने की कोशिश की गयी अब सब लड़ाई झगड़े भी कम होने लगे | व श्यामू और पापा ने जानवरों और उन पर होने वालों अत्याचारों के बारे में उसे गहराई से अवगत कराया | उसे बताया कि कैसे जानवरों चाहे पालतू हों या जंगली उनको लेकर मानव का दृष्टिकोण कितना निम्नतम स्तर का हो गया है महज़ पेट की भूख और और निजी स्वार्थों के चलते हत्याएं हो रही हैं और धन लोलुपता के नायाब समीकरणों को फिट करने के लिए राजनीति भी इससे अछूती नहीं है,

हम लोगों को इसके खिलाफ आवाज़ तो उठानी चाहिये, पर एक दायरे में रहकर और धैर्य रखते हुए न कि अति भावुक होते हुए अपने मन; पटल को कमजोर करना चाहिए और ये अपराध, अत्याचार मानव मानव से भी कर रहा है बच्चे गायब हो रहे हैं बलात्कार बढ़ रहे हैं बच्चों के साथ लूट चोरी डकैती भी चरम पर हैं चंद पैसों और प्रतिशोध के कारण मानव-मानव का गला काट रहा है हमे अपनी संवेदनाओं को काबू में करके इस पर विचार करना चाहिए और बेटा!! तुम्हे तो एक मौका मिला है रानी के रोल से अपनी भूमिका पर तनिक भी आंच न देना तभी तो क्लाइमेक्स में सेनानायक भी जोरदार अभिनय से सारी समस्याएं दूर कर देगा भुखमरी बेकारी संघर्ष प्रतिशोध सब छू मंतर हो जायेंगे

रुनझुन आज बड़े ध्यान से सब सुन रही थी श्यामू और पापा पहली बार उसे एक साथ जो समझा रहे थे इतनी बड़ी बातें उसकी समझा में तो नहीं आयी थी पर इतना जरूर जान गयी थी कि जो कुछ आज तक वो महसूस करती आये है वो सबको महसूस होता है और ज़िन्दगी जीने के लिए सब दिल के दूर कहीं कोने में छुपाना पड़ता है | उसे पता था कि उसे अब क्या करना है जिससे उसका प्ले शानदार हो जाए उसे रोजमर्रा के जीवन में अपने सोच व्यवहार जीने के तरीके को उत्साहपूर्ण और दिली उमंग के साथ जीना होगा, आस पास की दुर्गन्ध, बिगड़े इधर उधर को एक पल के लिए भूलते हुए मानकर हत्या अत्याचार तो एक आम बात है हर जगह हो रहे हैं इसे इतना ख़ास न बनाऊं कि अपना ही जीवन भूल जाऊ इसको मिटाने के लिए जो प्रयास है वो इस नाटक से करुँगी मैं |

इसी सोच में ही वो डूबी थी “घड़ियों में घड़ियाल हैं “ ‘खुल के जियो ज़िन्दगी प्यारों ‘ का डायलाग मारता हुआ अचानक श्यामू सन्न से कमरे में से चला गया|

वो दिन आ ही गया और रानी के चरित्र के लिए रुनझुन ने जो तैयारी की थी वो उसके रोजमर्रा में सभी ने देख ली थी अब पहले वो काफी ज्यादा उत्साही , तेज़ प्रसन्न रहने लगी थी !

नाटक शुरु होता है रानी के लिबास में रुनझुन स्टेज पर आती है पूरा दरबार सजा है लोग उसे बता रहे हैं कि कैसे शत्रुओं ने सीमाएं बांध कर रखी हैं और फिर रानी का जोरदार डायलाग- मार डालो काट डालो एक-एक को जिसने दया दिखाई वो मेरे हांथों मरेगा तड़प-तड़प के | सचमुच अभिनय रंग पकड़ रहा था आँखों में , एक रानी की क्रूरता ही दिख रही थी, उन मासूम आँखों के आगे आज वो कितनी क्रूर बन गयी थी सच है इच्छाएं क्या नहीं करवाती मनुष्य से चाहे उसके अन्दर का बच्चा छोटा हो या जवान हो !!

दृश्य चल रहा था रानी खुश हो रही थी हर तरफ खुशियों का माहौल था विजय पताकाएं फहर चुकी थी राज्य का खजाना भी खाली हो चुका था जनता भूख से तड़प रही थी बच्चे रो रहे थे ,

बूढों के चेहरे पर शुन्यता के भाव थे , हर तरफ उदासी थी नैराश्य था, दरबारी भी खिन्न थे बेबस थे, बस केवल एक चेहरा ही दंभ और आक्रान्ता से ऐसा भरा था कि आंसुओं की धार नहीं असीम विजय हर्षोल्लास की पुकार थी उस भोले से मन में जो कुछ दिनों से अनंत में खो गया था या कहीं अपनी ही आड़ में छुप गया था ,

अचानक एक धमाका होता है धढ़ाम!!धढ़ाम!!! इल्लाका काँप ऊठ्ता है अगले पल में भम्म!! भम्म!! पूरा स्टेज एक पल में लाश का ढेर और हाल में रोते बिलखते बच्चे औरतें जवान सब पागल से हुए जा रहे थे एक एक शवों को पकड़ के मैं क्यूँ नहीं मरा !!! वापस आ जाओ !!! !!! वापस आ जाओ!! चीखें गूँज रही थीं| चिल्ला रहे थे लोग

मार डालो!! इन मानवता के हत्यारों को !! तभी धूल में लिपटी रानी भर्राती आवाज़ में पुकारती है मम्मी पापा भैया कहाँ है आप लोग !!! धूल धूसरित जख्मी हालत में वह लाशों को फांदती हुयी बदहवास हालत में सिसकते हुए आगे बढ़ती है, पूरे हाल में धमाके से अजीब सा सन्नाटा कुछ पलों के लिए छा जाता है | बड़ा ही जोरदार धमाका था ,बमों से लोगों के चीथड़े उड़ गए थे;

सारी उमंग उल्लास पल भर में नेस्तनाबूद, हाहाकार मच जाता है|

डॉग स्क्वाड , पुलिस फ़ोर्स , डिसास्टर मैनेजमेंट के सदस्य चारों ओर घेरा बना के लाशों को और घायलों को मदद कर रहे हैं “साहब मेरी लड़की को बचा लो “ वो अभी यहीं स्टेज पर होगी भगवान् के लिए पहले उसे बचा लो.......... बचा लो ..... और वो आँखें बंद हो जाती हैं बेचारी रुनझुन को क्या पता ये उसी के पापा की ही आख़िरी आवाज़ थी| पुलिस वाला कुछ समझ पाता उसके पहले ही उसके पापा भूलोक छोड़ चुके थे एक सदस्य को एक मासूम लड़की इधर उधर पागलों की भांति

मम्मी पापा भैया कहाँ है आप लोग !!! चिल्लाते हुए नज़र आती है | बेटी तुम्हारे पापा यही तो नहीं हैं !! आओ इधर !! बेचारी को पता भी नहीं था की बाप का साया छिन गया था बिलख बिलख के वो रो पड़ी; किस किस लाश से वो लिपटती सारे अपने उसके अगल -बगल ही पुतले के समान आँख फाड़कर पड़े हुए थे उनको देखकर ऐसा लगता था कि अभी रुनझुन की एक पुकार पर फ़ौरन उठ खड़े होंगे वो बेचारी सदमे से इतनी बदहवास थी कि सोच बैठी -मम्मी पापा भैया लोग उसकी परीक्षा ले रहे हो शायद,

कि देखें हमारी रुनझुन कितनी ताकतवर हो गयी है ऐसा तो नहीं कि कहीं लाशों के ढेर में घबराकर अपने मम्मी पापा भाइयों की लाश देखकर फूट -फूट के रोने लगे | तभी बुजुर्ग अफसर ने उसके कंधे पर हाथ रखा और सीने से चिपटा लिया जैसे वो समझ गए कि सदमे से इसकी गहरी संवेदना ही मर गयी हो |

अब उसे महसूस हो रहा था सब आस पास रोने चिलाने की आवाजें सुनते ही की उसकी दुनिया लुट चुकी थी और उसे जिंदादिली सिखाने वाले जिंदा ही न रहे | बेटी

तुम्हारे पिता ने मरते-मरते मुझसे कहा था कि मैं तुम्हे बचा लूं एक पुलिसवाले ने उससे कहा !

बेटी जिस किसी ने भी ये किया किया है हम उसे ऐसी मौत देंगे कि उसकी रूह काँप जायेगी | इन मानवता के हत्यारों को मैं नहीं छोड़उंगा | रुनझुन पर्स में हाथ डालकर कुछ निकालने वाली ही थी तभी कमांडेंट का आदेश हुआ कि सबके घरवालों, रिश्तेदारों को खबर कर दी जाए | वो पुलिसवाला जाने को हुआ ही था की रुनझुन ने उसका हाथ पकड़ लिया था ऐसा लगा कि स्टेज शो अधूरा भले ही रह गया हो , इतनी बड़ी त्रासदी आ गयी ,पर रुनझुन को इस खंडहर जीवन में अनायास ही रास्ता मिल चुका था, उसने पुलिसवाले के हाँथ पकड़ कर केवल या पूछा-

सर !! बिना गुनाह बताये इनको मारने का क्या मतलब है ?

अरे!! बेटी इनको अपने गुनाह का अंदाजा होता !! तो ये इतनी क्रूर और भयावह हरकत करते ! उताजित होते हुए वह सख्त आँखों से बोल पड़ा - “

कहते हैं दिल पत्थर का होता है कुछ ईन्सानी दरिंदों का ! पर इनके अन्दर तो दिल ही नहीं है इनके लिए इन्सान मक्खी मच्छर से जादा नहीं है !!!!!!!!

वो कुछ आगे और बोलता है रुनझुन की उपस्थिति महसूस करते हुए –

बेटी मुझे पता है तुम अब बिलकुल अकेली हो गयी हो तुम्हारा पूरा परिवार ख़तम हो गया है !

इस नर संहार में ! तुम्हारे चेहरे को देख कर लगता है कि इस नन्ही उम्र में तुन्हें कौन संभालेगा कौन प्यार देगा !!तुम भी अभागी हो गयी हो मेरी बेटी !!

कहते हुए उसकी आँखें आसूंओं से भर आईं ! रुनझुन ने उसका हाथ पकड़ के बोला –

अंकल सहानुभूति के लिए शुक्रिया ! पर सच तो ये है कि आप भी मुझे कुछ दिनों के बाद भूल जाएंगे ! मैंने मम्मी पापा और अपने भाइयों को खोया जरूर है पर जाते -जाते वो मुझे जो सिखाना चाहते थे सिखा गए कहते कहते एक लाल नोट अपने बैग से निकाल कर उनके हाथ पर दिया और बोली- अंकल आप उसको पकड़ने की बात कह रहे थे, मेरी एक तमन्ना जरुर पूरी कर दीजियेगा|

जब उसको पकड़ियेगा तब ये नोट उसे सौगात में जरुर दे दीजियेगा !!

उसने आश्चर्य से रुनझुन को देखा !! और हथेली पर नोट को देखा उसमें लिखा हुआ था –

“ हर युग की यही कहानी है

मौत तो सबको एक दिन आनी है”

दिल लगा के पूछ अपने आका से-

क्या जहन्नुम में भी बद्दुआएँ आनी है

रोना मत दिल धड़क उठे अगर –

यहाँ से एक नहीं लाखों की बद्दुआएँ जानी हैं | आश्चर्य के कारण वह पढ़ रहा था

जहाँ भी रहेगा तड़पेगा तू!! यही तेरी बदकिस्मती की कहानी है!!” बोलते हुए रुनझुन ने पुरे मुक्तक को अपनी भड़ास से ख़तम कर कह दिया अंकल से- आख़िरी बोली लाइन भी सुना जरुर देना !!! आप

रिश्तेदार उसके आ चुके थे एक ने उसे पुकारा था, उधर वो हाथ हिलाते हुए अंकल के पास से जा चुकी थी |

शवों को जलते हुए उसे बस यही बात याद आ रही थी कि ‘आज वो सेनापति बन गयी अपने जीवन की तो सारे नायक गायब हैं |’ आज वह बिलकुल भी भावुक नहीं हुयी थी पुलिसवाले की बातों से बल्कि उसने अपने डायलाग का पन्ना जो उसके शासन के विरोध में सेनानायक को बोलना था उसे उसने सही जगह सही समय पर सही व्यक्ति के लिए चुन के भेंट कर दिया था ! असल में उसके जीवन में कहीं न कहीं आततायी ,क्रूर,भयावह बनना लिखा ही नही था तभी तो ये नोटों का डायलॉग स्टेज पर नहीं लाशों के बीच में दौड़ा ! एक गंभीर , परिपक्व , समझदारी वाली जबान से , संवेदनशीलता पर विजय कैसे पायी थी ये रुनझुन खुद भी जान नहीं पायी थी !! शायद यह श्यामू और पापा की सीखें ही थीं या कन्हैया का अपराध और हिंसात्मक घटनाओं को देखने का अंदाज़ जो भी हो अपना असर डाल चुके थे उस कांच की गगुड़िया पर जो फौलाद की हो चुकी थी| पर न अब उसे कोई बेटी-बेटी कह के सीने से लगाने वाली माँ न लाड प्यार करने वाले बाप बचे थे , और अपने अपने अंदाज़ से शरारतें करने वाले दोनों भाई काल के ग्रास हो चुके थे || तभी बुआ की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा| दुखी मन से बोल रहीं थी

रुनझुन बेटा- सुबह से कुछ नहीं खाया है तुमने !!कुछ खा के पानी पी ले | उन्हें क्या पता ! उसकी भूख प्यास तो बहुत पहले ही मर चुकी थी |

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