“ दिल की पुकार ”
आशा का नाम जैसा था वैसे ही उसके काम थे पूरे घर में कोई भी आफत आती तो सबसे पहले निपटारा वही करती अब बात चाहे उसके छोटे भाई सोनू की पढ़ाई की हो या पापा के ऑफिस का बैकवर्क हो या मम्मी की मार से सोनू को बचाना हो| उम्र १८ की हो चली थी, ग्रेजुएशन में दाखिला लेने वाली बात पर अबकी बार पापा अड़ गए थे, मिडिल क्लास व शहरी चाल चलन होने के बावजूद भी वे कुछ दकियानूसी विचारों वाले थे उन्हें लगता था कि लड़की कॉलेज में पाँव रखते ही कहीं हाथ से फिसल कर न चली जाए | शायद उन्हें अपने ऊपर भरोसा था या डर था अपनी बीवी के हंसोड़ मिजाज के ओवरडोज़ का जिसका अक्स उन्हें अक्सर ही अपनी बेटी में दिखता था |खैर जैसे-तैसे बात बनाई गयी | सब रिश्तेदारों-परिवारवालों ने जोर डाला कि लड़का लड़की हैं जैसे अक्कड़ बक्कड़ शिक्षा में हो काहे गड़बड़!! आदि कहके और एक-आध माडर्न विचार से बात बनाई गयी | वो पहला दिन कालेज में नज़रों का टकराना न हो किसी से भिड़ना न हो या नोक झोक सब कुछ आशा को ऐसे मेन्टेन करना पड़ा जैसे कालेज नहीं ट्रेन में सवारी करने जा रही हो | वो पहली क्लास और विवेक से उसकी यूँ अचानक दोस्ती रोल नंबर से बैठने के कारण | उधर दूसरी कहानी विवेक की है घर का लाडला लड़का पूरा बिगड़ैल सारे नशे, गन्दी आदतें ,सब बचपन में लोलीपोप चूसते -चूसते ही सीख गया था |पढ़ने में मन नहीं लगता था मार् मुरकर डपटकर और जुगाड़ लगा के पप्पा जी को कैसी- कैसी गोटें फिट करनी पड़ी थी ये या तो वो जानते थे या उनका लाडला बेटा जिसके शैतानी दिमाग में कारतूस से भी खतरनाक आईडिया आते थे |
अब तक छोटा था गली मोहल्ले में उसके चर्चे थे और दूर के एक आध मोहल्ले तक भी | पर साहबजादे आपने दोस्तों, और समाज में अभी भी इज्ज़तदार समझे जाते थे वो इसलिए क्यूंकि साहब जी ने दसंवी और बारहवी की परीक्षा दोनों फर्स्ट क्लास आनर्स में उतीर्ण की थी लेकिन अब सबकी निगाहें टिक चुकी थी सबकी मतलब पास पड़ोस से कि विवेक उर्फ़ विक्कू अपना सीधा या टेढ़ा विवेक किस फील्ड में लगाते हैं| अरे ! फील्ड का मतलब ये है आर्ट, कॉमर्स ,साइंस ,मैथ क्यूंकि बाकी फील्डों में उनका लाजवाब प्रदर्शन सब देख चुके थे चाहे मार पिटाई हो लडकी छेड़ना ,या फिर मजे उड़ाते हुए गप्प लड़ाना और मोहल्ले की दादागिरी में भी खुशकिस्मती से अपना नारा आगे जाकर बंधवा चुके थे |
ज़िन्दगी की सबसे बड़ी मजबूरी का ताना देकर ही सही विक्कू का एडमिशन करवाना ही पड़ा कॉलेज में पप्पा जी को | कम वो भी न थे आखिर विक्कू के पिता जो थे समाज और पास पड़ोस ने बाँध दिया तो क्या हुआ बेटे जी पर एहसान तो पहले ही लदा हुआ था दसंवी और बारहवी में फर्स्ट क्लास आनर्स पास करवाने का सो अब उनकी बारी थी लाद थी शर्त कि बेटे विवेक जी दाखिला तभी मिलेगा जब बेटा दूसरे शहर में पप्पू बनकर रहेगा |पप्पा जी ने गुस्से में ये बात बोल दी थी वैसे पप्पा जी को मालूम था पप्पू बनने को कहोगे इससे तब जाकर ये सीधा सादा नार्मल बन कर रहेगा| पप्पु भैया के चक्कर में आशा रानी का किस्सा दब ही गया | दबता क्यूँ न एन्ट्री ही ऐसी दी थी पप्पू ने मतलब विवेक जी ने | क्लास के पहले दिन उनका जलवा थोड़ा दिख ही गया था | आशा और विवेक की दोस्ती हो चुकी थी लेकिन बेचारे दोनों बंधे से थे अपने घरवालों की वजह से या हालातों से|
लेकिन जिस बात का डर था वही हुआ एक दिन की बात है आशा और विवेक बाँहों में बाहें डाल कर घूम रहे थे दरअसल शुरु के महीनों में उन्होंने जो रंग ढंग दिखाया था | किसी को रत्ती भर भी उम्मीद न थी कि कालेज में ये भी कपल बन सकता है | माजरा कुछ ऐसा था कि संयोगवश पहले दिन से बैठते जरूर साथ में थे लेकिन न बकबक न बकझक न मस्ती मज़ाक बिलकुल शांत और नरम मिजाज’ | बेचारों में दहशत आ गयी थी अपने इस नए मुकाम – ‘अंडरग्रेजुएट’ के मिलने से घरवालों के रहमोकरम से |
लेकिन उन दोनों ने भी ठान रखा था पहले झमाझम नंबर और फिर कॉलेज में ही मिलेंगे प्यासी धरती और तड़पता अम्बर| और हो गए थे दोनों कामयाब| मासिक परीक्षाओं में पहला और दूसरा स्थान पाकर | जवानी के मौसम में यौवन का फूल ही ऐसा होता है कि भंवरा अगर फूल के पास सुबह से शाम तक केवल टहलता ही रह जाए तो जवानी का मौसम ही बेकार| खुशकिस्मती से दोनों में ही इस खुशफहमी का बीज पहले दिन अन्दर ही अन्दर पड़ चुका था रुके थे बस बरखा यानी ‘मासिक टेस्ट’ के आने को लेकर सो अब दोनों ने फतह करी दोनों को वहां बधाई मिली अपने अपने घर से और इधर मिठाई मिली दोस्तों से | बस इंतज़ार ख़तम था मन ही मन में लड्डू फूट रहे थे| मिले बीचों बीच कालेज के पार्क के चौबारे पर और लोगों में उस दिन से अफवाह फ़ैल गयी कि पिया मिलन चौक नाम है जहाँ मेघावी छात्र मिला करते हैं |
अफवाह इसलिए क्यूंकि उसी चौबारे पर कॉलेज के साइकोलॉजी के हेड प्रोफेसर और केमिस्ट्री की प्रोफेसर मिला करती थी और मजाल है किसी चपरासी से लेकर एकाउंट डिपार्टमेंट के हेड क्लर्क की आज तक किसी भी गप्प में उनके मिलनस्थल का मज़ाक किसी ने उड़ाने की जुर्ररत की हो असल में मनोविज्ञान के लोगों की महारातें तो वैसे बहुत होती हैं और वो तो हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट थे सो अपनी फ़ेवरेट कैट यानी अंग्रेजी वर्जन में “ पालतू पुस्सी “का मज़ाक उड़ा के खुद ही नामकरण कर दिया था और उस जगह का नाम मिड चौक रख दिया वो भी मज़ाक को गंभीरता से बता के कि इसे अपने पूर्वजनम के साथी कुत्ते की इतनी याद आयी कि मियाऊँ की जगह ये माऊ कर बैठी |किस्सा लाजवाब था अतः बीच में आ गया | वैसे आज नामकरण हो ही गया था इस मिड चौक का पियामिलन चौक अब दोनों तितली और भँवरे की ज़िंदगी की रसभरी बातों का टेस्ट और एविडेंस यही पियामिलन चौक बना|
दोनों खूब हंसी मज़ाक करते, आशा ने अपने परिवार के बारे में बताया कि कौन करेक्टर कैसा है और विवेक उर्फ़ विक्कू जी भी खूब किस्से सुनाते थे कुछ तो असली कुछ नकली पर वे अनजान थे कि जिस खेल के वो सिर्फ खिलाड़ी हैं उसकी बेमिसाल प्लेयर आशा जी को उसकी घुट्टी अपनी माँ से विरासत में ही मिली थी |जींसों में जो बात या जो गुण आदमी या किसी अन्य प्राणी में होता है उसके सामने अच्छे अच्छे टिक नहीं पाते | एक से बढ़कर एक जोक कभी टीचरों पर कभी दोस्तों पर कभी एक दूसरे की टांग खिचाई | जैसे जैसे समय का पहिया आगे बढ़ता जा रहा था वैसे वैसे उनका मिलना जुलना कॉलेज के बाहर भी होने लगा था , विवेक उसके लिए तरह तरह के तोहफे लाता और फिर आशा का बिदकना टाइम पर क्यूँ नहीं आये ? पिछली बार ये कहा था; अबकी बार ये, - जाओ मैं तुमसे बात नहीं करती वाले डायलाग और फिर विक्कू जी का उन्हें मनाने का यूनिक स्टाइल कभी लड़कियों की तरह पैर पटकने लगना, कभी मुहं बिचकाना कभी अधेड़ आंटियों वाले प्यार की तरह एकदम से लिपट कर हवा में लहरा देना सब कुछ देखने वाले के मन को गुदगुदा देता था |
एक बार तो हद ही हो गयी जब मिस्टर विवेक मिस आशा को सिनेमा दिखाने ले गए| बगल की सीट वाली लड़की को आशा का घूरकर देखना मुहं चिढ़ाने का अंदाज ऐसा खा जाने वाला था कि कोई अंदाज भी नहीं लगा सकता था कि इनका प्यार ‘रियल प्यार ‘ की तरह सबकी जुबान पर मिसालें देने के लिए आयेगा | कि वो तो पागल प्रेमी हैं | उस दिन आशा ने आइसक्रीम तक नहीं खाई थी और लाख मनाने पर भी बस एक बाईट खाई वो भी वनीला टेस्ट जो उसका मनपसंद नहीं था अब बात ही ऐसी थी विवेक दिल खोल कर तारीफ करता थक नहीं रहा था कि मैं तो दीवाना हूँ उस हीरोइन का बेचारे से अनजाने में दिल की परते खुल रही थीं शायद पुरानी गलत आदत भांग खाने की याद हो चली थी या किसी बेफकूफ पुराने दोस्त ने खिला मारी हो | वैसे ऐसा संभव नहीं था क्यूंकि विवेक के शैतानी दिमाग ने पुराना शहर पुराने लोग नये शहर नए भोग वाला काम अच्छे से कर के ही चला था जो भी बात हो ऐसा लगा आशा को उस दिन कि विवेक उससे जादा वो उस सड़े से रंगीन परदे पर आने वाली नचनिया का दीवाना हो गया है|
विवेक ने वैसे इतना जादा भी नहीं कहा था लेकिन इतना कह दिया था कि अगर वो लड़की परदे से निकल कर सामने आ जाये तो घरबार क्या अपनी जान तक उसके नाम कर दे !!
इतना कहने की देर थी और आशारानी का वो बिदकना पर्स फेंक के मुहं पर मारना और आधी पिक्चर छोड़ के बीच में ही सिनेमाहाल से निकलने का सीन ही शायद उन दोनों की लव लाइफ का ट्रैजिक सीन रहा होगा | इतना गुस्सा पहली बार उसने विवेक पर दिखाया था | और ख़ास बात ये थी कि विवेक का दिमाग़ भी पूरा रोबोट की तरह काम भी नहीं कर रहा था सो बक दिया सिनेमा हाल से निकलते ही एक पुराना किस्सा “ अरे जाओ जाओ तुम जैसी लड़कियां बहुत देखी हैं कोई पहली नहीं हो | ये तो मैं ही बेफकूफ़ था जो तुमसे प्यार कर बैठा दरअसल विक्कू जी को सबके सामने उसका पर्स फेकना और झिड़कना नागवार गुजरा था सो फ्लैशबैक की बकबका बैठे| अब आशा को बिलकुल भी अंदाज़ न था कि वो पूरा होश में नहीं हैं लेकिन अपना अपमान बीच सड़क पर वो सहन न कर सकी और अनजाने ही अपने तुनुकमिजाज के कारण ही सही, सच्ची बात बोल ही बैठी कि मेरा भी तुमसे कोई वास्ता नहीं है | काफी मिलनसार और मृदुल स्वाभाव वाली आशा जिसे विवेक दिलोजान से चाहता था आज कह बैठी कि वो उसी लड़के से ही शादी करेगी जिसको उसके माता पिता चुनेंगे ये सुनकर धक्का सा लगा विवेक को जो सबको अपने इशारों पर नचाता था आज वही एक कठपुतली सा समझ रहा था अपने आप को शायद प्यार में वो अँधा ही हो गया था जो उसके दिल की बात न भांप सका
वैसे तो आशा का स्वभाव काफी अच्छा था पर विवेक ने प्यार की जो ढील दी और गिफ्टों की वो बारिश हर छोटी छोटी बात पर जादा लाड़ दुलार ने उसको गुस्सा करने की खुली छुट दे दी थी जिसका परिणाम आज उसके सामने था साहबजादे झम्म से सड़क पर गिर पड़े बोले आशा ये क्या कह रही हो वो तो पुरानी बात थी मैंने जो भी कहा और हीरोइन वाली बात को दिल से मत लगाओ वो असल ज़िंदगी में सच नहीं होता है मैं माफ़ी मांगता हूँ तुमसे | “मुझे माफ़ कर दो “मुझे छोड़कर मत जाओ “ये सच्चा प्यार था जो हजारों और लाखों की भीड़ में भी कैसे भी अपनी गलती मान के जानेजिगर को खुलमखुल्ला अपना मान लेता है | उसे किसी की परवाह नहीं होती | विवेक भी ऐसा ही प्यार करता था | ऐसा न होता तो आशा के झिड़कने और वास्ता तोड़ने की बात पर सबके सामने अपनी गलती मान कर माफ़ी न मांगता पानी में गिरते ही सारा नशा उतर गया था चाहता तो वहां से समय और माहौल देखकर वह जा सकता था लेकिन इस वक़्त उसके दिमाग ने नहीं दिल ने आवाज़ की थी| जो आशा को पुकारता रह गया | और आशा उसे वहीं छोड़ कर जा चुकी थी और वो यही सोचता रह गया कि भांग का नशा ज्यादा था या प्यार का नशा जिसने उसे पागल बना दिया था कि वो न तो ये ध्यान रख सका कि नशे में वो कुछ जयादा ही बोल गया है और न ये कि आशा का प्यार बहुत पहले ही उसके दिल से खेल कर मीलों आगे जा चुका था | बस अच्छी बात ये थी कि पापा की लड़की हाथ से फिसलकर वापस हथेली में आ गयी थी और विक्कू उर्फ़ विवेक जी आज असल ज़िंदगी में पप्पू बन के रह गए थे | पप्पा जी का कथन सत्य हो गया था !! विक्कू पप्पू जो बन गया था जिसका मलाल उनके बेटे विवेक ने बमुश्किल ही उन्हें कराया हो |