जिवन सतरंगी भाग-2,
दिवाना राज भारती ।
दो शब्द
दोस्तों कुछ दिन पहले कविता कि संग्रह जिवन सतरंगी भाग 1, प्रकाशित हुई थीं, आपने अपनी राय दी, अच्छा लगा एक बार फिर भाग 2 ले के प्रस्तुत हूँ। आपको मेरी रचना कैसी लगती है आप अपना सुझाव अवश्य दे। आपका सुझाव मेरे लिए मार्गदर्शक का काम करती है। आप मुझे फेसबुक पर भी फ्लो कर सकते मेरा पेज मेरे नाम से ही है। धन्यवाद।
1. तेरे बिन होली ।
सारांश - एक दिन जब मैं अकेला बैठा था तो, अचानक मुझे मेरे पापा के दोस्तों की याद आयी कि कैसे जब वो सब साथ रहते थे तो कितनी मस्ती करते थें मगर अब कोई भी त्योहार हो अकेले मनाते है क्योंकि उनके सारे दोस्त गाँव छोड़ शहर मे बस गये है और कभी एक-दूसरे से बात भी नहीं होती है वो अलग बात है वो किसी से नहीं कहते लेकिन उनकी आँखें इंतजार जरुर करते है कि काश सब दोस्त एक बार फिर त्योहार साथ मनाते।
तो वो शब्दों मे दोस्तों से कुछ इसप्रकार बयां करते जैसे मैंने कोशिश कि है।
तेरे बिन दिवाली गुजरी,
और गुजर जायेगी होली ।
जरा याद करो मुझे भी,
तेरे बिन उदास है अपनी टोली ॥
तेरे बिन अकेला हो गया हूँ,
दूर ईतना गया बेगाना हो गया हूँ ।
दिवाली की मिठाई फिक्की पड़ गयी है,
हर त्योहार मे आँखें राहें देख रही है॥
बदल गये है वो दिन,
बदल गये है वो लम्हे ।
पर नही है बदलीं,
अभी भी अपनी खोली ॥
जान के न सही,
अनजाने से ही आ जा।
तेरे आने से ही फिर से,
खुश हो जायेगी अपनी टोली ॥
मोबाइल और नेट के जमाने मे भी,
तरस गया हूँ सुनने को तेरी बोली।
उम्मीद है इसबार तुमसे,
न मनेगा तेरे बिन अपनी होली ॥
2. पढने मे मन लगता नही ।
सारांश - आजकल दुनिया डिजिटल हो रही हैं, जिस वजह से बच्चे का मन पढ़ाई मे लगता नहीं है और मोबाइल कम्प्यूटर मे व्यस्त रहते है। तो क्या होती है इसके परिणाम परीक्षा मे लेखक ने इसप्रकार बयां किये हैं।
पांच मिनट के लिए मोबाइल लिये,
घंटे कैसे बिते गये पता नही,
किताब खोल के बैठा हू,
पर पढाई मे मन लगता नही ।
परीक्षा नजदीक आ गयी है,
पर तैयारी कुछ हुआ नही,
किताब के सारे पन्ने पलट गये,
समझ मे कुछ आया नही ।
मोबाइल, टीवी और खेलने से,
मन कभी भरता नही,
किताब ले के बैठते ही,
निंद कब आ जाती पता नही ।
मम्मी डाँट डाँट के थक गयी,
फिर भी पढने बैठा नही,
स्कुल न जाने के चलते,
कौन ऐसा बहाना जो बनाया नही।
रिजल्ट खराब आते ही,
डर से घर था जाता नही,
घर जाते होती पापा से पिटाई,
लेकिन मै करता भी क्या,
पढाई मे मन था लगता नही ।
3. मुस्कुराती रहना हमेशा,
सारांश - एक दिन लेखक बगीचे में बैठे, किसी ख्यालों में दूबे थें, शायद अपने कामों को लेकर चिंतित और परेशान थें, तभी उनकी नजर पार्क मे टहल रही एक लड़की पे पड़ती हैं न जाने उसकी मुस्कान मे ऐसी क्या बात थीं, जिसे देख लेखक के चेहरे पे भी मुस्कान आ गयीं।
एक नजर में उतरी मेरे दिल मे इस कदर,
नहीं भूला पाउँगा तुझे उम्रभर,
आज भी अकेले में बैठ तुझे याद करता हूँ,
तुम्हारी मुस्कान है कमाल कि बयां करता हूँ।
तुम मुस्कुराती रहना हमेशा इस तरह,
तुम अंजान हो अपनी इस मुस्कान से,
जब ये तेरे चेहरे पे आते है,
इस देख लोग अपना गम भूल जाते हैं ।
न जाने तुम्हें देख दिल में क्या हुआ,
तुम्हें याद करते ही धड़कन है बढ जाती,
लड़कियाँ तो पहले भी देखें है बहुत,
लेकिन तुम्हें देख अलग सा एहसास हुआ।
तुमसे बात करने कि कोशिश मे,
पास आया बार-बार,
उलझनें थीं बहुत बात न बनी,
तुमसे क्या कहूँ सोचता रहा हजार बार।
तुम पे लाल रंग अच्छे लगते हैं,
तुम संग तुम्हारी आँखें भी हँसते है,
शायद तुम्हें भी मुझ से कहना था कुछ,
पर तुम भी चुप रही मैं भी चुप रहा।
शायद किस्मत मे न थीं तुम्हारी साथ,
तरसती रहेगी ये आँखें तुम्हें देखने को,
पर जहाँ भी रहो तुम इस जहाँ मे,
मुस्कुराती रहना हर वक्त इसी तरह ।।
4. टूटे हिम्मत को इस तरह समेट रहा हूँ।
सारांश - लेखक ने पढ़ाई के लिए अपना घर छोटी सी उम्र मे ही छोड़ दि थीं, इस आशा मे कि एक दिन वो अपने लिए और अपने परिवार के लिए कुछ करे। मगर थोड़ी से मुश्किलें आने से ही वो डगमगा जाते हैं और थक बैठ जाते है, तभी वो अपनी हिम्मत को कैसे समेट रहे है। वो इस प्रकार है ।
घर से निकला था खुद को संवारने,
जरा सी ठोकर से बिखर गया हूँ,
दुनिया के भीड़ से हुआ जब अकेला,
टूटे हिम्मत को इसतरह समेट रहा हूँ।
वक्त का क्या है ये तो यूँही बीत जायेंगे,
रास्ते है बाकी चले तो मंजिल तक पहुँच जायेंगे,
सूर्य चलते-चलते न रूका न थका,
पल भर चल क्यों रूक थक गये हो तुम।
मोम नही पत्थर हो तुम,
मोम कि तरह जलो पर मोम न हो तुम,
पत्थर बन काँटों से अभी टकराना बाकी है,
तालाब में तैरते थे अबतक अभी तो समुद्र में तैरना बाकी है।
मत भूलों नजर टीके है लोगों का तुम पर,
तुम हारें तो क्या गुजरेगी उन पर,
छोटी सी जिंदगी में हैं छोटी सी तुमसे आशा,
कहीं तोड़ न देना अपनी परिवार कि अभिलाषा ।
मै न थक के अब रुकउँगा कभी,
कर लिया है ये वादा खुद से,
मेरे सिने में जो आग है उसे न बुझने दूँगा,
अब जिंदगी की रेस जित के ही दम लूँगा ।
एक बार फिर उठ चलने को तैयार हूँ,
ठोकर खाकर भी न गिरने को तैयार हैं,
अकेले भी मस्ती मे चलूंगा अब अपनी रास्ते,
टूटे हिम्मत को इसतरह समेट रहा हूँ।
5. ये मै क्या कर रहा हूँ।
सारांश - ये पंक्ति उन छात्र के उपर फिल्माया गया है जो अपना गाँव छोड़ शहर पढने आते है परंतु शहर के आरामदायक जिवन के बिच अपना फर्ज और कर्तव्य भूल जाते है।
गाँव छोड़ मै शहर आया हूँ,
बात ये सालों पहले कि है,
याद कर रहा हूँ,
पढने आया था यहाँ घर छोड़ के,
और न जाने ये मै क्या कर रहा हूँ ।
क्या हूँ मै खुद को टटोल रहा हूँ,
खुद से पूछ हिसाब कर रहा हूँ,
सोच के निकला था घर से,
कि कुछ करके आना है,
और मै सब भूल आराम फरमा रहा हूँ,
न जाने ये मै क्या कर रहा हूँ।
क्यों मै पापा से झूठ बोल रहा हूँ,
माँ के सपने को तोड़ रहा हूँ,,
पढ़ाई के नाम पर घर से पैसे ले,
लड़की और दोस्तों के संग उड़ा रहा हूँ,
अक्सर सोचता रहता हूँ मै,
कि ये मै क्या कर रहा हूँ।
अपने छोटे भाई को तो अक्सर,
ये डॉट के समझता हूँ,
पढ़ाई मन से कर फालतू कामों में,
कुछ नहीं रखा है,
और मैं खुद नेट पर मजे कर रहा हूँ,
न जाने ये मैं क्यों कर रहा हूँ।
करना है मुझे कोई काम भूल गया हूँ ,
वक्त से थोड़ा उलझा और परेशान हूँ,
मैं अलग हूँ दुसरे से ये क्यों भूल गया हूँ,
दिखावटी दुनिया में खो कर अपनी पहचान खो दिया हूँ ,
सब जान के भी ये मैं क्या कर रहा हूँ ।
मै ऐसा कुछ करूंगा किसीको उम्मीद नहीं था,
क्योंकि मै हारने वाला इंसान नहीं था।
अब करूंगा मैं अपनी काम ईमानदारी से,
और पूरा करूंगा घर वाले के सपने,
फिर लोग कहेंगे न जाने ये मैं क्या कर रहा हूँ।
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