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सभ्य मुखौटे

सभ्य मुखौटे
- विनीता शुक्ला

कलिका हतप्रभ सी उस हॉलनुमा कमरे में बैठी थी; दिलोदिमाग में अजब सी हलचल लिए. अपने नये जॉब को ‘लपकने’, कलिका वर्मा, घंटे भर पहले यहाँ आई थी- प्रसिद्द ड्रेस- ब्रांड, ‘गोल्डन प्लेनेट’ के भव्य शो- रूम में, फाइनेंस मैनेजर की नौकरी! पुराने मैनेजर, बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य समस्याओं के चलते, रिटायर हो चुके थे. उनके कमरे को रेनोवेट कर, कैंटीन में तब्दील कर दिया गया. अब नई मैनेजर यानी कलिका को, पुराने कांफ्रेंस हॉल में ‘डेरा जमाना’ था. हॉल से लगा एक स्टोर था- जहाँ हिसाब- किताब के, सारे रेकॉर्ड मौजूद थे. दोनों कमरे सफाई मांग रहे थे. चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर प्रतिभा सिंह ने, आते ही, फाइलों को रिअरेंज करने को कहा. प्रतिभा मैडम के अलावा, वह रिसेप्शनिस्ट नेहा से भी मिली थी. नेहा की ‘भेदक निगाहें’ मानों अब भी उसके पीछे थीं!

प्रतिभा के जाने के बाद, कलिका ने कमरों का मुआयना किया. बड़े बड़े बहीखाते और फाइलों के ढेर- उसे चुनौती दे रहे थे...यहाँ- वहां धूल और मकड़ी के जाले... दीवारों पर रेंगती छिपकलियाँ! मैम ने कहा था कि मदद के लिए, लोअर स्टाफ को भेज देंगी; लेकिन अब तक, कोई आया न था. वह उनको ढूँढने ही जाती; किन्तु एक अट्टाहास ने, बढ़ते पग थाम लिए. समवेत खिलखिलाहटों के स्वर, स्टोर की दीवार से रिसकर, प्रतिध्वनित होने लगे, “उस नई लड़की को देखा...नेहा बता रही थी, किसी दूसरे शहर से आई है”

“अच्छा... कौन है, क्या नाम है उसका?”

“नाम तो पता नहीं...कोई मिस वर्मा है. सुना- कुछ लेखिका टाइप है; अखबार वगैरा में छपते हैं उसके आर्टिकल”

“फाइनेंस की फील्ड से... और लेखिका! व्हाट ए रेयर कॉम्बिनेशन!!’

“तब तो देखना पड़ेगा देवीजी को...आई एम वैरी कीन टु नो अबाउट हर”

“छड्ड यार! रूखी- सूखी स्टिक जैसी लगती है. अपनी रोमा की तरह नहीं- रसभरी...चॉकलेटी...फुल ऑफ़ लाइफ! यू नो- 36- 24- 36” हंसी का फव्वारा, फिर फूट पड़ा था. इधर कलिका अवाक!! वह असहाय- निरुपाय, सुनती रही प्रलाप- अपनी और किसी रोमा की देहयष्टि पर, बेहूदी चर्चा!!! सहसा चायवाले की आवाज़ से, उन बातों का क्रम भंग हुआ, “चाय साहेब”

“रख दो” इस बार संवाद में, गम्भीरता का पुट आ गया था. अब चाय सुड़कने के अलावा, अन्य कोई स्वर नहीं उभरा. मिनट भर में, उसके सामने भी, चाय का प्याला रख दिया गया. ‘तो ऑफिस में, चाय सर्व करने का, अपना रूटीन है. उसी इंतज़ार में लोग, गपशप कर रहे होंगे’ कलिका ने सोचा. एक अजानी आकुलता, उसे जकड़ने लगी. इस बीच हेल्पर भी आ गये थे. वह यंत्रवत, उनसे काम करवाती रही. सोचा था- ऑफिस ऑवर्स के बाद, लेडीज हॉस्टल की तन्हाई में, आराम फर्मायेगी. व्यस्त दिनचर्या के बाद, निद्रा देवी की गोद बहुत भाती है...किन्तु नींद तो थी- आँखों से कोसों दूर!

न जाने कब, हाथों ने कलम थाम ली और यादों के कोलाज बनते गये, “आज सभ्य लोगों की असभ्य बातों ने, बहुत आहत किया. कड़वे अनुभव एक- एक करके, मन पर दस्तक दे रहे हैं...” लिखते लिखते वह इतना तन्मय हो गयी कि समय का ध्यान ही न रहा. थकान ने देह को जकड़ लिया. कलिका ने हाथ के पंजों को फंसाया और उस पर सर टिकाते हुए, आँख मूँद ली. अब साधारण कुर्सी ही, आरामकुर्सी का मजा दे रही थी. स्मृतिपटल पर पी. टी सर, वरुण देव का चेहरा उभर आया. उन्होंने किस बेशर्मी से, डांस- रिहर्सल के बाद, मणि से कहा था- “यू नीड स्पोर्ट ब्रा फॉर प्रैक्टिस”

कितनी घटनाएँ! जींस टॉप उसके दुबले पतले शरीर पर फबता था, फिर भी कॉलेज के सीनियर लडकों को आपत्ति थी...उसकी टीचर दोस्त को, स्कूल के पुरुष -क्लर्क द्वारा ब्रा का स्ट्रैप ठीक करने की सलाह- कैसी सामन्तवादी प्रवृत्ति?! मर्यादा की सीख देना, अपनी ही मर्यादा तोड़कर??!! ये पुरुष अपनी बात शराफत से, किसी महिला शिक्षिका या सहकर्मी से कहलवा सकते थे. पर उसमें दादागिरी का मजा कहाँ... ऑफिस में भी तो, एक तरह की, दादागिरी ही चलती है. दिन यूँ ही निकल गया. सुबह वाली घटना की बदौलत, जोरदार आर्टिकल की भूमिका बन चुकी थी; लेकिन दिमाग थकने सा लगा. हॉस्टल की मेस में, कुछ हल्का- फुल्का खाकर, बिस्तर पर पड़ रही.

दूसरे दिन ‘टी- ब्रेक’ के दौरान, उसके कान दीवार पर ही लगे थे. नियत समय पर महफिल जमी. इस बार उन्होंने, किसी महिला- सेल्स रेप्रेंसेंटेटिव का, ‘चरित्र- हनन’ किया- बड़ी उमर के बाद भी शादी नहीं हुई, जरूर से कोई चक्कर होगा. उसके साथ, ‘गोटी फिट करने’ का स्कोप, किसके लिए, कितना हो सकता था; इस पर गहन चिंतन हुआ. उस सड़ी हुई सोच से, कलिका को, उबकाई आने लगी. जिन बातों की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी, वे उन्हें खुल्लमखुल्ला उछाल रहे थे. इस प्रकरण के सब पात्रों को, वह अब देखना चाहती थी. प्रतिभा मैम ने कहा था, फुर्सत में सारे स्टाफ से परिचय कराएंगी पर वे जरूरी असाइनमेंट में व्यस्त हो गयीं. कलिका को खुद रिक्वेस्ट करनी पड़ी; तब जाकर उन्होंने उसे, ‘गोल्डन प्लेनेट’ का राउंड लगवाया.

इस क्रम में, एक- एक कर्मचारी से परिचय हुआ. टेलरिंग रूम की ड्रेस- डिज़ाइनर, रोमा से भी मिली. झूठ नहीं कहते थे लोग... गजब की सुन्दरी थी रोमा! साड़ियों वाली फ्लोर पर, ‘तथाकथित’ सेल्स- रेप्रेंजेंटेटिव श्यामला को देखा. उसके चेहरे पर उम्र के निशान थे- जिम्मेदारियों से बंधी, सीधीसाधी

लड़की...विकलांग पिता, लाचार मां, छोटे भाई- बहन... घर बसाने की, सोचती भी कैसे बेचारी!! ‘उसे कहाँ मालूम होगा कि उसकी मजबूरी का, किस भद्दे ढंग से, मजाक बनाया जा रहा था!!! मजाक बनाने वाले वालों के पास, दिल नहीं था...संवेदना तो नाम की नहीं थी...होती तो- छींटाकशी करने के पहले, सौ बार सोच लेते. ‘चाय- सभा’ के सदस्यों में सर्वप्रथम, जुगल किशोर थे. स्टोर से सटे केबिन में, इसी नाम की तख्ती, लटक रही थी. असिस्टेन्ट सी. ई. ओ. का पदभार और मनचलों की फ़ौज- दोनों उनके ही मत्थे!! बात बात पर ‘हीं हीं’ करने वाले सेल्स मैनेजर गुप्ते...छिछोरे संवादों से, ‘पब्लिक’ को गुदगुदाने वाले, मार्केटिंग मैनेजर रामास्वामी... कुछ पुरुष सेल्स एक्सीक्यूटिव भी. अनुमानतः इन सबकी आवाजें ही, उसे सुनाई देतीं थीं. इसके अलावा काईयाँ नजरों वाला टेलर मास्टर मनमीत, प्रौढ़ा एनाउन्सर सरला जी और ‘ओवर स्मार्ट’ नेहा. अगले दिन सैलरी और वर्क- लोड को लेकर गंभीर बातें हुईं... कोई ज्ञानी’, मंहगाई पर ज्ञान बघार रहा था. रसिक लोग, दुश्वारियों में, ‘नॉन- वेज चुटकियों’ को भूल गये होंगे. लेकिन बीच में नेहा का जिक्र जरूर आया. कुछ और ‘गप्प- गोष्ठियों’ के बाद, कलिका को लगा- यह नेहा ही थी, जो इन सबको, स्त्री कर्मचारियों के बारे में, ‘अंदर की बात’ बताती थी. संभवतः इसलिए – क्योंकि ये लोग अक्सर, कैंटीन में उसे फ्री- ट्रीट दे देते थे...और इसलिए क्योंकि वह खुद पंचायती थी. ये लोग खूब बतियाते. उस बतकही में, समाज और राजनीति का घालमेल भी होता परन्तु सुई बार- बार औरतों पर अटक जाती.

‘गोल्डन प्लेनेट’ में कुछ ही दिन हुए थे और कलिका ने फाइल- सिस्टम और कंप्यूटर- ट्रांजेक्शनों को दुरुस्त कर दिया. मैम बहुत खुश थीं उससे. मैडम का अपनी तरफ झुकाव, कलिका को उत्साह से भर देता. उसके होम- टाउन में ‘गोल्डन प्लेनेट’ की नई ब्रांच खुल रही थी. उसने प्रतिभा जी से, वहां ट्रान्सफर लेने की इच्छा जताई. वे मान भी जातीं पर जुगल किशोर जी ने, बीच में टांग अड़ा दी. कलिका मन मसोसकर रह गयी. समय बीत रहा था. अब तो चाय के साथ वह, प्रपंच भी गटक जाती. एक कान से सुनकर, दूसरे से निकालने की कोशिश करती. काम में ध्यान लगाना, जरूरी भी था. किन्तु उस दिन तो हद हो गयी... मनमीत टेलर, किसी लेडी- कस्टमर के, नख- शिख का बखान कर रहा था और सब चटखारे ले रहे थे!!

कलिका का मन, फिर उद्वेलित हो चला. विचार- मंथन थम न सका. तन्हाई में, अंतस के उदगार फूट पड़े- ‘ये पुरुष न तो बिगड़े हुए रईस हैं और न नाली के कीड़े...संभ्रांत घरों से ताल्लुक रखने वाले- इस कदर घिनौनी बात, कैसे कर लेते हैं?! हमारे समाज की संरचना ही ऐसी है. आजकल तो गुंडे सरेआम, डंके की चोट पर कुकृत्य करते हैं और जनता मुंह सिये रहती है. एक को दूसरे का लिहाज नहीं- पुरुषत्व की नई परिभाषा! तभी तो चुपके से होने वाले कुकर्म, अब सामूहिक रूप में होते हैं!! ऑफिस के इन पुरुषों की मानसिकता भी तो ऐसी ही है. क्या गारंटी कि किसी महिला को अकेले पाकर, ये अभद्र व्यवहार न करें. यह कोई क़ानून नहीं मानते. बंद कमरे में, जो कहते- सुनते हैं- उसके सार्वजनिक होने का भी, तनिक भय नहीं!

जो भी हो- इनके सौजन्य से ही, कलिका के विचार, पन्नों पर उतर आये थे. लेख सटीक और गठे हुए रूप में आकार ले रहा था. कम से कम वह अपनी खुंदक, कहीं तो उतार पा रही थी! इतना कुछ लिखने के बाद, दिल बहुत हल्का हो गया था और वह इत्मीनान से, अगले दिन के लिए तैयार थी. ऑफिस में सुबह शान्ति से गुजरी. कलिका ने कंप्यूटर पर, बहुत से काम निपटाए. स्टोर में घुसी तो पाया कि वाल पेपर का टुकड़ा, दीवार से कुछ दूर पड़ा था. “ओह!!” नज़र ऊपर उठते ही, वह बुदबुदाई. ‘तो दीवार पर, वेंटिलेटर जैसी कोई ओपनिंग है- जो संलग्न कक्ष में, घटने वाली घटनाओं की, चुगली कर रही थी.’

अभी भी यह, वाल पेपर से ढंकी थी, सिर्फ एक छोटा टुकड़ा अलग हुआ था; शायद सड़कर गिरा हो. अलबत्ता ‘साहब लोगों’ की बकवास जारी रहेगी- उन्हें इस राज़ की, हवा तक नहीं! वह मुस्करायी पर उसकी मुस्कान अगले ही क्षण विलुप्त हो गयी. आवाज़े फिर से आने लगीं थीं.

“हम सुना- देट कलिका- वो नई लड़की... सिस्टम में कुछ चेंज किया है” रामास्वामी ने शब्दों को, चबाकर बोलते हुए कहा.

“हीं हीं..एकदम बेकार दिखती है”, इस बार गुप्ते थे, “बड़ी शाणी बनती...मैडम जी पर इम्प्रैशन मारती- लो बोलो! किस वास्ते....हमारे सबके ऊपर बैठ जाएगी?!”

“ना जी ना” जुगल जी कब चूकने वाले थे, “वो भूरी आँखों वाली बिल्ली बड़ी शातिर है- वो तो इधर से ट्रान्सफर चाहती है, अपनी नई ब्रांच में. मैडम से सिफारिश कर रही थी पर हम ही अड़ गये. बताओ- ये भी कोई बात है?!! हर काम थ्रू प्रॉपर- चैनेल होना चाहिए. उसके इमीडियेट बॉस हम हैं या मैडम...हमसे पूछ नहीं सकती थी?? देट होपलेस ड्राई स्टिक!!!”

“तो ये आपका ईगो प्रॉब्लम है”

“और क्या! सर आप अड़े रहिये...मैडम अकेले उसे कितना सपोर्ट करेंगी”

“आजकल वो सरला एनाउंसर भी, इसके साथ लगी रहती है. दोनों कैंटीन में ही, लंच आर्डर करती हैं”

“उसकी गाँववाली है ना- इसीलिये!”

“इसीलिये क्या?! ऐज में इत्ता डिफरेंस है. वो सरला बुढ़िया है और ये...”

“सरला बुढ़िया है सो व्हाट...क्या मस्त फिगर है उसकी...इन फैक्ट- आई वांट टु ट्राई देट वन!!” वार्तालाप मेल- एक्सीक्यूटिवों तक सीमित हो चला था.

कलिका ने हैरान होकर, माथा ठोंक लिया. भावावेश में, उसकी कनपटी लाल हो गयी थी...कलेजा फटकर सीने से बाहर ही आ जाता- विचारातीत...इतना शर्मनाक कमेंट आज तक नहीं सुना! इन्होंने अपनी मां समान, सरला आंटी को भी नहीं छोड़ा!! मर्दाना सोच पर अपना आर्टिकल, आज पूरा ही करके रहेगी कलिका- चाहे रात भर जागना क्यों न पड़े!!! कुछ ही दिन बाद उसका लेख, स्थानीय समाचार- पत्र की शोभा बढ़ा रहा था. उस दिन सुबह सुबह ‘गुड मॉर्निंग’ के बाद जुगल जी ने पूछा, “आज के न्यूज़ पेपर में आपका ही आर्टिकल है?” कलिका ने सर हिलाकर, मूक सहमति दे दी. “वैरी एफ़ीशिएंट राइटिंग...सुपर्ब आई से. मैं तो कहता हूँ कि आप हमारे प्रोडक्ट्स के लिए, कैप्शन लिखने का काम शुरू कर दीजिये...कीप ऑन द गुड वर्क”

“थैंक यू सर” बेमन ही सही पर शिष्टतावश कहना पड़ा, कलिका को. “और आपके तो आई- ओपनिंग थॉट्स हैं…वैरी इंस्पायरिंग” आगे भी बहुत कुछ, बोले थे जुगल किशोर. इतनी बकबक, उनके दोगलेपन को उघाड़ रही थी. कलिका और नहीं सह पायी- दबे हुए अंगार फट पड़े, स्वर में व्यंग्य उतर आया,“ सर...लोग जिसे भूरी बिल्ली और होपलेस स्टिक कहकर, मखौल करते हैं- उस लड़की में भी, थोड़ी बहुत एबिलिटीज तो हैं ही!” जुगल को दिन में तारे नजर आ गये!! जिन जुमलों को, उन्होंने खुद उछाला था– उन्हीं में लपेटकर, कलिका ने उन्हें पटखनी दे दी थी!!!

अगले दिन पता चला- जुगल सर ने, कलिका के ट्रान्सफर को, एप्रूव कर दिया था.

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