तेजाब Vinita Shukla द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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तेजाब

तेज़ाब

  • विनीता शुक्ला
  • अदालत की कार्यवाई शुरू होने वाली थी. मयंक पाल की आँखें भर आईं. रह रहकर उन्हें वो दृश्य याद आ रहा था- जब उनके कलेजे का टुकड़ा, उनकी बिटिया नीना अधजली हालत में अस्पताल लाई गयी थी. नीना को उसके वहशी पति किशोर ने मिट्टी का तेल डालकर जला दिया था. उनकी इच्छा के विरुद्ध प्रेम विवाह करके, जब वो किशोर के साथ चली गयी, तब भी वे उतना आहत नहीं हुए थे, जितना उसकी दुर्दशा को देखकर. नीना ने तड़प तड़पकर उनके सामने ही दम तोड़ दिया और वह कुछ न कर सके. सुना था कि किशोर के घरवाले नोटों से भरी थैली लेकर घूम रहे थे, न्यायाधीश को शीशे में उतारने की गरज से. पाल ने एक ठंडी सांस ली. कभी वे भी एक संपन्न परिवार के वारिस हुआ करते थे. अब जब समय ने तेवर बदल लिए हैं, सब कुछ बदल गया है उनके लिए!

    ना जाने भाग्य का फैसला क्या हो! जीवन के इस मोड़ पर वह बिलकुल अकेले पड़ गए हैं. पत्नी बरसों पहले परलोक सिधार चुकी थी. अपना कहने को एक बेटा जरूर है; पर वो तो बीबी के पल्लू से ही बंधा रहता है. फिर मयंक पाल की इस लड़ाई में उन्हें हौसला देने वाला भला कौन था? वे सोच में डूबे थे कि घोषणा हुई, “माननीया जज साहिबा पधार रही हैं.” मयंक ने आँखें खोलकर देखा तो आत्मा काँप गयी. जज की कुर्सी पर विराजमान उस महिला के झुलसे हुए चेहरे को देख, अतीत के काले पन्ने मानस पटल पर फड़फड़ाने लगे. “सुष्मिता डियर, इतनी देर से मैं तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा हूँ और तुम हो कि मुझे एवॉइड किये जा रही हो.”

    “सॉरी मयंक. मेरे नोट्स खो गए ; अपसेट हूँ, इसी से तुम्हारी बात पर ध्यान नहीं दे पा रही.”

    “बस इत्ती सी बात! तुम मेरे नोट्स ले लो”, मयंक ने हँसते हुए कहा. “देखो, हिस्ट्री के नोट्स खोये हैं,.. और हिस्ट्री हमारा कौमन सब्जेक्ट नहीं हैं”, सुष्मिता झल्ला उठी थी. इस पर उसका दोस्त थोड़ा खीज गया, “कम ऑन सुष्मिता, वो तो मैं कहीं से मैनेज कर दूंगा …..तुम बस….”

    “ओके, जल्दी बोलो जो बोलना चाहते हो……मैं ज्यादा बात करने के मूड में नहीं हूँ”

    “बोलने की जरूरत नहीं….सब कुछ इसमें लिखा है….पढ़ना जरूर” कहते हुए मयंक ने, गुड़ीमुड़ी सा एक वैलेंटाइन कार्ड उसे थमाया और वहां से गायब हो गया. कार्ड को पढ़ते ही सुष्मिता गंभीर हो गयी. अगली बार जब मयंक उससे मिला तो वह उसे देखते ही बोली, “तुम्हारा मैसेज पढ़ा….आई एम सॉरी मयंक. तुम मेरे बहुत अच्छे दोस्त हो पर..”

    “पर…?!!”

    “…मेरी सगाई हो चुकी है….काश तुमने मुझे पहले प्रपोज़ किया होता! तब शायद….”

    “कब हुई सगाई? यू नैवर टोल्ड मी एबाउट दैट”

    “यू नो माई पेरेंट्स! शादी होने तक, उन्होंने इस बारे में चर्चा करने से मना किया है.”

    “लुक सुशी, सगाई ही तो हुई है- कोई शादी तो नहीं….यू कैन स्टिल चेंज योर माइंड”

    “हाउ कुड यू से दैट मयंक?!!…आफ्टर ऑल, आई एम हैविंग सम सोशल वैल्यूज़”

    “सुशी, तुम मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकतीं! तुम्हें खोकर जीने का कोई मकसद नहीं रहेगा मेरे लिए”

    मैं मजबूर हूँ, सुष्मिता ने कहा और आगे बढ़ चली. अपनी प्रणय याचना की ऐसी अवमानना मयंक से सहन नहीं हुई. धीरे धीरे सुष्मिता का रवैया उसके लिए और भी कठोर होता चला गया. बात हद से बढ़ गयी, जब एक दिन मयंक ने, सबके सामने उसका हाथ पकड़कर अपने आग्रह को दोहराना चाहा. एक झन्नाटेदार तमाचा, रसीद कर दिया था उस ऐंठू लड़की ने, तब उसके गाल पर! पुरानी दोस्ती का ऐसा सिला!! आहत अहम् लिए पाल, बिलबिलाता रहा बदले की चाह में. वो एक ऐसा रईसजादा था कि जिस चीज़ पर उंगली रख देता, वह उसे मिल ही जाती. जिन्दगी में पहली बार उसे नीचा देखना पड़ा- वह भी एक साधारण सी छोकरी सुष्मिता मंडल के लिए!

    वो गुस्से से बुदबुदाया, “ये बदतमीज़ी तुझ पर बहुत भारी पड़ेगी सुशी; गर तू मेरी नहीं हुयी, तो किसी और की भी बनने नहीं दूंगा तुझे!” और फिर आ गयी वो मनहूस शाम जब …”मयंक पाल गवाही के लिए विटनैस बॉक्स में आयें” अपना नाम पुकारे जाने पर, मयंक हठात ही वर्तमान में लौट आये. भारी क़दमों से चलकर वे उस कटघरे तक पहुंचे, जहाँ गीता पर हाथ रखकर उनको कसम खानी थी. जज सुष्मिता मंडल की सुलगती हुई नज़रें भीतर तक गड़ रही थीं उन्हें. बीते हुए कल की कड़ी, सहसा आज से जुड़ गयी. निःसंदेह ये वही सुशी है जिसे!……जिसे उस मनहूस शाम को उन्होंने तेज़ाब फेंककर जला दिया था; वह भी उसके विवाह के ठीक एक दिन पहले!!

    फिर तो अदालत में क्या हो रहा था, उसका होश नहीं था मयंक को. वे न्याय की उम्मीद खो बैठे थे. वह तो तभी सचेत हुए जब, सुनवाई के अंत में जज साहिबा ने अपना फैसला दिया, “विरोधी पक्ष ने कई हथकंडे अपनाए. साक्ष्य मिटाने से लेकर, अदालत को खरीदने तक की कोशिश की. पर सच्चाई के साथ खड़ी होकर, ये अदालत, दिवंगत नीना दत्त के पति किशोर दत्त को, मुजरिम करार देते हुए, आजीवन कारावास की सजा सुनाती है.” इस बार पाल, खुद को रोक न सके सुशी को देखने से. फिर वही दृष्टि! वह दृष्टि जो कह रही थी- “दूसरों को जलाने वाले, जलने का दर्द अब जाकर जाना है तूने!” उस समय तो मयंक सजा से बच गया था, अपने पिता के रसूख और पैसों के बलबूते पर; लेकिन अब लग रहा था कि जो तेज़ाब उसने सुशी पर फेंका था, सम्प्रति वही उसकी आत्मा को झुलसा रहा था, अंतस के कोने कोने में रिसकर!