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फिर एक बार

फिर एक बार

  • विनीता शुक्ला
  • फैक्ट्री का सालाना जलसा होना था. तीन ही सप्ताह बच रहे थे. कायापलट जरूरी हो गया; बाउंड्री और फर्श की मरम्मत और कहीं कहीं रंग- रोगन भी. आखिर मंत्री महोदय को आना था. दरोदीवार को मुनासिब निखार चाहिए. अधिकाँश कार्यक्रम, वहीं प्रेक्षागृह में होने थे. उधर का सूरतेहाल भी दुरुस्त करना था. ए. सी. और माइक के पेंच कसे जाने थे. युद्धस्तर पर काम चलने लगा; ओवरसियर राघव को सांस तक लेने की फुर्सत नहीं. ऐसे में, नुक्कड़- नाटक वालों का कहर... लाउडस्पीकर पर कानफोडू, नाटकीय सम्वाद!! प्रवेश- द्वार पर आये दिन, उनका जमावड़ा रहता. अर्दली बोल रहा था- यह मजदूरों को भड़काने की साज़िश है. नुक्कड़- नाटिका के ज्यादातर विषय, समाजवाद के इर्द गिर्द घूमते.

    एक दिन तो हद हो गयी. कोई जनाना आवाज़ चीख चीखकर कह रही थी, “बोलो कितना और खटेंगे– रोटी के झमेले में?? होम करेंगे सपने कब तक - बेगारी के चूल्हे में?! लाल क्रांति का समय आ गया... फिर एक बार!” वह डायलाग सुनकर, राघव को वाकई, किसी षड्यंत्र की बू आने लगी थी. उसने मन में सोच लिया, ‘ अब जो हो, इन बन्दों को धमकाकर, यहाँ से खदेड़ना होगा- किसी भी युक्ति से. चाहे अराजकता का आरोप लगाकर, या प्रवेश- क्षेत्र में, घुसपैठ का इलज़ाम देकर. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद...’ उसके विचारों को लगाम लगी जब वह आवाज़, गाने में ढल गई.

    जाने ऐसा क्यों लगा कि वह उस आलाप, स्वरों के उस उतार- चढ़ाव से परिचित था. मिस्री सा रस घोलती, चिरपरिचित मीठी कसक! राघव बेसबर होकर बाहर को भागा. उसका असिस्टेंट भौंचक सा, उसे भागते हुए देखता रहा. वह भी नासमझ सा, पीछे पीछे दौड़ पड़ा. गायिका को देख, आंखें चौड़ी हो गईं, दिल धक से रह गया...निमिष भर को शून्यता छा गयी. प्रौढ़ावस्था में भी, मौली के तेवर वही थे. बस बालों में थोड़ी चांदी उतर आई थी और चेहरे पर कहीं कहीं, उम्र की लकीरें. भावप्रणव आँखें स्वयम बोल रही थीं; आकर्षक हाव- भाव, दर्शकों को सम्मोहन में बांधे थे. वह उसे देख, हकबका गयी और अपना तामझाम समेटकर चलने लगी. संगी- साथी अचरच में थे; वे भी यंत्रवत, उसके संग चल पड़े. राघव उलटे पैरों भीतर लौट आया.

    राघव के असिस्टेंट संजय ने पूछा, “क्या बात है रघु साहब? कुछ गड़बड़ है क्या??!”

    “कुछ नहीं...तुम जाओ; और हाँ पुताई का काम, आज तुम ही देख लेना...मशीनों की ओवरहॉलिंग भी...मेरा सर थोड़ा दुःख रहा है”

    “जी ठीक है...आप आराम करें. चाय भिजवाऊं?”

    “नहीं...आई ऍम फाइन. थोड़ी देर तन्हाई में रहना चाहता हूँ”. उसे केबिन में अकेला छोड़, संजय काम में व्यस्त हो गया. उधर रघु के मन में, हलचल मची थी. बीती हुई कहानियां, फिल्म की रील की तरह रिवाइंड हो रही थीं. वह सुनहरा समय- राघव और मौली, अपने शौक को परवान चढ़ाने, ‘सम्वाद’ थियेटर ग्रुप से जुड़े. दोनों वीकेंड पर मिलते रहते. वे पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों की भाँति, नितांत भिन्न परिवेशों से आये थे. फिर भी अभिनय का सूत्र, उन्हें बांधे रखता. कितने ही ‘प्लेज़’ साथ किये थे उन्होंने. रघु को समय लगा; थियेटर की बारीकियाँ जानने- समझने में- अभिनय- कौशल, डायलाग- डिलीवरी, पटकथा- लेखन और भी बहुत कुछ.

    किन्तु मौली को यह सब ज्ञान घुट्टी में मिला था. उसके पिता लोककलाकार जो थे. घर में कलाकारों की आवाजाही रहती. इसी से बहुत कुछ सीख गयी थी. यहाँ तक कि तकनीकी बातें भी जानती थी. जैसे साउंड व लाइट इफेक्ट्स, मेकअप, बैक स्टेज का संचालन; यही नहीं - दृश्य तथा पर्दों का निर्माण भी. संवादों पर उसकी अच्छी पकड़ थी. बौद्धिक अभिवृत्ति ऐसी कि डायलाग सुधार कर, उसे असरदार बना देती. सामाजिक समानता को मुखर करने वाले ‘शोज़’ उसे ज्यादा पसंद थे. इसी एक बिंदु पर उन दोनों के विचार टकराते. राघव मुंह सिकोड़ कर कहता, “कैसी नौटंकी है...’सो कॉल्ड’ मजबूरी और बेचारगी का काढ़ा! टसुओं का ओवरडोज़...दिस एंड देट...टोटल पकाऊ, टोटल रबिश!! दिस इस नॉट द वे टु सॉल्व प्रोब्लेम्स”

    “टेल मी द वे मिस्टर राघव” मौली उत्तेजना में प्रतिवाद कर बैठती, “आप क्या सोचते हैं कि आपके जैसे लक्ज़री में रहने वाले, समस्या को हल कर सकेंगे... नहीं रघु बाबू...फॉरगेट इट !!” और बोलते बोलते उसके कान लाल हो जाते. जबड़ों की नसें तन जातीं. निम्नमध्यम वर्ग की त्रासदी, दंश मारने लगती...आँखों के डोरे सुर्ख हो उठते और चेहरे का ‘ज्योग्राफिया’ बदल जाता. ऐसे में राघव को, हथियार डालने ही पड़ते. छोटी छोटी तकरारें कब प्यार बन गयीं, पता ना चला. मौली के दिल में भी कसक होती पर वह जबरन उसे दबा लेती. उसने राघव से कहीं ज्यादा, ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव देखे थे. वह जानती थी कि धरती और आकाश का मिलन, आभासी क्षितिज पर ही होता है.

    वास्तविक जीवन फंतासियों से कहीं दूर था. उसके पिता एक छोटी सी परचून की दूकान रखे थे; जबकि राघव जाने माने वकील का बेटा था. ऐसा जुगाड़ू वकील- जिसने नेताओं से लेकर, माफिया तक से हाथ मिला रखा था. स्याह को सफेद कर दिखाना, जिसका धंधा था. पैसा ही जिसका ईमान और जीने का मकसद था. इधर मौली-- वह स्वयम डांस- क्लास चलाकर, अभावों के हवनकुंड में, आहुति दे रही थी. राघव अक्सर कहता, “ये भी कोई लाइफ है मौली?! करियर में आगे बढ़ना है तो कुछ बड़ा मुकाम हासिल करो...रेडियो, टी. वी. में ऑडिशन दे डालो. कहो तो मैं बायोडाटा तैयार करूं?? आफ्टर आल यू आर सो एक्सपीरियंस्ड...कितने कैरेक्टर प्ले किये हैं तुमने और एक से बढ़कर एक परफॉरमेंस... सिंगिंग और डांस की भी मास्टर हो तुम...”

    “बस बस रघु बाबू!” उत्तेजना में मौली उसे ‘बाबू’ की पदवी दे डालती; स्वर में व्यंग्य उतर आता और शब्दवाण, राघव को निशाने पर लेते, “बाबू साहेब, हम सीधे- सादे गरीब आदमी... इज्जत की रोटी खाने वाले. दंदफंद करके एप्रोच निकाल पाना, अपन के बस में नहीं! उस पर कास्टिंग काउच...सुना है ना??!” शुभचिंतक बनने का जतन, राघव को अदृश्य कटघरे में खड़ा कर देता. ऐसे में वहां रहना असम्भव हो जाता. वह तमककर उधर से चल देता और मौली चाहकर भी उसे मना ना पाती!! यूँ ही खट्टी मीठी झड़पों में दिन बीतते रहे और एक दिन राघव को पता चला कि परिवार चलाने के लिए मौली ने रंगशाला को अलविदा कह दिया है और कोई ‘फूहड़ टाइप’ ऑर्केस्ट्रा ग्रुप जॉइन कर लिया है. ग्रुप क्या- नौटंकी कम्पनी ही समझो. मेले- ठेले में या दारूबाज लोगों की नॉन- स्टैण्डर्ड पार्टियों में शिरकत करते थे कलाकार.

    राघव के दिलोदिमाग में, धमाका सा हुआ! वह दनदनाता हुआ उनके दफ्तर पंहुचा और बिना संदर्भ- प्रसंग, मौली पर बरस पड़ा, “ बहुत ख्याल था इज्जत का. अब कहाँ है इज्जत?! दो कौड़ी की गेदरिंग्स में भाड़पना करना अच्छा लगेगा...ना कोई स्टेटस, ना डिग्निटी!!” उसकी बात से स्तंभित ना होकर, मौली ने चट नहले पे दहला जड़ दिया, “ राघव बाबू! आपके घर दो दो छोटे भाई नहीं हैं...बिन ब्याही बहन नहीं है. ऐसी बातें तभी अच्छी लगती हैं जब पेट भरा हो और गाँठ में पैसा हो. नहीं तो इन लफ्फाजियों का कोई मोल नहीं!” रघु के पूरे वजूद में, बर्फीली लहर सी दौड़ गयी थी. उसे कोई जवाब ना सूझा. पिटे हुए सिपाही की तरह, कदम पीछे खींचने पड़े. कई बार राघव ने, पैसे से मदद करनी चाही किन्तु मौली का स्वाभिमान हर बार आड़े आ गया.

    राघव को लगा कि भारी भरकम जेबखर्च और तगड़ा बैंक अकाउंट –किसी काम के नहीं! एक अरसा हो गया और वे दोनों नहीं मिले. नाक का सवाल जो ठहरा! दोनों ही ऊंची नाक वाले थे. रघु ने मन को समझाया- ‘अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊंगा तभी मौली के सामने जाऊंगा... बड़े घर का नाकारा बेटा ना कह सकेगी मुझे!” प्रिया के वियोग में युगों से दिन बीतते रहे. और एक दिन...पिता ने आदेश दिया, “मेरे विधायक दोस्त हैं ना- अरे वही रामआसरे जी...रौनकनगर में पब्लिक मीटिंग कर रहे हैं. उधर चलना है...वहां नारे लगाये जायेंगे. मौजूदा सरकार की धज्जियाँ उड़ाई जायेंगी और जनता को बांधे रखने के लिए भाषणबाजी के बीच में...यू नो थोड़े बहुत मनोरंजन के कार्यक्रम भी होंगे..एंटरटेनमेंट मने शुद्ध मनोरंजन ”

    यह कहते हुए वे रहस्यमय ढंग से मुस्कराए. ना जाने क्यों उस मुस्कान से, रघु सिहर गया! पिता अपने मित्र की खुराफात भरी गतिविधि से उसे जोड़ना चाहते थे. उम्मीद होगी कि राजनीति की बिसात पर बेटे को ‘पावरफुल पोजीशन’ दिला सकेंगे याकि राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर कहीं अच्छी नौकरी...” इसके आगे वह सोच ना सका. मौली का गढ़ा हुआ संवाद याद हो आया, “ आम जनता भेड़ है. सूत्रधार तो ऊपरवाले हैं जो उसका और उसकी भावनाओं का दोहन भर करते हैं’

    “साहब, मैनेजमेंट का संदेसा आया है...प्रोग्राम में प्रसिद्द लोककर्मी मौलश्री को बुलाना है. उनकी कोई प्रस्तुति भी दर्शकों के सामने रखनी है और फिर उनका सम्मान....”

    “मौलश्री???” संजय की बात सुन राघव नासमझ की तरह बुदबुदाया. “अरे वही! नुक्कड़ नाटिका वाली”

    “ओह!!” रघु मानों नींद से जागा. तो आखिर, मैनेजमेंट का दिमाग चल गया था. फैक्ट्री के बाहर डायलॉगबाजी रोकने का उपाय था- उनकी लीडर को शीशे में उतार लेना! विचारों से बाहर आते हुए उसने पूछा, “तब फिर?”

    “हमें आज ही, बल्कि अभी ही मौलीजी के पास चलना होगा...समय बहुत कम है”

    “लेकिन मैं क्यों??” वह कुछ हिचकिचाया, कुछ चौंका. किन्तु दूसरे ही पल, उसे अपनी प्रतिक्रिया बेवकूफाना लगी. कार्यक्रम का कर्ताधर्ता तो वही था. उसका जाना अनिवार्य सा था. “ठीक है...” उसने थकी हुई आवाज़ में संजय से कहा, “चलते हैं” फैक्ट्री का एक राउंड लगाकर वे बाहर निकले. संजय ने स्कूटर स्टार्ट किया तो राघव यंत्रवत बैक सीट पर बैठ गया. पूछते पुछाते वे गन्तव्य की तरफ बढ़ चले. पुनः विचार मथने लगे. मौली की विवशता वह तभी समझ पाया था जब पिताजी जेल चले गये और उनका बना बनाया साम्राज्य ध्वस्त हो गया. जब आर्थिक तंगी ने उसके परिवार को जकड़ा; मौली के अभावग्रस्त जीवन का दर्द महसूस कर सका. एक हाई प्रोफाइल केस में, गलत साक्ष्य जुटाने को लेकर, पिता गिरफ्तार क्या हुए; वह किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा!

    कैसी कैसी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी थी उसको...यादें उसे कचोटतीं- किस बेदर्दी से मौली को शर्मिंदा किया था उसने. अपना पक्ष ना रख पाई मौली और उसके निर्दय प्रेमी ने किनारा कर लिया!! रौनकनगर वाली मीटिंग में, ठुल्ले नेताओं की बकबक संग, गीत संगीत का तड़का भी लगा. आइटम सांग पर कमर लचकाती, कोई बाला नजर आयी. बेशर्म लटके झटकों और छोटे कपड़ों में, नागिन सी बलखा रही युवती पर जमकर नोट बरसाए गये. सीटियाँ बजाई गयीं, अभद्र ताने कसे गये. अजब तमाशा था. राघव भी होठ भींच कर मुस्कराया. किन्तु यह क्या! नोट बटोरते हुए युवती का घूँघट खुला और राघव के मुंह से चीख निकलते निकलते रह गयी. मौली और इस भेस में!!

    बैक स्टेज पर जाकर देखा तो पाया, मौली लुटाये गये चंद चिल्लरों के लिए, आयोजकों से झगड़ा कर रही थी. राघव वितृष्णा से भर उठा था. उसकी जलती हुई दृष्टि, मौली की आँखों से जा टकराई. “बाबू!!!” मौली के स्वर में अपराध- बोध फूट पड़ा. रघु ने कुछ भी कहना सुनना मुनासिब ना समझा और पैर पटकता हुआ, वहां से निकल चला. यह तो बहुत बाद में जाना कि मौली के भाई का एक्सीडेंट हुआ था और वह कुछ अग्रिम रकम जमा कर, अस्पताल के खर्चों का बन्दोबस्त कर रही थी. उस बेचारी को भाई की जान बचानी थी; भद्दे नाच और निर्लज्ज ठुमकों के पीछे, कितनी बड़ी बेबसी रही होगी!

    राघव जब तक यह जान सका, बहुत देर हो चुकी थी. जीवन नये मोड़ लेने लगा. स्मृतियों की पगडंडी, कहीं पीछे छूट गयी... प्रेयसी के पदचिन्ह खो गये- राहों की धूल में!! मौली शहर को छोड़, किसी अजानी जगह पर जा बसी थी. ना उसका कोई पता और ना ही परिवार का. विचारक्रम बाधित हुआ- जब धचका खाकर स्कूटर, मौली के द्वार रुका. “अरी बंसरी, देख तो जरा कौन आया है...कौन हो सकता है इस समय?” दूसरा वाक्य लगभग फुसफुसाकर बोला गया था. रघु और संजय अचम्भित से खड़े थे. सहसा एक हंसी सन्नाटे में खनक गयी, “क्या अम्मा...छोटे से छोटे काम में भी बंसरी की गुहार!”

    “अब जाती है या...” जवाब थप्पड़ की तरह पड़ा. राघव को अब तनिक भी संदेह ना रहा कि वह ‘तथाकथित अम्मा’ मौली ही थी! उसे देख एक सर्द आह मौली के मुख से निकली. उसकी बेटी बंसरी भी वहां थी; लिहाजा धर्मसंकट और बढ़ गया. किसी भाँति बंसरी को ठेलकर बाजार भेजा, ‘मेहमानों’ के लिए मिठाई लाने वास्ते. संजय ने खुदबखुद हालात को ताड़ लिया उन दोनों को छोड़, बाहर निकल आया. कहासुनी तो होनी ही थी उनके बीच. लेकिन गिले- शिकवों का फायदा भी हुआ. मन एक -दूजे के लिए मैला ना रहा. मानों पोखर का गन्दला पानी, निथार कर साफ़ कर दिया हो.

    कारखाने की तरफ से सम्मान- प्रस्ताव रखते हुए, रघु के नयनों में भी श्रद्धा छलक पड़ी थी; और मौली के लिए तो यही सबसे बड़ा सम्मान था! राघव लौटते समय, बेहद हल्का महसूस कर रहा था. सुदर्शना बंसरी को उसने, अपने बेटे के लिए मांग लिया और मौली ने खुशी से हामी भर दी. बदले हालातों में, बदले किरदारों के बीच; वह फिर साथ साथ थे. दो शरीरों का मिलन ना हो सका तो क्या! आत्मा का जुड़ाव कुछ कम नहीं. किस्मतें भी टकरा गई थीं- फिर एक बार!

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