ढब्बू जी अब जल संरक्षण की ओर sangeeta sethi द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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ढब्बू जी अब जल संरक्षण की ओर

जीवंत कहानी : आबिद सुरती

ढब्बू जी अब जल संरक्षण की ओर

Sangeeta Sethi

“ लो आ गए तुम्हारे ढब्बूजी ”कमली ने आँगन में सीन्कचों के झाड़ू लगाते हुए खुद को

रोका । छपाक की आवाज़ के साथ दो भाग में तहाया हुआ धर्मयुग आँगन की दीवार को फान्दता हुआ गिरा था । कमली जब तक उसे उठा कर किनारे रखती रमेश ने लपक कर उठा लिया था धर्मयुग ।

“ क्या कहते हैं जी तुम्हारे ढब्बू जी ? ”कमली मे कुचुर कुचुर झाड़ू की सींकचे चलाते हुए पूछा था और फिक्क से हँस दी थी । उसे मालूम था अभी रमेश कोई अपनी ही चुहल जोड़ेगा इन ढब्बू जी के साथ ।

इस बार ढब्बूयाइन नाराज़ दिख रही है । कह रही तुम आलू प्याज़ क्यों नही लाये बाज़ार से ?

“ तो क्या कहा ढब्बू जी ने ? ” कमली ने बाल्टी का बचा हुआ पानी आँगन में उड़ेल दिया था ।

“ अरे ढब्बू जी कह रहे हैं कि ये आँगन का पानी सूखेगा तब जाऊँगा ना सब्जी मण्डी ”

रमेश और कमली की फुलझड़ी-सी हँसी पटाखे से ठहाके में तब्दील हो चुके थी । कमरे से नन्हीं बिक्की फुदकती हुई बाहर आई और पापा से कह उठी- “ पापा ! मैंने होमवर्क कर लिया है । अब तो आप ढब्बूजी से मेरी शिकायत नहीं करोगे ? ”बिक्की उछल कर पापा की गोद में बैठ गई और धर्मयुग के ताज़ा पन्नों की खुश्बू लेने लगी । ढब्बू जी वाला पन्ना खोलो ना पापा ! नन्ही बिकी ने मनुहार की तो पापा ने ढब्बू जी वाला पन्ना खोला तो बिक्की ढब्बू जी के पास अपनी नाक ले जाकर खुश्बू लेने लगे मानो ढब्बू जी के काले चोगे से ही उसे खुश्बू आ रही हो ।

धर्मयुग के उस ढब्बूजी से पूरे परिवार को प्यार हो गया था । रमेश-कमली की चुहल ढब्बूजी के आस-पास चलती और नन्हें बिक्की को कभी होमवर्क करने तो कभी खाना खिलाने के लिये ढब्बूजी का सहारा लिया जाता । अब इस परिवार में बबलू भी शामिल हो गया था । जो धर्मयुग आते ही दब्बूजी दब्बूजी बोलने लगता ।

समय चक्र भला ऐसे भी चलता है सोचा ना था बिक्की ने । ढब्बूजी रच बस गया था जीवन में । पर किशोर होती बिक्की नहीं जानती थी कि ये ढब्बूजी कौन बनाता है ? कौन लिखता है ? कौन कल्पना करता है ? हाँ कुछ समझदार होते होते एक नाम अवश्य पढा था “ आबिद सुरती ”ये नाम भी बड़ा रहस्यमयी लगा था उसे । जैसे दूसरी दुनिया का नाम हो । उसके आस-पास तो नरेश,सुरेश,दिनेश,महेश, राम,श्याम या वर्मा ,शर्मा जैसे सरल नाम थे ।

समय चक्र भला ऐसे भी चलता है बिक्की ! धर्मयुग को पढते-पढते ना जाने कब बिक्की के मन में लेखन का बीज अंकुरित हो गया था । छोटी-छोटी कविताएँ लिखते हुए कब गद्य लेखन की तरफ पलटी मालूम नहीं और कब लिखते-लिखते छपने की इच्छा जागृत हुई पर छपना इतना आसान तो नहीं था । डाक से लौट कर आई रचनाओं का अम्बार लग गया था । बिक्की के पापा 15 पैसे की टिकट से 25 पैसे की टिकट तक लगाते-लगाते थक नहीं थे । मूक बने पापा ने कभी यह भी नहीं पूछा कि तेरी रचनाएं कभी छपी भी हैं ।

समय का चक्र भी भला ऐसे चलता है कि अल्पवय में ही शादी का प्रस्ताव ,सहमति और जैसे बिक्की को भी 25 पैसे का टिकट लगा कर रवाना कर दिया था ससुराल के पते पर कभी न लौटने के लिए । एक ठहराव के बाद लेखन सुप्तभूमि से उबर कर अंकुरित हुआ ।

इस बार पति राजेन्द्र खड़े थे टिकट लेकर । टिकट का दाम 25 से 35 हो गया था और 35 से 50 , 50 से एक रुपये तक बिना घबराये लगाते रहे । कोई इक्का-दुक्का रचनाएँ छपने लगी थी । बिक्की अब संगीता बन गई थी ।

समय का चक्र भी भला ऐसे चलता है । मेरी एक दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी । बच्चों के लिए लिखी संगीता की किताब आस्था की कहानियाँ देख कर मुझे नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया ने संगीता को एक सेमीनार में बुलाया था । वो नवोदित लोगों को बुलाना चाहते थे जिन्हें वरिष्ठ लोगों के साथ मिलकर कुछ सीख सकें ।

आजमगढ के जोकहरा गाँव में कार्यशाला थी । सन 2007 का महीना जुलाई । दिल्ली से चला था दल । सहमी सकुचाई संगीता अपने सूट्केस के साथ ट्रेन के उस डिब्बे में चढी थी जिसे एन.बी.टी. के मानस-दा ने उसे फोन पर बताया था । चार-पाँच लोगों का झुण्ड पहले से ही मौजूद था उस सीट पर । सम्भवतया वो सब साहित्यकार ही थे जिन्हें संगीता नहीं जानती थी । मानस-दा ने संगीता का परिचय करवाया ।

“ ये संगीता हैं बीकानेर से आई हैं । ”

“ ...और ये हैं आबिद सुरती कार्टून कोना ढ्ब्बूजी ” कह कर मानस-दा के साथ सभी ने ठहाका लगाया ।

संगीता एक बार तो समझ नहीं पाई...फिर.....स्तब्ध....देखती रह गई ....हाथ का सूटकेस जमीन पर रखना ही भूल गई...बरसों-बरस जिस ढब्बू जी को पढती रही ...जिस ढब्बूजी के सहारे बड़ी हुई....जिस ढब्बूजी को उसकी शिकायतें मिलती रही...वो ढब्बूजी इस तरह मिल जाएंगे संगीता को, उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था । ढब्बूजी की सारे प्रकरण मानों ट्रेन की सीटों पर आ बैठे थे । कुछ संगीता की पीठ पर लदे बैग तो कुछ सूट्केस के हैण्डल पर भी बैठे थे ....हैरान थी संगीता....एक मन हुआ कि गले लग जाऊँ....दूसरा मन किया कि हाथ मिला लूँ...फिर एक मन कि पैर छू लूँ और अंतत: हाथ जोड़कर नमन की मुद्रा में खड़ी हो गई ।

दिल्ली से आजमगढ और आजमगढ से जोकहरा तक का सफर रोमांचक था । यूँ तो संगीता के लिए यात्रा करना रोमांचक ही होता है परन्तु इस यात्रा में पहली बार इतने साहित्यकारों के साथ और उस पर आबिद सुरती का साथ । साहित्यकारों की दुनिया में सबसे छोटी और नवोदित संगीता संकोच करती रही और सोचती रही कि कैसे आबिद जी से बात करे । बातों का सिलसिला कतरा-कतरा आकार लेने लगा और जोकहरा पहुँचते-पहुँचते संगीता की हैरानी भी बढती गई । गुजरात के राजुला में 5 मई 1935 को जन्मे आबिद सुरती उर्फ ढब्बू जी केवल कार्टूनिस्ट ही नहीं बल्कि लेखक हैं , कलाकार हैं, नाटककार हैं और भी ना जाने क्या-क्या हैं । संगीता का लेखकीय दुनिया में नवोदित मन आश्चर्य से फैलता जा रहा था । एक 72 वर्ष का इनसान उसके सामने बैठा था जो ऊर्जा से भरपूर था । संगीता तो उन्हें अब तक उन्हें ढब्बूजी के रचयिता के रूप में जान रही थी पर उसे उनमें एक बहुत बड़ा संसार नज़र आ रहा था ।

जोकहरा पहुँच कर एक शाम को सभी साहित्यकार छत पर एकत्रित हुए थे । आबिद सुरती जी के हाथ में लैपटोप था । लैपटोप !?$!.....संगीता आश्चर्य से भर गई । अभी तक उसने अपने आस-पास के बच्चों के पास ही देखा था लैपटोप । ऑफिस में भले ही कम्प्यूटर पर माउस से क्लिक करती हो संगीता पर लैपटोप पर उंगली और अंगूठे के स्पर्श से स्क्रीन पर चलता कर्सर का एक अलग ही अहसास था ।

बेह्द मासूम-सा सवाल आबिद जी से पूछ बैठी थी संगीता ” ये आप क्या करते हैं लैपटोप पर ? ” संगीता की मासूमियत को नज़र अन्दाज़ करते हुए आबिद जी बोले थे –“ अभी तुम सबको अपनी वेब साइट दिखाऊँगा ”

लैपटोप खोला और सभी साहित्यकार घेरा बना कर बैठ गये ।

“ आओ संगीता ...लो चलाओ लैपटोप ! ” आबिद जी का आग्रह था ।

पर कहाँ आता था संगीता को लैपटोप चलाना । पर आबिद जी को ना बोलेगी तो क्या सोचेंगे ? मन में विचार चलते –चलते संगीता खटिया पर पड़े लैपटोप के सामने बैठ गई । कम्प्यूटर के माउस वाले क्लिक को उंगलियों में भर लिया और आबिद सुरती के निर्देशों का पालन करने लगी ।

गूगल पर टाइप किया और आबिद सुरती का पूरा का पूरा संसार संगीता के सामने खुलता चला गया ।

कहाँ से शुरू करें....लेखक ,पेंटर, कार्टूनिस्ट, थियेटर, समाजसेवी, बालसाहित्यकार, एक्टर यानि आधा दर्जन से भी अधिक कलाओं से भरपूर आबिद जी का पहले लेखन देखें या चित्रों से भरी गैलरी देखें...जयकार देखें या कार्टून कैरेक्टर देखें ।

पहला पेज लेखन का ही था । 80 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके आबिद ना केवल

काल्पनिक कहानियाँ लिखते हैं बल्कि तथ्यात्मक कहानियों पर भी काम करते हैं। उनकी कृतियों का लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । वो यात्रा संस्मरण लिखते हैं बल्कि बच्चों के लिए भी लिखते हैं । भारतीय फिल्मों के लिए राज खोसला और राज कपूर के लिए भी लिखे चुके हैं । इसके साथ थियेटर की दुनिया के लिए काम करते हुए सात नाटक भी लिख चुके हैं । संगीता को आबिद जी के लेखन पक्ष को पढने की बेहद आतुरता थी लेकिन घेरा बनाए और साहित्यकार उनके पेंटिंग देखने को आतुर थे । कुछ साहित्यकार उनके कार्टून देखन चाह रहे थे तो कुछ थियेटर . “ एक-एक करके भई...!...” आबिद जी मुस्कुराए थे । फिर बोले – “ साइट पर ऊपर जाओ और गैलरी पर क्लिक करो ” संगीता की मध्यमा ने गैलरी पर क्लिक करते ही पेंटिंग का रहस्यमयी संसार सामने था ।

आबिद जी ने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्टस से मुम्बई 1958 मे डिप्लोमा किया । उनकी पहली एकल प्रदर्शनी नैनीताल में सम्पन्न हुई और अब तक 15 एकल प्रदर्शनी भारत और विदेशों में लग चुकी है । आबिद जी के पेंटर के रूप में भी विविध आयाम है ।

ग्लास पेंटिंग,मिरर कोलाज, स्टैंडॅ ग्लास, एक्रिइक कार्टून ,कॉमिक, बॉडी पेंटिंग और पेंटड हाउस...संगीता दाँतों तले उंगली दबा कर इज़हार भी कैसे करती उसकी उंगलियाँ तो बस लैपटोप पर ही चल रही थी । वो स्क्रीन पर आँख गढाए आबिद जी के निर्देशों का पालन कर रही थी । ऐसी पेंटिंग जिन्हें केवल सपनों में ही देखा जा सकता है । उसे देख कर यूँ लैपटोप पर देखना और उस पर भी उस पेंटिंग के रचयिता को सामने बैठे देखना संगीता को सुखद आश्चर्य से भर रहा था ।

एक नग्न पेण्टिंग को देख कर संगीता की सर्फिंग करती उंगलियाँ ठिठकी थी । उसे लग रहा था कि वो शर्म से गढ जाएगी । आबिद जी बोल उठे-“यह पेंटिंग स्त्री के मनोभावों को दर्शाती है कि उसके कपड़ों के नीचे छिपे शरीर से लिपटे दर्द कितने जखम दे जाते हैं , कोई नहीं जानता । ”आबिद जी की ये बेबाक टिप्पणी उसके कईं जखमों को सहला गई थी । उसकी आँखें पेंटिंग के जख्मों पर गढ गई थी ।

अभी तो आबिद सुरती के कार्टून देखना बाकी था पर सेमीनार के सत्र का समय हो चुका था पर सेमीनार के सत्र का समय हो चुका था । बहुत सारी उत्कंठाओं के साथ संगीता ने लैपटोप शट-डाउन कर दिया था ।

संगीता के लिए उस विशाल व्यक्तित्व के प्रति उमड़-घुमड़ निरंतर चल रही थी । अगले दिन जोकहरा गाँव की नदी देखने अकेले ही चल पड़ी थी । नदी के पुल पर खड़ी नदी का छल-छल करता बहना देख रही थी कि सामने से आबिद सुरती दिखाई दिए थे । मानो संगीता को खजाना मिल गया था । मन में उमड़ रहे प्रश्नों को आबिद जी के सामने रख डाला था । शुरुआत ढब्बूजी से ही की थी । आबिद जी कह रहे थे “ संगीता एक सफलता के पीछे कईं असफलताएँ छिपी हुई होती हैं ये ढब्बूजी वाला चरित्र तो मैंने एक गुजराती पत्रिका के लिए बनाया था पर वहाँ से अस्वीकृति मिली । फिर धर्मवीर भारती धर्मयुग निकालने की तैयारी में थे । उन्हें पत्रिका एक हिस्सा भरने के लिए कार्टून स्ट्रिप की ज़रूरत थी और मैंने उसी कार्टून को भेज दिया । पत्रिका में उसे अंतिम पृष्ठों में स्थान मिला । खाली स्थान भरने के लिए दिया गया कार्टून इतना विख्यात हो जाएगा कि लोग पत्रिका को पीछे से पढने लगेंगे । लगभग 30 साल तक ढब्बूजी चला जब तक धर्मयुग चला । ” संगीता मंत्रमुग्ध-सुनती जा रही थी आबिद जी को ।

आबिद जी का विशाल व्यक्तित्व और उनका सरल हृदय सागर की तरह हिलोरें मार रहा था । उसकी एक-एक लहर संगीता को स्नेह से सराबोर कर रही थी ।

बातों-बातों में किया गया यह साक्षात्कार राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित भी हुआ था जिसके एक-एक प्रश्न के पीछे पूरी एक कहानी छिपी हुई थी ।

***

दिमाग को मेज़ बना दो :आबिद सुरति

1. आप ढब्बूजी के नाम से प्रसिद्ध हैं आपके मन में यह परिल्पना कैसे आई ?

 मेरे पिता साधु जैसा चोला पहनते थे । वो ही मेरे दिल ओ’दिमाग में बसा था । वही मेरी परिकल्पना का आधार था ।

2. ढब्बूजी का मैटर कहाँ से उभरता था ?

  • निश्चय ही मेरी पत्नी
  • 3. धर्मयुग में कैसे अस्तित्व में आया ?

  • दरअसल मैने एक गुजराती पत्रिका के लिए इसे लिखा था जहाँ से अस्वीकृत हो गया ।बाद में धर्मयुग में इतना विख्यात हो गया कि 30 साल तक चला । रजनीश तो अपने धर्मोपदेश के बाद हमेशा धर्मयुग हाथ में लेकर कहते थे देखें आज ढब्बूजी क्या कहते हैं ।
  • 4. आप एक व्यंग्कार होने के साथ-साथ इतने अच्छे चित्रकार भी हैं और उपन्यासकार भी । कैसे ?

  • किसी भी क्रिएटिव फील्ड में काम करना मेरे लिए गुल्ली-डण्डा खेलने जैसा है।
  • 5. आपके चित्रों में स्त्री-मनोभावों को बखूबी दिखाया है ? दिल की गहराई तक कैसे पहुँच पाते हैं ।

     पाठक ऐसा मानते हैं, तुम ऐसा मानती हो पर इस संसार मे एक लड़की ऐसी है जो नहीं मानती । मैं मानता हूँ कि वो सही है । क्योंकि मेरा दुख भी यही है कि मैं दिल की गहराई तक नहीं पहुँच पाता ।

    6. अपने चित्रों की विशेषता बताएं ।

  • मेरे चित्रों की विशेषता यही है कि अपनी हर नई तकनीक, नई शैली लेकर गैलरी में आता हूँ ।
  • 7. आपके कार्य करने की शैली के बारे में बताएँ । यानि समय प्रबन्धन, विचार, किस समय कौंनसी कला पर काम करना है ?

     मेरा काम करने का तरीका बड़ा सरल है । दिमाग को मेज़ बना दो । एक मेज़ मे कईं दराज़ें होती है । जब मैं लेखन के मूड में होता हूँ तो लेखन की दराज़ खोलता हूँ । यानि बाकी दराज़ें बन्द । इसी तरह जिस दराज़ की ज़रूरत हो उसे खोलो और बाकी बन्द रहने दो ।

    8. आदमी और चूहे जैसी रचना लिखा कर क्या मह्सूस कर रहे हैं ?

     आदमी और चूहे जो नया ज्ञानोदय में छपी भी थी,विस्थापित लोगों पर है । हमारा समाज कितना बेरहम हो गया है कि वो उन्हें भी नहीं बक्शता उनका लहू चूस कर ही दम लेता है । मुझे खुशी है कि ज्ञानोदय के पाठकों ने इस उप्न्यास को खुले दिल से सराहा है ।

    9. इसके माध्यम से आप समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?

  • दिमाग (यदि हो तो) उसे तरोताज़ा रखो ।

  • 10. आज के हाइटेक दौर में इन कलाओं का भविष्य क्या है ?
  • हाईटैक का दौर यानि मशीनों का दौर और मशीनों के पास अपना दिमाग नहीं होता । जो भी कलाकार इनका इस्तेमाल अपने लाभ में करेगा उसकी कलाकृति ज़माने से एक कदम आगे होगी ।
  • 11. क्या बच्चों के लिए भी कोई काम किया है ?

  • बच्चों के लिए मेरी कईं किताबें एन.बी.टी. से छपी हैं । हाल ही में प्रकाशित “बुद्ध क्यों मुस्कुराए 2500 साल बाद ” मेरी श्रेष्ट रचना है और उस पर चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी फिल्म बनाने के लिए विचार कर रही है ।
  • 12.अपने पारिवारिक जीवन के बारे में बताएँ ।

  • परिवार में हम दो हमारे दो है । पति,पत्नी और दो बेटे । चारों के पास एक-एक फ्लैट है और चारों ऐश कर रहे है ।
  • 13. अपने सामाजिक जीवन के बारे में बताएँ । अक्सर ऐसे व्यस्त कलाकार सामान्य सामाजिक जीवन से दूर हो जाते है ।

  • मैनें यहाँ मीरा रोड से पानी बचाने की नई मुहिम शुरु की है जिसे लोग दुनिया भर में अपना रहे हैं । इस मुहिम की जानकारी हाल ही मे जर्मन टी.वी. द्वारा सारे यूरोप में दी गई है ।
  • अन्य कोई विशेषता अपनी या अपने कार्य की बताना चाहें ।
  • सब कुछ अपने लिए नहीं, कुछ ज़माने के लिए भी करो, जैसे मैं पानी बचाओ आन्दोलन में लगा हूँ । चाहे गीता हो या कुरान, जान कर चलो, मान कर नहीं । बुद्ध और महावीर ने भी यही सन्देश दिया है ।
  • साक्षात्कार कर्ता

    संगीता सेठी

    बीकानेर (राजस्थान)

    ***

    लौट आई थी संगीता अपने शहर बीकानेर...अपने मौहल्ले....अपने घर....लेकिन आबिद सुरती को और जानने की उत्कंठा मन में अभी भी बाकी थी और इंटरनेट के तमाम कोंने छान लिए थे । ढेर सारी दंग करने वाली सूचनाएँ निकल कर आई थी सामने ।

    आबिद सुरती को 1993 में उनके लघुकथा संग्रह “ तीसरी आँख ” पर राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है । उनके गुजराती उपन्यास पर आधारित फिल्म “अतिथि तुम कब जाओगे ” बन चुकी है ।

    कार्टून की दुनिया में आबिद सुरती का कमाल का काम देख कर दंग है संगीता । वो अभी तक आबिद सुरती जी को ढब्बू जी के इर्द-गिर्द पा रही थी । उनका पहला कार्टून कैरेक्टॅर “ रामाकाडू ” था जो 1952-1953 में एक गुजराती पत्रिका के लिए रचा गया था ।“बहादुर ” कॉमिक्स पात्र को 1978 में इन्द्रजाल कॉमिक्स ने पन्नों पर उतारा तो बहुत बड़ी संख्या में बहादुर के प्रशंसक बन गए । बॉलीवुड अभिनेत ने अपनी टेबल पर इसका चित्र सजा रखा है । वो अपने टॉक शो में भी इसकी बात करते हैं । “इंस्पेक्टर आज़ाद ” और “ चिंचू के चमत्कार ” उनके अन्य कार्टून पात्र हैं जो कॉमिक्स के द्वारा प्रसिद्ध हुए ।

    अभी साइट पर एक पक्ष देखना और बाकी था । वो था समाज सेवी का पक्ष....वो भी बूँद बचाओ जैसे अभियान में । ये क्या है साइट पर ? संगीता चौंक गई थी देखकर कि आबिद सुरती बूँद बचाओ अभियान में जुटे हैं । “पूछती हूँ आबिद जी से ” कि इसे कैसे सम्पन्न कर पा रहे हैं । संगीता उठती है कम्प्यूटर के सामने से और लॉबी में रखे लैण्ड-लाइन फोन से आबिद जी को डायल करने लगती है ।

    समय चक्र ऐसे भी चलता है भला ? 2015 नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया ने लखनऊ में बच्चों के लिए एक कार्यशाला आयोजित की । संगीता को आमंत्रित किया बच्चों को कहानी लेखन के लिए और आबिद जी को चित्रकार के रूप में । उछल पड़ी थी संगीता । क्यों ना करे आमंत्रण स्वीकार...जाएगी...ज़रूर जाएगी ।

    पूरे आठ साल बाद मिल रही है संगीता आबिद जी को । इन आठ सालों में आठ सौ सवाल कर चुकी है संगीता । फोन पर खनकती आबिद जी आवाज़ को सुन कर संगीता खुद भी बच्चा बनी रही । कभी कभी तो दादू कह डालती आबिद जी को । क्यों ना कहे....इतना प्यार...इतना स्नेह तो कोई दादू ही दे सकते हैं ना ....।

    लखनऊ में मिली थी संगीता आबिद जी से....भरपूर उर्जा और जोश है आबिद जी में....इन आठ सालों में अस्सी साल के हुए हैं पर नीली जीन्स और कॉस्मिक ब्ल्यू रंग की कार्टून बने टी-शर्ट में भी किसी नौजवान से कम नहीं लग रहे । कार्यशाला में संगीता ने बच्चों को कहानी लिखना सिखाया था और आबिद जी ने चित्र बनाना । एक सुखद सन्योग था जिसे संगीता नहीं भुला पाएगी ।

    इस बार आबिद जी से ड्रॉप डैड अभियान के बारे में चर्चा प्रमुख बनी थी । हजरतगंज के कॉफी हाउस में वो बताते रहे कि कैसे एक बार उनके मित्र के घर के बाथरूम में नल से टपकती बूँद ने उन्हें सारी रात सोने ना दिया । बस वो ही दिन इस अभियान का प्रेरक दिन था । उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा । सबसे पहले मुम्बई में मीरा रोड स्थित सोसायटी में शुरुआत की । लोगों से बातचीत में पाया कि बूँद टपकने जैसे छोटे कामों के लिए कोई प्लम्बर नहीं आता । तब उन्होंने अपनी टीम में एक प्लम्बर शामिल किया जो सोसायटी के नलों को निशुल्क ठीक करेगा । हज़रतगंज के चाट-हाउस में जब एक वृद्ध बैरा आया तो उन्होंने उसके हाथ में 100 का नोट टिप के रूप में दिया तो हमारे हैरानी से देखने पर बोले –“ कोई वृद्ध इस उम्र में काम करे तो सम्मान तो होना ही चाहिए । ”

    आबिद जी के साथ लखनऊ में दो दिन बिताए तो संगीता को लगा कि समय से दो युग चुरा ले । उनका सरल हृदय संगीता को आकृष्ट कर रहा था । बच्चों के बीच जब वो कार्टून बनाना सिखा रहे थे तब संगीता का मन उनके “ ड्रॉप डैड ” अभियान के बारे में सोच रहा था कि कैसे कोई व्यक्तित्व इतने विविध आयाम वाला हो सकता है । कैसे कोई व्यक्ति ओस की बूँद बन कर बच्चों के खूबसूरत मन को सहला सकता है और वही व्यक्ति समाज की ही नहीं बल्कि पूरी धरती की फिक्र कर रहा है पानी की एक बूँद बचाने की मुहिम चला कर ।

    आज शाम को और बात करेगे आबिद जी से । वो बता रहे हैं बोर्ड पर बच्चों को कि जब हँसते हैं तो हमारी नाक कैसे हो जाती है....जब रोते हैं तो नाक कैसे हो जाती है...जब चिढते हैं तो तुम्हारी नाक कैसे हो जाती है और जब मम्मी डाँटती है तो नाक कैसे हो जाती है ...और बच्चे हँस रहे हैं अपनी ड्रांइग बुक में तरह-तरह की नाक बनाते हुए ।

    उस शाम बात हुई आबिद जी से ड्रॉप डैड अभियान के बारे में । उनके इस अभियान से प्रभावित होकर भारत के कोने-कोने से विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में उन्हें आमंत्रित किया जाता है । मुम्बई में अक्सर पानी बचाओ अभियान की रैली निकालते हैं । बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान और माधुरी दीक्षित अपने टॉक-शो में आबिद सुरती जी के इस अभियान की चर्चा कर चुके हैं ।

    45 उपन्यास 10 लघुकथाएँ 7 नाटक और ना जाने कितने कार्टून...कितने कॉमिक्स..कितने कैंनवास का सृजन कर चुके आबिद जी अब पृथ्वी पर पानी बचाने के लिए चल पड़े हैं । कॉफी-हाउस से चलते समय आबिद जी ने संगीता को अपना पेन ड्राइव दिया और कहा “ इसमें एक फिल्म है मेरे जीवन पर , अपने लैपटॉप पर लोड कर लेना और देख लेना ”

    लैपटोप पर लोडिंगे के डॉट्स बढते जा रहे थे । 1 मिनट शेष का सन्देश सामने था । आबिद जी के बारे में इतना कुछ जान चुकी संगीता सोच रही थी कि अब इस फिल्म में क्या नया देखेगी ।

    20 मिनट की फिल्म को बिना पलक झपकाए देखी । स्तब्ध थी संगीता फिल्म देखकर । रईस खानदान के पुत्र आबिद बचपन में अपनी दादी की गोद नें बैठ कर अपनी हवेली से निकलती गाड़ियों पर सवाल किया करते थे । इसमें क्या हैं ? तब वो बताती थी कि इसमें बहुत सारा पैसा है ।

    इतनी रईसी देखने के बाद भी आबिद का वो समय आया कि उन्हें फुटपाथ पर रातें गुजारनी पड़ी...फिल्म स्टुडियो में पोछा लगाना पड़ा और स्पॉट बॉय का काम करना पड़ा । उनके हाथ में कला थी पर कला से पेट की भूख नहीं मिटती । जब चित्रकारी का खुमार उनके सिर पर चढ कर बोल रहा था तो उनके पास कैनवास खरीदने को पैसे नहीं थे । तब उन्होंने अपने घर की दीवारों को ही कैनवास बना कर पेण्ट कर डाला ।

    20 मिनट की इस फिल्म में अलग-अलग हुनर की चर्चा थी । लेखन थियेटर ,कार्टून, कॉमिक्स, फिल्म और समाज सेवा पर उन सब का हीरो एक ही है और वो है आबिद सुरती ।

    जब संगीता उन्हें पैन ड्राइव लौटा रही थी तब सोच रही थी कि ये बूँद बचाने वाला इंसान अपने अन्दर कितना विशाल सागर समाए हुए है ।

    पैन ड्राइव लेते हुए आबिद जी अनायास ही पूछ उठे “ संगीता बताओ ! आज मैंने नीला क्यों पहना है ” संगीता क्या जवाब दे इसका...? बस मुस्कुरा कर रह गई ।

    “ क्योंकि तुमने भी नीला पहना है ” आबिद जी मेरी मोरपंखी साड़ी की तरफ इशारा करके खुद ही जवाब दे बैठे और एक ठहाका हवा में गूँज गया ।

    कितनी खूबसूरती से ज़िन्दगी में रंगों का सन्योजन ढूँढ लेते हैं...जीने की कला तो कोई उनसे सीखे । सोचते हुए लौट आई थी संगीता अपने घर छतीसगढ घने जंगलों के प्रदेश साथ में लाई थी जंगलों से सघन विचार आबिद जी के सान्निध्य से ।

    घर लौट कर संगीता ने अपने पति और परिवार के सद्स्यों को आबिद जी के बारे में बताया था । टुकड़ा-टुकड़ा बातचीत में आबिद जी की कहानी बन रही थी कि एक रविवार को रात को अमिताभ बच्चन का कार्यक्रम “ आज की रात है ज़िन्दगी ” पूरा परिवार देख रहा था । संगीता के पति राजेन्द्र अमिताभ बच्चन के गहरे प्रशंसक हैं । पिछले कुछ एपिसोड में अमिताभ बच्चन जी ने समाज सेवियों से मिलवाया था । “ आज किसे मिलवाएंगे.......” कमरे में एक उत्सुकता तैर रही थी ।

    “ ....तो आज मिलते हैं पृथ्वी पर पानी की बूँद बचाने की मुहिम छेड़े हुए कार्टूनिस्ट ,लेखक, पेण्टर....आबिद सुरती जी से.....”

    उछल पड़ी संगीता....! “ हाँ ! यही हैं...यही हैं....हमारे आबिद जी ! ”

    अमिताभ बच्चन के सामने वास्तविक ज़िन्दगी का हीरो खड़ा था जो समाज के बच्चों , युवाओं और बुजुर्गों को अपनी कहानियों से प्रेरित करता रहा है और अब पृथ्वी पर पानी बचाओ की मुहिम चला कर धरती को बचाने को आतुर है ।

    संगीता मूक थी । उसे अपने परिवार को अब कुछ भी बताने की ज़रुरत नहीं थी । टी.वी. स्क्रीन पर सब कुछ सामने चल रहा था । उसका हीरो आज पूरी दुनिया के सामने खड-आ था ।

    .....संगीता की आँखों से खुशी की अश्रुधार बह निकली थी ।

    संगीता सेठी

    प्रशासनिक अधिकारी

    भारतीय जीवन बीमा निगम

    महामाया रोड

    अम्बिकापुर

    छत्तीसगढ

    497001

    9617973533