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तुम कब आओगे

तुम कब आओगे ?

तुम जो ये बड़े-बड़े वादे करते हो ना क्रांति करने के....लिख लिख कर पन्ने काले करते हो ...रात-रात भर हाथ में कलम लिए विचारों में खोये रहते हो ....पाठकों के आगे नए-नए विचार परोसते हो....पता नहीं कौनसी प्रेरणा देना चाहते हो...ना जाने कौनसा समाज रचना चाहते हो....सब बेमानी है । जब भी पास से किसी लेखक की ज़िन्दगी में झांकने की कोशिश करती ना नन्दिता....तो फिक्क से थूक देती जैसे किसी के मुँह पर थूक रही हो । स्कूली समय में लिखी अपनी दो कविताओं को जब किसी बड़े लेखक को हिचकिचाते हुए दिखाने की कोशिश करती तो लेखक के हाथों के एक तरफ तिरछा होकर गालों का किनारा नापने को आतुर लकीरें नन्दिता को व्यंग्य का ही इशारा करती । नन्दिता के लिखने का उत्साह उस व्यंग्य की धूल तले दब अवश्य जाता पर मरा कभी नहीं था ।

सर ! मैने आपकी रचना धर्मयुग मे पढी थी....कितना अच्छा लिखते हैं ना आप ” गम्भीर चेहरा कभी हल्की सी मुस्कान भी नहीं दे पाता तो नन्दिता खिन्न हो जाती ।

आज वो उन खिन्न लेखकों की वजह से कागज़ काले कर पाई या उसके अन्दर का वज़ूद शब्द बन कर कब अखबारों या पत्रिकाओं के पन्नों पर जादू बिखेरने लगा वो खुद भी नहीं जानती । नन्दिता तो बस चाह्ती है प्यार करना ....सबसे...धरती से.....आसमान से.....नदियों से....झरनों से...वो खुद भी तो कल-कल झरनों की तरह बहना चाहती है । वो दुनिया के बीच झरना बन जाना चाहती है । उसे याद है उसकी पहली कहानी पर ढेरों पत्र मिले थे तब कहानी के साथ लेखक का पता भी प्रकाशित होता था । मोहल्ले वालों ने भले ही ना पढी हो वो कहानी पर दूर दराज़ से पत्रों का सिलसिला 8 दिन बाद ही शुरू हो गया था । पाठकों का यह प्रतिक्रिया मुझे मालूम नहीं कितना आनन्दित कर पाई पर बाऊजी के हाथ लगा एक मात्र अंतर्देशीय पत्र ने उनके माथे की भृकुटि को तान दिया था । नन्दिता ने बाकी खतों को चुपचाप गडमगड शब्दों से अटे कागज़ों में छिपा दिया था ।

नन्दिता पड़ौस के राहुल दा के सिविल परीक्षा की तैयारी के बीच यदा-कदा बौद्धिक चर्चा में शमिल होती रही । बौद्धिक पहेलियों के शौकीन राहुल दा उस दिन बोले पहेली सुलझाने में जितना आनन्द है उतना उसको भेज कर इनाम पाने में है । नन्दिता राहुल दा की इस बात पर खिलखिला कर हँस दी......और तुम्हारी भाभी के नाम से भेज दो तो माशा अल्लाह ! खतों का अम्बार लग जाता है । अरे कोई महिला का पता क्या छपे सब प्रशंसा के पुल बान्धने लगते हैं । नन्दिता की खिलखिलाहट थम गई ।

वो अपनी पहली कहानी की एवज में आए खतों को ज्यों का त्यों वापिस ले गई । राहुल दा से पूछ्ने ही तो आई थी कि कैसे जवाब दे अपने पाठकों के खतों का उसके पाठकों के लिए कलम उसी दिन थम गई थी । उसके जवाब देने का सारा उत्साह काफूर हो गया था । बाऊजी के चेहेरे पर तनी भृकुटि कसौटी पर खरे नज़र आने लगी थी ।

परिपक्वता कईं सोपानों की और नन्दिता के लेखन के कईं सोपान उसके विचारों की लौन्दी मिट्टी को आकार देने में लगे थे । लेखनी की धार कागज़ और शब्दों के बीच घिस-घिस कर धारदार होती चली गई थी । पर पाठकों के साथ रिश्ते को लेकर वो असमंजस की स्थिति में ही रही । नन्दिता के विचार हमेशा कल्पना में ही रहते । वो कल्पना करती कि पूरा विश्व एक गाँव बन जाए और वो उसमें उछलती –कूदती अल्हड़ किशोरी सी छलांगे लगाए...यह धरती स्वर्ग सी बन जाए और व उसमें पेंगे बढाए.......सबके चेहरे खिलखिलाते रहें और सब प्रेम में डूब जाएँ .... एक दूसरे के साथ सबके गिले शिकवे खत्म हो जाएँ ।

खतों से फोन के जमाने में आई तो टेलिफोन डायरेक्ट्री के खोजी पाठकों का उस तक पहुँचने की कईं कोशिश नाकाम हो जाती या कर दी जाती पर नन्दिता की चरैवैति- चरैवैति की ज़िन्दगी पर इसका कोई असर नहीं होता । वो तो अपनी प्राइमरी स्कूल की छोटी सी नौकरी ,घर गृहस्थी और लेखन के बीच खोई रहती । शीतांशु की पदोन्नंति के कईं चरण उसे दूर करते गए और नन्दिता सहजता से परिवार की ज़िम्मेदारियों को ओढती चली गई । बड़े बेटे सौरभ का कैरियर और छोटे बेटे की नींव भरती पढाई में नन्दिता उतनी ही रुचि के साथ थी जितनी अपनी लेखन में । नन्दिता की कईं हिस्सों में बंटी इस ज़िन्दगी को उसके जानने वाले एक साथ जोड़ कर भी देख नहीं पाते और नन्दिता अपनी बंटी हुई ज़िन्दगी को खूबसूरती से समान्तर धाराओं में लेकर चलती । मजे की बात यह भी थी कि वो धाराएँ कभी भी कहीं भी मिलकर एक नहीं होती थी ।

टेलीफोन से मोबाइल, ई.मेल और फेसबुक के ज़माने तक चली आई नन्दिता पाठकों से गुरेज को कब तक समेट पाती । सम्पादक अब लेखक की रंगीन फोटो, मोबाइल ई.मेल पते जो देने लगे थे । डाक का पता अब फैशन के बाहर हो चला था । यूँ तो उस जैसी बेहद प्रचलित राजनैतिक पत्रिका में उसकी कहानी कईं बार प्रकाशित हो चुकी थी पर मोबाइल न. के साथ छ्पी “ दो औरतें ” शीर्षक की कहानी ने उसके मोबाइल पर धुनों की बौछार कर दी थी । मोबाइल की सैरिनिटी धुन हर घण्टे में उसे लेखकीय कल्पनाओं से बाहर निकाल लाती । रात के दस बजे बाद भी किसी पाठक के फोन के जवाब में शीतांशु ने पूछ ही लिया “ इतनी देर रात कौन है ये सिरफिरा ?”

“ अरे ! रात में पढने वाले रात में ही पत्रिकाएँ हाथ में लेते हैं पढने के लिए ” बरसों की जमी हुई परिपक्वता ने नन्दिता की जुबान पर सहजता ला दी थी ।

उस कहानी पर हर पाठक का लगभग यूँ ही फोन आता –“ नंदिता जी बोल रही हैं ”

“ हाँ ! बोल रही हूँ ”

“ आपकी कहानी आउट लुक में पढी ‘दो औरतें’ ”

“ हाँ ! हाँ ! बताएँ ”

“ क्या लिखा है आपने ...मन को छू गया ”

“ शुक्रिया !”

“ पर वो अंत समझ नहीं आया ”

“ एक बार कहानी और पढ लें.... आ जाएगा समझ ” नन्दिता झल्ला कर मोबाइल कान से हटाती तो उसे 27 साल पहले के वो व्यंग्य छिड़कते लेखकों की सूरत सामने आती जब वो उनसे सवाल करती थी और नन्दिता को लगता कि उसके पाठक ने भी उसके मुँह पर थूक दिया है ।

नन्दिता को मह्सूस हुआ कि उसके मन पर दर्प की एक हल्की सी झिल्ली बन गई है जिस पर उस पाठक की थूक का बेशक कोई असर नहीं हुआ हो पर उसका बरसों पुराना वो निर्मल मन उस झिल्ली को फाड़कर बाहर आने को आतुर होने लगा था । वो मन जब कल्पनाएँ और भावनाएँ कोंपलों के तरह उसके मन में अंकुरित हुए थे और वो उनके ताने-बाने को शब्दों में पिरोती थी ....जब वो किसी साहित्यकार को मिलकर रोमांचित हो जाती थी ....किसी कवि की कविताओं को सुन कर झूम जाती थी...और उसे छूना चाहती थी...जब कॉलेज में प्रख्यात कवयित्री के आगमन पर भीड़ की रेलम-पेल में एक झलक पाने को बेताब थी ।... आज वही मन बाहर आने को बेताब था...और जब वही साहित्यकार उसे दर्प से देखते...वही कवि उसकी कविता को खारिज कर देते....वही महादेवी वर्मा की नज़रें उसकी नज़रों से मिलने में चूक जाती तो उसका मन किरचों की तरह चूर होकर उसके लहू में बहकर ना जाने कितने दर्द दे जाता । आज वही मन दर्प की झिल्ली में बंद है....नहीं नंदिता...ऐसा मत करो...वो बिस्तर पर सोने का उपक्रम करती पर उसकी बन्द आँखों के बीच चलती पुतलियाँ उसके ना सोने का राज़ खोल देती थी ।

उस सुबह उठ कर उसने अपने मोबाइल के उन नम्बरों को संजोया था जो पाठकों के थे ,उन सन्देशों को अपनी मोती सी लिखाई में अंकित किया था जो पाठक उससे आवाज़ में बात करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे ।मन के दर्प की झिल्ली में एक हल्का सा छेद हो गया था ।

पाठकों के फोन का आना जारी थी पर उनकी संख्या कुछ कम हो गई थी अब नंदिता उन्हें धन्यवाद कहती और उनके बारे में एक दो बात जरूर पूछती । फिर एक दिन एक पाठक का दुबारा फोन आया था

“ नन्दिता जी ! मैंने वो कहानी दुबारा पढी ” सम्भवतया उस पाठक का फोन था जिसे कहानी का अंत समझ ना आने पर नन्दिता ने दुबारा पढने की सलाह दी थी ।

नन्दिता उत्साह से बोली थी इस बार- “अरे ! तुम ! समझ में आया ना ! ” नन्दिता का उस पाठक के प्रति दयाभाव उमड़ आया था ।

“ हाँ ! हाँ ! समझ आया...पर कुछ आप खुलासा करें ना ! ” जैसे वो नंदिता के मुँह से ही सुनना चाह रहा था ।

“क्या नाम है तुम्हारा ” नन्दिता के दिल ने झिल्ली के छेद से झांका था ।

” राज ! ”

“ देखो राज ! जब दर्द एक हो जाते हैं तो सारे शिकवे खत्म हो जाते हैं ....और यही कहानी का अंत है । ” नन्दिता ने उस पाठक का नाम लेकर प्रोफेशनल अन्दाज़ में कहा था ।

“...................” राज़ जैसे कुछ और सुनना चाह रहा था ।

“...कहाँ रहते हो ? ”

“ मुम्बई में ”

“ क्या करते हो ”

“ रेडीमेड गार्मेण्टस का व्यापारी हूँ ”

“ ओह ! फिर भी साहित्य में रुचि ”

“ क्या मैं फिर बात कर सकता हूँ ”

“ हाँ ! क्यों नहीं ”

फोन रखते ही नन्दिता को लगा कि दर्प की झिल्ली में लिपटा मन झिल्ली फाड़ कर आज बाहर निकल आया था जिसमें उड़ान के छोटे-छोटे पंख साफ महसूस किए जा सकते थे ।

नन्दिता का बचपन वाला मन लौट आया था...वो मन जो उन साहित्यकारों से मिलना चाहता था । जिन्होंने ऊँचाइयों को छुआ था.आज वो उन पाठकों के बारे में जानना चाहती थी जो उसके लेखन का गहरा भेद जानना चाहते हैं ।

एक दिन फिर राज का फोन आया था कि वो उसकी किताबें पढना चाहता है । नन्दिता ने कहा किताबें बहुत सारी है मिलूँगी तब दूँगी जैसे उसने राज को सफाई से टालना ही चाहा था ।

फोन रख कर वो मन ही मन अल्हड़-सी बुदबुदाई थी “ ... वो भला कब मिलेगी उसे ? वो कब गई मुम्बई ? ना मिलना..ना देना ..हुँह ! ” नन्दिता की अपने पाठकों से मिलने की इच्छा तीव्र तो हुई पर कल्पनाओं में विचरने से ज्यादा नहीं ।

बंगलुरु में मौसी के छोटॆ बेटे का विवाह का निमंत्रण था..वही मौसी जिसने बचपन में मुझे बहुत प्यार दिया और आज भी पग-पग पर साथ है.....विवाह में जाना जरूरी था....पर शीतांशु को छुट्टी मंजूर नहीं हुई...शीतांशु ने नन्दिता और वैभव का टिकट बुक करवा दिया था .....लम्बी दूरी की गाड़ी में यूँ जल्दी टिकट मिलना आसान नहीं था फिर भी शीतांशु की नेट की गहरी खोज बीन के बाद मुम्बई के रास्ते टिकट बुक करवाने की सहमति माँगी । “ मुझे तो मौसी के बेटे के विवाह में जाना है......अब यह तुम पर छोड़ा कि तुम मुझे किस रास्ते से भेजते हो....” नन्दिता ने बिन्दास होकर नेट पर बैठे शीतांशु के गले में बांहे डाल दी थी । यात्रा करना वैसे भी नन्दिता को अच्छा लगता है उस पर लम्बी यात्राएँ नन्दिता को मनपसन्द किताबें पढने का मौका देती हैं ।

“ मुम्बई में सात घण्टे का इंतज़ार है अगली गाड़ी के लिए ”

“...कोई बात नहीं...नन्दिता को कौनसा फर्क पड़ता है , उसे तो चलती भीड़ को देखना वैसे भी अच्छा लगता है ” कह कर नन्दिता फिक्क से हँस दी ।

मुम्बई की ट्रेन में बैठते ही नन्दिता ने सोचा क्या कोई नहीं है मुम्बई में उसका ?...कोई तो होगा ?...अरे राज....वही मेरी किताबें मांगने वाला ....पर ऐसे किसी से कैसे मिले ? ....पर एक कोशिश ज़रूर करेगी वो ? उसने अपने मोबाइल की फोन बुक में राज का संजोया हुआ नम्बर ढूँढा और कॉल का बटॅन दबा दिया “ हैलो राज ! मैं नन्दिता बोल रही हूँ...तुम कल मुम्बई में हो ना ....। ”

“ हाँ ! हाँ क्या आप मुम्बई आ रही हैं ” जैसे वो उछल पड़ा हो । नन्दिता मोबाइल पर साफ उसकी खुशी मह्सूस कर रही थी ।

” शायद पक्का नहीं ” नन्दिता ने पूरी बाज़ी अपने हाथ में रख ली थी और फोन रख दिया । नन्दिता कल की योजना तैयार करती रही कि उसकी अगली गाड़ी बंगलुरु में बैठने से पहले सिर्फ 15 मिनट का समय ही राज को दे । बस वो देखना चाहती थी अपने पाठक को....मिलना चाहती थी अपने उस पाठक से जिसने उसकी कहानी को पढा था । अगले दिन मुम्बई के विश्राम घर में तैयार होने के बाद उसने घड़ी देखी तो उसकी अगली ट्रेन चलने में पात्र पाँच घण्टे बाकी थे । अब महानगर में रहने वाले व्यक्ति को इतना समय तो मिलना चाहिए कि वो ट्रैफिक की धक्क्म-पेल के संघर्ष के बाद में सही तरीके से पहुँच सके । उसने राज को फोन करके बताया कि वो उसके शहर में है , अगर समय हो तो मिल ले । उसने मिलने का स्थान कर्नाटक एक्स्प्रेस में बी कोच बताया और समय रात्रि 8 बज कर 15 मिनट का दिया , यानि ट्रेन चलने से केवल 15 मिनट पहले ..उसके मन के किसी कोने में अनजान से मिलने का भय व्याप्त था । पूरा गणित लगाया था नन्दिता ने ।

पर राज का 7.45 पर ही फोन था ...पूछ रहा था “ कहाँ हो ? ”

नन्दिता ने कहा 8 नम्बर प्लेटफोर्म पर....बी कोच के पास....

पर उसने राज को नहीं देखा था ना ही राज ने नंदिता को ... कैसे पहचानेगा वो बी कोच के बाहर खड़ी भीड़ में ? ...अपनी ड्रेस बता दूँ....बेटा साथ है ये निशानी बता दूँ ...लाल रंग का सूटकेस है यह बता दूँ ....ऊहापोह में थी कि राज का फोन आ गया “ बी कोच में कहाँ....”

पर जवाब देने से पहले ही फोन कट गया और देवदूत की तरह वो नन्दिता के सामने खड़ा था । दरअसल उसने नन्दिता को मोबाइल उठाते ही पहचान लिया था ...वो कहीं नज़दीक ही खड़ा था । महानगरीय सभ्यता की तरह उसने हाथ आगे बढाया था ..... मैं कस्बाई संस्कृति में पले बढी सोच में पड़ गई कि हाथ आगे बढाऊँ या नहीं पर ना जाने कैसा क्षण था कि हाथ स्वत: ही आगे बढ गया ।

“ राज....? नन्दिता जी....? ” दोनों एक साथ बोल पड़े । नन्दिता अपने पाठक से मिलकर खुशी के अतिरेक से झूल रही थी । उस क्षण को घूँट-घूँट पीना चाहती थी....तो ऐसा होता है पाठक......निर्मल....मासूम.....बच्चों की तरह चहकता....सांवला चेहरा...बोलती आँखें....मध्यम कद का 25-26 साल का युवक सामने खड़ा था । नन्दिता के एक बार किसे वरिष्ट लेखिका से इस सम्बन्ध में बात हुई थी तब उन्होंने कहा था कि पाठक बहुत अच्छे होते हैं शायद उसके जेहन में बैठी इस बात ने ही उसे पाठक से मिलने में मदद की हो ।

राज ने एक थैली आगे की जिसमें कुछ खाने-पीने का सामान था । “ अरे ये क्या ? ” कुछ रास्ते के लिए...मुझे मालूम ही नहीं था कि बेटा साथ है वरना चॉकलेट तो लाता ।

राज ने प्लेटफोर्म पर पड़े सूटकेस को हाथ में ले लिया था और नंदिता के हाथ में टिकट लेकर सीट नम्बर देखने लगा । और ये दूसरी टिकट ? अच्छा वापसी अगले सोमवार को है ? नन्दिता भौंचक्की रह गई थी उसकी कलाकारी पर । उसने तो कितने एतिहात के साथ बुलाया था पर खैर...राज ने उसे कोच में बैठने में मदद की और सामने सीट पर बैठ गया । कुछ औपचारिक वार्तालाप के बाद नन्दिता ने ही उसे गाड़ी के चलने का इशारा किया तो राज उतर गया । गाड़ी चली तो नन्दिता ने हाथ हिलाकर केबिन में आई तो वैभव कोल्डड्रिंक पी रहा था । “ मम्मा ! ये अंकल कौन थे ? ” नन्हें वैभव को समझाने के लिए शब्द ही कहाँ थे । एक चिंता उभरी थी कि राज को वापसी की टिकट दिख गई । अनजान व्यक्ति से दूरी ठीक है.....ये पाठक-वाठक कुछ नही होते...और जानती नहीं ये मुम्बई है...ये रोमांचकारी लेखनी सारी धरी रह जाएगी.....नन्दिता खुद पर ना जाने कैसे-कैसे गुर्राई और वैभव उसके सामने राज के लाए हुए चिप्स के पैकेट खोलकर क्रंच-क्रंच खा रहा था ।

बंगलुरु में शादी में खूब आन्नद लिया । महिला संगीत में बन्ने-बन्नी गाकर और नृत्य करके वो रंग जमाया पर फिर भी मंगल कार्यों में रमी नन्दिता को राज कभी ढोलक पर बैठा दिखाई देता तो कभी पैरों की थिरकन को रोक देता । “ हूँह ” कहकर नन्दिता उसे झटक भी देती ।

वापसी में मौसा जी ने नदिता और वैभव को गाड़ी में बैठाया । गाड़ी प्लेटफोर्म से सरकी कि राज का फोन उसके मोबाइल की धुन को छेड़ गया । उसे यही तो अन्देशा था ।

“ लो आ गई मुसीबत ....” नन्दिता बुदबुदाई थी,पर उसने कौनसा फोन उठाया था । 12 घण्टे की यात्रा और 7 घण्टे के विश्राम में हर घण्टे उसका फोन आ रहा था । बीच-बीच में छोटे-छोटे एस.एम.एस.- “ कहाँ हो ? ” “ कब पहुँच रही हो ? ” उसका ध्यान पलटने की कोशिश में थे । पर नन्दिता ने पूरी तरह से खामोशी धारण कर रखी थी । मोबाइल पर शीतांशु के फोन भी थे । मोबाइल की स्क्रीन पर ध्यान से देखती हुए पूरी सावधानी रखी कि कहीं गल्ती से वो राज का फोन अटैण्ड ना कर ले । हालंकि उसे अपने उस पाठक पर दया भी आ रही थी । पर वो विचित्र दुनिया चाल-चलन सी वाकिफ मजबूर थी । अपने शहर की गाड़ी जाने में मात्र आधा घण्टा था । दादर की स्ट्रीट शॉपिंग के बाद वो हाँफते-हाँफते पहुँची थी । कन्धे पर बैग, एक हाथ में ट्रोली सूटकेस घसीटते हुए दूसरे हाथ से वैभव का हाथ पकड़े हुए वो गाड़ी के ए कोच के सामने जा खड़ी हुई । कोच के दरवाजे अभी खुले नहीं थे । बैग कन्धे से उतार कर बेंच पर रखा कि मोबाइल बज उठा । राज का फोन था । “ ओफ्फो ! ” नन्दिता के दिल में राज के प्रति बच्चे की तरह प्यार उमड़ आया । दूसरा फोन शीतांशु का था जो सूचना शैली में था –“ नन्दिता ने बताया कि वो कोच के सामने खड़े हैं पर दरवाजे अभी खुले नहीं है । ”

फिर फोन बजा, राज का था । नन्दिता ने ही उठाया बस वो स्क्रीन को देखती रही । ट्रेन चलने में 15 मिनट का समय था । पर ये कोच के दरवाजे क्यों नहीं खुले नन्दिता को झल्लाहट होने लगी । आधा घण्टा पहले तो खुल जाते है ना....राज की अंतिम मिस कॉल को देख कर सोचा कि पिछले 48 घण्टों से वो फोन कर रहा है, अब उसे कह दे कि वो जा रही है । उसने राज को फोन किया “ राज ! मैं जा रही हूँ ट्रेन चलने में 15 मिनट हैं ” उधर से राज घबराहट में पूछ रहा था ...“....लेकिन आप हैं कहाँ ”

“ आप कहा हैं..? ” नन्दिता ने जरा व्यंग्यात्मक शैली में प्रत्युत्तर किया ।

“ आपके ए कोच के सामने ” राज बोल राहा था ।

नन्दिता ने प्लेटफोर्म पर नज़र घुमाई तो उसे कोई दिखाई नहीं दिया । ”
आपका रिज़र्वेशन सुपरफास्ट में है या रणकपुर एक्सप्रेस में ? ”

” क्या मतलब ” अब चौंकने की बारी नन्दिता की थी ।

“ मैं आपकी सीट के सामने खड़ा हूँ ...प्लेटफॉर्म न. 4 पर ” तो क्या उसके शहर में आज के दिन दो गाड़ियाँ जाती हैं....तो उसने गाड़ी न. मिलान नहीं किया...उसने पास खड़े यात्री से पूछा तो उसने बताया कि यह गाड़ी तो एक घण्टा बाद जाएगी....इससे पहले 4 न. प्लेटॅफोर्म से सुपरफास्ट जाएगी । गाड़ी छूटने में सिर्फ 5 मिनट ......फोन रखा...बैग कन्धे पर टांगा.....वैभव का हाथ कस कर पकड़ा और सब-वे की तरफ दौड़ लगा दी... नंदिता को अपनी मूर्खता पर अफसोस हो रहा था ।

वो भाग रही थी कि सब-वे में सामने से राज़ पसीने में लथ-पथ भागता आ रहा था.....वो मुझे नहीं देख पाया और मुझे ढूँढते दूसरे प्लेट्फ़ोर्म पर जा रहा था.....। वो भाग रही थी ....प्लेटफॉर्म की सीढीयाँ चढते हुए सोच रही थी ....राज यहीं था....गाड़ी सुपरफास्ट...हाँ यही थी .... कोच ए.....भागते-भागते ठेले वालों से पूछ रही थी.हाँ....हाँ.....आगे.......बीच में....कि पीछे से मेरे सूटकेस को किसी ने पकड़ लिया...मुड़कर देखा....वो राज था....हाँ यही कोच है...सीट न. 9...जल्दी चढिए टाइम हो गया है...पहले वैभव को चढाया फिर खुद चढी....राज ने सूटकेस अन्दर ठेला...नन्दिता ने दरवाजे पर खड़े होकर पीछे देखा...गार्ड हरी झण्डी हिला रहा था....गाड़ी सीटी दे चुकी थी...नन्दिता हाँफ रही थी....राज हाँफ रहा था...

“....आपने मुझ पर भरोसा नहीं किया ना....” राज की साँस भी धौंकनी सी चल रही थी । गाड़ी प्लेटफ़ोर्म छोड़ने लगी थी....नन्दिता दरवाजे के दोनों हैण्डल पकड़े खड़ी थी....राज साथ चलने लगा था । नन्दिता जी आपकी वो मैं धरती तू आकाश वाली कविता पढी...और वो ...हाहाकार भी ....आपकी लेखनी में धार है...गाड़ी की गति बढ चुकी थी ......नन्दिता की सांस की धौंकनी अभी थमी नहीं थी....आप वो कहानी....मोबाइल.....आपसे बहुत बात करना चाहता था.....आपने फोन नहीं उठाया...सुबह से इस प्लेटफोर्म पर घूम रहा हूँ....अरे हाँ ! ये वैभव के लिए...उसने हाथ में लटका चॉकलेट का पैकेट नन्दिता की ओर बढा दिया...राज गाड़ी के साथ चल रहा था...गाड़ी की बढती गति को देख कर नन्दिता ने उसे पीछे हटने का इशारा किया...उसने अलविऍदा के अन्दाज़ में अपना हाथ हिलाया तो राज का मिलाने को आतुर हाथ बहुत दूर रह गया था....नन्दिता की आँखें नम हो आई थी ...उसका मन बुदबुदा रहा था ...“ पाठक बहुत अच्छे होते हैं ...” प्लेटफोर्म छूट चुका था....आज नन्दिता का दर्प की झिल्ली में लिपटा मन झिल्ली फाड़कर बाहर आ चुका था जो यह कहने को फड़फड़ा रहा था –“ राज ! तुम कब आओगे ? ”

संगीता सेठी

1/242 मुक्ता प्रसाद नगर

बीकानेर (राजस्थान)

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