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सपना शेष

सपना शेष

जगमतिया को ना जाने कितने काम निपटाने हैं । मुकुन्द सेठ के यहाँ रोपा लगा कर अगले खेत की निराई करनी है । पाँच दिन से सेठ मुकुन्द के यहाँ रोपा चल रहा है । सेठ मुकुन्द की बीवी जितनी कड़क है सेठ जी उतने ही नरम स्वभाव के हैं । बीवी जी तो मुंडेर से हटती ही नहीं हैं । बीबी जी की हाँक पे हाँक चालू है कि आज खत्म ही करना है रोपा । कल उसकी बड़ी बेटी भानुश्री की विदाई जो है । पिछ्ले एक माह से मायके आई हुई है । ये सावन भी मुआ आता है तो बेटियाँ ससुराल से पीहर की तरफ खिसका दी जाती हैं कि भई सावन में सास-बहू साथ नहीं रहती ।

जगमतिया सोच रही है कि उसकी बेटी भी तो पिछले दो महीने से उसकी छाती पर मूँग दल रही है । उसे तो जेठ के महीने में ही सरका दिया था । “ अरे कुँवारी खाये रोटी...ब्याही खाये बोटी...” की कहावत ऐसी ही ना सुनाती थी उसकी अम्मा । वैशाख में ही तो इधर-उधर से कर्ज़ा लेकर शादी रचाई थी और जेठ के महीने में फरमान भेज दिया कि ले जाओ अपनी बेटी को ..यहाँ उदास है । गौने के साथ वापिस ले आयेंगे ।

जगमतिया हैरान है कि ये अब कैसा गौना ? पर कह दिया ससुराल वालों ने अपनी ज़ुबान से तो बस पत्थर की लकीर हो गया । अभी तो पहले वाला कर्ज़ा भी नहीं उतरा और कर्ज़ा कहाँ से ले । सो बैठी है धन्नो ! विदाई तक ।

जगमतिया कल मुकुन्द सेठ की कोठी की तरफ गई थी रोपा लगाते-लगाते पेट दुखने लगा था । अच्छा हुआ कि सेठ की बिटिया भानुश्री बगीचे की पगडण्डी पर ही मिल गई । “बिटवा ! शौचालय किस तरफ ? ”

“उधर अम्मा ! ” उसने हाथ से इशारा किया तो जगमतिया ने दालान के पिछवाड़े से प्रवेश किया । एक पूरा गलियारा पार करके जीवणे हाथ पर गेट को ठेला तो घबरा कर वापिस बन्द कर दिया । कहीं गलत तो नहीं आ गयी तू जगमतिया । खुद से ही सवाल किया था उसने ! पर जवाब पीछे से आती भानुश्री ने दिया था “चली जाओ अम्मा यही है ”

फ़िर भानुश्री “हुँह..शौचालय .....” कहकर खुद ही मुस्कुरा दी । जब उसकी दादी शौचालय बोलती थी तो उसकी माँ कितना टोकती थी –“ माँजी ! लैटरीन बोलिए...शौचालय अच्छा नहीं लगता ” और माँ के लैटरीन कहने पर हमारी तथाकथित आधुनिक चाची लैवेटरी कहना सिखाती । भानुश्री ने स्कूल जाना शुरू किया तो उसे टीचर ने “ मे आइ गो टू टॉयलेट ” कहना सिखाया । पर कॉलेज आते-आते वो वॉश रूम में बदल गया । हद तो जब हो गई जब पंकज के साथ हनीमून के लिये सिंगापुर गई तो एयरपोर्ट पर उसे “रेस्ट रूम ” ही और शी के लोगो के साथ दिखाई दिये । तब भानुश्री स्वंय पर ही हँस कर दादी माँ के शौचालय वाले दिन को याद करने लगी ।

जगमतिया ने भानुश्री के कहने पर फिर से गेट खोला तो आसमान के रंग सी दीवारों पर जगह-जगह उभरे फूल ...एक तरफ उसी रंग का वाश बेसिन..दीवार पर टंगा मुर्गी के अण्डे के आकार का आइना....आगे बढी तो जगमतिया अपना इतना बड़ा अक्श देख कर काँप गई....शीशे की कौनो ज़रूरत यहाँ.....कोने में अलमारियों में पड़ी शीशीयाँ.....ये काहे की है...जगमतिया नहीं समझ पा रही थी ...किनारे पर कुर्सी जैसा जिसके गड्डे में पानी...यही है शौच की जगह जगमतिया ने सोचा और एक सीढी चढ कर दो पैर वाला शौचालय.....एक हाथ पर फूलों वाला प्लास्टिक का पर्दा जिसकी आड़ में आदमी के नाप का टब...ये क्या काम आवै है.....जगमतिया जैसे दूसरी दुनिया में आ गई हो ।

बचपन से लेकर अब तक नहानघर का मुँह भी नहीं देखा था । उसके घर की सड़क के उस पार जंगल के बीच नदी पर पत्थर की आड़ में नहाकर तृप्त होना उसे खूब आता रहा । शौचालय के लिये तो बरसों-बरस वो टाट-पट्टी को चार बाँस के सहारे लपेट कर इंतज़ाम किये रही ताकि घर की बहू बेटियाँ तत्काल में उसका इस्तेमाल कर सकें । पिछले बरस घर की झोंपड़ियों के बाहर बीस-पच्चीस ईंटों की दीवार को ही शौचालय का रूप दिया था तो धन्नो बोली मेरा ससुराल अच्छे शौचालय वाला ढूँढना माँ ! जगमतिया फीकी हँसी हँस दी ।

....पर वो कहाँ देख पाई धन्नो के लिये एक अदद अच्छे शौचालय वाला ससुराल । बड़ा बेटा ही गाँव नें जाकर तय कर आया था धन्नो के लिये रिश्ता ।

धन्नो जब से ससुराल से पीहर आई है अनमनी है । इसलिये आज जगमतिया उसे भी रोपा में साथ मे ले आई । काँच की हरी चूड़ियाँ पहने और माँग में केसरिया सिन्दूर लगाये धन्नो सेठ जी के बाग में बैठी है । उधर से भानुश्री गुजरी तो पूछा –“कैसा है रे तेरा ससुराल धन्नो ! ”

“सब ठीक है ज़िज़्ज़ी ! पर सुबह-सुबह जंगल में जाना पड़ता है ” धन्नो फीकी मुस्कुराहट के साथ बोली थी ।

“ क्या मतलब ? ”

“मतलब ज़िज़्ज़ी ! घर में शौचालय नहीं है ।”

“हैं ” भानुश्री बामुश्किल ही गले का थूक गिटक पाई थी ।

तो नई दुलहन साज-श्रंगार किये सुबह कैसे घर से बाहर वो भी जंगल में जाती है रे ! ” भानुश्री के माथे से लेकर कनपटी और गालों के रास्ते ठोडी तक ना जाने कितनी रेखाएँ खिंच आई थी ।

“..वो मेरी सास...मुझे बहुत दूर ले जाती है....नहर के पार.....सुबह अँधेरे में....पूरा गाँव जागने से पहले... ” भानुश्री की विषाद की रेखाएँ मिटाने के लिये धन्नो अपने ससुराल की पैरवी पर उतर आई थी ।

“...पर अगर दिन में जाना पड़े तो....”

“नहीं ज़िज़्ज़ी ! कभी सुबह नहीं जा पाओ तो पेट दुखता है ! बस फिर दिन खराब....मुँह बनाए पड़े रहो । ..खाना भी नहीं भाता ...मैं पूरा दिन खाना नहीं खाती ज़िज़्ज़ी !

“ मेरा जाने का मन भी नहीं करता ऐसे ससुराल में । टी.वी. भी नहीं, फ्रिज भी नहीं....”

“..अरे टी.वी. फ्रिज को मारो गोली...पर शौचालय भी नहीं...”भानुश्री ने तल्खी से कहा ।

“...और उन रक्त रंजित दिनों में ” भानुश्री के इस प्रश्न का जवाब धन्नो के पास ना था । यह सोचते-सोचते भानुश्री का चेहरा सिकुड़ फैल रहा था । वो जनाती है कि उसे कैसे उन दिनों में हर घण्टे वाश रूम जाना पड़ता है । वो भूल गई थी कि वो पिछले दिनों अपनी माँ से बहस कर रही थी कि उसके ससुराल में टॉयलेट में मॉडर्न टाइल्स नही है और ना ही बाथिंग टब और वेस्ट्रन स्टाइल का कमोड....कैसा घर है माँ......!??

आज वही भानुश्री धन्नो की बात सुन कर अन्दर तक भीग गई थी ।

जगमतिया अपने गीले हाथों को साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए बाहर निकली तो भानुश्री बोली-“अम्मा ! धन्नो की विदाई में शौचालय दे दो ”

“कैसे दूँ विदाई ! टी.वी. फ्रिज माँग रहे ससुराल में ...धन्नो भी अटकी है उसी में ....”जगमतिया की करुण स्वर लहर पेड़ॉं को भी उदास कर गई थी ।

“...माँगते रहें...उनसे कहो या तो शौचालय तुम बनवा लो ,टी.वी हम दे देंगे। ”भानुश्री हाथ नचाते हुए धन्नो की तरफ मुड़ी ।

“...मालूम है धन्नो...खुले में शौच से क्या नुक्सान है.... हाथों की सही सफाई न होने से सीधे रोग की चपेट में आ जाते हैं.” भानुश्री बोलने लगी तो धन्नो अपने दुपट्टे का कोना दाँतों से कुतरने लगी ।

“...और गाँव का पानी दूषित हो जाता है....हैजा..टी.बी.और कितने संक्रामक रोग लग जाते हैं....यानि एक व्यक्ति नहीं पूरा गाँव बीमार....हाँ पूरा गाँव....” भानुश्री के अन्दर का गुब्बार निकल रहा था ।

“....वो तो है भानु बिटवा...और जो गाँव के मर्द इन औरतों पर बुरी नज़र रखें सो अलग...” जगमतिया ने चर्चा में इज़ाफा किया था ।

“....नहीं गाँव मे झुण्ड में जावैं औरतें....मेरी सास ने बताई...” धन्नो की मासूमियत जारी थी ।

“...पर शौचालय नहीं बनवायेंगे...क्यों जी...धत्त....! अरे स्मार्ट औरत वो नहीं जो बिन्दी सुर्खी लगावे...स्मार्ट औरत वो है जो अपने हक के लिये आवाज़ उठाए... ” भानुश्री अपनी रौ में बोल रही थी ।

“...पर ज़िज़्ज़ी मेरी कौन सुनेगा नए ससुराल में...पैसा भी तो नहीं है...ना पीहर में ना ससुराल में.....ज्यादा चूँ-चपड़ की तो विदाई रोक देंगे ” धन्नो ने शंका जाहिर की ।

“......” भानुश्री की खामोशी में गलियारे से निकल कर दालान तक आ गई थी । फिर एक दम से मुड़ी और बोली-“ अम्मा ! तुम उसके ससुराल वालों से बात करो ....शौचालय का इंतज़ाम मैं करुंगी ” यह कह कर भानुश्री गलियारे की तरफ मुड़ गई थी । भानुश्री का मॉडर्न टॉयलट का सपना शेष था अभी ।

संगीता सेठी

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