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गोरबन्द

Sangeeta Sethi

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गोरबन्द

रुणक-झुणक....रुणक-झुणक की दूर से आती आवाज़ ने नारायण को उनीन्दे से जगा दिया | नारायण उचक कर बिस्तर पर बैठ गया और उसने अपने बिस्तर के जीवणे हाथ वाली खिड़की के लकड़ी के नक्काशीदार पल्लों पर टिकी सांकल को खोल दिया । चूं..चप्प...चूं...की आवाज़ के साथ लकड़ी के पल्ले खुले तो सुबह की फागुनी बयार का एक टुकड़ा भर उसके चेहरे को छूने के लिये काफी था ।

परदादा जी की बनाई खूबसूरत हवेली के वास्तु शिल्प से पगे झरोखे को दुनिया दर्शन के लिये धन्यवाद देता कि इससे पहले ही रुणक-झुणक की आवाज़ नज़दीक से और नज़दीक आ चुकी थी । ऊँटों का काफिला था...सजे धजे ऊँट...उनकी पीठ पर नक्काशी...कहीं फूल तो कहीं पत्ती...कहीं नाम लिखे....लाल...नीले...गुलाबी मखमली कपड़े पर काँच और गोटेदार का काम हुई दुशाला ओढे हुए...गले में गोरबन्द...उसमें जड़ी घण्टियाँ और पैरों में बन्धे घुंघरूओं की रुणक-झुणक नारायण को आज कितना बेचैन कर रही थी । नारायण उस छोटे से झरोखे से तब तक देखता रहा जब तक काफिला भादाणियों की पिरोल से गोगागेट की तरफ कूच नहीं कर गया । शायद लक्ष्मीनाथ जी की घाटी की तरफ जा रहा हो...शायद फाल्गुन का कोई कार्यक्रम हो....या किसी का ब्याह मण्डा हो....आज नारायण ऊँटों के बारे में इतना क्यों सोच रहा था ?

पिछले 25 साल से बीकानेर में पला-बढा हुआ नारायण इसी हवेली के ऊपर नीचे तलों में भागता दौड़ता...शहर की तंग गलियों में गुल्ली-डण्डा खेलता..सतौलिया तो कभी कंचे...ऊँटों की आवा-जाही उसके खेल में बाधा ही बनी । सतौलियों की मीनार पर निशाना लगाने के एन वक्त पर ऊँटों का गली में आना...बच्चों का एक साथ कहना “ रामजी भली कीजै ”और ऊँट के अगले पैर सतौलिये की मीनार को छुए भी ना पर पिछले पैर का सतौलिये की सातों ठीकरियों को गिरा देना..नारायण का गेंद हाथ में लिये रह जाना और बच्चों का “हो..हो ” करके नाचना नारायण को बचपन में भले ही अच्छा ना लगा हो पर आज वो सब याद करके उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट दे गया था ।

उसे वह भी याद आ रहा था जब जस्सुसर गेट के बाहर अपने विद्यालय जाते हुए ऊँट-गाड़ा मिल जाता तो पहले वो गाड़े के पीछे लकड़ी के खूँटे पर अपना बैग टांगते फिर स्कूल के तीन चार बच्चों के साथ चलते हुए गाड़े पर ही चढने की कोशिश करते । ऊँट-गाड़े वाला देखता तो गुस्सा करता । उन्हें चढने से तो रोकता ही साथ ही खूँटे पर टंगे बैग भी उतरवा देता । पर कभी गाड़ा चालक सहृदय होता तो वो बच्चों को अपना हाथ आगे दे देता । बच्चे कभी अपना हाथ, कभी कलाई तो कभी बांह देकर कर गाड़े पर चढ जाते और हो हो का हल्ला ऊँट गाड़े को तेज चलाने का एक खूबसूरत उपक्रम बन जाता ।

नारायण को आज यह भी याद आ रहा था कि उसकी माँ कितनी खूबसूरती से सुरीली आवाज़ में गोरबन्द गीत सुनाती थी....“ लड़ली लूमा झूमा ए....म्हारो गोरबन्द नखरालौ....आलीजा म्हारो गौरबन्द नखरालो....आज तक उसने कभी गीत पर ध्यान ही नहीं दिया था । आज क्यों इस गीत को और गहरे में जानने की उत्कण्ठा हुई थी । नेट सर्फिंग पर जाए या सीधा माँ से ही पूछ ले...वो खुद ही मुस्कुरा दिया था अपनी इस मुहिम पर ।

नारायण बिस्तर छोड़ कर उठा...पाँच फुट के हवेली के दरवाजे से उसे हमेशा झुक कर निकलना पड़ता है...शुक्र है साल भर में वो भूला नहीं...वरना आज सिर टकरता ...आँगन में कबूतरों को दाना बिखेरती माँ के पीछे से गलबहियाँ डालते नारायण कहता है.......“माँ गोरबन्द सुनाओ ना...”

“क्यों क्या होय्यो ?”माँ की सुरीली आवाज़ उभरती है।

नारायण उत्तर देने के बजाय कहता है “माँ अर्थ भी बताओ ना ....”

माँ नारायण के सिर पर हाथ फेरते हुए बताने लगती है कि “ गोरबन्द लूम-झूम और लड़ियों से बना कैसे नखराला बन जाता है । कैसे देवरानी और जेठानी मिलकर इसे गूँथती है । नणदबाई सच्चे मोती पिरोती है । कैसे घर की स्त्रियाँ गाएँ चराते हुए इसे गूँथती है और भैंसे चराते हुए सच्चे मोती पिरोती है । ” अपनी बात खत्म करते हुए माँ नारायण के सिर पर चपत लगाते हुए पूछती है-“ आज तनै कईंया याद आयो माँ रो आ गोरबन्द नखरालो ? ”

नारायण हँस कर भाग जाता है । वो कैसे बताये कि इस बार वो अपनी सभ्यता और संस्कृति की सारी पड़ताल करके जाने वाला है ।

पिछले साल से नारायण हार्वर्ड युनिवर्सिटी में रिसर्च कर रहा है कुछ सॉफ्टवेयर पर । हार्वर्ड युनिवर्सिटी.....इतनी दूर ...सात समन्दर पार....यानि अमेरिका...मूँदड़ों के ट्रस्टी स्कूल में पढा नारायण यूँ अमेरिका पहुँच जायेगा पढने...उसने सोचा भी नहीं था । बीकानेर शहर छोड़कर जाने से पहले उसे कितनी आशंकाएं थी । योरोपीय देशों की खुली संस्कृति ,खान-पान, भाषा-पहनावा सब कुछ इतर...उस पर घर, शहर, माँ-बाबा, भाई-बहन, यार-भायले सबसे दूरी भय के औरे में ले जा रही थी ।

अमेरिका के मेशेचुशेट राज्य के कैम्ब्रिज शहर में आकर आशंकाओं का भंवर धीरे धीरे चक्करी खाकर रुकने लगा था । भय का औरा भी उस नई संस्कृति के आभा-मण्डल के साथ एक सार होता दिखाई दे रहा था ।

पहले ही दिन क्लास में प्रोफेसर ने विद्यार्थियों का अनोखा परिचय लिया था । हर विद्यार्थी को दीवार पर टंगे बड़े से विश्व के नक्शे पर बोर्ड पिन मार्क करनी थी जहाँ से वो आया है । पूरे विश्व से 35 बच्चे थे । चीन से 10, अफ्रीका से 5,ब्राजील से 2, नाइजीरिया से 3..और भी ना जाने कितने छोटे-छोटे से देशों से एक एक विद्यार्थी थे । जब नारायण ने भारत के नक्शे के पश्चिमी तरफ थोड़ा उत्तर की तरफ पिन को लगाने से पहले अपने बीकानेर के बिन्दु को ध्यान पूर्वक देखा और बड़े आत्मविश्वास के साथ बोला-“ आई एम फ्राम इंण्डिया ” क्लास में तालियाँ बजी तो दक्षिणी अमेरिका की नैन्सी बोली “ ओह ! डेज़र्ट पार्ट ऑफ इण्डिया ” नारायण ने उसे चौंक कर देखा । नारायण ने तो केवल इंडियन होने का परिचय ही दिया था । वो कैसे जान गई कि वो भारत के रेगिस्तानी हिस्से से आया है । मगर वो तो नहीं जानता उसके देश के बारे में ।

नई क्लास के नए विद्यार्थियों के बीच परिचय के दौर कतरा-कतरा बढते रहे । नैन्सी हर दौर में नारायण को मुस्कुरा कर देखती और कोई ना कोई जुमला उछाल देती –“ ओह ! यू आर फ्रॉम कलरफुल इंडिया ?”तो कभी कहती –“यू आर फ्राम प्लेस ओफ कैमल ? ” तो कभी कहती- “ आइ लाइक कैमल ? ”

नारायण भी इस वैश्विक संस्कृति के वातावरण में घुलता जा रहा था । वो कईं बार आश्चर्यचकित हो जाता था कि अन्य देशों के 20-22 साल के बच्चे अपनी सभ्यता और संस्कृति में तो रचे-बसे हैं ही परंतु दूसरे देशों की सभ्यता-संस्कृति को जानने को आतुर रहते हैं । वो अपनी सभ्यता संस्कृति का तो सम्मान करते हैं साथ ही उतना ही दूसरे देशों की सभ्यता और संस्कृति का भी सम्मान करते हैं ।

पर नैन्सी में कुछ अलग ही बात थी । क्लास में वो हमेशा चहकती दिखाई देती थी वो । हमेशा नये प्रयोगों के लिये तैयार....नये विचारों को स्वीकार करने को आमदा...नई संकल्पनाओं अपने जीवन में लागू करने को आतुर नैंन्सी का व्यक्तित्त्व रोमांच भरा लगता ।

“नारायण ! तुम्हारे शहर में कितने ऊँट होगे ?” एक दिन नैंन्सी के इस अटपटे सवाल से वो हक्का-बक्का रह गया था । भला उसने कभी ऊँट गिने थे ?

“ मैं कोई ऊँटों की रिसर्च करके नहीं आया ” नारायण अपना जुमला उछाल देता ।

“ अच्छा ! ये बताओ उसके पैरों में सचमुच डनलप जैसा अहसास होता है ? ” नैन्सी प्रश्न करती तो पूरी क्लास हँस देती । नारायण भी सोचता केवल मजाक भर है नैन्सी के ये अटपटे सवाल ।

वो सोचता कि दूसरे देशों के सभ्यता संस्कृति की जानने की जुगत में वो इतने प्रश्न कर जाती है । कभी कभी नारायण उसे कहता-“एनफ नैन्सी ! एनफ ! बस मुझे और नहीं मालूम !”

क्लास की साप्ताहिक चाय पार्टी में नैन्सी का हमेशा एक सवाल ऊँटों पर अवश्य होता । उस दिन दिसम्बर की कड़कती ठंड में नैन्सी का सवाल था- “नारायण ! वो ऊँटों के गले में पहनी जाने वाले ज्वेलरी को क्या कहते हैं ” नारायण अचकचा कर नैन्सी को देखता और तल्खी से कह बैठता-“ ओह नैन्सी ! मैं ऊँटों के शहर में पैदा हुआ हूँ । ऊँटों के कुनबे में नहीं ” पूरी चाय पार्टी हँसी के ठहाकों से गूँज उठी । नैन्सी उसके करीब आकर कहती “ उसे गोरबन्द कहते हैं...नारायण ! ”

नारायण की आँखें आश्चर्य से फैल गई । “गोरबन्द ” तो उसकी माँ गीत में गाती है । उसने कभी इतनी गहराई से सोचा ही नहीं कि वो ऊँटों के गले में पहनने वाली ज्वेलरी है । “ऊँटों के गले की ज्वेलरी ”...नारायण अपने कमरे में आकर बुदबुदाया और खुद ही दबी हँसी हँस दिया था ।

उस दिन नये साल पर क्लास की पार्टी थी । कैम्ब्रिज की सड़कों पर बर्फ जमी थी । नैन्सी नहीं पहुँची पार्टी में तो क्लास के सहपाठियों ने नैन्सी को लाने की योजना बनाई । नारायण और जोसेफ प्रोफेसर की कार लेकर निकले । सेंट्रल स्क्वायर स्थित नैन्सी के अपार्टमैण्ट में नारायण नैन्सी के कमरे तक पहुँचा तो विस्मित होने की हद पार थी ।

नैन्सी की स्टडी टेबल से लेकर शेल्फों और दीवारों तक ऊँटों की उपस्थिति थी । एक ऊँट के गले में तो सुन्दर सा गोरबन्द भी लटका था । नैन्सी ! ये क्या पागलपन है ? इतने ऊँटॅ तुम्हारे कमरे में क्या कर रहे हैं ?

नैन्सी बोली-“ नारायण मुझे लगता है कि मैं पिछले जन्म में ऊँटों के प्रदेश में थी । चलो अभी सब इंतज़ार कर रहे हैं क्लास में , बाद में बात करेंगे....” नैन्सी ने अपना ओवरकोट लादा और मफलर लपेटते हुए कहा । जोसेफ बाहर कार में इंतज़ार कर रहा था । कार मे एक खामोशी के बीच नारायण के अन्दर एक तूफान ने जन्म ले लिया था ।

फरवरी माह की खुशनुमा शाम थी । नैन्सी और नारायण अपनी लैब से लाइब्रेरी की तरफ जा रहे थे । प्रोजेक्ट पर काम करने की बात करते-करते नैंन्सी नारायण से बोली “नारायण ! तुम एक ऐसा एप नहीं बना सकते जिसमें कोई व्यक्ति किसी भी देश की वेशभूषा पहन कर अपनी शक्ल देख सके । ”

“क्या मतलब ” नैन्सी की यह बात नारायण के सिर के ऊपर से गुजर गई भले ही वो पिछले एक साल से ना जाने कितने छोटे-बड़े सॉफ्टवेयर के लिए कोड लिख चुका है ।

“ओह नारायण ! जैसे तुम्हारे राजस्थान की कुर्ती काँचली पहन कर, माथे पर बोरला लगा कर, नथ पहन कर, गले में ठुस्सी और हाथों में चूड़ला पहन कर मैं कैसी दिखूँगी ...बस उस एप में देख लूँगी । ”

नारायण की साँस धौंकनी सी तेज हुई और थमने लगी थी । उसके अगले कदम लाइब्रेरी की पतली पगडण्डी पर पड़े बसंत की लाल पीले मैपल की पत्तियों पर पड़े तो चर्र-चर्र-चूँ की आवाज़ जैसे पूरी सृष्टि ने सुन ली हो ।

“ क्या नैन्सी सचमुच राजस्थान में थी पिछले जन्म में या नेट सर्फिंग के ज़रिये मेरी सभ्यता संस्कृति में दखल दे रही थी ” नारायण सोचने को मज़बूर था ।

“ नैन्सी ! व्हटॅ एन आइडिया ” नारायण चाह कर भी नहीं बोल पाया था । लाइब्रेरी का खामोश क्षेत्र जो आ गया था ।

दो हफ्ते बाद नैन्सी का जन्म दिन था । क्लास की साप्ताहिक चर्चा के साथ नैन्सी के लिये क्लास का तोहफा भी था । नारायण भी एक बॉक्स हाथ में दबाए खड़ा था ।

नारायण ने उसे अपने बेलनाकार कार्ड बॉक्स में से कार्ड निकाल कर नैन्सी को दिया तो उसने झटपट उस कार्ड को खोला... नारायण ने बहुत शिद्दत के साथ एक स्केच तैयार किया था....पहले दृश्य में उसे ऊँटों के पैर दिखे...फिर पीठ पर लटकते दुशाले...गर्दन में झूलता गोरबन्द... ऊँट पर नैन्सी... नैन्सी के तन पर काँचली कुर्ती....माथे पर बोरला...नाक में नथ...गले में ठुस्सी...हाथ में चूड़ॅला...और नैन्सी के हाथ में ऊँट की डोर....

“ वॉव ! ”के साथ उसकी आँखें फैल गई...नारायण ...ये तो मरवण है....पर वो ढोला ??....वो कहाँ है...

नारायण की खामोशी हैरत की सुरंगों से गुजर रही थी । नैन्सी के मुख से ढोला मरवण का उच्चारण सुनकर नारायण कल्पना के सागर में डूब गया था ।

पूरे साल भर बाद होली पर बीकानेर आया था नारायण । इस बार वो बीकानेर प्रोजेक्ट लेकर आया था....ऊँटों की रिसर्च का । माँ से गोरबन्द सुनकर अर्थ जान रहा है । ऊँटों की कदम ताल देख रहा है । उष्ट्र अनुसन्धान केन्द्र गया है ऊँटों की गतिविधियाँ जानने ।

कोटगेट पर लाभूजी कटला से राजस्थानी कुर्ती काँचली का कपड़ा खरीद रहा है “ बोरला के लिये काला डोरा दीज्यो ” नारायण का बस यह अंतिम सौपान था खरीददारी का।

“ वठै मिलसी ” दुकानदार ने कोटगेट पर बैठी उन छाबड़ी वाली महिलाओं की तरफ इशारा कर दिया ।

नारायण मुस्कुराता हुआ चल दिया । उसे सजाना ही है मरवण को उस एप से बाहर निकल कर...बैठाना ही है ऊँट पर....अगली बार लाना ही है नैन्सी को बीकानेर....

संगीता सेठी

प्रशासनिक अधिकारी

भारतीय जीवन बीमा निगम

अम्बिकापुर

छत्तीसगढ

497001

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