cricket Shesh Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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क्रिकेट

मूल लेखक : शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय

(बांग्ला से अनुवाद : शेष अमित)

सेमल वृक्ष के नीचे आकर बैठ गया है हरिबोल, हाँ, वही — बूढ़ा हरिबोल। निष्पत्र वृक्ष, छायाहीन। भिखारी की तरह वृक्ष अपने कंकाल जैसे हाथों को धूप की ओर बढ़ाये खड़ा है। शीत के अंत में जब वसंत आयेगा, तब इसके यही हाथ, फूलों से भर जायेंगे। पता नहीं कौन भर देता है इनके हाथों को फूलों से, लेकिन कोई भर तो देता है।

बूढ़ा हरिबोल अकेला बैठा है, उलझन में है। इस समय मोहल्ले के बच्चे, पेड़ के पास ही ग़िल्ली—डंडा खेलते हैं, आज सब के सब नदारद हैं जाने कहाँ चले गये, मेरे प्यारे अभागे बच्चे। अपर्णा वृक्ष, छायाहीन—चेहरे पर धूप आ रही है, पर मीठी है, जाड़े की नर्म धूप हैं।

सिपाही बगलाचरण, सामने के राह से गुज़र रहा था। उसने आवाज़ दी — कौन? हरिबोल बाऊ? मांगने निकल पड़े हो ?

—बैठा हूँ, बाबू? कोई भूल तो नहीं हो गयी?

—नहीं भूल क्या होगी, पर हाँ जब बच्चे तुम्हें हरिबोल कहते हैं, तुम उन्हें मारने दौड़ते हो, यह अच्छी बात नहीं है। कब किसे तुम चोटिल कर दो और वे थाने में इत्तला करने पहुँच जायें।

—आज पूरे दिन निराहार हूँ, बाबू, इतनी बातें समझ नहीं पा रहा हूँ।

—भूखे हो!

बगलाचरण दो कद़म आगे बढ़, कमर पर दोनों हाथ डाले कहने लगा —

—वह कैसे? कल ही तुम्हें अधर भट्टाचार्य के श्राद्व के दान में दाल—चावल मिले थे। हरिबोल बूढ़े ने उदास होकर कहा —

—“भाई आज सारा दिन कुछ नहीं खाया”। किसी ने हरि नहीं कहा। एक बार तुम...... हरिबोल..... हरिबोल..... कह दो, मेरा पेट भर जायेगा। तुम से यही भीख मांगता हूँ़।”

हो..... हो..... कर हँसते हुये, बगलाचरण वहाँ से चला गया।

प्लेन की खिड़की से, निरासक्त भाव लिये ईवान वेल्च बाहर देख रहा था। बोईंग—जेट अपनी तेज आवाज से आसमान को फाड़े डाल रहा है, पर अंदर इस ध्वनि की कोई अनुभूति नही है। एक धीमी थरथराहट और गुंज़न। थोड़ी देर पहले ही, ईवान ने थोड़ी व्हीस्‌की मिलाकर ब्लैक कॉफी पी है, बावज़ूद इसके, वह अपने को थका पा रहा है। टोक्यो से सिंगापुर, सुदूर—पूर्व, फिर भारत के मुंबई शहर को छूते हुये, मध्य—पूर्व और फिर यूरोप की ओर — राष्ट्रसंघ के एक ओहदेदार प्रतिनिधि को विष्व परिक्रमा करनी होती है। उसे हफ़्ते भर का भी कोई अवकाष नहीं है। आज न्यूयार्क तो कल हांगकांग, दो दिन बाद मेलबोर्न, फिर बेरूत या बर्लिन, बहुत थका हुआ है ईवान। बोईंग जेट की स्पीड उसे कम लगती है। कॉनकॉर्ड विमानों का उड़ना चालू होने पर, वह और तेज़ गति से उड़ सकता है। शायद तब, ईवान को थोड़ी फुर्सत मिले। अभी ईवान की उम्र पचपन साल के करीब है, मज़बूत क़द—काठी का है ईवान। उसके मन में बहुत सारी चिन्तायें हैं। दुनिया भर की चिंतायें जैसे उसके मस्तिष्क के कम्प्यूटर में लगातार डाला जा रहा हो।

अब ईवान, पास बैठी अपनी सेक्रेटरी को डिक्टेषन दे रहा है, थोड़ी देर बाद ही, मुंबई से इस संदेष को टेलेक्स करना होगा। संदेष आवष्यक है, अर्जे़न्ट मैसेज्‌। जाने क्यूँ, ईवान चुप हो गया। प्लेन की खिड़की से उसने देखा, धूसरता में सूरज ढल रहा है। आकाष में बादलों के टुकडें हैं, नीचे एक मैदान। विमान नीचे की ओर आ रहा है। एक पल के लिये ईवान को लगा, बहुत नीचे, लंबे वृक्षों के झुरमुटों के बीच कोई जल—वृत्त, दर्पण की तरह चमक उठा है। इस विस्तृत, विषाल मैदान को विमान ने पल भर में ही कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया।

पष्चिम दिषा में सूरज डूब रहा था, लेकिन जहाज के पष्चिम दिषा की ओर बढ़ने के कारण सूर्यास्त जैसा दिख नही रहा था। जहाज की तेज गति ने जैसे सूरज को आकाष की ओर थोड़ा और ऊपर खींच लिया था। धूप झिलमिलाने लगी। ईवान के जीवन में, निष्चित समय का सूर्योदय और सूर्यास्त कम ही आ पाता है, जापान में सूर्योदय देखने के बाद, वह एक बार फिर सिंगापुर में सूर्योदय देख रहा है। उसकी कलाई में बँधी ओमेगा घड़ी, सप्ताह में सात बार अंतराष्ट्रीय सीमा को पार करती है। ईवान थका है, उसके जीवन में असंतोष है। उसने जैसा चाहा, जिंदगी उसे वैसी ही मिली। अज़ीब बात है, वह अपने जीवन में जो चाहता है वह पल भर में ही पा लेता है। लड़कियाँ, धन, सम्मान, ऊँचे पद कुछ भी तो अनपाया नही रहा। कोई है, जो उसके जीवन में दुनिया के सारे ऐष्वर्य के दरवाज़े उसके लिये खोल देता है। वह पूर्णतया स्वस्थ है, एकदम्‌ फिट्‌। कहीं यही तो उसके असंतोष, अतृप्ति का कारण नहीं हैै? ईवान सोचने लगा — अब वह एक दिन उपवास रह के देखेगा, सात दिनों तक किसी स्त्री शरीर का र्स्पष नहीं करेगा। किसी सुदूर गाँव में, घास के ऊपर हौले टहलते हुये, कीड़े—मकोडे़—फतिंगों को देखेगा। चिड़ियों के आवाज़ की नक़ल उतारेगा।

ईवान ने एक लंबी साँस बाहर निकालते हुये कहा — “देन डेथ”

सेक्रेटरी ने अपने धुन में इन शब्दों को लिख लिया, फिर वह चौंकते हुये कह पड़ी,

— यस मिस्टर वेल्च, व्हाट्‌ अबाऊट डेथ?

— ईवान सेक्रेटरी की ग़लती भांप ठठाकर हँस पड़ा। वह इतना हँसा की उसके आँखों में आँसू आ गये। हँसते — हँसते उसे खाँसी आ गयी। खाँसते—खाँसते उसका चेहरा लाल हो गया। पाँच डालर के रूमाल से अपने चेहरे को ढँके, वह बेदम हुआ जा रहा था। विमाान परिचारिका उसके पास दौड़ती आयी। ईवान ने अपने हाथ उठाकर, अपनी कुषलता का संदेष दिया और तेेज आवाज़ के साथ अपने नाक साफ़ किये।

अपने को संभालते हुये उसने सेक्रेटरी से कहा “आई ज़स्ट थॉट अलाऊड”।

थोड़ी देर पहले देखे घूसर मैदान को, ईवान अपने मन की आँखों से जैसे दुबारा देख रहा था। उस मैदान को देखते ही मृत्यु की बात उसे क्यूँ याद आयी थी।

सेक्रेटरी ने मृत्यु शब्द को काट दिया।

नौगाँव की हालत अच्छी नहीं है। धान की फ़सल डूबोने वाली बाढ़ आयी थी इस बार। पूरे दस दिनों तक पानी, बेवकूफ़ की तरह खेतों में तना खड़ा रहा। धान के पौधे सड़ कर गोबर हो गये थे। छोटे जगह के छोटे लोग, कौन रखता है इनकी ख़्ाबर।

हाथ ओर सिर पर ग़्ाठ्ठर उठाये एक परिवार चीटींयों की तरह, एक नंगे मैदान को पार कर रहा था। दो अलग उम्र की दो औरतें, छह अलग उम्र के छः बच्चें, तीन हमउम्र बूढ़ी औरतें, एक बूढ़ा ओर तीन मर्द।

गेहुँअन साँप का एक केंचुल पेड़ की एक टहनी से लटक रहा है। बाढ़ के समय, इतनी ऊँचाई पर चढ़ गया होगा वह साँप। एक बच्चे ने उस पर एक ढेला फेंका। केेंचुल हवा में बारीक़ काग़ज की तरह फुर—फुर उड़ रहा था ढेला तो लगा, लेकिन केंचुल डाल से गिर नही पाया। ढेला, भुस्स की आवाज़ के साथ गिर गया।

एक औरत का पेट दसमासी है। वह कहती है धीरे चलो।

उसका पति अपना चेहरा थोड़ा पीछे घुमाकर देख लेता है।

— “साहबों की गाड़ी, क्या तुम्हारे जैसे गँवारू के लिये इंतज़ार करेगी ?”

— ”ना करे..... यहीं कही पड़ी रहूँगी, तुम सब जाओ”

— ”उतना ढुलक—ढुलक कर मत चलो, कदमों में थोड़ी ताकत लाओे”

औरत ने कहा — ”नही चल पाऊँगीे”

— ”अपनी गठरी मुझे दे दो” — पति ने कहा।

— ”तुम्हारे हाथों में तो और भी गठरियाँ हैं, कैसे उठा पाओगे, तुम्हारे हाथ खाली तो नही हैं”?

— ”लाओ, मैं ढो लूँगा”।

वह मर्द भी कोई ताकतवर नहीं था, कंकाल की तरह सूखा चेहरा फिर भी न जाने कहाँ से वह अपना तीसरा हाथ निकालकर, औरत की गठरी को संभाल लेता है।

दबी आवाज़ में उसने कहा — ”पेट के बोझ को ज़रा सम्भालकर ढोना“।

चारों दिषाओं में एक सुंदर, हसीन शाम फैली है। आकाष में फावड़े चले मेघों पर चूने—हल्दी के मिश्रित रंगों का सैलाब है, परी—कथा के रंगीन रौषनी से नहायी, सपनों की एक दुनिया। सौंदर्य से भरपूर इस दुनिया में बच्चे शोर करते हुये बातें कर रहे हैं, बड़े चुप और गंभीर हैं। धूप में जले पेड़ पौधों से, एक जंगली खुषबू फैल रही है।

इसी बीच एक विषाल हवाई जहाज़ उनके सिरों के ऊपर से झपाक से निकल गया। सभी लोग अपने सिर आकाष की ओर उठाये, मुँह बाये देखते ही रहे। उन मषीनी पक्षियों में बैठकर कौन लोग जाते हैं? पेट की भूख, दस्तक—शोर—दस्तक देते हुये चली गई। उस गर्भवती औरत को उबकायी आयी। छाती को थामे, वह वहीं मैदान के बीच में बैठ गयी।

ओआक्‌..... की आवाज़ के साथ, उसके मुँह से बस पानी ही बाहर निकला।

यहाँ कुछ ताड़ के वृक्ष एक दूसरे को लगभग छूते हुये खड़े हैं। ख्लग रहा है जैसे गाँव की औरतें या बच्चे किसी अज़नबी को अपने घर अतिथि पाकर एक दूसरे से सटे उसे मिश्रित भाव से देख रहे हों,। इन वृक्षों के बीच एक छोटा सा पोखर है, जिसका कुछ पानी सूखकर दलदली ज़मीन बाहर दिख रही है, दाँतों के मसूढ़ों की तरह। बीच में तवे की आकार लिये पानी जमा है। उस औरत का पति अपने पैरों को ज़मीन पर दबाये — सम्भाले उस कीचड़ में उतर रहा है। दिषाओं में पक्षियों का कलरव है, कीड़े—मकोड़ों की आवाज़ है। साफ़ पानी के पास पहुँचने और लोटे को पानी में डालने से पहले उसने जल में अपने भुतहे चेहरे की आकृति देखी। यह चेहरा बस एक चेहरा ही है। इंसान का चेहरा है, इसे समझने के लिये रूकना होगा, ठहरना होगा, थोड़ी देर तक। लोटे को पानी में डुबोते ही अकड़—बकड़ आवाज़ के बीच वह चेहरा सौ टुकड़ों में बँट गया।

उस आदमी ने कहा — जा..... जा.... खत्म हो जा.....

मेलबोर्न के क्रिकेट मैदान में अभी रात है। दिन का खेल समाप्त हुये, काफ़ी वक़्त गुज़र गया है। निर्जन स्टेडियम, अँधेरा मैदान, कहीं कोई नहीं हैं, सिर्फ एक युवक, जो किसी समय मैदान में प्रवेष ले चुका है। पैवेलियन के गेट के पास खड़े होकर, बेचैन हाथों से उसने एक सिगरेट जलायी। आकाष में तारे झिलमिला रहें हैं, मंद वेग से हवा चल रही है। युवक, मैदान के एक किनारे अपने पैरों को फैलाये ज़मीन पर बैठ गया, उसके आँखों में आँसू हैं। आज इसी मैदान में ज़िंदगी का पहला टेस्ट मैच खेलने उतरा था वह युवक। पहली पारी में शून्य पर आउट हो गया था। ड्रेसिंग रूम में लौटने पर, कप्तान ने उसके पीठ को सहलाते हुये दिलासा दिया था — ”बॉब घबड़ाने की कोई ज़रूरत नही है, दूसरी पारी में तुम शतक बनाओगेे”।

लंच बाद वह दूसरी पारी खेलने के लिये मैदान में उतरा था। उसकी प्रेमिका जे़नेट, स्टैण्ड में बैठकर खेल देख रही थी। माता—पिता, मित्र सभी बॉब का खेल देखने आये थे। लाखों दर्षक टी0वी0 या स्टेडियम में एक नये टेस्ट क्रिकेटर का जन्म देखना चाह रहे थे। उसके खेल प्रदर्षन को देख सभी कहते थे — यह बॉब, दूसरा ब्रैडमैन होगा। युवक को भी इसमें विष्वास था। जीवन का पहला टेस्ट मैच खेलने के लिये मैदान में उतरने से पहले उसने भी सोचा था की अब ज़िंदगी में पीछे घूमकर देखने की जरूरत नही है। दूसरी पारी की शुरूआत उसने अच्छी ही की थी। पहले ओवर में तीन चौके और दो एक रन, अच्छी षुरूआत थी। पहले आधे घंटे तक, क्रीज़ पर अच्छे से टिका लिया था उसने अपने को, तभी एक गेंद आयी लेग स्टम्प पर। लग रहा था आसान गेंद है, स्वीप करने पर — स्क्वायर लेग होते हुये बाऊंड्री पार कर जायेगा। उसने स्वीप भी किया था, लेकिन वह भुतहा गेंद, अचानक पिच पर उछाल नहीं लेकर, सिर झुकाये, मिड्‌ल स्टम्प की ओर बढ़ आया था।

उसके पैरों ने स्टम्प को घेर रखा था, पैर पर गेंद लगते ही, विपक्ष के ख़्िालाड़ी ख़्ाुषी से उछल पड़े — हाऊज्‌....... अंपायर ने बिना किसी दुविधा के अपनी ऊँगली ऊपर उठा दी। युवक ने अंपायर की तरफ देखा भी नहीं, उसे मालूम था की वह आऊट हो चुका है। पैवेलियन लौटते समय किसी ने कोई शोर नहीं मचाया, न ही कोई तालियाँ बजीं। सिर्फ एक छोटे लड़के ने उसकी तरफ एक चूसा हुआ च्यूईंग गम उसकी तरफ उछाल दिया था जो सीधे उसके सीने से चिपक गया था। ड्रेसिंग रूम में एक—दो साथी खिलाड़ियों ने धीरज की कुछ बूँदें दी, युवक कुछ भी सुन नहीं पाया। ड्रेसिंग रूम के दरवाज़े के पास ही खड़ी ज़ेनेट रो रही थी। युवक के पिता, उसकी पीठ पर हाथ रख कर कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहे। रात गहराने पर वह होटल के कमरे से निःषब्द बाहर निकल आया था। मेलबोर्न के अँधेरे क्रिकेट मैदान में वह अकेला बैठा है।

आकाष में कहीं एक तारा टूटा।

सिगरेट बुझ गयी थी।

कल इसी मैदान पर उसकी टीम हार जायेगी। अब दो विकेट बचे हैं, दो सौ रन बनाने ही पड़ेगे। युवक पर टीम निर्भर थी, वह आषायें पूरी नहीं कर पाया।

उसने देखा, अँधेरे स्टेडियम में लाखों भूत बैठे हैं, वे युवक को देख रहे हैं और हँस रहें हैं। वे सभी अपने लंबे हाथों को हिला—हिलाकर वाह वाही दे रहे हैं। युवक सिर झुकाये बैठा रहा। आँखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी, उसे लग रहा था, उसका वर्तमान दुःख कभी ख़्ात्म नहीं होगा। उसके जीवन का अब यहीं अंत हो चुका है।

हवाई जहाज़ बम्बई के एअरपोर्ट पर उतर गया। ईवान ने देखा समंदर के ऊपर अँधेरे आकाष में, बहुत हल्की सूरज की रौषनी की किरचें बाक़ी रह गई हैं, या हो सकता है, उसे कोई गलत फ़हमी हो गई हो। यहाँ इस पड़ाव पर कुछ देर का विश्राम होगा। ईवान के उतरने — न — उतरते ही प्रोटोकॉल षुरू हो चुका था, लोगों ने उसे घेर लिया था, कैमरे के फ्लैष लगातार चमक रहे थे। सुरक्षाकर्मियों ने उसे लगातार सुरक्षा घेरे में ले रखा था। ईवान को लगातार हाथ मिलाना पड़ रहा था, यांत्रिक भाव से वह लोगों से मिलता रहा।

वी0आई0पी0 लाऊंज़ में पत्रकारों ने ईवान को घेर लिया। अर्नगल इज़रायल, अरब देष, मध्य—पूर्व, सुदूर—पूर्व, चीन और यूरोप से संबंधित प्रष्न पूछे जाने लगे।

ईवान राष्ट्रसंघ के प्रतिनिधि हैं, विष्वषांति के अग्रदूत हैं, उसे सभी प्रष्नों के उत्तर मालूम हैं।

वह एक मषीन की तरह जवाब देने लगा।

बहुत सारे सवालों के बीच ईवान ने कहा — हमें शांति चाहिये, हमें क्षुधा से मुक्ति चाहिये, हमें गरीबी हटानी है, स्वाधीनता की रक्षा करनी है। हम मानव जाति को सभी अभावों से मुक्त करने के लिये प्रतिबद्ध हैं। इतनी बातें कहते—कहते, थके ईवान को ख़्याल आया यही सब बातें वह कितनी बार कह चुका है और अब भी कहे जा रहा है, पर आज कुछ फ़र्क है। उसे लग रहा है की वह अंदर से एक जनषून्य प्रेक्षागृह है। जब वह शांति—षांति कह रहा है, उस प्रेक्षागृह से ”मृत्यु—मृत्यु” प्रतिध्वनित हो रही है। पर ऐसा क्यूँ ? ईवान, अपने को अवसाद से घिरा पा रहा है। उसे कोई अभाव नहीं है, वैयक्तिक रूप से उसे कुछ नहीं चााहिये — अवसाद का कारण यही तो नहीं है। वह लगातार सुंदर ढंग से अकाट्‌य उत्तर दिये जा रहा है, लेकिन उसका मन उसे संबोधित करते हुये कह रहा है —

— बास्टर्ड, यू बास्टर्ड, यू हैव डन एनफ़ टू मेक हेल। नाऊ डाइ। प्लीज़।

ईवान सोच रहा है की वह एक—दो दिन उपवास करके देखेगा भूख किसे कहते हैं, सात दिनों तक किसी स्त्री शरीर का र्स्पष नहीं करेगा। एक दिन, किसी दूर गरीब देष के किसी गाँव के राह पर पैदल चलता रहेगा जैसे किसी समय मिषनरी चला करते थे। उड़ते हवाई जहाज़ से दिखे उन घूसर मैदानों में वह क्या कभी जा पायेगा ?

ढलती शाम उस औरत ने जो ओआक्‌..... की आवाज़ के साथ उल्टी की थी, उसके बाद ही उसे प्रसव वेदना हुई, इसके कारण उसे बाहर के सर्द मौसम का अहसास नहीं हुआ। शेष सभी बाहर मैदान में, उस औरत को घेर कर बैठे हैं, सर्दी उन्हें कंपा रही है, पेट का भूख उधम कर रहा है, शरीर पर वस्त्र भी अपर्याप्त हैं।

औरत प्रसव वेदना से कराह रही है।

मैदान को पार करता हुआ, कहीं से एक पागल उनके बीच आ पहुँचता है। वह उनके करीब खडे़ होकर कहता है — ”पूरे दिन भोजन नहीं जुटा पाया। तुम लोग एक बार हरिबोल.... हरिबोल.... कह दो, मेरा पेट भर जायेगा। तुम लोगों से भीख़्ा में — मै बस यही मांगता हूँ।”

निरे मासूम लोग अपनी आँख़्ों उठाकर उसे देखते रहे। वे भाषा भूल गये थे, गले में शब्द अटक गये थे।

उन लोगों के बीच सबसे काबिल आदमी ने कहा — ”हम सभी कंगले हैं, कुछ भी नहीं है हम लोगों के पास, हरि का नाम ले सकता हॅू, इसके सिवा और कुछ नही मांगना”।

— ”इतना ही कह दें, आप लोग। इसके बाद चलिये, पूरी दुनिया पर कब्ज़ा कर लेते हैं”।

दुःख और शोक से सभी हँसने लगे।

मेलबोर्न का वह युवक घास पर लेटा है, कुछ सोच रहा है। जे़नेट क्या उससे अब भी प्यार करेगी। टेस्ट मैच में खेलने के लिये उसे दुबारा आमंत्रण मिलेगा, अपने खोये आत्म विष्वास को फिर से वापस पायेगा। इसी अवस्था में उसे अहसास हुआ की अँधेरे स्टेडियम में बहुत सारे भूत उतर रहें हैं, उनके काले विषाल शरीर हवा में लहरा रहे हैं। उनकी चाल ऐसी है जैसे रस्सी पर टंगी गीली धोती हवा में लहराते हुये सूख रही है। अँधेरे में हज़ारों—हज़ार भूत उसे घेर कर खड़े हो गये है। इन सब ने उसके कानों में फुस—फुसाकर कहा —

— ”चलो हम—तुम सब मिलकर खेलते हैं”।

अपने आँसू पोंछकर, वह युवक खड़ा हो गया। भूतों ने उसे पैड पहनाया, ग्लव्स पहनाये और हाथों में बल्ला भी थमा दिया, इसके बाद हर्ष से भरकर उन्होंने करतल घ्वनि की। युवक पिच के ऊपर आकर स्टान्स ले रहा है। अंधेरे मे दिखा, अंपायर की जगह केवल एक टोपी और सफेद कोट खड़ा है। एक भूत ने एषिया की तरफ अपने लंबे हाथ बढ़ा दिये और एक नरमुण्ड नोच लाया और दौड़ते हुये बॉलिंग की मुद्रा में उसकी तरफ फेंक दिया। युवक ने एक बहुत अच्छा कट मारा, नरमुण्ड छिटक गया, महाकाष की ओर। हर्ष ध्वनि से स्टेडियम गूँज उठा। दूसरी बार अफ्रीका की ओर अपने लंबे हाथों को बढ़ाकर एक नरमुण्ड और नोच लाया। इसी तरह खेल चलता रहा और चलता रहा, यह खेल ख़्ात्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, जैसे अनंत समय तक यह खेल चलता ही रहेगा। उसे कभी आऊट नही होने की प्रतिश्रुति मिल गयी थी।

युवक को अब कोई दुःख नहीं था।

बहुत रात गये, एक बथान के फर्ष पर, गर्भवती औरत ने एक निर्जीव षिषु—पुत्र को जन्म दिया है। जन्म लेने के ठीक बाद बच्चे रोते हैं, यह बच्चा भी रोया। क्षुधित माँ के शुष्क गर्भ से, वह बिंदु मात्र ही जीवनी शक्ति ले पाया था इसलिये उसके रोने की आवाज़ बहुत धीमी थी, मरूथल में भौरें की गुंजन।

यह आवाज़ उसकी माँ भी नही सुन सकी।

उसने मरती हुयी आवाज़्ा में कहा — अरी..... दीदी..... ज़्िांदा तो है ?

बाहर गहरा अंधेरा है, सभी मर्द मुँह बाये बैठे हैं। रेलगाड़ी में बैठकर, आज उनका शहर जाना हो नहीं पाया, कब जा पायेंगे, निष्चित नहीं है। बहुत दिनों पहले, ऐसे ही मैदान में, सर्दी की रात में बथान के अंदर, किसी ने जन्म लिया था — हरिबोल ने कहीं सुना था, वह कोई संत पुरूष था, ईष्वर की संतान। आकाष में एक तारा टूटा। हरिबोल बूढ़ा, बथान की परिक्रमा करने लगा। उसके पैरों के नीचे घास, छोटे पौधे, टूटी डालियाँ टकराने, दबने लगीं। हरिबोल बूढ़े ने पेड़—पौधों और घास को संबोधित करते हुये कहा —

”आह्‌...... ! तुम्हें चोट तो नहीं लगी, कोई दर्द तो नहीं हुआ। एक बार हरिबोल..... हरिबोल..... बोलो सभी, कंगाल बच्चे का पेट भर जायेगा।

बच्चे को थोड़ा रो लेने दो..... ”।

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