Kopenhegen Ki Woh Ladki Shesh Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Kopenhegen Ki Woh Ladki

कोेपेनहेगेन की वह लड़की

मूल लेखक : रस्किन बॉन्ड

(अंग्रेज़ी से अनुवाद : शेष अमित)

यह एक सच्ची प्रेमकथा नहीं है, पर इससे संबंधित एक कहानी तो है। मेरे कहने का अर्थ क्या है, आख़्िार आप जान ही जायेंगे। लंदन में रहते और काम करने के दौरान, मैं एक वियतनामी लड़की फुओंग से परिचित था, वह पॉलिटेकनिक में पढ़ती थी। गर्मियों की छुट्टीयों में विद्यार्थियों के एक समूह में फुओंग उनमें शामिल हुयी। इस समूह में अधिकतर, फ्रांस, जर्मनी, भारत और अफ्रीका के विद्यार्थी भी थे। कुछ अंग्रेज विद्यार्थी भी थे। यह समूह कुछ पाउंड के साप्ताहिक के पारिश्रमिक पर बागों से, रसभरी तोड़ने का काम करता था। सप्तांहन में वे इंग्लैण्ड के सुदूर ग्रामीण अंचल में मौज मस्ती काटते। ग्रीष्ममांत में, एक दिन बाग़ीचे से लौटकर फुओंग ने मेरा परिचय, एक सोलह साल की डैनिष लड़की, उल्ला से कराया, जो ऐसे ही अवकाष का आनंद लेने के लिये इंगलैण्ड आयी थी।

फुओंग ने कहा — ”कुछ दिनों तक उल्ला का ख्याल रखना, यह इंग्लैण्ड में किसी को नहीं जानती”।

”लेकिन मुझे तो तुम्हारा ख्याल रखना है” — मैंने विरोध किया।

कुछ समय से मैं फुओंग पर आकर्षित था। वह भी मुझे चाहती थी, लेकिन मेरे प्रणय प्रयासों का उसने कभी प्रत्युत्तर नहीं दिया था। हो सकता है, उल्ला के बहाने वह मुझसे कुछ समय के लिये पीछा छुड़ाना चाह रही थी। फुओंग एक सुनहरे बालों वाली किषोरी का हाथ मुझे थमाते हुये कहा — ”यह उल्ला है, मैं जा रही हूँ और हाँ कोई शरारत नहीं करना।”

फुओंग ग़्ाायब हो गयी। मैं चारिंंग क्रॉस के पाताल स्टेषन के प्रवेष द्वार पर उल्ला के साथ अकेला रह गया। वह मुझे देखकर मुस्करायी और हल्की घबराहट के साथ मैं भी मुस्करा पड़ा। उसकी आँखें नीली थी और शरीर का रंग दमकता हुआ था। स्कैण्डेनेवियन लड़कियों की तुलना में, उसका क़द छोटा था। वह मेरे कंधे तक ही पहुँच रही थी। उसकी काया छरहरी और कुछ लड़कों जैसी थी। उसके हाथ में एक ट्रैवेल बैग था, जिसने मुझे उसके लिये कुछ कर पाने का बहाना दे दिया।

उसके हाथों से बैग को लेते हुये मैनें कहा — ”हमें इस बैग को कहीं रख देना चााहिये”।

बैग को अमानती सामान घर में रखकर, मुस्कराते हुये, हम दोनों बाहर सड़क की पट्टी पर आ गये।

मैनें पूछा — ”उल्ला, तुम कितने दिनों के लिये लंदन में हो” ?

— ”दो दिन, फिर मैं कोपेनहेगेन वापस चली जाऊँगी”।

— ”ठीक है, अब तुम्हारी क्या इच्छा है”

— ”मैं कुछ खाऊँगी, मुझे भूख लगी है”

मुझे भूख नहीं लगी थी, लेकिन दो अपरिचितों में पहचान बढ़ाने के लिये, साथ बैठकर भोजन करने से बेहतर क्या हो सकता था। हम लोग फिट्जरॉय चौराहे पर, एक छोटे भारतीय रेस्त्रां में गये, जो ज़्यादा महँगा भी नहीं था। वहाँ नारंगी रंग की हैदराबादी करी खाते समय हमने अपने मुँह पका लिये। इससे पहले की कुछ बात करें, मुँह को ठंडा करने के लिये हम दोनों ने तमिल कोएकोट्टे लिया।

— ”तुम कोपेनहेगेन में क्या करती हो” ? — मैनें पूछा

— ”मैं स्कूल में पढ़ती हूँ, अगले साल यूनिवर्सिटी जाऊँगी”।

— ”तुम्हारे माता—पिता क्या करते हैं” ?

— ”उनकी किताबों की एक दुकान है”।

— ”तब तो तुमने खूब पढ़ा होगा” ?

— ”अरे नहीं, मैं ज़्यादा नहीं पढ़ती। मैं एक जगह देर तक नहीं बैठ सकती। मुझे तैरना, टेनिस खेलना और नाटक देखना पसंद है”।

— ”लेकिन नाटक देखने में तो बैठना होता है....”

— ”.....हाँ, लेकिन वह कुछ अलग है”।

— ”तो बैठना नहीं, बैठकर पढ़ना तुम्हें अच्छा नहीं लगता”

— ”हाँ, तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन अधिकतर डैनिष लड़कियाँ पढ़ना पसंद करती हैं, वे अंगे्रज़ लड़कियों से ज़्यादा पढ़ती हैं”।

— ”षायद तुम ठीक कह रही हो” — मैनें कहा

उस समय मैं बेकार था, इसलिये मेरे पास समय की कमी नहीं थी। उस दिन नाटक देखने के पहले हम लोगों ने ट्रैफलगर चौराहे पर कबूतरों को दाने ख़्िालाये और दोपहर में एक कहवा—घर में गये। उल्ला ने एक टाईट जींस और एक छोटा डफ्ल—कोट पहन रखा था। उसके पास और कपड़े नहीं थे, इसलिये वह उसी पोषाक में नाटक देखने चली गयी। उसकी पोषाक देखकर नाटकघर के बरामदे मेें ही लोगों की खुसुर—फुसुर षुरू हो चुकी थी, लेकिन वह इनसे अनजान थी, उनकी नज़रों को बेपरवाह करती हुयी। उसने नाटक का भरपूर आनंद लिया। सभी गलत स्थानों पर ठठाकर हँसी और जब कोई ताली नहीं बजा रहा था, उसने तालियाँ भी बजायी। लंच और नाटक ने मेरे ज़ेब को हल्का कर दिया था। रात के भोजन में, हम दोनों ने एक अल्पाहार—गृह में टोस्ट के साथ भूने बीन्स् खाये।

उल्ला का बैग लेने के बाद, मैनें उसे फुओंग के घर छोड़ देने का आग्रह किया।

— ”वहाँ क्यूँ ? फुओंग तो अब तक सो गयी होगी”।

— ”हाँ, लेकिन तुम क्या उसके यहाँ नहीं रूकी हो” ?

— ”अरे नहीं, उसने मुझसे पूछा भी नहीं”।

— ”तब तुम कहाँ ठहरी हो ? तुम्हारे बाक़ी सामान कहाँ हैं” ?

— ”कहीं नहीं, इतने ही सामान हैं, जो मैं लायी हूँ” ”उसने अपना ट्रैवेल बैग दिखाते हुये कहा”। — ”तुम किसी पार्क के बेंच पर नहीं सो सकती हो” — मैनें कहा

— ”तुम्हें किसी होटल में कोई कमरा दिलवा दूँ” ?

— ”मैं ऐसा नहीं कर सकती, मेरे पास सिर्फ कोपेनहेगेन वापस लौटने के पैसे हैं”।

कुछ पलों के लिये वह बुझी सी दिख रही थी, फिर उल्लसित होते हुये उसने अपनी बाहें, मेरे गले में डाल दी।

— ”मैं तुम्हारे पास रूकूँगी, बुरा तो नहीं मानोगे” ?

जब मैं उसे लेकर अपने स्विस कॉटेज के कमरे में पहुँचा, उल्ला ने अपना कोट उतार दिया और कमरे की खिड़की को पूरी तरह खोल दिया। यह एक उष्ण ग्रीष्म की रात थी, और खिड़की से मघुचूष पौधों की खुषबू आ रही थी। उसने अपने जूते खोल उछाल कर फेंक दिये और कमरे में नंगे पाँव चलने लगी। उसके पैर के नाख़्ाूनों में गुलाबी रंग के नेल—पॉलिष लगे थे। उसने अपनी जींस और ब्लाऊज़ खोल फेंके और लेसदार पैंट पहने आईने के सामने खड़ी हो गयी। धूप—स्नान के कारण उसका बदन कुछ तांबई हो चुका था, लेकिन उसके छोटे वक्ष दूधिया रंग के थे।

वह बेड पर सरक आई और पूछा — ”तुम नहीं आ रहे हो” ?

मैं भी धीरे से बेड पर सरक आया और उसके पास लेट गया। वह चहकते हुये, यहाँ बने मित्रों के बारे में और नाटक की चर्चा करती रही। मैनें बेड—स्वीच् को ऑफ किया, तो वह चुप हो गयी। उसके बाद उल्ला ने कहा — ”मुझे नींद आ रही है, शुभरात्रि!!” करवट बदलकर वह तुरंत सो गयी। मैं उसके बगल में लेटा, जागता रहा और उसके बदन से उठती गर्माहट महसूस करता रहा। उसके सांसों की गति सहज और शांत थी। उसके लंबे और सुनहरे बाल, मेरे चेहरे को छू रहे थे। मैनें उसके कान पर एक चुंबन अंकित किया, पर वह ग़हरी नींद में थी। इसके बाद मैं, मन ही मन आठ सौ बासठ भेड़ों को गिनते—गिनते सो जाने में सफल हो गया।

सुबह होते ही उल्ला, तरो ताज़ा होकर नींद से जागी। खिड़की से सूरज की किरणें आ रही थी, और इसकी उष्णता में वह निर्वस्त्र व्यायाम कर रही थी। मैं नाष्ते में उलझ गया। उल्ला ने तीन अण्डे, बहुत सारा ग़ोष्त और दो कप कॉॅफी पी। मैं उसकी क्षुधा की तारिफ किये बिना नहीं रह सका।

— ”आज हम क्या करेंगे” — उसने पूछा। उसकी नीली आँखें चमक रही थी। वह स्यामी बिल्ली की नीली चमकदार आँखें थी।

— ”आज मुझे रोज़गार दफ़्तर जाना है” — ”मैनें कहा”

— ”यह तो अच्छा नही लग रहा है, तुम कल नहीं जा सकते, जब मैं चली जाऊँ” ?

— ”जैसी तुम्हारी मर्जी”

— ”चलो अच्छी बात है”

उल्ला ने खुषी से भरकर, संभलने से पहले मेरे होठों को चूम लिया। दूसरे दिन प्रिमरोज की पहाड़ी पर चढ़कर, बच्चों का पतंग उड़ाना देखा, धूप में लेटे रहे, घास की पत्तियों को चबाया और फिर चिड़ियाघर गये, जहाँ उल्ला ने बंदरों को खाना खिलाया। उल्ला ने कई बार आईसक्रीम खायी। दोपहर में एक ग्रीक रेस्त्रां में लंच लिया। आज मैं फुओंग को फोन करना भूल गया था। शाम को मलिन कैमडन टाउन से गुज़रते हुय,े हम दोनों पैदल ही घर पहुँचे। रास्ते में बियर पी, डिनर में स्वादिष्ट मछलियांँ और चिप्स खाये। हम जल्द ही सोने चले गये, उल्ला को अगली सुबह ही ट्रेन पकड़नी थी।

— ”आज का दिन अच्छा था” 'उसने कहा

— ”कल भी, मैं ऐसा ही दिन चाह रहा था”

— ”लेकिन, कल तो मुझे जाना ही है”।

— ”हाँ, तुम्हें जाना भी चाहिये”

उल्ला ने तकिये पर रखे अपने चेहरे को मेरी तरफ कर लिया। चकित भाव से, वह मेरी आँखों में आँखें डाले देख रही थी, उसे कोई तलाष थी। मालूम नहीं, उसे वह मिला या नहीं, जो वह ढूँढ रही थी। वह मुस्करायी और धीरे से मेरे होठों को चूम लिया उसने कहा — ”मेरे लिये तुमने जो भी किया, उसके लिये मैं तुम्हें अषेष धन्यवाद देती हूँ”।

उसका चेहरा वसंत ऋतु के किसी बारिष के बाद जैसा स्वच्छ और निर्मल दिख रहा था।

उसके हाथों को थामे, मैं उसकी एक—एक ऊँगलियों को चूमता रहा। मैनें उसके वक्षों को, गले को, माथे को और उसकी आँखे बंद करवाकर उसकी पलकों को भी चूमता रहा। हम दोनों एक दूसरे के बाँहों में देर तक पड़े रहे। एक दूसरे के शरीर का र्स्पष आनंद से भरा था। हम दोनों कम उम्र और अनुभवहीन थे, लेकिन अपने को एक नर्म धीरज के अहसास से सिक्त और सराबोर पाया — बात एक रात की नहीं थी, पूरे जीवन की एक—एक रात शामिल थी उसमें, एक शाष्वतता लिये। हमारे प्यार में हर्ष था, आनंद था। हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में लिपट कर सो गये जैसे दो बच्चे सारा दिन बाहर खेल कर लौटे हों, और थककर सो गये हों।

अगली सुबह, सूरज की रौषनी से आँखें खुल गयी। आँखें खुलते ही देखा, उल्ला की छरहरी नंगी टांगे, बेड से नीचे की ओर लटक रही हैं। उसके पैर के रंगे नाखूनों को देखकर मैं मुस्कराया। उसके सिर के बाल, मेरे चेहरे से चिपके थे, सूरज की रौषनी भी उसे सहला रही थी। उसके सिर के एक—एक बाल, चमकते सोने के रंग सा दिख रहा था।

स्टेषन पर और ट्रेन में भी भीड़ थी। हम दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा, एक दूसरे की नज़रों में नज़रें डालकर मुस्कराये। अब चुंबन से संकोच था।

— ”फुओंग को मेरा प्यार कहना”

— ”जरूर ! मैं कह दूँगा”

हम लोगों ने कोई वायदा नहीं किया, न ख़्ात लिखने का, न दुबारा मिलने का। यह एक पूर्ण संबंध था, जिसके नसीब में खिलने के लिये बस यही दो दिन थे।

प्रणय निवेदन, विवाह, सहवास की घुट्टी बनी थी, बस ग्रीष्म की एक रात के लिये..... पूरे गर्मी भर मैनें कमरे की खिड़की को कभी बंद नहीं किया, खुला ही रहा हमेषा।

हर रात वह मधुचुष की खुषबू मेरे साथ थी।

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