nahi pratidan nahi Shesh Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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nahi pratidan nahi

नहीं प्रतिदान नहीं ---------------

विवाह के दिन भी वैसा ही दिखा था मनोज.काला,दुबला सा पर चेहरे पर एक मासूमियत.सप्ताह भर के बुख़ार के बाद कुछ ज़्यादा ही दिख रहा है,उस दिन जैसा.आँखों के पास स्याह घेरे गहरे हो गये हैं.चुसे बीजू आम की तरह गाल और चुपस गये हैं.थका,अनमना और असहाय दिख रहा है.उसे मैं बथुआ.पालक,गाजर दे रही हूँ.पर उसे कुछ हो गया है.सुबह चाय माँगता है,चाय की प्याली लाते लाते देखती हूँ कि वह कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊँघने और सो जाने के बीच की स्थिति में आ गया है.होठों के दोनों कोर के नीचे से लार की रेखाये झूल रही हैं.मैं डर जाती हूँ.क्या हुआ है तुम्हें ? वह कहने लगे मेरी बीमारी ठीक नहीं हुई अभी.अंदर से बुख़ार है.कड़वापन है जीभ में.अवि बेटे को कहा-पिता को बाहर टहलाकर ले आए.शायद कुछ अच्छा अनुभव करें.साथ जाते दोनों बाहर.अवि आकर कहता-माँ,पापा रास्ते में ही रूक जाते है झुग्गी की चाय की दुकान पर.कहते हैं,तुम टहल आओ.मैं तब तक यहीं बैठता हूँ,फिर साथ लौटेंगे.मैं असहाय हो रही थी.बाथरूम में नहाने गये उस दिन.बहुत देर तक कोई आवाज़ नहीं आयी.मुझे घबराहट होने लगी.खटखटाया खोला तो देखा पानी के बाल्टी के पास बैठे हैं.पूछा तो कहा-यह पानी मुझे नदी का अथाह प्रवाह सा लग रहा है,ठंडा हिमशीतल.कोई ग्लेशियर ने अभी-अभी वेग पा लिया हो.ऑफ़िस में भी मन लगाकर काम नहीं कर पाते.एक मेहनती और जानकार आदमी निठल्ला हो रहा था.कहीं आना-जाना नहीं.पिछले महीने एकबार सीतापुर गये थे भतीजे के मुंडन में.कहा-चलो तुम्हें किसी अच्छे डॉक्टर से दिखाती हूँ.उन्होनें कहा-नहीं मैं अब ठीक हूँ,छूकर देखो-अब बुख़ार भी नहीं है.ऑफ़िस में अब प्रोन्नति होने वाली थी.परीक्षा पास करते ही बाबू से सीधे अफसर.पढ़ना-लिखना साढ़े बाईस हो रहा था.इससे उलट की हमेशा जुटे रहने वाले को पढ़ने से अरूचि हो रही थी मनोज को.मैने कहा तुम अब पढ़ते-लिखते क्यूँ नहीं ? जवाब था-क्यूँ तुम्हे पसंद नहीं कि तुम्हारा पति एक बाबू हो.देर तक अकेले कमरे में बैठे रहते शून्य की ओर देखते.खिड़की के एक छिद्र से आती सूरज की पेंसिल रौशनी में लटकते धूल कणों को पढ़ने का जैसे प्रयास कर रहे हों.वह जिद्दी हैं,पर नर्मी से पेश आने पर बच्चों की तरह पिघल भी जाते.उस रात अवि के सो जाने के बाद वे मेरे करीब आ गये.अपने सिर को मेरे सीने पर रख दिया,जैसे अवि रख देता है कभी-कभी.उसके बेतरतीब रूखे बालों में जंगल की खूशबू थी जो मेरे अंदर तक फैल गयी.कुछ संकोच के साथ कहा-जानती हो,तुम में मैं अपनी माँ ढँढता हूँ.क्या ऐसा सोचना पाप है ?
मैने कहा नहीं मालूम,दुनिया के रीति-रिवाज़ मैं नहीं जानती.पाप-पुण्य से अनजान हूँ.वैसे सुहाग रात के दिन भी जब उसने मुझे भींच लिया था पहली बार,मैं कांप उठी थी पर उसमें कोई सिहरन नहीं थी,कोई रोमांच भी नहीं था.मैनें अपने को आश्वस्त पाया था ,निश्चिंत हो गयी थी.इस दुबले,सांवले अंजान आदमी के पहले स्पर्श ने बचपन में गुड़ियों से खेलती एक माँ को जगा दिया था.लुका-छुपी,पकड़म-छू वाला प्रेम कभी नहीं हुआ इस आदमी से.रूँधे स्वर में मनोज ने कहा-एक बात कहना चाहता हूँ,सुनोगी ?
उठकर हम दोनों खिड़की के पास बैठ गये.बाहर पूनो की चाँदनी बिखरी थी.खिड़की पर पर्दे से चाँदनी छन कर
आ रही थी.एक हल्का जाल सा फैल रहा था हम दोनों के चेहरे पर.सबकुछ धुँधला.मैने कहा-अब कहो.उसने कहा-किसी से कहना मत ! तुम्हें याद है,तीन साल पहले रवि से मैनें पाँच सौ रूपये उधार लिये थे,जब यह ड्रेसिंग टेबल लेना था.तुमने कहा था,उधार चुका देना.गहरी साँसें लेने के बाद वह कहने लगे लेकिन बात उधार की नहीं है.बात रवि की है.उस दिन वेतन पाने के बाद सोचा-रवि का उधार चुकता कर दूँ.पिछले महीने मोटर साईकिल का किश्त भी कट चुका है,और आलमारी का भी एक ही ईएमआई बाक़ी रह गया है.रवि पैसेवाला है,सज्जन हैऔर एकमात्र मित्र जो घर का भी धनी है.बहुत दिनों से मुलाकात भी नहीं हुयी है.उसके धर की गली में घुसते ही देखा एक एंबुलेंस खड़ी है.जीने पर चढ़ते ही गले में आला लटकाये एक डॉक्टर को उतरते देखा.कमरे के बाहर रवि की गोरी सुंदर पत्नी मीरा एक मैले साड़ी मे लिपटी,बेतरतीब रूखे बालों के साथ खड़ी थी.माथे की बिंदी भी मिट गयी थी.वह अब सुंदर नहीं दिख रही थी.कई रात जागने से चेहरे पर एक मुर्दानगी थी.पूछने पर रोने लगी.कहने लगी-मनोजजी वह मर रहा ह.सुनते ही दिल के अंदर हवा के झोंके से दरवाज़े का एक पट धड़ाम से बंद हो गया.सूरज की लाल रौशनी उसके सफेद बिछावन पर बिखरी थी.रवि के सिरहाने दो-तीन बूढ़ी औरते घूँघट से अपना सिर छिपा कर बैठी थी.दवा की बोतलें ,रैपर और उदास एक बेड पैन किनारे बिखरे थे.मृत्यु अभी आयी नहीं थी.पर उसका गँध पूरे कमरे में भरा था.मुझे लगता है कि मृत्यु का भी एक गंध है.कोई कहे या नहीं,मैं कमरे में जाते ही कह सकता था कि कोई मर रहा है.अभी रवि है,पर चला जायेगा.किसी ने एक कुर्सी रख दी रवि के सिरहाने बाँयी तरफ.उसने पूछा-कौन..? मै - मैं मनोज हूँ.बुझी आवाज़ में कहा-कैसे हो ? कब आये ?अभी आया
,तुम कैसे हो ? दवा के गंध से मुझे उलझन होती है,लगता है यह मृत्यु का एक प्रसाधन है,एक कॉस्मेटिक.मैं हटना चाहता था,भागना चाहता था.धीरे से कान के पास आकर कहा रवि के- तुम्हारे रुपये लौटाने आया हूँ.उसने चकित होकर कहा,कितने रुपये ? मैने कहा-पाँच सौ.रवि ने मुँह बिचकाकर कहा-क्या मैने तुमसे सिर्फ पाँच सौ रुपये माँगे थ
े ? इसके लिये तुम इतना कष्ट उठाकर यहाँ आये हो ? मैं तो इससे कहीं अधिक चाह रहा था.मैने चौंककर कहा-तुमने तो नहीं माँगा था
,ये तो मैं ही लिया था तुमसे उधार,लौटाने आया हूँ,तुम्हें याद नहीं ? वह आश्चर्य में था.नहीं बात उधार की नहीं है,वह तो पाँच सौ से कही अधिक है.क्या माँगा था ? छत की ओर देखते हुये रवि ने कहा-ठीक याद नहीं आ रहा.अरे ! वही जो हर इंसान चाहता है.अच्छा रूको,बाथरूम से आता हूँ,तबतक शायद याद आ जाये.उसे और बेड-पैन को आड़ देते हुये वह निवृत्त हुआ,किसी ने उसकी सहायता की..वह दर्द में था.कुछ समय के बाद संभला.तुमसे माँगा था या किसी और से याद नहीं आ रहा.पर माँगा जरूर था
,इसमें कहीं कोई भूल नहीं हो रही है.प्यार से माँगा था,डरा-धमका कर माँगा था परउसने ने दिया नही.कौतूहल में पूछा-क्या माँगा था ? रवि ने कहा-अच्छा रूको,मीरा से पूछता हूँ,शायद उसे याद हो.या ऐसा करता हूँ,सौ की उलटी गिनती गिनता हूँ.वह गिनने लगा,फिर रूक गया.कहने लगा नहीं यह समय की बर्बादी है.मैने धीरे से कहा-तुम्हें तो सबकुछ मिला है,गाड़ी,मोटर,बंगला,मीरा जैसी पत्नी,राजकुमार सा बेटा जो अंगिरेज़ी स्कूल में पढ़ता है,बैंक बैलेंस,बीमा.और क्या चाहिये तुम्हें ? वह होठों से तो मुस्कुराया लेकिन उसके पीले दाँतों से चमक नदारद थी.वह सब तो मिला पर और एक कोई चीज थी,जो नहीं मिल पायी,याद नहीं आ रहा,पर इसका कोई मतलब भी नहीं है खास.जैसे मैं चाहता हूँ एक वृक्ष की शीतल छाया में बैठा रहूँ और सारा दिन सामने से बहती नदी को देखता रहूँ अपलक.पर यह चाहत बेसिर पैर की है.मुझे लगा तुम वही लाये हो मेरे लिये.पर तुम तो बस वही पाँच सौ रुपये,जो तुमने मुझसे उधार लिये थे.बताओ तो मुझे याद क्यूँ नहीं आ रहा.जबकि वह एकदम सरल है.पहचानी जानी चीज है.जो सब कोई चाहता है.मैं मनोज का चेहरा अब भी देख नहीं पा रही थी.पर्दे से चाँदनी की एक जाल चेहरे को अस्पष्ट कर रही थी.मनोज ने कहा-जानती हो उस दिन रवि के घर से निलते ही मैं बारिश में भीं गया
,भींगता रहा रास्ते भर.खूब भींगा.तुमने मुझे डाँटा भी था. दूसरे दिन ही बुख़ार आ गया था.
मैने सिर हिलाया.रवि तीन दिन के बाद मर गया था
,पर शायद ही उसे वह चीज याद आ पायी हो.पर बुख़ार में और उससे उबरने के बाद भी मैं यह सोचता रहा,रवि को क्या चाहिये था ? सभी चाहते हैं पर उसे याद नहीं आ रहा था.मैने पति से पूछा-क्या थी वह ची
ज ?
मनोज ने कहा-हर आदमी के अंदर एक कामना रह जाती है. वह है अपना सर्वस्व सौंप देने की एक इच्छा.कहीं कोई बैठा है प्रसन्न मुद्रा में,उसे हमसे कुछ भी नहीं चाहिये,फिर भी सबकुछ अर्पण करने की चेष्टा-धन-दौलत,मान,अपमान,प्रज्ञा,जीवन-मृत्यु सबकुछ.जीवन के उहापोह,दुनियादारी में इंसान भूल जाता है. प्रतिदान में उसे कुछ भी नहीं मिलेगा पर उसे सौंकर उसे तृप्ति मिलेगी .पर कभी-कभी रवि की तरह मरते समय,इंसान यह देखता है कि वह देना नहीं चाह रहा था पर नियति उससे छीन ले जा रही है.तब उसे लगता है-इससे अच्छा तो वह स्वेच्छा से दे देता.

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