adhuri kavitayen Shesh Amit द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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adhuri kavitayen

सपना

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कल सपने में एक रोटी आई,

अकेले आई थी,

साथ आज नमक भी नहीं था,

लेकिन संपूर्ण थी,

कहें तो अर्धनारीश्वर,

कहा निर्भ़य रहो,

भूख कल नहीं होगी,

वह खंभे वाले गोलघर में,

बहस करने गयी है,

सुबह न भूख थी,

न तलाश कोई-

सपना सच था.

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फूल के दोने

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मंदिर के मुहाने पर,

एक कृष्णकाया दुर्दशा,

बेच रही थी-

फूल के दोने,

दोने में फूल,

ताज़े झटके डालों से,

आँसूओं की ठहरी बूँदें,

खिलखिला पड़ी हों,

चाहत के रंग-

देवी-देवताओं के,

दोनों में क़ैद-

काली को लाल,

शनि को नीले,

पीले सफेद अनंत को,

दूर आबादी से,

सिसकते पौधे फूलों के,

उदास हैं विरह वन में.

- शेष अमित

चोर जेब

पतलून के ऊपरी हिस्से के अंदर दाहिने,एक जेब है सुषुप्त-
कभी टिकट जेब था,

अब रहते हैं मुड़े-तुड़े नोट कुछ,
या गोलाई अक्षरों में लिखा
एक प्रेम-पत्र,
या माँ की दी भभूत की एक पुड़िया,
जो सिर्फ धूप बत्ती की राख नहीं,
एक हौसला जो दुबका है अंदर,
आँखों से परे,कतरों से दूर,
नापता है मन उसका आयतन.
और बुढ़ाते विश्वास को एक लाठी,,
अपने-अपने चोर जेब के साथ,
आँखों में आँखें डाले एक दूसरे के-
चल रहे,बढ़ रहे,हँस रहे-
अगोचर भय के साथ-
निर्वाक्.

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एक परकीया प्रेम

वे एक दूसरे को नहीं जानते,
जैसे नहीं जानता है
कभी अंधेरा प्रकाश को.,
नहीं जानना ही उदय है,
और जानना क्षरण-.
पल एक रूका था कभी,
जो आज भी रूका है-
कुछ हुआ था-
जो मछली के मुँह में फँसा एक काँटा है.
अग्नि-साक्षी,सप्तपदी कहीं छूट गये पीछे,
न शब्द सेतु हुये,न ऊँगलियॉं कभी-
और नीचे हहराता सागर,
जिसकी लहरें,सागर से अलग नहीं,
बस एक प्रक्षेपण,
अबोले के सेतु पर खड़े दोनों,
जिन्हें छ: ॠतुओं ने कस दिया है,
एक षट्कोण में-
जिनकी भुजायेे,
नहीं मिलने को हैं,
अभिशप्त-
मछली के मुँह में फँसा काँटा.
पर ये रेखायें जानती हैं,
मछली के काँटे को,
रूचि से आसक्ति,
आसक्ति से रति,
और रति की गहनता प्रेम है.
बस इसी प्रेम को डुबोना है,
दुनिया के गहनतम समुद्र-गर्त्य में,
कि यह होते हुये भी न रहे,

एक परकीया प्रेम

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कम्पास

झरते हरसिंगार ने,रोका है पथ कभी.
जुगनू अंधेरे मे,

रात रानी की महक ने,
धकेला है भँवर में?
गुलाब को पाया-
इंतज़ार में गुमसुम?
तो पथिक भूले नहीं तुम,
राह अब तक.
नाव में नदी पार करते हुये
एक काली मछली उछलकर,
जल में बिला गयी थी
जिसकी बॉंक कमर ही अब स्मृति है,
जंगल में घूमते हुये अकेले,
जब तुम नि:संग नहीं थे,
और एक ऊँचे दरख्त से,
गिरती पीले पत्तों को हवा में लुढ़कते देखा था-
और सुननी चाही थी
उनका संगीत
तो पथिक तुम तब भी राह नहीं भूले थे,
हवायें जब तक दिशा दे रही हों,
सुगंध जब तक खींच रही हो,
फिर ढँक जाये ध्रुवतारा कुहासे में,
या टेढ़ी हो जाये कम्पास की सूई,
पथिक तुम तब भी नहीं भूले हो
पथ अपना.

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पकड़-छू

पकड़ता हूँ -भागता है,पकड़ता हूँ-भागता है,

अंत में पकड़ लेता हूँ,
एक मुट्ठी चाँदनी.
छूता हूँ-हट जाता है,
छूता हूँ-हट जाता है,
अंत में गले लगता है,
एक वास्तव प्रेम.
भागता हूँ-फिसल जाता है,
भागता हूँ-फिसल जाता है,
अंत में घर आती है चलकर,
दीप्त वैभव लक्ष्मी.
आता है-छिप जाता है,
आता है -छिप जाता है,
अंत में गुस्से में अंगूठा दिखाता,
अभागा मृत्यु.

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)

वृद्धि -------

आज कितना बड़ा हुआ,तौलता है वह किशोर आईना देख

कि होठों के ऊपर सुनहरी रेखा,
काले बादल की लकीर बन जाये,
गली का पंसारी घटतौल की संख्या गिनकर,
देखता है अपना बड़ा होना,
नाले के पटरे पर
रात में चुपके से एक पाषाण-खण्ड रख,
गिनता है बढ़ते जयकारों की संख्या
और पाता है जरा बढ़ा सा,
वह तौलती है,
कि उठती निगाहें,आज
कितनी तेजी से फिसल गयी,
नुक्कड़ का वह पागल,
मारता है मच्छर सौ,हर दिन-
और सौ पार करते ही,
तालियाँ पीटता है और थोड़ा बड़ा हो जाता है,
हर दिन ज॒रा सा बड़ा होना.
भरता है भोर की झोली में,
लगातार मुठ्ठी-मुठ्ठी गोधूलि,
वह उदास होता है,
गिनता,तौलता,आंकता कि,
आज कितना बड़ा हुआ ?

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मै आऊँगा ----------

मंदिर परिसर केएक ईश्वरहीन कोने में.

एक गढ्ढा है,जिसमें पड़े हैं-
बासी फूल,अगरबत्तियों के.
मुँहझौंसे काठियाँ.
एक माचिस की उदास डिब्बी.
जिसमें एक तीली रह गयी है,
और लाल माथे पर सीलन है,
एक लाल चुनरी लिपटी है,
नारियल की उघेड़ी जटाओं में.
श्रद्धा के सारे प्रतीक,
सुप्त हुये और अब सड़ांध है,
जिस पर हर दूसरे दिन.
बिछ जायेगी एक और तह,
श्रद्धा बूढ़ी होती है,
और उन सड़ते-गलते पर.
उग आती हैं कुकुरमुत्ते सी,
अनेक श्रद्धायें.
युवा ईश्वर के लिये,
जिनमें यह पहचानना कठिन है,
कौन विषैला,कौन कुचैला.

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सिंह अवलोकन --------------

आज भी पटरियों परदौड़ती हैं रेल,

धुँये फुफकारती ट्रेन,
अब शिष्ट हैं-
नहीं बनाती काले बादल जमीन पर,
इन पटरियों के काले बाजुओं के बीच
चमकता था एक चाँदी सा दिल,
जिन पर कदमों को आगे-पीछे कर.
साथी की बाँह पकड़
चलना ही था मंज़िल,
पटरियों पर कान रखकर,
लोहे के पसीने के बीच,
सुनाई देती थी आवाज़,
जो अदृश्य की पुकार थी.
किसी विरह का क्रंदन
और मिलन की उल्टी गिनती
गुँथे रहते काले बालों में मोगरे की गज़रे की तरह-
कुछ आशा के स्वर,उजड़ने-बसने के
पटरियाँ आज भी हैं.
जिन पर दौड़ती है,
तेज.मद्धिम और मंद बुद्धि गाड़ियाँ,
उनकी राह एक हैं,
पर कनफुसे स्वर सो गये हैं,
जिनसे पटरियों के दिल
चमकते थे चाँदी से.

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कविता--------

जो पढ़ी-लिखी,कही-सुनी न हो,हो सकती है एक कविता,

भाव,धड़कन,रूप शब्द पहन लें,
तो वह मर जाती है,
नंगापन ही उसका शील है,
जैसे छूने से छछूँदर मर जाता है,
उसे न छूने तक हो सकती है कविता,
भाद्र-शुक्ल के किसी कुल पतित निर्मल आकाश में,
काले सिंथेटिक रूई के फ़ाहे से कंजूस बादल.
चाँद पर चरखा कातती बुढ़िया का चेहरा ढक देते हैं,
जिसमें मॉं और दादी जिसे कभी नहीं देखा,
को देखने का अवसर आ रहा था,
हो सकती थी एक कविता.
जो दो महीने की हमाल की तरह गिर गया,
बुलबुला एक पानी का,
जो चमकता तैर रहा था,कुछ दूर चल फूट गया,
हो सकती थी एक पूर्ण कविता,
आधे मिनट के विलंब से स्टेशन पहुँचने पर,
तीन माह पूर्व आरक्षण वाली ट्रेन,
सामने से रेंगती निकल गयी,
और भक् से बैठ गया था दिल.
क्यूँकि दिल्ली दूर नहीं थी.
पैसे वापस मिलते ही कविता मर गयी,
पुत्रवधु ने जब इकलौती प्यारी छोटी ननद को,
मना कर दिया था खर्चे के नाम पर,
सिर्फ एक शादी का जोड़ा देने को-
और पेंशन वाले पिता के दिल का ग्लेशियर,
अंदर ही अंदर पिघला था,
तो ज़िंदा थी एक कविता,
जो शहनाई की आवाज़ मद्धिम होते ही,
मर गयी थी-
छुईमुई है कविता-
चाहे हाथ से छुओ या कलम से,या फिर लबों से,
तेज॒ आवाज़ से भी लजाती है कविता,
रहने दो इसे गँधाते नाले के चबूतरे के पास ही,
कि चंद साँसें और पा ले कविता.

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लोहिया पार्क------------

अचानक पैदा एक सतमासी सुबह में,एक भोर उग रहा था.
पैसे लेनेवाला अभी सो रहा था,
बिन पैसेवाला वह आदमी,
चोर निगाहों से इधर-उधर देखते हुये.
लोहे के जंगले के फॉंक से-
घुस गया चूहे की तरह गुप्प से,
बड़े दरख़्त जो कभी पौधे नहीं रहे,
खड़े थे सर्कस के शेर की तरह,
चाँदनी,गंधराज और कुछ गंधहीन रंगीन फूल,
स्वर्ग के छाया-चित्र जैसे,
बिन टिकट पैसेवाला इसपर खुश था.
कि वह छाया-चित्र का हक़दार तो है,
कुछ बदबूदार तोंदवाले चल रहे थे,लुढ़क रहे थे-
जिसकी नंगई ब्राडेड टी-शर्ट रोक नहीं पा रहे थे,
उनसे दस कदम पीछे,
शायद उनकी घरवालियाँ भग्न विमान सी चल रही थी,
उनके मेकअप उतरे चेहरे,
उबले आलूओं सी थी,
जिनके छिलके कहीं-कहीं उतर आये थे.
हवा का रूआब उसे संकेत में धमकाने लगा,

कुछ मटमैले पत्थर के उदास टुकड़े,आकाश की ओर ताक रहे थे
पत्थरों पर कुछ खुदा था,
जिसे जीवाश्म की तरह अब भी पढ़ा जाना था,
अशोक के लाट में उस आदमी ने देखा था उत्कीर्ण कुछ.
बस इतना ही समझा कि वह महान था,
जैसे सिकंदर-
इतिहास विजेताओं का है,जानता था,
वह बिन पैसे,बिन टिकट का आदमी-
इस गलतफ़हमी में वह पारिजात के एक तने से टकरानेवाला था,
बचा-
वहाँ एक आदमी माथा टेक रहा था,
वह उससे अधिक समझदार था,
पुरा-कथा भिज्ञ आशावान.
जिसके लिये भविष्य को एक नमस्कार बुरा सौदा नहीं धा,
हँस का एक दल सरोवर में तैर रहा था.
वे मानस के हँस नहीं थे,
सम्मानित मोहल्ले के समझदार जीव थे,
बिन पैसे के आदमी को देख,
हँस का दल सरक आया था किनारे कि,
मुफ्त के दाने कुछ मिले.
उनकी आँखों में मजबूरी थी,जो लालच में लिपटी थी,
दफ्तर के बाबूओं सी हँसों की झक् पोशाक से ,

वह डर गया था,कोई टिकट न माँग ले-और पीटने लगे हरामख़ोर कहकर,
घबराया आदमी भागने लगा,
उस आदमी के पास से-
जो बुझे पेट्रोमैक्स सा दिख रहा था,
अंगरक्षक दारोगा उसे घूरने लगा.
डरा आदमी लोहे के जंगले के फाँक से,
फुदक गया खरगोश की तरह,
एक लंबी साँस ली जी भरकर,
जो अब तक घुट रहा था.

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अभी है...--------

अंत नहीं होता,कुछ रहता है शेष-मिले अवसर तो पूछना कभी.

जो सो गया नहीं जागने के लिये,
उसके मुख पर जो शांति है,
और है एक स्मित मुस्कान,
वह छूटे दिन पा जाने की खुशी है,
जिसे तलाशता रहा होगा ताउम्र,
टूथ पेस्ट के ट्यूब को बेलन से निचोड़,
सुबह की एक ताज़गी अब भी बची थी,
गाल पर उग आये चितकबरे खूँटे बाल-
जिनकी गिनती सेंसस् में नहीं होती,
जो उग आये थे जब जाग नहीं रहे थे,
हटा दिया था उस रेज़र ने.
जिसे कल ही तुम फेंकने वाले थे,
चावल के कनस्तर में बचा एक मुठ्ठी चावल,
एक आश्वस्ति है,कि अभी भी कुछ है बचा,
कभी लगे खाली या खोटा,
तो देखना किसी कोने में,
किसी दीप का बिंदु बना एक लौ,
आत्ममंथन कर रहा है,
अब भी शेष है धीरज रखना,
उबरेगा,फिर उजरेगा,
बाती स्नेहासिक्त है,
दीप-गर्भ में है कुछ बूँदे स्नेह की अब भी.

- शेष

शून्य भय

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वह एक कवि था,

पर लिखता नहीं कोई कविता,

जैसे पानी पीने वाले ग्लास में,

रखे हों टूथ ब्रश,जीभिया और पेस्ट,

गिलास होते हुये भी,

प्यास,जल और धर्मच्युत,

वह एक कवि था,

लेकिन आदमी की तरह डरता था,

यह डर जमीन के नीचे दबे लैंडमाईन्स सा था,

किस पग पर कौन सा दगे,

और वह शहीद हो जाये,

और गिलास वीरानी में बदहवास हो,

हर पग के लिये छुपा बैठा है कोई,

कि मुताबिक पग न धरने पर,

धनका दे डोरी,

अब वह न कवि था न आदमी,

वह एक डर था,

जो बैठ गया था चुपचाप.

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द्विजा

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सुना था बेटियाँ सौभाग्य हैं,

पर बीस साल पहले दादी की हँसी,

मुस्कान की कली से बढ़ नहीं पायी,

धवल रात की पूर्णिमा में चंद्रग्रहण,

अंधेरा कुहासा बन उतर आया था,

पहलवान मित्र का दिलासा,

मर्द को ही होती हैं बेटियाँ-

कुछ सितार तोड़ लाया था,

आलू की क्यारियों से ताज़े निकले,

सबसे छोटे आलूओं की तरह-

नन्हीं ऊँगलियाँ,

होठों पर गुलाब के दो शबनमी पंखुड़ियाँ,

काली पुतलियों से रह रह कर,

निकलती बिजली की एक कौंध,

शिशु-शाविका का,

हर बुझे दीप में लौ भर रहा था,

उसकी हर नवकृति,एक-एक कर-

खोल रही थी स्वर्ग के सातों द्वार,

पहली बार दर्ज़ी के यहाँ-

टँगे उसके कपड़े देखकर,

अहसास हुआ कि अब वह,

शाविका से कुछ ज़्यादा है,

दूसरी बार जब कुमारी-भोज में,

पड़ोस से नहीं आया कोई निमंत्रण,

और पंसारी ने काले पॉलीथिन में,

लपेट कर दिया था उसका बचपन,

उन्मुक्त उड़ान पर एक चिमटा सा,

गार्गी,लोपामुद्रा,यामी या मैडम क्यूरी के,

बिंब-प्रतिबिंब रंग बदलने लगे,

एक दिन-

कल्पनायें जल्पनायें तिरोहित हुयीं,

एक शुभ्र संतान का जन्म हुआ जब,

मुझे एक रिक्शेवाले को डॉंटते देख,

गहरे दृष्टि से देखा था,और डाल पर बैठी-

बुलबुल को मैने उड़ा दिया था,

सौभाग्य छोटा ही होता है,

ह्रदय का विस्तार ही,

उदय और विस्तीर्ण होना,

और तभी,और बस तभी-

बेटियाँ जन्म लेती हैं.

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एक द्वंद

जो बीच में होता है बड़ा होता है,

हो न हो-

वैसे ही सृष्टि के बीच तुम,

हो न हो-

सूरज बीच में ग्रह फिर रहे,

हो न हो-

वह जो बीच में बैठे कुर्सी पर,

आचार्य ही रहे होंगे,

हो न हो-

वसंत-पंचमी के दिन लेखनी संस्कार में,

काले तिलक लगाये बालक और प्रतिमा के बीच,

एक पुरोहित था,

हो न हो-

कफ़,पित्त,वायु के बीच जो पित्त था,

जीवन-अग्नि बन बीच में खड़ा.

हो न हो-

घृणा और प्रेम के सीमाबिन्दु पर,

जो दीवार थी आश्वस्ति की,

हो न हो-

शरीर के मध्य जो डोलता था,काँपता था

हँसता था,रोता था,मरता था

वह ह्रदय था,

हो न हो-.